शनिवार, 10 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

परमार्थ-निरूपण

 

श्रीभगवानुवाच -

 यावद् देहेन्द्रियप्राणैः आत्मनः सन्निकर्षणम् ।

 संसारः फलवांस्तावद् अपार्थोऽप्यविवेकिनः ॥ १२ ॥

 अर्थे हि अविद्यमानेऽपि संसृतिर्न निवर्तते ।

 ध्यायतो विषयानस्य स्वप्नेऽनर्थागमो यथा ॥ १३ ॥

 यथा ह्यप्रतिबुद्धस्य प्रस्वापो बह्वनर्थभृत् ।

 स एव प्रतिबुद्धस्य न वै मोहाय कल्पते ॥ १४ ॥

 शोकहर्षभयक्रोध लोभमोहस्पृहादयः ।

 अहङ्कारस्य दृश्यन्ते जन्ममृत्युश्च नात्मनः ॥ १५ ॥

देहेन्द्रियप्राणमनोऽभिमानो

     जीवोऽन्तरात्मा गुणकर्ममूर्तिः ।

 सूत्रं महानित्युरुधेव गीतः

     संसार आधावति कालतन्त्रः ॥ १६ ॥

 अमूलमेतद् बहुरूपरूपितं

     मनोवचःप्राणशरीरकर्म ।

 ज्ञानासिनोपासनया शितेन

     च्छित्त्वा मुनिर्गां विचरत्यतृष्णः ॥ १७ ॥

 ज्ञानं विवेको निगमस्तपश्च

     प्रत्यक्षमैतिह्यमथानुमानम् ।

 आद्यन्तयोरस्य यदेव केवलं

     कालश्च हेतुश्च तदेव मध्ये ॥ १८ ॥

 यथा हिरण्यं स्वकृतं पुरस्तात्

     पश्चाच्च सर्वस्य हिरण्मयस्य ।

 तदेव मध्ये व्यवहार्यमाणं

     नानापदेशैरहमस्य तद्वत् ॥ १९ ॥

 विज्ञानमेतत् त्रियवस्थमङ्ग

     गुणत्रयं कारणकार्यकर्तृ ।

 समन्वयेन व्यतिरेकतश्च

     येनैव तुर्येण तदेव सत्यम् ॥ २० ॥

 न यत्पुरस्ताद् उत यन्न पश्चान्

     मध्ये च तन्न व्यपदेशमात्रम् ।

 भूतं प्रसिद्धं च परेण यद् यत्

     तदेव तत् स्यादिति मे मनीषा ॥ २१ ॥

 अविद्यमानोऽप्यवभासते यो

     वैकारिको राजससर्ग एषः ।

 ब्रह्म स्वयं ज्योतिरतो विभाति

     ब्रह्मेन्द्रियार्थात्मविकारचित्रम् ॥ २२ ॥

 एवं स्फुटं ब्रह्मविवेकहेतुभिः ।

     परापवादेन विशारदेन ।

 छित्त्वाऽऽत्मसन्देहमुपारमेत ।

     स्वानन्दतुष्टोऽखिलकामुकेभ्यः ॥ २३ ॥

 नात्मा वपुः पार्थिवमिन्द्रियाणि

     देवा ह्यसुर्वायुर्जलम् हुताशः ।

 मनोऽन्नमात्रं धिषणा च सत्त्वम्

     अहङ्कृतिः खं क्षितिरर्थसाम्यम् ॥ २४ ॥

 

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—वस्तुत: प्रिय उद्धव ! संसारका अस्तित्व नहीं है तथापि जबतक देह, इन्द्रिय और प्राणोंके साथ आत्माकी सम्बन्ध-भ्रान्ति है, तबतक अविवेकी पुरुषको वह सत्य-सा स्फुरित होता है ॥ १२ ॥ जैसे स्वप्नमें अनेकों विपत्तियाँ आती हैं पर वास्तवमें वे हैं नहीं, फिर भी स्वप्न टूटनेतक उनका अस्तित्व नहीं मिटता, वैसे ही संसारके न होनेपर भी जो उसमें प्रतीत होनेवाले विषयोंका चिन्तन करते रहते हैं, उनके जन्म-मृत्युरूप संसारकी निवृत्ति नहीं होती ॥ १३ ॥ जब मनुष्य स्वप्न देखता रहता है, तब नींद टूटनेके पहले उसे बड़ी-बड़ी विपत्तियोंका सामना करना पड़ता है; परन्तु जब उसकी नींद टूट जाती है, वह जग पड़ता है, तब न तो स्वप्नकी विपत्तियाँ रहती हैं और न उनके कारण होनेवाले मोह आदि विकार ॥ १४ ॥ उद्धवजी ! अहङ्कार ही शोक, हर्ष, भय, क्रोध, लोभ, मोह, स्पृहा और जन्म-मृत्युका शिकार बनता है। आत्मासे तो इनका कोई सम्बन्ध ही नहीं है ॥ १५ ॥ उद्धवजी ! देह, इन्द्रिय, प्राण और मनमें स्थित आत्मा ही जब उनका अभिमान कर बैठता है—उन्हें अपना स्वरूप मान लेता है—तब उसका नाम ‘जीव’ हो जाता है। उस सूक्ष्मातिसूक्ष्म आत्माकी मूर्ति है—गुण और कर्मोंका बना हुआ लिङ्गशरीर। उसे ही कहीं सूत्रात्मा कहा जाता है और कहीं महत्तत्त्व। उसके और भी बहुत-से नाम हैं। वही कालरूप परमेश्वरके अधीन होकर जन्म-मृत्युरूप संसारमें इधर-उधर भटकता रहता है ॥ १६ ॥ वास्तवमें मन, वाणी, प्राण और शरीर अहङ्कारके ही कार्य हैं। यह है तो निर्मूल, परन्तु देवता, मनुष्य आदि अनेक रूपोंमें इसीकी प्रतीति होती है। मननशील पुरुष उपासनाकी शानपर चढ़ाकर ज्ञानकी तलवारको अत्यन्त तीखी बना लेता है और उसके द्वारा देहाभिमानका—अहङ्कारका मूलोच्छेद करके पृथ्वीमें निद्र्वन्द्व होकर विचरता है। फिर उसमें किसी प्रकारकी आशा-तृष्णा नहीं रहती ॥ १७ ॥ आत्मा और अनात्माके स्वरूपको पृथक्-पृथक् भलीभाँति समझ लेना ही ज्ञान है, क्योंकि विवेक होते ही द्वैतका अस्तित्व मिट जाता है। उसका साधन है तपस्याके द्वारा हृदयको शुद्ध करके वेदादि शास्त्रोंका श्रवण करना।

इनके अतिरिक्त श्रवणानुकूल युक्तियाँ, महापुरुषोंके उपदेश और इन दोनोंसे अविरुद्ध स्वानुभूति भी प्रमाण हैं। सबका सार यही निकलता है कि इस संसारके आदिमें जो था तथा अन्तमें जो रहेगा, जो इसका मूल कारण और प्रकाशक है, वही अद्वितीय, उपाधिशून्य परमात्मा बीचमें भी है। उसके अतिरिक्त और कोई वस्तु नहीं है ॥ १८ ॥ उद्धवजी ! सोनेसे कंगन, कुण्डल आदि बहुत-से आभूषण बनते हैं; परन्तु जब वे गहने नहीं बने थे, तब भी सोना था और जब नहीं रहेंगे, तब भी सोना रहेगा। इसलिये जब बीचमें उसके कंगन-कुण्डल आदि अनेकों नाम रखकर व्यवहार करते हैं, तब भी वह सोना ही है। ठीक ऐसे ही जगत्का आदि, अन्त और मध्य मैं ही हूँ। वास्तवमें मैं ही सत्य तत्त्व हूँ ॥ १९ ॥ भाई उद्धव ! मनकी तीन अवस्थाएँ होती हैं—जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति; इन अवस्थाओंके कारण तीन ही गुण हैं सत्त्व, रज और तम, और जगत्के तीन भेद हैं—अध्यात्म (इन्द्रियाँ), अधिभूत (पृथिव्यादि) और अधिदैव (कर्ता)। ये सभी त्रिविधताएँ जिसकी सत्तासे सत्यके समान प्रतीत होती हैं और समाधि आदिमें यह त्रिविधता न रहनेपर भी जिसकी सत्ता बनी रहती है, वह तुरीयतत्त्व—इन तीनोंसे परे और इनमें अनुगत चौथा ब्रह्मतत्त्व ही सत्य है ॥ २० ॥ जो उत्पत्तिसे पहले नहीं था और प्रलयके पश्चात् भी नहीं रहेगा, ऐसा समझना चाहिये कि बीचमें भी वह है नहीं—केवल कल्पनामात्र, नाममात्र ही है। यह निश्चित सत्य है कि जो पदार्थ जिससे बनता है और जिसके द्वारा प्रकाशित होता है, वही उसका वास्तविक स्वरूप है, वही उसकी परमार्थ-सत्ता है—यह मेरा दृढ़ निश्चय है ॥ २१ ॥ यह जो विकारमयी राजस सृष्टि है, यह न होनेपर भी दीख रही है। यह स्वयंप्रकाश ब्रह्म ही है। इसलिये इन्द्रिय, विषय, मन और पञ्चभूतादि जितने चित्र-विचित्र नामरूप हैं उनके रूपमें ब्रह्म ही प्रतीत हो रहा है ॥ २२ ॥ ब्रह्मविचारके साधन हैं—श्रवण, मनन, निदिध्यासन और स्वानुभूति। उनमें सहायक हैं—आत्मज्ञानी गुरुदेव ! इनके द्वारा विचार करके स्पष्टरूपसे देहादि अनात्म पदार्थोंका निषेध कर देना चाहिये। इस प्रकार निषेधके द्वारा आत्मविषयक सन्देहोंको छिन्न-भिन्न करके अपने आनन्दस्वरूप आत्मामें ही मग्र हो जाय और सब प्रकारकी विषयवासनाओंसे रहित हो जाय ॥ २३ ॥ निषेध करनेकी प्रक्रिया यह है कि पृथ्वीका विकार होनेके कारण शरीर आत्मा नहीं है। इन्द्रिय, उनके अधिष्ठातृ-देवता, प्राण, वायु, जल, अग्रि एवं मन भी आत्मा नहीं हैं; क्योंकि इनका धारण-पोषण शरीरके समान ही अन्नके द्वारा होता है। बुद्धि, चित्त, अहङ्कार, आकाश, पृथ्वी, शब्दादि विषय और गुणोंकी साम्यावस्था प्रकृति भी आत्मा नहीं हैं; क्योंकि ये सब-के-सब दृश्य एवं जड हैं ॥ २४ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

परमार्थ-निरूपण

 

श्रीभगवानुवाच -

परस्वभावकर्माणि न प्रशंसेन्न गहयेत् ।

विश्वमेकात्मकं पश्यन् प्रकृत्या पुरुषेण च ॥ १ ॥

 परस्वभावकर्माणि यः प्रशंसति निन्दति ।

 स आशु भ्रश्यते स्वार्थाद् असत्यभिनिवेशतः ॥ २ ॥

 तैजसे निद्रयाऽऽपन्ने पिण्डस्थो नष्टचेतनः ।

 मायां प्राप्नोति मृत्युं वा तद्वत् नानार्थदृक् पुमान् ॥ ३ ॥

 किं भद्रं किं अभद्रं वा द्वैतस्यावस्तुनः कियत् ।

 वाचोदितं तदनृतं मनसा ध्यातमेव च ॥ ४ ॥

 छायाप्रत्याह्वयाभासा ह्यसन्तोऽप्यर्थकारिणः ।

 एवं देहादयो भावा यच्छन्त्यामृत्युतो भयम् ॥ ५ ॥

 आत्मैव तदिदं विश्वं सृज्यते सृजति प्रभुः ।

 त्रायते त्राति विश्वात्मा ह्रियते हरतीश्वरः ॥ ६ ॥

 तस्मान्न ह्यात्मनोऽन्यस्मात् अन्यो भावो निरूपितः ।

 निरूपितेऽयं त्रिविधा निर्मूल भातिरात्मनि ।

 इदं गुणमयं विद्धि त्रिविधं मायया कृतम् ॥ ७ ॥

 एतद् विद्वान् मदुदितं ज्ञानविज्ञाननैपुणम् ।

 न निन्दति न च स्तौति लोके चरति सूर्यवत् ॥ ८ ॥

 प्रत्यक्षेणानुमानेन निगमेनात्मसंविदा ।

 आद्यन्तवत् असज्ज्ञात्वा निःसङ्गो विचरेदिह ॥ ९ ॥

 

 श्रीउद्धव उवाच -

 नैवात्मनो न देहस्य संसृतिर्द्रष्टृदृश्ययोः ।

 अनात्मस्वदृशोरीश कस्य स्यादुपलभ्यते ॥ १० ॥

 आत्माव्ययोऽगुणः शुद्धः स्वयंज्योतिरनावृतः ।

 अग्निवद्दारुवद् अचिद् देहः कस्येह संसृतिः ॥ ११ ॥

 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण कहते हैं—उद्धवजी ! यद्यपि व्यवहार में पुरुष और प्रकृति—द्रष्टा और दृश्यके भेदसे दो प्रकारका जगत् जान पड़ता है, तथापि परमार्थ-दृष्टिसे देखनेपर यह सब एक अधिष्ठान- स्वरूप ही है; इसलिये किसीके शान्त, घोर और मूढ़ स्वभाव तथा उनके अनुसार कर्मोंकी न स्तुति करनी चाहिये और न निन्दा। सर्वदा अद्वैत-दृष्टि रखनी चाहिये ॥ १ ॥ जो पुरुष दूसरोंके स्वभाव और उनके कर्मोंकी प्रशंसा अथवा निन्दा करते हैं, वे शीघ्र ही अपने यथार्थ परमार्थ-साधनसे च्युत हो जाते हैं; क्योंकि साधन तो द्वैतके अभिनिवेशका—उसके प्रति सत्यत्व-बुद्धिका निषेध करता है और प्रशंसा तथा निन्दा उसकी सत्यताके भ्रमको और भी दृढ़ करती हैं ॥ २ ॥ उद्धवजी ! सभी इन्द्रियाँ राजस अहङ्कारके कार्य हैं। जब वे निद्रित हो जाती हैं, तब शरीरका अभिमानी जीव चेतना- शून्य हो जाता है अर्थात् उसे बाहरी शरीरकी स्मृति नहीं रहती। उस समय यदि मन बच रहा, तब तो वह सपनेके झूठे दृश्योंमें भटकने लगता है और वह भी लीन हो गया, तब तो जीव मृत्युके समान गाढ़ निद्रा—सुषुप्तिमें लीन हो जाता है। वैसे ही जब जीव अपने अद्वितीय आत्मस्वरूपको भूलकर नाना वस्तुओंका दर्शन करने लगता है, तब वह स्वप्नके समान झूठे दृश्योंमें फँस जाता है अथवा मृत्युके समान अज्ञानमें लीन हो जाता है ॥ ३ ॥ उद्धवजी ! जब द्वैत नामकी कोई वस्तु ही नहीं है, तब उसमें अमुक वस्तु भली है और अमुक बुरी, अथवा इतनी भली और इतनी बुरी है—यह प्रश्र ही नहीं उठ सकता। विश्वकी सभी वस्तुएँ वाणीसे कही जा सकती हैं अथवा मनसे सोची जा सकती हैं; इसलिये दृश्य एवं अनित्य होनेके कारण उनका मिथ्यात्व तो स्पष्ट ही है ॥ ४ ॥ परछार्ईं, प्रतिध्वनि और सीपी आदिमें चाँदी आदिके आभास यद्यपि हैं तो सर्वथा मिथ्या, परन्तु उनके द्वारा मनुष्यके हृदयमें भय-कम्प आदिका सञ्चार हो जाता है। वैसे ही देहादि सभी वस्तुएँ हैं तो सर्वथा मिथ्या ही, परन्तु जबतक ज्ञानके द्वारा इनकी असत्यताका बोध नहीं हो जाता, इनकी आत्यन्तिक निवृत्ति नहीं हो जाती, तबतक ये भी अज्ञानियोंको भयभीत करती रहती हैं ॥ ५ ॥ उद्धवजी ! जो कुछ प्रत्यक्ष या परोक्ष वस्तु है, वह आत्मा ही है। वही सर्वशक्तिमान् भी है। जो कुछ विश्व-सृष्टि प्रतीत हो रही है, इसका वह निमित्त-कारण तो है ही, उपादान-कारण भी है। अर्थात् वही विश्व बनता है और वही बनाता भी है, वही रक्षक है और रक्षित भी वही है। सर्वात्मा भगवान्‌ ही इसका संहार करते हैं और जिसका संहार होता है , वह भी वे ही हैं ॥ ६ ॥ अवश्य ही व्यवहारदृष्टिसे देखनेपर आत्मा इस विश्वसे भिन्न है; परन्तु आत्मदृष्टिसे उसके अतिरिक्त और कोई वस्तु ही नहीं है। उसके अतिरिक्त जो कुछ प्रतीत हो रहा है, उसका किसी भी प्रकार निर्वचन नहीं किया जा सकता और अनिर्वचनीय तो केवल आत्मस्वरूप ही है; इसलिये आत्मामें सृष्टि-स्थिति-संहार अथवा अध्यात्म, अधिदैव और अधिभूत—ये तीन-तीन प्रकारकी प्रतीतियाँ सर्वथा निर्मूल ही हैं। न होनेपर भी यों ही प्रतीत हो रही हैं। यह सत्त्व, रज और तमके कारण प्रतीत होनेवाली द्रष्टा-दर्शन-दृश्य आदिकी त्रिविधता मायाका खेल है ॥ ७ ॥ उद्धवजी ! तुमसे मैंने ज्ञान और विज्ञानकी उत्तम स्थितिका वर्णन किया है। जो पुरुष मेरे इन वचनोंका रहस्य जान लेता है, वह न तो किसीकी प्रशंसा करता है और न निन्दा। वह जगत्में सूर्यके समान समभावसे विचरता रहता है ॥ ८ ॥ प्रत्यक्ष, अनुमान, शास्त्र और आत्मानुभूति आदि सभी प्रमाणोंसे यह सिद्ध है कि यह जगत् उत्पत्ति- विनाशशील होनेके कारण अनित्य एवं असत्य है। यह बात जानकर जगत्में असङ्गभावसे विचरना चाहिये ॥ ९ ॥

उद्धवजीने पूछा—भगवन् ! आत्मा है द्रष्टा और देह है दृश्य। आत्मा स्वयंप्रकाश है और देह है जड। ऐसी स्थितिमें जन्म-मृत्युरूप संसार न शरीरको हो सकता है और न आत्माको। परन्तु इसका होना भी उपलब्ध होता है। तब यह होता किसे है ? ॥ १० ॥ आत्मा तो अविनाशी, प्राकृत-अप्राकृत गुणोंसे रहित, शुद्ध, स्वयंप्रकाश और सभी प्रकारके आवरणोंसे रहित है; तथा शरीर विनाशी, सगुण, अशुद्ध, प्रकाश्य और आवृत है। आत्मा अग्रिके समान प्रकाशमान है, तो शरीर काठकी तरह अचेतन। फिर यह जन्म-मृत्युरूप संसार है किसे ? ॥ ११ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



शुक्रवार, 9 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— सताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— सताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

क्रियायोग का वर्णन

 

चन्दनोशीरकर्पूर कुङ्कुमागुरुवासितैः ।

 सलिलैः स्नापयेन्मन्त्रैः नित्यदा विभवे सति ॥ ३० ॥

 स्वर्णघर्मानुवाकेन महापुरुषविद्यया ।

 पौरुषेणापि सूक्तेन सामभी राजनादिभिः ॥ ३१ ॥

 वस्त्रोपवीताभरण पत्रस्रग्गन्धलेपनैः ।

 अलङ्कुर्वीत सप्रेम मद्‍भक्तो मां यथोचितम् ॥ ३२ ॥

 पाद्यं आचमनीयं च गन्धं सुमनसोऽक्षतान् ।

 धूपदीपोपहार्याणि दद्यान्मे श्रद्धयार्चकः ॥ ३३ ॥

 गुडपायससर्पींषि शष्कुल्यापूपमोदकान् ।

 संयावदधिसूपांश्च नैवेद्यं सति कल्पयेत् ॥ ३४ ॥

 अभ्यङ्गोन्मर्दनादर्श दन्तधावाभिषेचनम् ।

 अन्नाद्यगीतनृत्यादि पर्वणि स्युरुतान्वहम् ॥ ३५ ॥

 विधिना विहिते कुण्डे मेखलागर्तवेदिभिः ।

 अग्निमाधाय परितः समूहेत् पाणिनोदितम् ॥ ३६ ॥

 परिस्तीर्याथ पर्युक्षेद् अन्वाधाय यथाविधि ।

 प्रोक्षण्याऽऽसाद्य द्रव्याणि प्रोक्ष्याग्नौ भावयेत माम् ॥ ३७ ॥

 तप्तजाम्बूनदप्रख्यं शङ्खचक्रगदाम्बुजैः ।

 लसच्चतुर्भुजं शान्तं पद्मकिञ्जल्कवाससम् ॥ ३८ ॥

 स्फुरत्किरीटकटक कटिसूत्रवराङ्गदम् ।

 श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत् कौस्तुभं वनमालिनम् ॥ ३९ ॥

 ध्यायन्नभ्यर्च्य दारूणि हविषाभिघृतानि च ।

 प्रास्याज्यभागावाघारौ दत्त्वा चाज्यप्लुतं हविः ॥ ४१ ॥

 जुहुयान्मूलमन्त्रेण षोडशर्चावदानतः ।

 धर्मादिभ्यो यथान्यायं मन्त्रैः स्विष्टिकृतं बुधः ॥ ४१ ॥

 अभ्यर्च्याथ नमस्कृत्य पार्षदेभ्यो बलिं हरेत् ।

 मूलमन्त्रं जपेद् ब्रह्म स्मरन्नारायणात्मकम् ॥ ४२ ॥

 दत्त्वाऽऽचमनमुच्छेषं विष्वक्सेनाय कल्पयेत् ।

 मुखवासं सुरभिमत् ताम्बूलाद्यमथाहयेत् ॥ ४३ ॥

 उपगायन् गृणन् नृत्यन् कर्माणि अभिनयन् मम ।

 मत्कथाः श्रावयन् श्रृण्वन् मुहूर्तं क्षणिको भवेत् ॥ ४४ ॥

 स्तवैरुच्चावचैः स्तोत्रैः पौराणैः प्राकृतैरपि ।

 स्तुत्वा प्रसीद भगवन् इति वन्देत दण्डवत् ॥ ४५ ॥

 शिरो मत्पादयोः कृत्वा बाहुभ्यां च परस्परम् ।

 प्रपन्नं पाहि मामीश भीतं मृत्युग्रहार्णवात् ॥ ४६ ॥

 इति शेषां मया दत्तां शिरस्याधाय सादरम् ।

 उद्वासयेद् चेद् उद्वास्यं ज्योतिर्ज्योतिषि तत्पुनः ॥ ४७ ॥

 अर्चादिषु यदा यत्र श्रद्धा मां तत्र चार्चयेत् ।

 सर्वभूतेष्वात्मनि च सर्वात्माहं अवस्थितः ॥ ४८ ॥

 एवं क्रियायोगपथैः पुमान्वैदिकतान्त्रिकैः ।

 अर्चन् उभयतः सिद्धिं मत्तो विन्दत्यभीप्सिताम् ॥ ४९ ॥

 मदर्चां सम्प्रतिष्ठाप्य मन्दिरं कारयेद् दृढम् ।

 पुष्पोद्यानानि रम्याणि पूजायात्रोत्सवाश्रितान् ॥ ५० ॥

 पूजादीनां प्रवाहार्थं महापर्वस्वथान्वहम् ।

 क्षेत्रापणपुरग्रामान् दत्त्वा मत्सार्ष्टितामियात् ॥ ५१ ॥

 प्रतिष्ठया सार्वभौमं सद्मना भुवनत्रयम् ।

 पूजादिना ब्रह्मलोकं त्रिभिर्मत्साम्यतामियात् ॥ ५२ ॥

 मामेव नैरपेक्ष्येण भक्तियोगेन विन्दति ।

 भक्तियोगं स लभते एवं यः पूजयेत माम् ॥ ५३ ॥

 यः स्वदत्तां परैर्दत्तां हरेत सुरविप्रयोः ।

 वृत्तिं स जायते विड्भुग् वर्षाणां अयुतायुतम् ॥ ५४ ॥

 कर्तुश्च सारथेहेतोः अनुमोदितुरेव च ।

 कर्मणां भागिनः प्रेत्य भूयो भूयसि तत्फलम् ॥ ५५ ॥

 

प्रिय उद्धव ! यदि सामर्थ्य हो तो प्रतिदिन चन्दन, खस, कपूर, केसर और अरगजा आदि सुगन्धित वस्तुओंद्वारा सुवासित जलसे मुझे स्नान कराये और उस समय ‘सुवर्ण घर्म’, इत्यादि स्वर्णघर्मानुवाक, ‘जितं ते पुण्डरीकाक्ष’ इत्यादि महापुरुषविद्या, ‘सहस्रशीर्षा पुरुष:’ इत्यादि पुरुषसूक्त और ‘इन्द्रं नरो नेमधिता हवन्त’ इत्यादि मन्त्रोक्त राजनादि सामगायनका पाठ भी करता रहे ॥ ३०-३१ ॥ मेरा भक्त वस्त्र, यज्ञोपवीत, आभूषण, पत्र, माला, गन्ध और चन्दनादिसे प्रेमपूर्वक यथावत् मेरा शृङ्गार करे ॥ ३२ ॥ उपासक श्रद्धाके साथ मुझे पाद्य, आचमन, चन्दन, पुष्प, अक्षत, धूप, दीप आदि सामग्रियाँ समर्पित करे ॥ ३३ ॥ यदि हो सके तो गुड़, खीर, घृत, पूड़ी, पूए, लड्डू, हलुआ, दही और दाल आदि विविध व्यञ्जनोंका नैवेद्य लगावे ॥ ३४ ॥ भगवान्‌ के विग्रह को दतुअन कराये, उबटन लगाये, पञ्चामृत आदिसे स्नान कराये, सुगन्धित पदार्थोंका लेप करे, दर्पण दिखाये, भोग लगाये और शक्ति हो तो प्रतिदिन अथवा पर्वोंके अवसरपर नाचने-गाने आदिका भी प्रबन्ध करे ॥ ३५ ॥

उद्धवजी ! तदनन्तर पूजाके बाद शास्त्रोक्त विधिसे बने हुए कुण्डमें अग्रिकी स्थापना करे। वह कुण्ड मेखला, गर्त और वेदीसे शोभायमान हो। उसमें हाथकी हवासे अग्रि प्रज्वलित करके उसका परिसमूहन करे, अर्थात् उसे एकत्र कर दे ॥ ३६ ॥ वेदीके चारों ओर कुशकण्डिका करके अर्थात् चारों ओर बीस-बीस कुश बिछाकर मन्त्र पढ़ता हुआ उनपर जल छिडक़े। इसके बाद विधिपूर्वक समिधाओंका आधानरूप अन्वाधान कर्म करके अग्रिके उत्तर भागमें होमोपयोगी सामग्री रखे और प्रोक्षणीपात्रके जलसे प्रोक्षण करे। तदनन्तर अग्रिमें मेरा इस प्रकार ध्यान करे ॥ ३७ ॥ ‘मेरी मूर्ति तपाये हुए सोनेके समान दम-दम दमक रही है। रोम-रोमसे शान्तिकी वर्षा हो रही है। लंबी और विशाल चार भुजाएँ शोभायमान हैं। उनमें शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म विराजमान हैं। कमलकी केसरके समान पीला-पीला वस्त्र फहरा रहा है ॥ ३८ ॥ सिरपर मुकुट, कलाइयोंमें कंगन, कमरमें करधनी और बाँहोंमें बाजूबंद झिलमिला रहे हैं। वक्ष:स्थलपर श्रीवत्सका चिह्न है। गलेमें कौस्तुभमणि जगमगा रही है। घुटनोंतक वनमाला लटक रही है’ ॥ ३९ ॥ अग्रिमें मेरी इस मूर्तिका ध्यान करके पूजा करनी चाहिये। इसके बाद सूखी समिधाओंको घृतमें डुबोकर आहुति दे और आज्यभाग और आधार नामक दो-दो आहुतियोंसे और भी हवन करे। तदनन्तर घीसे भिगोकर अन्य हवन-सामग्रियोंसे आहुति दे ॥ ४० ॥ इसके बाद अपने इष्टमन्त्रसे अथवा ‘ॐ नमो नारायणाय’ इस अष्टाक्षर मन्त्रसे तथा पुरुषसूक्तके सोलह मन्त्रोंसे हवन करे। बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि धर्मादि देवताओंके लिये भी विधिपूर्वक मन्त्रोंसे हवन करे और स्विष्टकृत् आहुति भी दे ॥ ४१ ॥

इस प्रकार अग्रिमें अन्तर्यामीरूपसे स्थित भगवान्‌की पूजा करके उन्हें नमस्कार करे और नन्द- सुनन्द आदि पार्षदोंको आठों दिशाओंमें हवनकर्माङ्ग बलि दे। तदनन्तर प्रतिमाके सम्मुख बैठकर परब्रह्मस्वरूप भगवान्‌ नारायणका स्मरण करे और भगवत्स्वरूप मूलमन्त्र ‘ॐ नमो नारायणाय’ का जप करे ॥ ४२ ॥ इसके बाद भगवान्‌को आचमन करावे और उनका प्रसाद विष्वक्सेनको निवेदन करे। इसके पश्चात् अपने इष्टदेवकी सेवामें सुगन्धित ताम्बूल आदि मुखवास उपस्थित करे तथा पुष्पाञ्जलि समर्पित करे ॥ ४३ ॥ मेरी लीलाओंको गावे, उनका वर्णन करे और मेरी ही लीलाओंका अभिनय करे। यह सब करते समय प्रेमोन्मत्त होकर नाचने लगे। मेरी लीला-कथाएँ स्वयं सुने और दूसरोंको सुनावे। कुछ समयतक संसार और उसके रगड़ों- झगड़ोंको भूलकर मुझमें ही तन्मय हो जाय ॥ ४४ ॥ प्राचीन ऋषियोंके द्वारा अथवा प्राकृत भक्तोंके द्वारा बनाये हुए छोटे-बड़े स्तव और स्तोत्रोंसे मेरी स्तुति करके प्रार्थना करे—‘भगवन् ! आप मुझपर प्रसन्न हों। मुझे अपने कृपाप्रसादसे सराबोर कर दें।’ तदनन्तर दण्डवत्-प्रणाम करे ॥ ४५ ॥ अपना सिर मेरे चरणोंपर रख दे और अपने दोनों हाथोंसे—दायेंसे दाहिना और बायेंसे बायाँ चरण पकडक़र कहे—‘भगवन् ! इस संसार-सागरमें मैं डूब रहा हूँ। मृत्युरूप मगर मेरा पीछा कर रहा है। मैं डरकर आपकी शरणमें आया हूँ। प्रभो ! आप मेरी रक्षा कीजिये’ ॥ ४६ ॥ इस प्रकार स्तुति करके मुझे समर्पित की हुई माला आदरके साथ अपने सिरपर रखे और उसे मेरा दिया हुआ प्रसाद समझे। यदि विसर्जन करना हो तो ऐसी भावना करनी चाहिये कि प्रतिमामेंसे एक दिव्य ज्योति निकली है और वह मेरी हृदयस्थ ज्योतिमें लीन हो गयी है। बस, यही विसर्जन है ॥ ४७ ॥ उद्धवजी ! प्रतिमा आदिमें जब जहाँ श्रद्धा हो तब तहाँ मेरी पूजा करनी चाहिये, क्योंकि मैं सर्वात्मा हूँ और समस्त प्राणियोंमें तथा अपने हृदयमें भी स्थित हूँ ॥ ४८ ॥

उद्धवजी ! जो मनुष्य इस प्रकार वैदिक, तान्ङ्क्षत्रक क्रियायोगके द्वारा मेरी पूजा करता है, वह इस लोक और परलोकमें मुझसे अभीष्ट सिद्धि प्राप्त करता है ॥ ४९ ॥ यदि शक्ति हो, तो उपासक सुन्दर और सुदृढ़ मन्दिर बनवाये और उसमें मेरी प्रतिमा स्थापित करे। सुन्दर-सुन्दर फूलोंके बगीचे लगवा दे; नित्यकी पूजा, पर्वकी यात्रा और बड़े-बड़े उत्सवोंकी व्यवस्था कर दे ॥ ५० ॥ जो मनुष्य पर्वोंके उत्सव और प्रतिदिनकी पूजा लगातार चलनेके लिये खेत, बाजार, नगर अथवा गाँव मेरे नामपर समर्पित कर देते हैं, उन्हें मेरे समान ऐश्वर्यकी प्राप्ति होती है ॥ ५१ ॥ मेरी मूर्तिकी प्रतिष्ठा करनेसे पृथ्वीका एकच्छत्र राज्य, मन्दिर-निर्माणसे त्रिलोकीका राज्य, पूजा आदिकी व्यवस्था करनेसे ब्रह्मलोक और तीनोंके द्वारा मेरी समानता प्राप्त होती है ॥ ५२ ॥ जो निष्कामभावसे मेरी पूजा करता है, उसे मेरा भक्तियोग प्राप्त हो जाता है और उस निरपेक्ष भक्तियोगके द्वारा वह स्वयं मुझे प्राप्त कर लेता है ॥ ५३ ॥ जो अपनी दी हुई या दूसरोंकी दी हुई देवता और ब्राह्मणकी जीविका हरण कर लेता है, वह करोड़ों वर्षोंतक विष्ठाका कीड़ा होता है ॥ ५४ ॥ जो लोग ऐसे कामोंमें सहायता, प्रेरणा अथवा अनुमोदन करते हैं, वे भी मरनेके बाद प्राप्त करनेवालेके समान ही फलके भागीदार होते हैं। यदि उनका हाथ अधिक रहा, तो फल भी उन्हें अधिक ही मिलता है ॥ ५५ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां एकादशस्कन्धे सप्तविंशोऽध्यायः ॥ २७ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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