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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
तीनों गुणों की वृत्तियों का निरूपण
एधमाने
गुणे सत्त्वे देवानां बलमेधते
असुराणां
च रजसि तमस्युद्धव रक्षसाम् १९
सत्त्वाज्जागरणं
विद्याद्रजसा स्वप्नमादिशेत्
प्रस्वापं
तमसा जन्तोस्तुरीयं त्रिषु सन्ततम् २०
उपर्युपरि
गच्छन्ति सत्त्वेन ब्राह्मणा जनाः
तमसाधोऽध
आमुख्याद्रजसान्तरचारिणः २१
सत्त्वे
प्रलीनाः स्वर्यान्ति नरलोकं रजोलयाः
तमोलयास्तु
निरयं यान्ति मामेव निर्गुणाः २२
मदर्पणं
निष्फलं वा सात्त्विकं निजकर्म तत्
राजसं
फलसङ्कल्पं हिंसाप्रायादि तामसम् २३
कैवल्यं
सात्त्विकं ज्ञानं रजो वैकल्पिकं च यत्
प्राकृतं
तामसं ज्ञानं मन्निष्ठं निर्गुणं स्मृतम् २४
वनं
तु सात्त्विको वासो ग्रामो राजस उच्यते
तामसं
द्यूतसदनं मन्निकेतं तु निर्गुणम् २५
सात्त्विकः
कारकोऽसङ्गी रागान्धो राजसः स्मृतः
तामसः
स्मृतिविभ्रष्टो निर्गुणो मदपाश्रयः २६
सात्त्विक्याध्यात्मिकी
श्रद्धा कर्मश्रद्धा तु राजसी
तामस्यधर्मे
या श्रद्धा मत्सेवायां तु निर्गुणा २७
पथ्यं
पूतमनायस्तमाहार्यं सात्त्विकं स्मृतम्
राजसं
चेन्द्रि यप्रेष्ठं तामसं चार्तिदाशुचि २८
सात्त्विकं
सुखमात्मोत्थं विषयोत्थं तु राजसम्
तामसं
मोहदैन्योत्थं निर्गुणं मदपाश्रयम् २९
द्रव्यं
देशः फलं कालो ज्ञानं कर्म च कारकः
श्रद्धावस्थाकृतिर्निष्ठा
त्रैगुण्यः सर्व एव हि ३०
सर्वे
गुणमया भावाः पुरुषाव्यक्तधिष्ठिताः
दृष्टं
श्रुतं अनुध्यातं बुद्ध्या वा पुरुषर्षभ ३१
एताः
संसृतयः पुंसो गुणकर्मनिबन्धनाः
येनेमे
निर्जिताः सौम्य गुणा जीवेन चित्तजाः ३२
भक्तियोगेन
मन्निष्ठो मद्भावाय प्रपद्यते
तस्माद्देहमिमं
लब्ध्वा ज्ञानविज्ञानसम्भवम् ३३
गुणसङ्गं
विनिर्धूय मां भजन्तु विचक्षणाः
निःसङ्गो
मां भजेद्विद्वानप्रमत्तो जितेन्द्रियः ३४
रजस्तमश्चाभिजयेत्सत्त्वसंसेवया
मुनिः
सत्त्वं
चाभिजयेद्युक्तो नैरपेक्ष्येण शान्तधीः
सम्पद्यते
गुणैर्मुक्तो जीवो जीवं विहाय माम् ३५
जीवो
जीवविनिर्मुक्तो गुणैश्चाशयसम्भवैः
मयैव
ब्रह्मणा पूर्णो न बहिर्नान्तरश्चरेत् ३६
उद्धवजी ! सत्त्वगुणके बढऩेपर
देवताओंका, रजोगुणके बढऩेपर असुरोंका और तमोगुणके बढऩेपर राक्षसोंका बल बढ़
जाता है। (वृत्तियोंमें भी क्रमश: सत्त्वादि गुणोंकी अधिकता होनेपर देवत्व, असुरत्व और राक्षसत्वप्रधान निवृत्ति,
प्रवृत्ति अथवा मोहकी प्रधानता हो जाती है) ॥ १९ ॥ सत्त्वगुणसे
जाग्रत्-अवस्था, रजोगुणसे स्वप्नावस्था और तमोगुणसे सुषुप्ति-अवस्था होती है। तुरीय
इन तीनोंमें एक-सा व्याप्त रहता है। वही शुद्ध और एकरस आत्मा है ॥ २० ॥ वेदोंके
अभ्यासमें तत्पर ब्राह्मण सत्त्वगुणके द्वारा उत्तरोत्तर ऊपरके लोकोंमें जाते हैं।
तमोगुणसे जीवोंको वृक्षादिपर्यन्त अधोगति प्राप्त होती है और रजोगुणसे मनुष्यशरीर
मिलता है ॥ २१ ॥ जिसकी मृत्यु सत्त्वगुणोंकी वृद्धिके समय होती है, उसे स्वर्गकी प्राप्ति होती है;
जिसकी रजोगुणकी वृद्धिके समय होती है,
उसे मनुष्यलोक मिलता है और जो तमोगुणकी वृद्धिके समय मरता है, उसे नरककी प्राप्ति होती है। परन्तु जो पुरुष
त्रिगुणातीत—जीवन्मुक्त हो गये हैं, उन्हें मेरी ही प्राप्ति होती है ॥ २२ ॥ जब अपने धर्मका आचरण मुझे
समर्पित करके अथवा निष्कामभावसे किया जाता है,
तब वह सात्त्विक होता है। जिस कर्मके अनुष्ठानमें किसी फलकी कामना
रहती है, वह राजसिक होता है और जिस कर्ममें किसीको सताने अथवा दिखाने आदिका
भाव रहता है, वह तामसिक होता है ॥ २३ ॥ शुद्ध आत्माका ज्ञान सात्त्विक है। उसको
कर्ता-भोक्ता समझना राजस ज्ञान है और उसे शरीर समझना तो सर्वथा तामसिक है। इन
तीनोंसे विलक्षण मेरे स्वरूपका वास्तविक ज्ञान निर्गुण ज्ञान है ॥ २४ ॥ वनमें रहना
सात्त्विक निवास है, गाँवमें
रहना राजस है और जूआघरमें रहना तामसिक है। इन सबसे बढक़र मेरे मन्दिरमें रहना
निर्गुण निवास है ॥ २५ ॥ अनासक्तभावसे कर्म करनेवाला सात्त्विक है, रागान्ध होकर कर्म करनेवाला राजसिक है और पूर्वापरविचारसे रहित
होकर करनेवाला तामसिक है। इनके अतिरिक्त जो पुरुष केवल मेरी शरणमें रहकर बिना
अहङ्कारके कर्म करता है, वह निर्गुण कर्ता है ॥ २६ ॥ आत्मज्ञानविषयक श्रद्धा सात्त्विक
श्रद्धा है, कर्मविषयक श्रद्धा राजस है और जो श्रद्धा अधर्ममें होती है, वह तामस है तथा मेरी सेवामें जो श्रद्धा है, वह निर्गुण श्रद्धा है ॥ २७ ॥ आरोग्यदायक,
पवित्र और अनायास प्राप्त भोजन सात्त्विक है। रसनेन्द्रियको रुचिकर
और स्वादकी दृष्टिसे युक्त आहार राजस है तथा दु:खदायी और अपवित्र आहार तामस है ॥
२८ ॥ अन्तर्मुखतासे—आत्मचिन्तनसे प्राप्त होनेवाला सुख सात्त्विक है।
बहिर्मुखतासे—विषयोंसे प्राप्त होनेवाला राजस है तथा अज्ञान और दीनतासे प्राप्त
होनेवाला सुख तामस है और जो सुख मुझसे मिलता है,
वह तो गुणातीत और अप्राकृत है ॥ २९ ॥
उद्धवजी ! द्रव्य (वस्तु), देश (स्थान), फल, काल, ज्ञान, कर्म, कर्ता, श्रद्धा, अवस्था, देव- मनुष्य-तिर्यगादि शरीर और निष्ठा—सभी त्रिगुणात्मक हैं ॥ ३० ॥
नररत्न ! पुरुष और प्रकृतिके आश्रित जितने भी भाव हैं,
सभी गुणमय हैं—वे चाहे नेत्रादि इन्द्रियोंसे अनुभव किये हुए हों, शास्त्रोंके द्वारा लोक-लोकान्तरोंके सम्बन्धमें सुने गये हों अथवा
बुद्धिके द्वारा सोचे-विचारे गये हों ॥ ३१ ॥ जीवको जितनी भी योनियाँ अथवा गतियाँ
प्राप्त होती हैं, वे
सब उनके गुणों और कर्मोंके अनुसार ही होती हैं। हे सौम्य ! सब-के-सब गुण चित्तसे
ही सम्बन्ध रखते हैं (इसलिये जीव उन्हें अनायास ही जीत सकता है) जो जीव उनपर विजय
प्राप्त कर लेता है, वह
भक्तियोगके द्वारा मुझमें ही परिनिष्ठित हो जाता है और अन्तत: मेरा वास्तविक
स्वरूप, जिसे मोक्ष भी कहते हैं, प्राप्त कर लेता है ॥ ३२ ॥ यह मनुष्यशरीर बहुत ही दुर्लभ है। इसी
शरीरमें तत्त्वज्ञान और उसमें निष्ठारूप विज्ञानकी प्राप्ति सम्भव है; इसलिये इसे पाकर बुद्धिमान् पुरुषोंको गुणोंकी आसक्ति हटाकर मेरा
भजन करना चाहिये ॥ ३३ ॥ विचारशील पुरुषको चाहिये कि बड़ी सावधानीसे सत्त्वगुणके
सेवनसे रजोगुण और तमोगुणको जीत ले, इन्द्रियोंको वशमें कर ले और मेरे स्वरूपको समझकर मेरे भजनमें लग
जाय। आसक्तिको लेशमात्र भी न रहने दे ॥ ३४ ॥ योगयुक्तिसे चित्तवृत्तियोंको शान्त
करके निरपेक्षताके द्वारा सत्त्वगुणपर भी विजय प्राप्त कर ले। इस प्रकार गुणोंसे
मुक्त होकर जीव अपने जीवभावको छोड़ देता है और मुझसे एक हो जाता है ॥ ३५ ॥ जीव
लिङ्गशरीररूप अपनी उपाधि जीवत्वसे तथा अन्त:करणमें उदय होनेवाली सत्त्वादि गुणोंकी
वृत्तियोंसे मुक्त होकर मुझ ब्रह्मकी अनुभूतिसे एकत्वदर्शनसे पूर्ण हो जाता है और
वह फिर बाह्य अथवा आन्तरिक किसी भी विषयमें नहीं जाता ॥ ३६ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे पञ्चविंशोऽध्यायः
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
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