गुरुवार, 1 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

गुण-दोष-व्यवस्था का स्वरूप और रहस्य

 

श्रीभगवानुवाच

य एतान्मत्पथो हित्वा भक्तिज्ञानक्रियात्मकान्

क्षुद्रान्कामांश्चलैः प्राणैर्जुषन्तः संसरन्ति ते १

स्वे स्वेऽधिकारे या निष्ठा स गुणः परिकीर्तितः

विपर्ययस्तु दोषः स्यादुभयोरेष निश्चयः २

शुद्ध्यशुद्धी विधीयेते समानेष्वपि वस्तुषु

द्रव्यस्य विचिकित्सार्थं गुणदोषौ शुभाशुभौ

धर्मार्थं व्यवहारार्थं यात्रार्थमिति चानघ ३

दर्शितोऽयं मयाचारोधर्ममुद्वहतां धुरम् ४

भूम्यम्ब्वग्न्यनिलाकाशा भूतानां पञ्चधातवः

आब्रह्मस्थावरादीनां शारीरा आत्मसंयुताः ५

वेदेन नामरूपाणि विषमाणि समेष्वपि

धातुषूद्धव कल्प्यन्त एतेषां स्वार्थसिद्धये ६

देशकालादिभावानां वस्तूनां मम सत्तम

गुणदोषौ विधीयेते नियमार्थं हि कर्मणाम् ७

अकृष्णसारो देशानामब्रह्मण्योऽशुचिर्भवेत्

कृष्णसारोऽप्यसौवीर कीकटासंस्कृतेरिणम् ८

कर्मण्यो गुणवान्कालो द्रव्यतः स्वत एव वा

यतो निवर्तते कर्म स दोषोऽकर्मकः स्मृतः ९

द्रव्यस्य शुद्ध्यशुद्धी च द्रव्येण वचनेन च

संस्कारेणाथ कालेन महत्वाल्पतयाथ वा १०

शक्त्याशक्त्याथ वा बुद्ध्या समृद्ध्या च यदात्मने

अघं कुर्वन्ति हि यथा देशावस्थानुसारतः ११

धान्यदार्वस्थितन्तूनां रसतैजसचर्मणाम्

कालवाय्वग्निमृत्तोयैः पार्थिवानां युतायुतैः १२

अमेध्यलिप्तं यद्येन गन्धलेपं व्यपोहति

भजते प्रकृतिं तस्य तच्छौचं तावदिष्यते १३

स्नानदानतपोऽवस्था वीर्यसंस्कारकर्मभिः

मत्स्मृत्या चात्मनः शौचं शुद्धः कर्माचरेद्द्विजः १४

मन्त्रस्य च परिज्ञानं कर्मशुद्धिर्मदर्पणम्

धर्मः सम्पद्यते षड्भिरधर्मस्तु विपर्ययः १५

क्वचिद्गुणोऽपि दोषः स्याद्दोषोऽपि विधिना गुणः

गुणदोषार्थनियमस्तद्भिदामेव बाधते १६

समानकर्माचरणं पतितानां न पातकम्

औत्पत्तिको गुणः सङ्गो न शयानः पतत्यधः १७

यतो यतो निवर्तेत विमुच्येत ततस्ततः

एष धर्मो नृणां क्षेमः शोकमोहभयापहः १८

विषयेषु गुणाध्यासात्पुंसः सङ्गस्ततो भवेत्

सङ्गात्तत्र भवेत्कामः कामादेव कलिर्नृणाम् १९

कलेर्दुर्विषहः क्रोधस्तमस्तमनुवर्तते

तमसा ग्रस्यते पुंसश्चेतना व्यापिनी द्रुतम् २०

तया विरहितः साधो जन्तुः शून्याय कल्पते

ततोऽस्य स्वार्थविभ्रंशो मूर्च्छितस्य मृतस्य च २१

विषयाभिनिवेशेन नात्मानं वेद नापरम्

वृक्ष जीविकया जीवन्व्यर्थं भस्त्रेव यः श्वसन् २२

 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण कहते हैं—प्रिय उद्धव ! मेरी प्राप्तिके तीन मार्ग हैं—भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग। जो इन्हें छोडक़र चञ्चल इन्द्रियोंके द्वारा क्षुद्र भोग भोगते रहते हैं, वे बार-बार जन्म- मृत्युरूप संसारके चक्करमें भटकते रहते हैं ॥ १ ॥ अपने-अपने अधिकारके अनुसार धर्ममें दृढ़ निष्ठा रखना ही गुण कहा गया है और इसके विपरीत अनधिकार चेष्टा करना दोष है। तात्पर्य यह कि गुण और दोष दोनोंकी व्यवस्था अधिकारके अनुसार की जाती है, किसी वस्तुके अनुसार नहीं ॥ २ ॥ वस्तुओंके समान होनेपर भी शुद्धि-अशुद्धि, गुण-दोष और शुभ-अशुभ आदिका जो विधान किया जाता है, उसका अभिप्राय यह है कि पदार्थका ठीक-ठीक निरीक्षण-परीक्षण हो सके और उनमें सन्देह उत्पन्न करके ही यह योग्य है कि अयोग्य, स्वाभाविक प्रवृत्तिको नियन्ङ्क्षत्रत— संकुचित किया जा सके ॥ ३ ॥ उनके द्वारा धर्म-सम्पादन कर सके, समाजका व्यवहार ठीक-ठीक चला सके और अपने व्यक्तिगत जीवनके निर्वाहमें भी सुविधा हो। इससे यह लाभ भी है कि मनुष्य अपनी वासनामूलक सहज प्रवृत्तियोंके द्वारा इनके जालमें न फँसकर शास्त्रानुसार अपने जीवनको नियन्त्रित और मनको वशीभूत कर लेता है। निष्पाप उद्धव ! यह आचार मैंने ही मनु आदिका रूप धारण करके धर्मका भार ढोनेवाले कर्मजडोंके लिये उपदेश किया है ॥ ४ ॥ पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश—ये पञ्चभूत ही ब्रह्मासे लेकर पर्वत-वृक्षपर्यन्त सभी प्राणियोंके शरीरोंके मूलकारण हैं। इस तरह वे सब शरीरकी दृष्टिसे तो समान हैं ही, सबका आत्मा भी एक ही है ॥ ५ ॥ प्रिय उद्धव ! यद्यपि सबके शरीरोंके पञ्चभूत समान हैं; फिर भी वेदोंने इनके वर्णाश्रम आदि अलग- अलग नाम और रूप इसलिये बना दिये हैं कि ये अपनी वासना-मूलक प्रवृत्तियोंको संकुचित करके—नियन्त्रित करके धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष—इन चारों पुरुषार्थोंको सिद्ध कर सकें ॥ ६ ॥ साधुश्रेष्ठ ! देश, काल, फल, निमित्त, अधिकारी और धान्य आदि वस्तुओंके गुण-दोषोंका विधान भी मेरे द्वारा इसीलिये किया गया है कि कर्मोंमें लोगोंकी उच्छृङ्खल प्रवृत्ति न हो, मर्यादाका भङ्ग न होने पावे ॥ ७ ॥ देशोंमें वह देश अपवित्र है, जिसमें कृष्णसार मृग न हों और जिसके निवासी ब्राह्मणभक्त न हों। कृष्णसार मृगके होनेपर भी, केवल उन प्रदेशोंको छोडक़र जहाँ संत पुरुष रहते हैं, कीकट देश अपवित्र ही है। संस्काररहित और ऊसर आदि स्थान भी अपवित्र ही होते हैं ॥ ८ ॥ समय वही पवित्र है, जिसमें कर्म करनेयोग्य सामग्री मिल सके तथा कर्म भी हो सके। जिसमें कर्म करनेकी सामग्री न मिले आगन्तुक दोषोंसे अथवा स्वाभाविक दोषके कारण जिसमें कर्म ही न हो सके, वह समय अशुद्ध है ॥ ९ ॥ पदार्थोंकी शुद्धि और अशुद्धि द्रव्य, वचन, संस्कार, काल, महत्त्व अथवा अल्पत्वसे भी होती है। (जैसे कोई पात्र जलसे शुद्ध और मूत्रादिसे अशुद्ध हो जाता है। किसी वस्तुकी शुद्धि अथवा अशुद्धिमें शंका होनेपर ब्राह्मणोंके वचनसे वह शुद्ध हो जाती है अन्यथा अशुद्ध रहती है। पुष्पादि जल छिडक़नेसे शुद्ध और सूँघने से अशुद्ध माने जाते हैं। तत्कालका पकाया हुआ अन्न शुद्ध और बासी अशुद्ध माना जाता है। बड़े सरोवर और नदी आदिका जल शुद्ध और छोटे गड्ढोंका अशुद्ध माना जाता है। इस प्रकार क्रमसे समझ लेना चाहिये।) ॥ १० ॥ शक्ति, अशक्ति, बुद्धि और वैभवके अनुसार भी पवित्रता और अपवित्रताकी व्यवस्था होती है। उसमें भी स्थान और उपयोग करनेवालेकी आयुका विचार करते हुए ही अशुद्ध वस्तुओंके व्यवहारका दोष ठीक तरहसे आँका जाता है। (जैसे धनी-दरिद्र, बलवान्-निर्बल, बुद्धिमान्-मूर्ख, उपद्रवपूर्ण और सुखद देश तथा तरुण एवं वृद्धावस्थाके भेदसे शुद्धि और अशुद्धिकी व्यवस्थामें अन्तर पड़ जाता है।) ॥ ११ ॥ अनाज, लकड़ी, हाथीदाँत आदि हड्डी, सूत, मधु, नमक, तेल, घी आदि रस, सोना- पारा आदि तैजस पदार्थ, चाम और घड़ा आदि मिट्टीके बने पदार्थ समयपर अपने-आप हवा लगनेसे, आगमें जलानेसे, मिट्टी लगानेसे अथवा जलमें धोनेसे शुद्ध हो जाते हैं। देश, काल और अवस्थाके अनुसार कहीं जल-मिट्टी आदि शोधक सामग्रीके संयोगसे शुद्धि करनी पड़ती है तो कहीं-कहीं एक-एकसे भी शुद्धि हो जाती है ॥ १२ ॥ यदि किसी वस्तुमें कोई अशुद्ध पदार्थ लग गया हो तो छीलनेसे या मिट्टी आदि मलनेसे जब उस पदार्थकी गन्ध और लेप न रहे और वह वस्तु अपने पूर्वरूपमें आ जाय, तब उसको शुद्ध समझना चाहिये ॥ १३ ॥ स्नान, दान, तपस्या, वय, सामथ्र्य, संस्कार, कर्म और मेरे स्मरणसे चित्तकी शुद्धि होती है। इनके द्वारा शुद्ध होकर ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यको विहित कर्मोंका आचरण करना चाहिये ॥ १४ ॥ गुरुमुखसे सुनकर भलीभाँति हृदयङ्गम कर लेनेसे मन्त्रकी और मुझे समर्पित कर देनेसे कर्मकी शुद्धि होती है। उद्धवजी ! इस प्रकार देश, काल, पदार्थ, कर्ता, मन्त्र और कर्म—इन छहोंके शुद्ध होनेसे धर्म और अशुद्ध होनेसे अधर्म होता है ॥ १५ ॥ कहीं-कहीं शास्त्रविधिसे गुण दोष हो जाता है और दोष गुण। (जैसे ब्राह्मणके लिये सन्ध्या-वन्दन, गायत्री-जप आदि गुण हैं; परन्तु शूद्रके लिये दोष हैं। और दूध आदिका व्यापार वैश्यके लिये विहित है; परन्तु ब्राह्मणके लिये अत्यन्त निषिद्ध है।) एक ही वस्तुके विषयमें किसीके लिये गुण और किसीके लिये दोषका विधान गुण और दोषोंकी वास्तविकताका खण्डन कर देता है और इससे यह निश्चय होता है कि गुण-दोषका यह भेद कल्पित है ॥ १६ ॥ जो लोग पतित हैं, वे पतितोंका-सा आचरण करते हैं तो उन्हें पाप नहीं लगता, जब कि श्रेष्ठ पुरुषोंके लिये वह सर्वथा त्याज्य होता है। जैसे गृहस्थोंके लिये स्वाभाविक होनेके कारण अपनी पत्नीका सङ्ग पाप नहीं है; परन्तु संन्यासीके लिये घोर पाप है। उद्धवजी ! बात तो यह है कि जो नीचे सोया हुआ है, वह गिरेगा कहाँ ? वैसे ही जो पहलेसे ही पतित हैं, उनका अब और पतन क्या होगा ? ॥ १७ ॥ जिन-जिन दोषों और गुणोंसे मनुष्यका चित्त उपरत हो जाता है, उन्हीं वस्तुओंके बन्धनसे वह मुक्त हो जाता है। मनुष्योंके लिये यह निवृत्तिरूप धर्म ही परम कल्याणका साधन है; क्योंकि यही शोक, मोह और भयको मिटानेवाला है ॥ १८ ॥

उद्धवजी ! विषयोंमें कहीं भी गुणोंका आरोप करनेसे उस वस्तुके प्रति आसक्ति हो जाती है। आसक्ति होनेसे उसे अपने पास रखनेकी कामना हो जाती है और इस कामनाकी पूर्तिमें किसी प्रकारकी बाधा पडऩेपर लोगोंमें परस्पर कलह होने लगता है ॥ १९ ॥ कलहसे असह्य क्रोधकी उत्पत्ति होती है और क्रोधके समय अपने हित-अहितका बोध नहीं रहता, अज्ञान छा जाता है। इस अज्ञानसे शीघ्र ही मनुष्यकी कार्याकार्यका निर्णय करने-वाली व्यापक चेतनाशक्ति लुप्त हो जाती है ॥ २० ॥ साधो ! चेतनाशक्ति अर्थात् स्मृतिके लुप्त हो जानेपर मनुष्यमें मनुष्यता नहीं रह जाती, पशुता आ जाती है और वह शून्यके समान अस्तित्वहीन हो जाता है। अब उसकी अवस्था वैसी ही हो जाती है, जैसे कोई मूचर्छित या मुर्दा हो। ऐसी स्थितिमें न तो उसका स्वार्थ बनता है और न तो परमार्थ ॥ २१ ॥ विषयोंका चिन्तन करते-करते वह विषयरूप हो जाता है। उसका जीवन वृक्षोंके समान जड हो जाता है। उसके शरीरमें उसी प्रकार व्यर्थ श्वास चलता रहता है, जैसे लुहारकी धौंकनीकी हवा। उसे न अपना ज्ञान रहता है और न किसी दूसरेका। वह सर्वथा आत्मवञ्चित हो जाता है ॥ २२ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



बुधवार, 31 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग

 

यदाऽऽरंभेषु निर्विण्णो विरक्तः संयतेंद्रियः ।

 अभ्यासेनात्मनो योगी धारयेद् अचलं मनः ॥ १८ ॥

 धार्यमाणं मनो यर्हि भ्राम्यत् आशु अनवस्थितम् ।

 अतन्द्रितोऽनुरोधेन मार्गेणात्मवशं नयेत् ॥ १९ ॥

 मनोगतिं न विसृजेत् जितप्राणो जितेंद्रियः ।

 सत्त्वसंपन्नया बुद्ध्या मन आत्मवशं नयेत् ॥ २० ॥

 एष वै परमो योगो मनसः सङ्ग्रहः स्मृतः ।

 हृदयज्ञत्वमन्विच्छन् दम्यस्येवार्वतो मुहुः ॥ २१ ॥

 साङ्ख्येन सर्वभावानां प्रतिलोमानुलोमतः ।

 भवाप्ययावनुध्यायेन् मनो यावत्प्रसीदति ॥ २२ ॥

 निर्विण्णस्य विरक्तस्य पुरुषस्योक्तवेदिनः ।

 मनस्त्यजति दौरात्म्यं चिन्तितस्यानुचिन्तया ॥ २३ ॥

 यमादिभिः योगपथैः आन्वीक्षिक्या च विद्यया ।

 ममार्चोपासनाभिर्वा नान्यैर्योग्यं स्मरेन्मनः ॥ २४ ॥

 यदि कुर्यात्प्रमादेन योगी कर्म विगर्हितम् ।

 योगेनैव दहेदंहो नान्यत्तत्र कदाचन ॥ २५ ॥

 स्वे स्वेऽधिकारे या निष्ठा स गुणः परिकीर्तितः ।

 कर्मणां जात्यशुद्धानां अनेन नियमः कृतः ।

 गुणदोषविधानेन सङ्गानां त्याजनेच्छया ॥ २६ ॥

 जातश्रद्धो मत्कथासु निर्विण्णः सर्वकर्मसु ।

 वेद दुःखात्मकान् कामान् परित्यागेऽप्यनीश्वरः ॥ २७ ॥

 ततो भजेत मां प्रीतः श्रद्धालुर्दृढनिश्चयः ।

 जुषमाणश्च तान्कामान् दुःखोदर्कांश्च गर्हयन् ॥ २८ ॥

 प्रोक्तेन भक्तियोगेन भजतो मासकृन्मुनेः ।

 कामा हृदय्या नश्यन्ति सर्वे मयि हृदि स्थिते ॥ २९ ॥

 भिद्यते हृदयग्रन्थिः छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।

 क्षीयन्ते चास्य कर्माणि मयि दृष्टेऽखिलात्मनि ॥ ३० ॥

 तस्मान्मद्‍भक्तियुक्तस्य योगिनो वै मदात्मनः ।

 न ज्ञानं न च वैराग्यं प्रायः श्रेयो भवेदिह ॥ ३१ ॥

 यत्कर्मभिर्यत्तपसा ज्ञानवैराग्यतश्च यत् ।

 योगेन दानधर्मेण श्रेयोभिः इतरैरपि ॥ ३२ ॥

 सर्वं मद्‍भक्तियोगेन मद्‍भक्तो लभतेऽञ्जसा ।

 स्वर्गापवर्गं मद्धाम कथञ्चिद् यदि वाञ्छति ॥ ३३ ॥

 न किञ्चित् साधवो धीरा भक्ता ह्येकान्तिनो मम ।

 वाञ्छन्त्यपि मया दत्तं कैवल्यं अपुनर्भवम् ॥ ३४ ॥

 नैरपेक्ष्यं परं प्राहुः निःश्रेयसमनल्पकम् ।

 तस्मान्निराशिषो भक्तिः निरपेक्षस्य मे भवेत् ॥ ३५ ॥

 न मय्येकान्तभक्तानां गुणदोषोद्‍भवा गुणाः ।

 साधूनां समचित्तानां बुद्धेः परमुपेयुषाम् ॥ ३६ ॥

 एवमेतान्मया दिष्टान् अनुतिष्ठन्ति मे पथः ।

 क्षेमं विन्दन्ति मत्स्थानं यद्‍ ब्रह्म परमं विदुः ॥ ३७ ॥

 

प्रिय उद्धव ! जब पुरुष दोषदर्शन  के कारण कर्मोंसे उद्विग्न और विरक्त हो जाय, तब जितेन्द्रिय होकर वह योगमें स्थित हो जाय और अभ्यास—आत्मानुसन्धान के द्वारा अपना मन मुझ परमात्मामें निश्चलरूपसे धारण करे ॥ १८ ॥ जब स्थिर करते समय मन चञ्चल होकर इधर-उधर भटकने लगे, तब झटपट बड़ी सावधानीसे उसे मनाकर, समझा-बुझाकर, फुसलाकर अपने वशमें कर ले ॥ १९ ॥ इन्द्रियों और प्राणोंको अपने वशमें रखे और मनको एक क्षणके लिये भी स्वतन्त्र न छोड़े। उसकी एक-एक चाल, एक-एक हरकतको देखता रहे। इस प्रकार सत्त्वसम्पन्न बुद्धिके द्वारा धीरे-धीरे मनको अपने वशमें कर लेना चाहिये ॥ २० ॥ जैसे सवार घोड़ेको अपने वशमें करते समय उसे अपने मनोभावकी पहचान कराना चाहता है—अपनी इच्छाके अनुसार उसे चलाना चाहता है और बार-बार फुसलाकर उसे अपने वशमें कर लेता है, वैसे ही मनको फुसलाकर, उसे मीठी-मीठी बातें सुनाकर वशमें कर लेना भी परम योग है ॥ २१ ॥ सांख्यशास्त्रमें प्रकृतिसे लेकर शरीरपर्यन्त सृष्टिका जो क्रम बतलाया गया है, उसके अनुसार सृष्टि-चिन्तन करना चाहिये और जिस क्रमसे शरीर आदिका प्रकृतिमें लय बताया गया है, उस प्रकार लय-चिन्तन करना चाहिये। यह क्रम तबतक जारी रखना चाहिये, जबतक मन शान्त—स्थिर न हो जाय ॥ २२ ॥ जो पुरुष संसारसे विरक्त हो गया है और जिसे संसारके पदार्थोंमें दु:ख-बुद्धि हो गयी है, वह अपने गुरुजनोंके उपदेशको भलीभाँति समझकर बार-बार अपने स्वरूपके ही चिन्तनमें संलग्न  रहता है। इस अभ्याससे बहुत शीघ्र ही उसका मन अपनी वह चञ्चलता, जो अनात्मा शरीर आदिमें आत्मबुद्धि करनेसे हुई है, छोड़ देता है ॥ २३ ॥ यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि आदि योगमार्गोंसे, वस्तुतत्त्वका निरीक्षण-परीक्षण करनेवाली आत्मविद्यासे तथा मेरी प्रतिमाकी उपासनासे—अर्थात् कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोगसे मन परमात्माका चिन्तन करने लगता है; और कोई उपाय नहीं है ॥ २४ ॥

उद्धवजी ! वैसे तो योगी कभी कोई निन्दित कर्म करता ही नहीं; परन्तु यदि कभी उससे प्रमादवश कोई अपराध बन जाय तो योगके द्वारा ही उस पापको जला डाले, कृच्छ्रचान्द्रायण आदि दूसरे प्रायश्चित्त कभी न करे ॥ २५ ॥ अपने-अपने अधिकारमें जो निष्ठा है, वही गुण कहा गया है। इस गुण-दोष और विधि-निषेधके विधानसे यही तात्पर्य निकलता है कि किसी प्रकार विषयासक्तिका परित्याग हो जाय; क्योंकि कर्म तो जन्मसे ही अशुद्ध हैं, अनर्थके मूल हैं। शास्त्रका तात्पर्य उनका नियन्त्रण, नियम ही है। जहाँतक हो सके प्रवृत्तिका संकोच ही करना चाहिये ॥ २६ ॥ जो साधक समस्त कर्मोंसे विरक्त हो गया हो, उनमें दु:खबुद्धि रखता हो, मेरी लीलाकथाके प्रति श्रद्धालु हो और यह भी जानता हो कि सभी भोग और भोगवासनाएँ दु:खरूप हैं, किन्तु इतना सब जानकर भी जो उनके परित्यागमें समर्थ न हो, उसे चाहिये कि उन भोगोंको तो भोग ले; परन्तु उन्हें सच्चे हृदयसे दु:खजनक समझे और मन-ही-मन उनकी निन्दा करे तथा उसे अपना दुर्भाग्य ही समझे। साथ ही इस दुविधाकी स्थितिसे छुटकारा पानेके लिये श्रद्धा, दृढ़ निश्चय और प्रेमसे मेरा भजन करे ॥ २७-२८ ॥ इस प्रकार मेरे बतलाये हुए भक्तियोगके द्वारा निरन्तर मेरा भजन करनेसे मैं उस साधकके हृदयमें आकर बैठ जाता हूँ और मेरे विराजमान होते ही उसके हृदयकी सारी वासनाएँ अपने संस्कारोंके साथ नष्ट हो जाती हैं ॥ २९ ॥ इस तरह जब उसे मुझ सर्वात्माका साक्षात्कार हो जाता है, तब तो उसके हृदयकी गाँठ टूट जाती है, उसके सारे संशय छिन्न- भिन्न हो जाते हैं और कर्मवासनाएँ सर्वथा क्षीण हो जाती हैं ॥ ३० ॥ इसीसे जो योगी मेरी भक्तिसे युक्त और मेरे चिन्तनमें मग्न रहता है, उसके लिये ज्ञान अथवा वैराग्यकी आवश्यकता नहीं होती। उसका कल्याण तो प्राय: मेरी भक्तिके द्वारा ही हो जाता है ॥ ३१ ॥ कर्म, तपस्या, ज्ञान, वैराग्य, योगाभ्यास, दान, धर्म और दूसरे कल्याणसाधनोंसे जो कुछ स्वर्ग, अपवर्ग, मेरा परम धाम अथवा कोई भी वस्तु प्राप्त होती है, वह सब मेरा भक्त मेरे भक्तियोगके प्रभावसे ही, यदि चाहे तो, अनायास प्राप्त कर लेता है ॥ ३२-३३ ॥ मेरे अनन्यप्रेमी एवं धैर्यवान् साधु भक्त स्वयं तो कुछ चाहते ही नहीं; यदि मैं उन्हें देना चाहता हूँ और देता भी हूँ तो भी दूसरी वस्तुओंकी तो बात ही क्या—वे कैवल्य-मोक्ष भी नहीं लेना चाहते ॥ ३४ ॥ उद्धवजी ! सबसे श्रेष्ठ एवं महान् नि:श्रेयस (परम कल्याण) तो निरपेक्षताका ही दूसरा नाम है। इसलिये जो निष्काम और निरपेक्ष होता है, उसीको मेरी भक्ति प्राप्त होती है ॥ ३५ ॥ मेरे अनन्यप्रेमी भक्तोंका और उन समदर्शी महात्माओंका; जो बुद्धिसे अतीत परमतत्त्वको प्राप्त हो चुके हैं, इन विधि और निषेधसे होनेवाले पुण्य और पापसे कोई सम्बन्ध ही नहीं होता ॥ ३६ ॥ इस प्रकार जो लोग मेरे बतलाये हुए इन ज्ञान, भक्ति और कर्ममार्गोंका आश्रय लेते हैं, वे मेरे परम कल्याणस्वरूप धामको प्राप्त होते हैं, क्योंकि वे परब्रह्मतत्त्वको जान लेते हैं ॥ ३७ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां एकादशस्कन्धे विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग

 

 श्रीउद्धव उवाच -

 विधिश्च प्रतिषेधश्च निगमो हि ईश्वरस्य ते ।

 अवेक्षते अरविंदाक्ष गुणं दोषं च कर्मणाम् ॥ १ ॥

 वर्णाश्रमविकल्पं च प्रतिलोमानुलोमजम् ।

 द्रव्यदेशवयः कालान् स्वर्गं नरकमेव च ॥ २ ॥

 गुणदोषभिदादृष्टिं अंतरेण वचस्तव ।

 निःश्रेयसं कथं नॄणां निषेध विधिलक्षणम् ॥ ३ ॥

 पितृ देव मनुष्यानां वेदश्चक्षुस्तवेश्वर ।

 श्रेयस्त्वनुपलब्धेऽर्थे साध्यसाधनयोरपि ॥ ४ ॥

 गुणदोषभिदादृष्टिः निगमात्ते न हि स्वतः ।

 निगमेनापवादश्च भिदाया इति ह भ्रमः ॥ ५ ॥

 

 श्रीभगवानुवाच -

 योगास्त्रयो मया प्रोक्ता नृणां श्रेयोविधित्सया ।

 ज्ञानं कर्म च भक्तिश्च नोपायोऽन्योऽस्ति कुत्रचित् ॥ ६ ॥

 निर्विण्णानां ज्ञानयोगो न्यासिनामिह कर्मसु ।

 तेषु अनिर्विण्णचित्तानां कर्मयोगस्तु कामिनाम् ॥ ७ ॥

 यदृच्छया मत्कथादौ जातश्रद्धस्तु यः पुमान् ।

 न निर्विण्णो नातिसक्तो भक्तियोगोऽस्य सिद्धिदः ॥ ८ ॥

 तावत् कर्माणि कुर्वीत न निर्विद्येत यावता ।

 मत्कथाश्रवणादौ वा श्रद्धा यावन्न जायते ॥ ९ ॥

 स्वधर्मस्थो यजन् यज्ञैः अनाशीःकाम उद्धव ।

 न याति स्वर्गनरकौ यद्यन्यन् न समाचरेत् ॥ १० ॥

 अस्मिंल्लोके वर्तमानः स्वधर्मस्थोऽनघः शुचिः ।

 ज्ञानं विशुद्धमाप्नोति मद्‍भक्तिं वा यदृच्छया ॥ ११ ॥

 स्वर्गिणोऽप्येतमिच्छंति लोकं निरयिणस्तथा ।

 साधकं ज्ञानभक्तिभ्यां उभयं तद् असाधकम् ॥ १२ ॥

 न नरः स्वर्गतिं काङ्क्षेत् नारकीं वा विचक्षणः ।

 न इमं लोकं च काङ्क्षेत देहावेशात् प्रमाद्यति ॥ १३ ॥

 एतद् विद्वान् पुरा मृत्योः अभवाय घटेत सः ।

 अप्रमत्त इदं ज्ञात्वा मर्त्यमप्यर्थसिद्धिदम् ॥ १४ ॥

 छिद्यमानं यमैः एतैः कृतनीडं वनस्पतिम् ।

 खगः स्वकेतं उत्सृज्य क्षेमं याति ह्यलंपटः ॥ १५ ॥

 अहोरात्रैः छिद्यमानं बुद्ध्वाऽऽयुर्भयवेपथुः ।

 मुक्तसङ्गः परं बुद्ध्वा निरीह उपशाम्यति ॥ १६ ॥

 नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभं

     प्लवं सुकल्पं गुरुकर्णधारम् ।

 मयानुकूलेन नभस्वतेरितं

     पुमान् भवाब्धिं न तरेत् स आत्महा ॥ १७ ॥

 

उद्धवजीने कहा—कमलनयन श्रीकृष्ण ! आप सर्वशक्तिमान् हैं। आपकी आज्ञा ही वेद है; उसमें कुछ कर्मोंको करनेकी विधि है और कुछके करनेका निषेध है। यह विधि-निषेध कर्मोंके गुण और दोषकी परीक्षा करके ही तो होता है ॥ १ ॥ वर्णाश्रम-भेद, प्रतिलोम और अनुलोमरूप वर्णसंकर, कर्मोंके उपयुक्त और अनुपयुक्त द्रव्य, देश, आयु और काल तथा स्वर्ग और नरकके भेदोंका बोध भी वेदोंसे ही होता है ॥ २ ॥ इसमें सन्देह नहीं कि आपकी वाणी ही वेद है, परन्तु उसमें विधि-निषेध ही तो भरा पड़ा है। यदि उसमें गुण और दोषमें भेद करनेवाली दृष्टि न हो, तो वह प्राणियोंका कल्याण करनेमें समर्थ ही कैसे हो ? ॥ ३ ॥ सर्वशक्तिमान् परमेश्वर ! आपकी वाणी वेद ही पितर, देवता और मनुष्योंके लिये श्रेष्ठ मार्ग-दर्शकका काम करता है; क्योंकि उसीके द्वारा स्वर्ग-मोक्ष आदि अदृष्ट वस्तुओंका बोध होता है और इस लोकमें भी किसका कौन-सा साध्य है और क्या साधन— इसका निर्णय भी उसीसे होता है ॥ ४ ॥ प्रभो ! इसमें सन्देह नहीं कि गुण और दोषोंमें भेददृष्टि आपकी वाणी वेदके ही अनुसार है, किसीकी अपनी कल्पना नहीं; परन्तु प्रश्र तो यह है कि आपकी वाणी ही भेदका निषेध भी करती है। यह विरोध देखकर मुझे भ्रम हो रहा है। आप कृपा करके मेरा यह भ्रम मिटाइये ॥५॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—प्रिय उद्धव ! मैंने ही वेदोंमें एवं अन्यत्र भी मनुष्योंका कल्याण करनेके लिये अधिकारिभेदसे तीन प्रकारके योगोंका उपदेश किया है। वे हैं—ज्ञान, कर्म और भक्ति। मनुष्यके परम कल्याणके लिये इनके अतिरिक्त और कोई उपाय कहीं नहीं है ॥ ६ ॥ उद्धवजी ! जो लोग कर्मों तथा उनके फलोंसे विरक्त हो गये हैं और उनका त्याग कर चुके हैं, वे ज्ञानयोगके अधिकारी हैं। इसके विपरीत जिनके चित्तमें कर्मों और उनके फलोंसे वैराग्य नहीं हुआ है, उनमें दु:खबुद्धि नहीं हुई है, वे सकाम व्यक्ति कर्मयोगके अधिकारी हैं ॥ ७ ॥ जो पुरुष न तो अत्यन्त विरक्त है और न अत्यन्त आसक्त ही है तथा किसी पूर्वजन्मके शुभकर्मसे सौभाग्यवश मेरी लीला-कथा आदिमें उसकी श्रद्धा हो गयी है, वह भक्तियोगका अधिकारी है। उसे भक्तियोगके द्वारा ही सिद्धि मिल सकती है ॥ ८ ॥ कर्मके सम्बन्धमें जितने भी विधिनिषेध हैं, उनके अनुसार तभीतक कर्म करना चाहिये, जबतक कर्ममय जगत् और उसे प्राप्त होनेवाले स्वर्गादि सुखोंसे वैराग्य न हो जाय अथवा जबतक मेरी लीला-कथाके श्रवण-कीर्तन आदिमें श्रद्धा न हो जाय ॥ ९ ॥ उद्धव ! इस प्रकार अपने वर्ण और आश्रमके अनुकूल धर्ममें स्थित रहकर यज्ञोंके द्वारा बिना किसी आशा और कामनाके मेरी आराधना करता रहे और निषिद्ध कर्मोंसे दूर रहकर केवल विहित कर्मोंका ही आचरण करे तो उसे स्वर्ग या नरकमें नहीं जाना पड़ता ॥ १० ॥ अपने धर्ममें निष्ठा रखनेवाला पुरुष इस शरीरमें रहते-रहते ही निषिद्ध कर्मका परित्याग कर देता है और रागादि मलोंसे भी मुक्त—पवित्र हो जाता है। इसीसे अनायास ही उसे आत्मसाक्षात्काररूप विशुद्ध तत्त्वज्ञान अथवा द्रुत-चित्त होनेपर मेरी भक्ति प्राप्त होती है ॥ ११ ॥ यह विधि-निषेधरूप कर्मका अधिकारी मनुष्य-शरीर बहुत ही दुर्लभ है। स्वर्ग और नरक दोनों ही लोकोंमें रहनेवाले जीव इसकी अभिलाषा करते रहते हैं; क्योंकि इसी शरीरमें अन्त:करणकी शुद्धि होनेपर ज्ञान अथवा भक्तिकी प्राप्ति हो सकती है, स्वर्ग अथवा नरकका भोगप्रधान शरीर किसी भी साधनके उपयुक्त नहीं है। बुद्धिमान् पुरुषको न तो स्वर्गकी अभिलाषा करनी चाहिये और न नरककी ही। और तो क्या, इस मनुष्य-शरीरकी भी कामना न करनी चाहिये; क्योंकि किसी भी शरीरमें गुणबुद्धि और अभिमान हो जानेसे अपने वास्तविक स्वरूपकी प्राप्तिके साधनमें प्रमाद होने लगता है ॥ १२-१३ ॥ यद्यपि यह मनुष्य-शरीर है तो मृत्युग्रस्त ही, परन्तु इसके द्वारा परमार्थकी—सत्य वस्तुकी प्राप्ति हो सकती है। बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि यह बात जानकर मृत्यु होनेके पूर्व ही सावधान होकर ऐसी साधना कर ले, जिससे वह जन्म-मृत्युके चक्करसे सदाके लिये छूट जाय—मुक्त हो जाय ॥ १४ ॥ यह शरीर एक वृक्ष है। इसमें घोंसला बनाकर जीवरूप पक्षी निवास करता है। इसे यमराजके दूत प्रतिक्षण काट रहे हैं। जैसे पक्षी कटते हुए वृक्षको छोडक़र उड़ जाता है, वैसे ही अनासक्त जीव भी इस शरीरको छोडक़र मोक्षका भागी बन जाता है। परन्तु आसक्त जीव दु:ख ही भोगता रहता है ॥ १५ ॥ प्रिय उद्धव ! ये दिन और रात क्षण-क्षणमें शरीरकी आयुको क्षीण कर रहे हैं। यह जानकर जो भयसे काँप उठता है, वह व्यक्ति इसमें आसक्ति छोडक़र परमतत्त्वका ज्ञान प्राप्त कर लेता है और फिर इसके जीवन- मरणसे निरपेक्ष होकर अपने आत्मामें ही शान्त हो जाता है ॥ १६ ॥ यह मनुष्य-शरीर समस्त शुभ फलोंकी प्राप्तिका मूल है और अत्यन्त दुर्लभ होनेपर भी अनायास सुलभ हो गया है। इस संसार- सागरसे पार जानेके लिये यह एक सुदृढ़ नौका है। शरण-ग्रहणमात्रसे ही गुरुदेव इसके केवट बनकर पतवारका सञ्चालन करने लगते हैं और स्मरणमात्रसे ही मैं अनुकूल वायुके रूपमें इसे लक्ष्यकी ओर बढ़ाने लगता हूँ। इतनी सुविधा होनेपर भी जो इस शरीरके द्वारा संसार-सागरसे पार नहीं हो जाता, वह तो अपने हाथों अपने आत्माका हनन—अध:पतन कर रहा है ॥ १७ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०३)

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