शुक्रवार, 2 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)




 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

तत्त्वों की संख्या और पुरुष-प्रकृति-विवेक

 

पुरुषः प्रकृतिर्व्यक्तमहङ्कारो नभोऽनिलः

ज्योतिरापः क्षितिरिति तत्त्वान्युक्तानि मे नव १४

श्रोत्रं त्वग्दर्शनं घ्राणो जिह्वेति ज्ञानशक्तयः

वाक्पाण्युपस्थपाय्वङ्घ्रिः कर्माण्यङ्गोभयं मनः १५

शब्दः स्पर्शो रसो गन्धो रूपं चेत्यर्थजातयः

गत्युक्त्युत्सर्गशिल्पानि कर्मायतनसिद्धयः १६

सर्गादौ प्रकृतिर्ह्यस्य कार्यकारणरूपिणी

सत्त्वादिभिर्गुणैर्धत्ते पुरुषोऽव्यक्त ईक्षते १७

व्यक्तादयो विकुर्वाणा धातवः पुरुषेक्षया

लब्धवीर्याः सृजन्त्यण्डं संहताः प्रकृतेर्बलात् १८

सप्तैव धातव इति तत्रार्थाः पञ्च खादयः

ज्ञानमात्मोभयाधारस्ततो देहेन्द्रियासवः १९

षडित्यत्रापि भूतानि पञ्च षष्ठः परः पुमान्

तैर्युक्त आत्मसम्भूतैः सृष्ट्वेदं समपाविशत् २०

चत्वार्येवेति तत्रापि तेज आपोऽन्नमात्मनः

जातानि तैरिदं जातं जन्मावयविनः खलु २१

सङ्ख्याने सप्तदशके भूतमात्रेन्द्रियाणि च

पञ्च पञ्चैकमनसा आत्मा सप्तदशः स्मृतः २२

तद्वत्षोडशसङ्ख्याने आत्मैव मन उच्यते

भूतेन्द्रियाणि पञ्चैव मन आत्मा त्रयोदश २३

एकादशत्व आत्मासौ महाभूतेन्द्रियाणि च

अष्टौ प्रकृतयश्चैव पुरुषश्च नवेत्यथ २४

इति नानाप्रसङ्ख्यानं तत्त्वानामृषिभिः कृतम्

सर्वं न्याय्यं युक्तिमत्त्वाद्विदुषां किमशोभनम् २५

 

श्रीउद्धव उवाच

प्रकृतिः पुरुषश्चोभौ यद्यप्यात्मविलक्षणौ

अन्योन्यापाश्रयात्कृष्ण दृश्यते न भिदा तयोः

प्रकृतौ लक्ष्यते ह्यात्मा प्रकृतिश्च तथात्मनि २६

एवं मे पुण्डरीकाक्ष महान्तं संशयं हृदि

छेत्तुमर्हसि सर्वज्ञ वचोभिर्नयनैपुणैः २७

त्वत्तो ज्ञानं हि जीवानां प्रमोषस्तेऽत्र शक्तितः

त्वमेव ह्यात्ममायाया गतिं वेत्थ न चापरः २८

 

उद्धवजी ! (यदि तीनों गुणोंको प्रकृति से अलग मान लिया जाय, जैसा कि उनकी उत्पत्ति और प्रलयको देखते हुए मानना चाहिये, तो तत्त्वोंकी संख्या स्वयं ही अट्ठाईस हो जाती है। उन तीनोंके अतिरिक्त पचीस ये हैं—) पुरुष, प्रकृति, महत्तत्त्व, अहङ्कार, आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी—ये नौ तत्त्व मैं पहले ही गिना चुका हूँ ॥ १४ ॥ श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, नासिका और रसना—ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ; वाक्, पाणि, पाद, पायु और उपस्थ—ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ; तथा मन, जो कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय दोनों ही हैं। इस प्रकार कुल ग्यारह इन्द्रियाँ तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध— ये ज्ञानेन्द्रियोंके पाँच विषय। इस प्रकार तीन, नौ, ग्यारह और पाँच— सब मिलाकर अट्ठाईस तत्त्व होते हैं। कर्मेन्द्रियोंके द्वारा होनेवाले पाँच कर्म—चलना, बोलना, मल त्यागना, पेशाब करना और काम करना—इनके द्वारा तत्त्वोंकी संख्या नहीं बढ़ती। इन्हें कर्मेन्द्रियस्वरूप ही मानना चाहिये ॥ १५-१६ ॥ सृष्टिके आरम्भमें कार्य (ग्यारह इन्द्रिय और पञ्चभूत) और कारण (महत्तत्त्व आदि) के रूपमें प्रकृति ही रहती है। वही सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणकी सहायतासे जगत्की स्थिति, उत्पत्ति और संहारसम्बन्धी अवस्थाएँ धारण करती है। अव्यक्त पुरुष तो प्रकृति और उसकी अवस्थाओंका केवल साक्षीमात्र बना रहता है ॥ १७ ॥ महत्तत्त्व आदि कारण धातुएँ विकारको प्राप्त होते हुए पुरुषके ईक्षणसे शक्ति प्राप्त करके परस्पर मिल जाते हैं और प्रकृतिका आश्रय लेकर उसीके बलसे ब्रह्माण्डकी सृष्टि करते हैं ॥ १८ ॥

उद्धवजी ! जो लोग तत्त्वोंकी संख्या सात स्वीकार करते हैं, उनके विचारसे आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी—ये पाँच भूत, छठा जीव और सातवाँ परमात्मा—जो साक्षी जीव और साक्ष्य जगत् दोनोंका अधिष्ठान है—ये ही तत्त्व हैं। देह, इन्द्रिय और प्राणादिकी उत्पत्ति तो पञ्चभूतोंसे ही हुई है [ इसलिये वे इन्हें अलग नहीं गिनते ] ॥ १९ ॥ जो लोग केवल छ: तत्त्व स्वीकार करते हैं, वे कहते हैं कि पाँच भूत हैं और छठा है परमपुरुष परमात्मा। वह परमात्मा अपने बनाये हुए पञ्चभूतोंसे युक्त होकर देह आदिकी सृष्टि करता है और उनमें जीवरूपसे प्रवेश करता है। (इस मतके अनुसार जीवका परमात्मामें और शरीर आदिका पञ्चभूतोंमें समावेश हो जाता है) ॥ २० ॥ जो लोग कारणके रूपमें चार ही तत्त्व स्वीकार करते हैं, वे कहते हैं कि आत्मासे तेज, जल और पृथ्वीकी उत्पत्ति हुई है और जगत्में जितने पदार्थ हैं, सब इन्हींसे उत्पन्न होते हैं। वे सभी कार्योंका इन्हींमें समावेश कर लेते हैं ॥ २१ ॥ जो लोग तत्त्वोंकी संख्या सत्रह बतलाते हैं, वे इस प्रकार गणना करते हैं—पाँच भूत, पाँच तन्मात्राएँ ? पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, एक मन और एक आत्मा ॥ २२ ॥ जो लोग तत्त्वोंकी संख्या सोलह बतलाते हैं, उनकी गणना भी इसी प्रकार है। अन्तर केवल इतना ही है कि वे आत्मामें मनका भी समावेश कर लेते हैं और इस प्रकार उनकी तत्त्वसंख्या सोलह रह जाती है। जो लोग तेरह तत्त्व मानते हैं, वे कहते हैं कि आकाशादि पाँच भूत, श्रोत्रादि पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, एक, मन, एक जीवात्मा और परमात्मा—ये तेरह तत्त्व हैं ॥ २३ ॥ ग्यारह संख्या माननेवालोंने पाँच भूत, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और इनके अतिरिक्त एक आत्माका अस्तित्व स्वीकार किया है। जो लोग नौ तत्त्व मानते हैं, वे आकाशादि पाँच भूत और मन-बुद्धि अहंकार—ये आठ प्रकृतियाँ और नवाँ पुरुष—इन्हींको तत्त्व मानते हैं ॥ २४ ॥ उद्धवजी ! इस प्रकार ऋषि- मुनियोंने भिन्न-भिन्न प्रकारसे तत्त्वोंकी गणना की है। सबका कहना उचित ही है, क्योंकि सबकी संख्या युक्तियुक्त है। जो लोग तत्त्वज्ञानी हैं, उन्हें किसी भी मतमें बुराई नहीं दीखती। उनके लिये तो सब कुछ ठीक ही है ॥ २५ ॥

उद्धवजीने कहा—श्यामसुन्दर ! यद्यपि स्वरूपत: प्रकृति और पुरुष दोनों एक-दूसरेसे सर्वथा भिन्न हैं, तथापि वे आपसमें इतने घुल-मिल गये हैं कि साधारणत: उनका भेद नहीं जान पड़ता। प्रकृतिमें पुरुष और पुरुषमें प्रकृति अभिन्न-से प्रतीत होते हैं। इनकी भिन्नता स्पष्ट कैसे हो ? ॥ २६ ॥ कमलनयन श्रीकृष्ण ! मेरे हृदयमें इनकी भिन्नता और अभिन्नताको लेकर बहुत बड़ा सन्देह है। आप तो सर्वज्ञ हैं, अपनी युक्तियुक्त वाणीसे मेरे सन्देहका निवारण कर दीजिये ॥ २७ ॥ भगवन् ! आपकी ही कृपासे जीवोंको ज्ञान होता है और आपकी मायाशक्तिसे ही उनके ज्ञानका नाश होता है। अपनी आत्मस्वरूपिणी मायाकी विचित्र गति आप ही जानते हैं, और कोई नहीं जानता। अतएव आप ही मेरा सन्देह मिटानेमें समर्थ हैं ॥ २८ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

तत्त्वों की संख्या और पुरुष-प्रकृति-विवेक

 

श्रीउद्धव उवाच

कति तत्त्वानि विश्वेश सङ्ख्यातान्यृषिभिः प्रभो

नवैकादश पञ्च त्रीण्यात्थ त्वमिह शुश्रुम १

केचित्षड्विंशतिं प्राहुरपरे पञ्चविंशतिं

सप्तैके नव षट्केचिच्चत्वार्येकादशापरे

केचित्सप्तदश प्राहुः षोडशैके त्रयोदश २

एतावत्त्वं हि सङ्ख्यानामृषयो यद्विवक्षया

गायन्ति पृथगायुष्मन्निदं नो वक्तुमर्हसि ३

 

श्रीभगवानुवाच

युक्तं च सन्ति सर्वत्र भाषन्ते ब्राह्मणा यथा

मायां मदीयामुद्गृह्य वदतां किं नु दुर्घटम् ४

नैतदेवं यथात्थ त्वं यदहं वच्मि तत्तथा

एवं विवदतां हेतुं शक्तयो मे दुरत्ययाः ५

यासां व्यतिकरादासीद्विकल्पो वदतां पदम्

प्राप्ते शमदमेऽप्येति वादस्तमनु शाम्यति ६

परस्परानुप्रवेशात्तत्त्वानां पुरुषर्षभ

पौर्वापर्यप्रसङ्ख्यानं यथा वक्तुर्विवक्षितम् ७

एकस्मिन्नपि दृश्यन्ते प्रविष्टानीतराणि च

पूर्वस्मिन्वा परस्मिन्वा तत्त्वे तत्त्वानि सर्वशः ८

पौर्वापर्यमतोऽमीषां प्रसङ्ख्यानमभीप्सताम्

यथा विविक्तं यद्वक्त्रं गृह्णीमो युक्तिसम्भवात् ९

अनाद्यविद्यायुक्तस्य पुरुषस्यात्मवेदनम्

स्वतो न सम्भवादन्यस्तत्त्वज्ञो ज्ञानदो भवेत् १०

पुरुषेश्वरयोरत्र न वैलक्षण्यमण्वपि

तदन्यकल्पनापार्था ज्ञानं च प्रकृतेर्गुणः ११

प्रकृतिर्गुणसाम्यं वै प्रकृतेर्नात्मनो गुणाः

सत्त्वं रजस्तम इति स्थित्युत्पत्त्यन्तहेतवः १२

सत्त्वं ज्ञानं रजः कर्म तमोऽज्ञानमिहोच्यते

गुणव्यतिकरः कालः स्वभावः सूत्रमेव च १३

 

उद्धवजीने कहा—प्रभो ! विश्वेश्वर ! ऋषियोंने तत्त्वोंकी संख्या कितनी बतलायी है? आपने तो अभी (उन्नीसवें अध्याय में) नौ, ग्यारह, पाँच और तीन अर्थात् कुल अट्ठाईस तत्त्व गिनाये हैं। यह तो हम सुन चुके हैं ॥ १ ॥ किन्तु कुछ लोग छब्बीस तत्त्व बतलाते हैं तो कुछ पचीस; कोई सात, नौ अथवा छ: स्वीकार करते हैं, कोई चार बतलाते हैं तो कोई ग्यारह ॥ २ ॥ इसी प्रकार किन्हीं-किन्हीं ऋषि-मुनियोंके मतमें उनकी संख्या सत्रह है, कोई सोलह और कोई तेरह बतलाते हैं। सनातन श्रीकृष्ण ! ऋषि-मुनि इतनी भिन्न संख्याएँ किस अभिप्रायसे बतलाते हैं ? आप कृपा करके हमें बतलाइये ॥ ३ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—उद्धवजी ! वेदज्ञ ब्राह्मण इस विषयमें जो कुछ कहते हैं, वह सभी ठीक है; क्योंकि सभी तत्त्व सबमें अन्तर्भूत हैं। मेरी मायाको स्वीकार करके क्या कहना असम्भव है ? ॥ ४ ॥ ‘जैसा तुम कहते हो, वह ठीक नहीं है, जो मैं कहता हूँ, वही यथार्थ है’—इस प्रकार जगत् के कारणके सम्बन्धमें विवाद इसलिये होता है कि मेरी शक्तियों—सत्त्व, रज आदि गुणों और उनकी वृत्तियोंका रहस्य लोग समझ नहीं पाते; इसलिये वे अपनी-अपनी मनोवृत्तिपर ही आग्रह कर बैठते हैं ॥ ५ ॥ सत्त्व आदि गुणोंके क्षोभसे ही यह विविध कल्पनारूप प्रपञ्च—जो वस्तु नहीं केवल नाम है—उठ खड़ा हुआ है। यही वाद-विवाद करनेवालोंके विवादका विषय है। जब इन्द्रियाँ अपने वशमें हो जाती हैं तथा चित्त शान्त हो जाता है, तब यह प्रपञ्च भी निवृत्त हो जाता है और उसकी निवृत्तिके साथ ही सारे वाद-विवाद भी मिट जाते हैं ॥ ६ ॥ पुरुषशिरोमणे ! तत्त्वोंका एक-दूसरेमें अनुप्रवेश है, इसलिये वक्ता तत्त्वोंकी जितनी संख्या बतलाना चाहता है, उसके अनुसार कारणको कार्यमें अथवा कार्यको कारणमें मिलाकर अपनी इच्छित संख्या सिद्ध कर लेता है ॥ ७ ॥ ऐसा देखा जाता है कि एक ही तत्त्वमें बहुत-से दूसरे तत्त्वोंका अन्तर्भाव हो गया है। इसका कोई बन्धन नहीं है कि किसका किसमें अन्तर्भाव हो। कभी घट-पट आदि कार्य वस्तुओंका उनके कारण मिट्टी-सूत आदिमें, तो कभी मिट्टी-सूत आदिका घट-पट आदि कार्योंमें अन्तर्भाव हो जाता है ॥ ८ ॥ इसलिये वादी-प्रतिवादियोंमेंसे जिसकी वाणीने जिस कार्यको जिस कारणमें अथवा जिस कारणको जिस कार्यमें अन्तर्भूत करके तत्त्वोंकी जितनी संख्या स्वीकार की है, वह हम निश्चय ही स्वीकार करते हैं; क्योंकि उनका वह उपपादन युक्तिसङ्गत ही है ॥ ९ ॥

उद्धवजी ! जिन लोगोंने छब्बीस संख्या स्वीकार की है, वे ऐसा कहते हैं कि जीव अनादि कालसे अविद्यासे ग्रस्त हो रहा है। वह स्वयं अपने-आपको नहीं जान सकता। उसे आत्मज्ञान करानेके लिये किसी अन्य सर्वज्ञकी आवश्यकता है। (इसलिये प्रकृतिके कार्यकारणरूप चौबीस तत्त्व, पचीसवाँ पुरुष और छब्बीसवाँ ईश्वर—इस प्रकार कुल छब्बीस तत्त्व स्वीकार करने चाहिये) ॥ १० ॥ पचीस तत्त्व माननेवाले कहते हैं कि इस शरीरमें जीव और ईश्वरका अणुमात्र भी अन्तर या भेद नहीं है, इसलिये उनमें भेदकी कल्पना व्यर्थ है। रही ज्ञानकी बात, सो तो सत्त्वात्मिका प्रकृतिका गुण है ॥ ११ ॥ तीनों गुणोंकी साम्यावस्था ही प्रकृति है; इसलिये सत्त्व, रज आदि गुण आत्माके नहीं, प्रकृतिके ही हैं। इन्हींके द्वारा जगत्की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय हुआ करते हैं। इसलिये ज्ञान आत्माका गुण नहीं, प्रकृतिका ही गुण सिद्ध होता है ॥ १२ ॥ इस प्रसङ्गमें सत्त्वगुण ही ज्ञान है, रजोगुण ही कर्म है और तमोगुण ही अज्ञान कहा गया है और गुणोंमें क्षोभ उत्पन्न करनेवाला ईश्वर ही काल है और सूत्र अर्थात् महत्तत्त्व ही स्वभाव है। (इसलिये पचीस और छब्बीस तत्त्वोंकी—दोनों ही संख्या युक्तिसंगत है) ॥ १३ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



गुरुवार, 1 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

गुण-दोष-व्यवस्था का स्वरूप और रहस्य

 

फलश्रुतिरियं नॄणां न श्रेयो रोचनं परम्

श्रेयोविवक्षया प्रोक्तं यथा भैषज्यरोचनम् २३

उत्पत्त्यैव हि कामेषु प्राणेषु स्वजनेषु च

आसक्तमनसो मर्त्या आत्मनोऽनर्थहेतुषु २४

न तानविदुषः स्वार्थं भ्राम्यतो वृजिनाध्वनि

कथं युञ्ज्यात्पुनस्तेषु तांस्तमो विशतो बुधः २५

एवं व्यवसितं केचिदविज्ञाय कुबुद्धयः

फलश्रुतिं कुसुमितां न वेदज्ञा वदन्ति हि २६

कामिनः कृपणा लुब्धाः पुष्पेषु फलबुद्धयः

अग्निमुग्धा धूमतान्ताः स्वं लोकं न विदन्ति ते २७

न ते मामङ्ग जानन्ति हृदिस्थं य इदं यतः

उक्थशस्त्रा ह्यसुतृपो यथा नीहारचक्षुषः २८

ते मे मतमविज्ञाय परोक्षं विषयात्मकाः

हिंसायां यदि रागः स्याद्यज्ञ एव न चोदना २९

हिंसाविहारा ह्यालब्धैः पशुभिः स्वसुखेच्छया

यजन्ते देवता यज्ञैः पितृभूतपतीन्खलाः ३०

स्वप्नोपमममुं लोकमसन्तं श्रवणप्रियम्

आशिषो हृदि सङ्कल्प्य त्यजन्त्यर्थान्यथा वणिक् ३१

रजःसत्त्वतमोनिष्ठा रजःसत्त्वतमोजुषः

उपासत इन्द्र मुख्यान्देवादीन्न यथैव माम् ३२

इष्ट्वेह देवता यज्ञैर्गत्वा रंस्यामहे दिवि

तस्यान्त इह भूयास्म महाशाला महाकुलाः ३३

एवं पुष्पितया वाचा व्याक्षिप्तमनसां नृणाम्

मानिनां चातिलुब्धानां मद्वार्तापि न रोचते ३४

वेदा ब्रह्मात्मविषयास्त्रिकाण्डविषया इमे

परोक्षवादा ऋषयः परोक्षं मम च प्रियम् ३५

शब्दब्रह्म सुदुर्बोधं प्राणेन्द्रियमनोमयम्

अनन्तपारं गम्भीरं दुर्विगाह्यं समुद्रवत् ३६

मयोपबृंहितं भूम्ना ब्रह्मणानन्तशक्तिना

भूतेषु घोषरूपेण बिसेषूर्णेव लक्ष्यते ३७

यथोर्णनाभिर्हृदयादूर्णामुद्वमते मुखात्

आकाशाद्घोषवान्प्राणो मनसा स्पर्शरूपिणा ३८

छन्दोमयोऽमृतमयः सहस्रपदवीं प्रभुः

ॐकाराद्व्यञ्जितस्पर्श स्वरोष्मान्तस्थभूषिताम् ३९

विचित्रभाषाविततां छन्दोभिश्चतुरुत्तरैः

अनन्तपारां बृहतीं सृजत्याक्षिपते स्वयम् ४०

गायत्र्युष्णिगनुष्टुप्च बृहती पङ्क्तिरेव च

त्रिष्टुब्जगत्यतिच्छन्दो ह्यत्यष्ट्यतिजगद्विराट् ४१

किं विधत्ते किमाचष्टे किमनूद्य विकल्पयेत्

इत्यस्या हृदयं लोके नान्यो मद्वेद कश्चन ४२

मां विधत्तेऽभिधत्ते मां विकल्प्यापोह्यते त्वहम्

एतावान्सर्ववेदार्थः शब्द आस्थाय मां भिदाम्

मायामात्रमनूद्यान्ते प्रतिषिध्य प्रसीदति ४३

 

उद्धवजी ! यह स्वर्गादिरूप फलका वर्णन करनेवाली श्रुति मनुष्योंके लिये उन-उन लोकोंको परम पुरुषार्थ नहीं बतलाती, परन्तु बहिर्मुख पुरुषोंके लिये अन्त:करणशुद्धिके द्वारा परम कल्याणमय मोक्षकी विवक्षासे ही कर्मोंमें रुचि उत्पन्न करनेके लिये वैसा वर्णन करती है। जैसे बच्चोंसे औषधिमें रुचि उत्पन्न करनेके लिये रोचक वाक्य कहे जाते हैं। (बेटा ! प्रेमसे गिलोयका काढ़ा पी लो तो तुम्हारी चोटी बढ़ जायगी) ॥ २३ ॥ इसमें सन्देह नहीं कि संसारके विषयभोगोंमें, प्राणोंमें और सगे-सम्बन्धियोंमें सभी मनुष्य जन्मसे ही आसक्त हैं और उन वस्तुओंकी आसक्ति उनकी आत्मोन्नतिमें बाधक एवं अनर्थका कारण है ॥ २४ ॥ वे अपने परम पुरुषार्थको नहीं जानते, इसलिये स्वर्गादिका जो वर्णन मिलता है, वह ज्यों-का-त्यों सत्य है—ऐसा विश्वास करके देवादि योनियोंमें भटकते रहते हैं और फिर वृक्ष आदि योनियोंके घोर अन्धकारमें आ पड़ते हैं। ऐसी अवस्थामें कोई भी विद्वान् अथवा वेद फिरसे उन्हें उन्हीं विषयोंमें क्यों प्रवृत्त करेगा ? ॥ २५ ॥ दुर्बुद्धिलोग (कर्मवादी) वेदोंका यह अभिप्राय न समझकर कर्मासक्तिवश पुष्पोंके समान स्वर्गादि लोकोंका वर्णन देखते हैं और उन्हींको परम फल मानकर भटक जाते हैं। परन्तु वेदवेत्ता लोग श्रुतियोंका ऐसा तात्पर्य नहीं बतलाते ॥ २६ ॥ विषय-वासनाओंमें फँसे हुए दीन-हीन, लोभी पुरुष रंग-बिरंगे पुष्पोंके समान स्वर्गादि लोकों को ही सब कुछ समझ बैठते हैं, अग्नि के द्वारा सिद्ध होनेवाले यज्ञ-यागादि कर्मोंमें ही मुग्ध हो जाते हैं। उन्हें अन्त  में देवलोक, पितृलोक आदि की ही प्राप्ति होती है। दूसरी ओर भटक जाने  के कारण उन्हें अपने निजधाम आत्मपद का पता नहीं लगता ॥ २७ ॥ प्यारे उद्धव ! उनके पास साधना है तो केवल कर्मकी और उसका कोई फल है तो इन्द्रियोंकी तृप्ति। उनकी आँखें धुँधली हो गयी हैं; इसीसे वे यह बात नहीं जानते कि जिससे इस जगत्की उत्पत्ति हुई है, जो स्वयं इस जगत् के रूपमें है, वह परमात्मा मैं उनके हृदयमें ही हूँ ॥ २८ ॥ यदि हिंसा और उसके फल मांस-भक्षण में राग ही हो, उसका त्याग न किया जा सकता हो, तो यज्ञमें ही करे— यह परिसंख्या विधि है, स्वाभाविक प्रवृत्तिका संकोच है, सन्ध्यावन्दनादि के समान अपूर्व विधि नहीं है। इस प्रकार मेरे परोक्ष अभिप्रायको न जानकर विषयलोलुप पुरुष हिंसा का खिलवाड़ खेलते हैं और दुष्टतावश अपनी इन्द्रियों की तृप्ति के लिये वध किये हुए पशुओं के मांस से यज्ञ करके देवता, पितर तथा भूतपतियों के यजन का ढोंग करते हैं ॥२९-३०॥

उद्धवजी ! स्वर्गादि परलोक स्वप्न के दृश्योंके समान हैं, वास्तवमें वे असत् हैं, केवल उनकी बातें सुननेमें बहुत मीठी लगती हैं। सकाम पुरुष वहाँके भोगोंके लिये मन-ही-मन अनेकों प्रकारके संकल्प कर लेते हैं और जैसे व्यापारी अधिक लाभकी आशासे मूलधनको भी खो बैठता है, वैसे ही वे सकाम यज्ञोंद्वारा अपने धनका नाश करते हैं ॥ ३१ ॥ वे स्वयं रजोगुण, सत्त्वगुण या तमोगुणमें स्थित रहते हैं और रजोगुणी, सत्त्वगुणी अथवा तमोगुणी इन्द्रादि देवताओंकी उपासना करते हैं। वे उन्हीं सामग्रियोंसे उतने ही परिश्रमसे मेरी पूजा नहीं करते ॥ ३२ ॥ वे जब इस प्रकारकी पुष्पिता वाणी—रंग-बिरंगी मीठी-मीठी बातें सुनते हैं कि ‘हमलोग इस लोकमें यज्ञोंके द्वारा देवताओंका यजन करके स्वर्गमें जायँगे और वहाँ दिव्य आनन्द भोगेंगे, उसके बाद जब फिर हमारा जन्म होगा, तब हम बड़े कुलीन परिवारमें पैदा होंगे, हमारे बड़े-बड़े महल होंगे और हमारा कुटुम्ब बहुत सुखी और बहुत बड़ा होगा’ तब उनका चित्त क्षुब्ध हो जाता है और उन हेकड़ी जतानेवाले घमंडियोंको मेरे सम्बन्धकी बातचीत भी अच्छी नहीं लगती ॥ ३३-३४ ॥

उद्धवजी ! वेदोंमें तीन काण्ड हैं—कर्म, उपासना और ज्ञान। इन तीनों काण्डोंके द्वारा प्रतिपादित विषय है ब्रह्म और आत्माकी एकता; सभी मन्त्र और मन्त्रद्रष्टा ऋषि इस विषयको खोलकर नहीं, गुप्तभावसे बतलाते हैं और मुझे भी इस बातको गुप्तरूपसे कहना ही अभीष्ट है[*] ॥ ३५ ॥ वेदोंका नाम है शब्दब्रह्म। वे मेरी मूर्ति हैं, इसीसे उनका रहस्य समझना अत्यन्त कठिन है। वह शब्दब्रह्म परा, पश्यन्ती और मध्यमा वाणीके रूपमें प्राण, मन और इन्द्रियमय है। समुद्रके समान सीमारहित और गहरा है। उसकी थाह लगाना अत्यन्त कठिन है। (इसीसे जैमिनि आदि बड़े- बड़े विद्वान् भी उसके तात्पर्यका ठीक-ठीक निर्णय नहीं कर पाते) ॥ ३६ ॥ उद्धव ! मैं अनन्तशक्ति- सम्पन्न एवं स्वयं अनन्त ब्रह्म हूँ। मैंने ही वेदवाणीका विस्तार किया है। जैसे कमलनालमें पतला-सा सूत होता है, वैसे ही वह वेदवाणी प्राणियोंके अन्त:करणमें अनाहतनादके रूपमें प्रकट होती है ॥ ३७ ॥ भगवान्‌ हिरण्यगर्भ स्वयं वेदमूर्ति एवं अमृतमय हैं। उनकी उपाधि है प्राण और स्वयं अनाहत शब्दके द्वारा ही उनकी अभिव्यक्ति हुई है। जैसे मकड़ी अपने हृदयसे मुखद्वारा जाला उगलती और फिर निगल लेती है, वैसे ही वे स्पर्श आदि वर्णोंका संकल्प करनेवाले मनरूप निमित्त-कारणके द्वारा हृदयाकाशसे अनन्त अपार अनेकों मार्गोंवाली वैखरीरूप वेदवाणीको स्वयं ही प्रकट करते हैं और फिर उसे अपनेमें लीन कर लेते है। वह वाणी हृद्गत सूक्ष्म ओंकारके द्वारा अभिव्यक्त स्पर्श (‘क’ से लेकर ‘म’ तक-२५), स्वर ( ‘अ’ से ‘औ’ तक-९), ऊष्मा (श, , , ह) और अन्त:स्थ (य, , , व)—इन वर्णोंसे विभूषित है। उसमें ऐसे छन्द हैं, जिनमें उत्तरोत्तर चार-चार वर्ण बढ़ते जाते हैं और उनके द्वारा विचित्र भाषाके रूपमें वह विस्तृत हुई है ॥ ३८—४० ॥ (चार-चार अधिक वर्णोंवाले छन्दोंमेंसे कुछ ये हैं—) गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्, बृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप्, जगती, अतिच्छन्द, अत्यष्टि, अतिजगती और विराट् ॥ ४१ ॥ वह वेदवाणी कर्मकाण्डमें क्या विधान करती है, उपासनाकाण्डमें किन देवताओंका वर्णन करती है और ज्ञानकाण्डमें किन प्रतीतियोंका अनुवाद करके उनमें अनेकों प्रकारके विकल्प करती है—इन बातोंको इस सम्बन्धमें श्रुतिके रहस्यको मेरे अतिरिक्त और कोई नहीं जानता ॥ ४२ ॥ मैं तुम्हें स्पष्ट बतला देता हूँ, सभी श्रुतियाँ कर्मकाण्डमें मेरा ही विधान करती हैं। उपासना काण्डमें उपास्य देवताओंके रूपमें वे मेरा ही वर्णन करती हैं और ज्ञान- काण्डमें आकाशादिरूपसे मुझमें ही अन्य वस्तुओंका आरोप करके उनका निषेध कर देती हैं। सम्पूर्ण श्रुतियोंका बस, इतना ही तात्पर्य है कि वे मेरा आश्रय लेकर मुझमें भेदका आरोप करती हैं, मायामात्र कहकर उसका अनुवाद करती हैं और अन्तमें सबका निषेध करके मुझमें ही शान्त हो जाती हैं और केवल अधिष्ठानरूपसे मैं ही शेष रह जाता हूँ ॥ ४३ ॥

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[*] क्योंकि सब लोग इसके अधिकारी नहीं हैं, अन्त:करण शुद्ध होने  पर ही यह बात समझ में आती है।

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे एकविंशोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०३) विराट् शरीर की उत्पत्ति स्मरन्विश्वसृजामीशो विज्ञापितं ...