गुरुवार, 15 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वादश स्कन्ध– पहला अध्याय (पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

द्वादश स्कन्धपहला अध्याय (पोस्ट०१)

 

कलियुग  के राजवंशों का वर्णन

 

राजोवाच -

स्वधामानुगते कृष्ण यदुवंशविभूषणे ।

कस्य वंशोऽभवत् पृथ्व्यां एतद् आचक्ष्व मे मुने १

 

श्रीशुक उवाच

योऽन्त्यः पुरञ्जयो नाम भाव्यो बार्हद्रथो नृप

तस्यामात्यस्तु शुनको हत्वा स्वामिनमात्मजम् २

प्रद्योतसंज्ञं राजानं कर्ता यत्पालकः सुतः

विशाखयूपस्तत्पुत्रो भविता राजकस्ततः ३

नन्दिवर्धनस्तत्पुत्रः पञ्च प्रद्योतना इमे

अष्टत्रिंशोत्तरशतं भोक्ष्यन्ति पृथिवीं नृपाः ४

शिशुनागस्ततो भाव्यः काकवर्णस्तु तत्सुतः

क्षेमधर्मा तस्य सुतः क्षेत्रज्ञः क्षेमधर्मजः ५

विधिसारः सुतस्तस्या जातशत्रुर्भविष्यति

दर्भकस्तत्सुतो भावी दर्भकस्याजयः स्मृतः ६

नन्दिवर्धन आजेयो महानन्दिः सुतस्ततः

शिशुनागा दशैवैते सष्ट्युत्तरशतत्रयम् ७

समा भोक्ष्यन्ति पृथिवीं कुरुश्रेष्ठ कलौ नृपाः

महानन्दिसुतो राजन्शूद्रा गर्भोद्भवो बली ८

महापद्मपतिः कश्चिन्नन्दः क्षत्रविनाशकृत्

ततो नृपा भविष्यन्ति शूद्र प्रायास्त्वधार्मिकाः ९

स एकच्छत्रां पृथिवीमनुल्लङ्घितशासनः

शासिष्यति महापद्मो द्वितीय इव भार्गवः १०

तस्य चाष्टौ भविष्यन्ति सुमाल्यप्रमुखाः सुताः

य इमां भोक्ष्यन्ति महीं राजानश्च शतं समाः ११

नव नन्दान्द्विजः कश्चित्प्रपन्नानुद्धरिष्यति

तेषां अभावे जगतीं मौर्या भोक्ष्यन्ति वै कलौ १२

स एव चन्द्र गुप्तं वै द्विजो राज्येऽभिषेक्ष्यति

तत्सुतो वारिसारस्तु ततश्चाशोकवर्धनः १३

सुयशा भविता तस्य सङ्गतः सुयशःसुतः

शालिशूकस्ततस्तस्य सोमशर्मा भविष्यति १४

शतधन्वा ततस्तस्य भविता तद्बृहद्रथः

मौर्या ह्येते दश नृपाः सप्तत्रिंशच्छतोत्तरम्

समा भोक्ष्यन्ति पृथिवीं कलौ कुरुकुलोद्वह  १५

 

अग्निमित्रस्ततस्तस्मात्सुज्येष्ठो भविता ततः १६

वसुमित्रो भद्रकश्च पुलिन्दो भविता सुतः

ततो घोषः सुतस्तस्माद्वज्रमित्रो भविष्यति १७

ततो भागवतस्तस्माद्देवभूतिरिति श्रुत:

शुङ्गा दशैते भोक्ष्यन्ति भूमिं वर्षशताधिकम् १८

ततः काण्वानियं भूमिर्यास्यत्यल्पगुणान्नृप

शुङ्गं हत्वा देवभूतिं काण्वोऽमात्यस्तु कामिनम् १९

स्वयं करिष्यते राज्यं वसुदेवो महामतिः

तस्य पुत्रस्तु भूमित्रस्तस्य नारायणः सुतः

नारायणस्य भविता सुशर्मा नाम विश्रुत: २०

काण्वायना इमे भूमिं चत्वारिंशच्च पञ्च च

शतानि त्रीणि भोक्ष्यन्ति वर्षाणां च कलौ युगे २१

हत्वा काण्वं सुशर्माणं तद्भृत्यो वृषलो बली

गां भोक्ष्यत्यन्ध्रजातीयः कञ्चित्कालमसत्तमः २२

कृष्णनामाथ तद्भ्राता भविता पृथिवीपतिः

श्रीशान्तकर्णस्तत्पुत्रः पौर्णमासस्तु तत्सुतः २३

लम्बोदरस्तु तत्पुत्रस्तस्माच्चिबिलको नृपः

मेघस्वातिश्चिबिलकादटमानस्तु तस्य च २४

अनिष्टकर्मा हालेयस्तलकस्तस्य चात्मजः

पुरीषभीरुस्तत्पुत्रस्ततो राजा सुनन्दनः २५

चकोरो बहवो यत्र शिवस्वातिररिन्दमः

तस्यापि गोमती पुत्रः पुरीमान्भविता ततः २६

मेदशिराः शिवस्कन्दो यज्ञश्रीस्तत्सुतस्ततः

विजयस्तत्सुतो भाव्यश्चन्द्र विज्ञः सलोमधिः २७

एते त्रिंशन्नृपतयश्चत्वार्यब्दशतानि च

षट्पञ्चाशच्च पृथिवीं भोक्ष्यन्ति कुरुनन्दन २८

 

राजा परीक्षित्‌ने पूछा—भगवन् ! यदुवंशशिरोमणि भगवान्‌ श्रीकृष्ण जब अपने परमधाम पधार गये, तब पृथ्वीपर किस वंशका राज्य हुआ ? तथा अब किसका राज्य होगा ? आप कृपा करके मुझे यह बतलाइये ॥ १ ॥

श्रीशुकदेवजीने कहा—प्रिय परीक्षित्‌ ! मैंने तुम्हें नवें स्कन्धमें यह बात बतलायी थी कि जरासन्धके पिता बृहद्रथके वंशमें अन्तिम राजा होगा पुरञ्जय अथवा रिपुञ्जय। उसके मन्त्रीका नाम होगा शुनक। वह अपने स्वामीको मार डालेगा और अपने पुत्र प्रद्योतको राजसिंहासनपर अभिषिक्त करेगा। प्रद्योतका पुत्र होगा पालक, पालकका विशाखयूप, विशाखयूपका राजक और राजकका पुत्र होगा नन्दिवर्धन। प्रद्योतवंशमें यही पाँच नरपति होंगे। इनकी संज्ञा होगी ‘प्रद्योतन’। ये एक सौ अड़तीस वर्षतक पृथ्वीका उपभोग करेंगे ॥ २—४ ॥

इसके पश्चात् शिशुनाग नामका राजा होगा। शिशुनागका काकवर्ण, उसका क्षेमधर्मा और क्षेमधर्माका पुत्र होगा क्षेत्रज्ञ ॥ ५ ॥ क्षेत्रज्ञका विधिसार, उसका अजातशत्रु, फिर दर्भक और दर्भकका पुत्र अजय होगा ॥ ६ ॥ अजयसे नन्दिवद्र्धन और उससे महानन्दिका जन्म होगा। शिशुनाग-वंशमें ये दस राजा होंगे। ये सब मिलकर कलियुगमें तीन सौ साठ वर्षतक पृथ्वीपर राज्य करेंगे। प्रिय परीक्षित्‌ ! महानन्दिकी शूद्रा पत्नीके गर्भसे नन्द नामका पुत्र होगा। वह बड़ा बलवान् होगा। महानन्दि ‘महापद्म’ नामक निधिका अधिपति होगा। इसीलिये लोग उसे ‘महापद्म’ भी कहेंगे। वह क्षत्रिय राजाओंके विनाशका कारण बनेगा। तभीसे राजालोग प्राय: शूद्र और अधार्मिक हो जायँगे ॥ ७—९ ॥

महापद्म पृथ्वीका एकच्छत्र शासक होगा। उसके शासनका उल्लङ्घन कोई भी नहीं कर सकेगा। क्षत्रियोंके विनाशमें हेतु होनेकी दृष्टिसे तो उसे दूसरा परशुराम ही समझना चाहिये ॥ १० ॥ उसके सुमाल्य आदि आठ पुत्र होंगे। वे सभी राजा होंगे और सौ वर्षतक इस पृथ्वीका उपभोग करेंगे ॥ ११ ॥ कौटिल्य, वात्स्यायन तथा चाणक्यके नामसे प्रसिद्ध एक ब्राह्मण विश्वविख्यात नन्द और उनके सुमाल्य आदि आठ पुत्रोंका नाश कर डालेगा। उनका नाश हो जानेपर कलियुगमें मौर्यवंशी नरपति पृथ्वीका राज्य करेंगे ॥ १२ ॥ वही ब्राह्मण पहले-पहल चन्द्रगुप्त मौर्यको राजाके पदपर अभिषिक्त करेगा। चन्द्रगुप्तका पुत्र होगा वारिसार और वारिसारका अशोकवद्र्धन ॥ १३ ॥ अशोकवद्र्धनका पुत्र होगा सुयश। सुयशका सङ्गत, सङ्गतका शालिशूक और शालिशूकका सोमशर्मा ॥ १४ ॥ सोमशर्माका शतधन्वा और शतधन्वाका पुत्र बृहद्रथ होगा। कुरुवंशविभूषण परीक्षित्‌ ! मौर्यवंशके ये दस[*] नरपति कलियुगमें एक सौ सैंतीस वर्षतक पृथ्वीका उपभोग करेंगे। बृहद्रथका सेनापति होगा पुष्पमित्र शुङ्ग। वह अपने स्वामीको मारकर स्वयं राजा बन बैठेगा। पुष्पमित्रका अग्रिमित्र और अग्रिमित्रका सुज्येष्ठ होगा ॥ १५-१६ ॥ सुज्येष्ठका वसुमित्र, वसुमित्रका भद्रक और भद्रकका पुलिन्द, पुलिन्दका घोष और घोषका पुत्र होगा वज्रमित्र ॥ १७ ॥ वज्रमित्रका भागवत और भागवतका पुत्र होगा देवभूति। शुङ्गवंशके ये दस नरपति एक सौ बारह वर्षतक पृथ्वीका पालन करेंगे ॥ १८ ॥

परीक्षित्‌ ! शुङ्गवंशी नरपतियोंका राज्यकाल समाप्त होनेपर यह पृथ्वी कण्ववंशी नरपतियोंके हाथमें चली जायगी। कण्ववंशी नरपति अपने पूर्ववर्ती राजाओंकी अपेक्षा कम गुणवाले होंगे। शुङ्गवंशका अन्तिम नरपति देवभूति बड़ा ही लम्पट होगा। उसे उसका मन्त्री कण्ववंशी वसुदेव मार डालेगा और अपने बुद्धिबलसे स्वयं राज्य करेगा। वसुदेवका पुत्र होगा भूमित्र, भूमित्रका नारायण और नारायणका सुशर्मा। सुशर्मा बड़ा यशस्वी होगा ॥ १९-२० ॥ कण्ववंशके ये चार नरपति काण्वायन कहलायेंगे और कलियुगमें तीन सौ पैंतालीस वर्षतक पृथ्वीका उपभोग करेंगे ॥ २१ ॥ प्रिय परीक्षित्‌ ! कण्ववंशी सुशर्माका एक शूद्र सेवक होगा—बली। वह अन्ध्रजातिका एवं बड़ा दुष्ट होगा। वह सुशर्माको मारकर कुछ समयतक स्वयं पृथ्वीका राज्य करेगा ॥ २२ ॥ इसके बाद उसका भाई कृष्ण राजा होगा। कृष्णका पुत्र श्रीशान्तकर्ण और उसका पौर्णमास होगा ॥ २३ ॥ पौर्णमासका लम्बोदर और लम्बोदरका पुत्र चिबिलक होगा। चिबिलकका मेघस्वाति, मेघस्वातिका अटमान, अटमानका अनिष्टकर्मा, अनिष्टकर्माका हालेय, हालेयका तलक, तलकका पुरीषभीरु और पुरीषभीरुका पुत्र होगा राजा सुनन्दन ॥ २४-२५ ॥ परीक्षित्‌ ! सुनन्दनका पुत्र होगा चकोर; चकोरके आठ पुत्र होंगे, जो सभी ‘बहु’ कहलायेंगे। इनमें सबसे छोटेका नाम होगा शिवस्वाति। वह बड़ा वीर होगा और शत्रुओंका दमन करेगा। शिवस्वातिका गोमतीपुत्र और उसका पुत्र होगा पुरीमान् ॥ २६ ॥ पुरीमान्का मेद:शिरा, मेद:शिराका शिवस्कन्द, शिवस्कन्दका यज्ञश्री, यज्ञश्रीका विजय और विजयके दो पुत्र होंगे—चन्द्रविज्ञ और लोमधि ॥ २७ ॥ परीक्षित्‌ ! ये तीस राजा चार सौ छप्पन वर्षतक पृथ्वीका राज्य भोगेंगे ॥ २८ ॥

.........................................

[*] मौर्यों की संख्या चन्द्रगुप्त को मिलाकर नौ ही होती है। विष्णुपुराणादि में चन्द्रगुप्त से पाँचवें दशरथ नाम के एक और मौर्यवंशी राजा का उल्लेख मिलता है। उसीको लेकर यहाँ दस संख्या समझनी चाहिये।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



बुधवार, 14 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

श्रीभगवान्‌ का स्वधामगमन

 

दारुको द्वारकामेत्य वसुदेवोग्रसेनयोः ।

 पतित्वा चरणावस्रैः न्यषिञ्चत् कृष्णविच्युतः ॥ १५ ॥

 कथयामास निधनं वृष्णीनां कृत्स्नशो नृप ।

 तच्छ्रुत्वोद्विग्नहृदया जनाः शोकविर्मूर्च्छिताः ॥ १६ ॥

 तत्र स्म त्वरिता जग्मुः कृष्णविश्लेषविह्वलाः ।

 व्यसवः शेरते यत्र ज्ञातयो घ्नंत आननम् ॥ १७ ॥

 देवकी रोहिणी चैव वसुदेवस्तथा सुतौ ।

 कृष्णरामावपश्यंतः शोकार्ता विजहुः स्मृतिम् ॥ १८ ॥

 प्राणांश्च विजहुस्तत्र भगवद् विरहातुराः ।

 उपगुह्य पतींस्तात चितां आरुरुहुः स्त्रियः ॥ १९ ॥

 रामपत्न्यश्च तद्देहं उपगुह्याग्निमाविशन् ।

 वसुदेवपत्‍न्यस्तद्‍गात्रं प्रद्युम्नादीन् हरेः स्नुषाः ।

 कृष्णपत्न्योऽविशन्नग्निं रुक्मिण्याद्याः तदात्मिकाः ॥ २० ॥

 अर्जुनः प्रेयसः सख्युः कृष्णस्य विरहातुरः ।

 आत्मानं सांत्वयामास कृष्णगीतैः सदुक्तिभिः ॥ २१ ॥

 बंधूनां नष्टगोत्राणां अर्जुनः सांपरायिकम् ।

 हतानां कारयामास यथावद् अनुपूर्वशः ॥ २२ ॥

 द्वारकां हरिणा त्यक्तां समुद्रोऽप्लावयत् क्षणात् ।

 वर्जयित्वा महाराज श्रीमद् भगवदालयम् ॥ २३ ॥

 नित्यं सन्निहितस्तत्र भगवान् मधुसूदनः ।

 स्मृत्याशेषाशुभहरं सर्वमङ्गलमङ्गलम् ॥ २४ ॥

 स्त्रीबालवृद्धानादाय हतशेषान् धनञ्जयः ।

 इंद्रप्रस्थं समावेश्य वज्रं तत्राभ्यषेचयत् ॥ २५ ॥

 श्रुत्वा सुहृद् वधं राजन् अर्जुनात्ते पितामहाः ।

 त्वां तु वंशधरं कृत्वा जग्मुः सर्वे महापथम् ॥ २६ ॥

 य एतद् देवदेवस्य विष्णोः कर्माणि जन्म च ।

 कीर्तयेत् श्रद्धया मर्त्यः सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ २७ ॥

इत्थं हरेर्भगवतो रुचिरावतार

     वीर्याणि बालचरितानि च शंतमानि ।

 अन्यत्र चेह च श्रुतानि गृणन् मनुष्यो

     भक्तिं परां परमहंसगतौ लभेत ॥ २८ ॥

 

इधर दारुक भगवान्‌ श्रीकृष्णके विरहसे व्याकुल होकर द्वारका आया और वसुदेवजी तथा उग्रसेनके चरणोंपर गिर-गिरकर उन्हें आँसुओंसे भिगोने लगा ॥ १५ ॥ परीक्षित्‌ ! उसने अपनेको सँभालकर यदुवंशियोंके विनाशका पूरा-पूरा विवरण कह सुनाया। उसे सुनकर लोग बहुत ही दुखी हुए और मारे शोकके मूर्च्छित हो गये ॥ १६ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णके वियोगसे विह्वल होकर वे लोग सिर पीटते हुए वहाँ तुरंत पहुँचे, जहाँ उनके भाई-बन्धु निष्प्राण होकर पड़े हुए थे ॥ १७ ॥ देवकी, रोहिणी और वसुदेवजी अपने प्यारे पुत्र श्रीकृष्ण और बलरामको न देखकर शोककी पीड़ासे बेहोश हो गये ॥ १८ ॥ उन्होंने भगवद्विरहसे व्याकुल होकर वहीं अपने प्राण छोड़ दिये। स्त्रियोंने अपने-अपने पतियोंके शव पहचानकर उन्हें हृदयसे लगा लिया और उनके साथ चितापर बैठकर भस्म हो गयीं ॥ १९ ॥ बलरामजीकी पत्नियाँ उनके शरीरको, वसुदेवजीकी पत्नियाँ उनके शवको और भगवान्‌की पुत्रवधुएँ अपने पतियोंकी लाशोंको लेकर अग्नि में प्रवेश कर गयीं। भगवान्‌ श्रीकृष्णकी रुक्मिणी आदि पटरानियाँ उनके ध्यानमें मग्न होकर अग्नि में  प्रविष्ट हो गयीं ॥ २० ॥

परीक्षित्‌ ! अर्जुन अपने प्रियतम और सखा भगवान्‌ श्रीकृष्णके विरहसे पहले तो अत्यन्त व्याकुल हो गये; फिर उन्होंने उन्हींके गीतोक्त सदुपदेशोंका स्मरण करके अपने मनको सँभाला ॥ २१ ॥ यदुवंशके मृत व्यक्तियोंमें जिनको कोई पिण्ड देनेवाला न था, उनका श्राद्ध अर्जुनने क्रमश: विधिपूर्वक करवाया ॥ २२ ॥ महाराज ! भगवान्‌ के न रहनेपर समुद्रने एकमात्र भगवान्‌ श्रीकृष्णका निवास-स्थान छोडक़र एक ही क्षणमें सारी द्वारका डुबो दी ॥ २३ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण वहाँ अब भी सदा-सर्वदा निवास करते हैं। वह स्थान स्मरणमात्रसे ही सारे पाप-तापोंका नाश करनेवाला और सर्वमङ्गलोंको भी मङ्गल बनानेवाला है ॥ २४ ॥ प्रिय परीक्षित्‌ ! पिण्डदानके अनन्तर बची-खुची स्त्रियों, बच्चों और बूढ़ोंको लेकर अर्जुन इन्द्रप्रस्थ आये। वहाँ सबको यथायोग्य बसाकर अनिरुद्धके पुत्र वज्रका राज्याभिषेक कर दिया ॥ २५ ॥ राजन् ! तुम्हारे दादा युधिष्ठिर आदि पाण्डवोंको अर्जुनसे ही यह बात मालूम हुई कि यदुवंशियोंका संहार हो गया है। तब उन्होंने अपने वंशधर तुम्हें राज्यपदपर अभिषिक्त करके हिमालयकी वीरयात्रा की ॥ २६ ॥ मैंने तुम्हें देवताओंके भी आराध्यदेव भगवान्‌ श्रीकृष्णकी जन्मलीला और कर्मलीला सुनायी। जो मनुष्य श्रद्धाके साथ इसका कीर्तन करता है, वह समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ २७ ॥ परीक्षित्‌ ! जो मनुष्य इस प्रकार भक्तभयहारी निखिल सौन्दर्यमाधुर्यनिधि श्रीकृष्णचन्द्रके अवतार-सम्बन्धी रुचिर पराक्रम और इस श्रीमद्भागवत महापुराणमें तथा दूसरे पुराणोंमें वर्णित परमानन्दमयी बाललीला, कैशोरलीला आदिका सङ्कीर्तन करता है, वह परमहंस मुनीन्द्रोंके अन्तिम प्राप्तव्य श्रीकृष्णके चरणोंमें पराभक्ति प्राप्त करता है ॥ २८ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां एकादशस्कन्धे एकत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३१ ॥

 

 इति एकादश स्कन्ध समाप्त ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु

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श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

श्रीभगवान्‌ का स्वधामगमन

 

श्रीशुक उवाच -

अथ तत्रागमद् ब्रह्मा भवान्या च समं भवः ।

 महेंद्रप्रमुखा देवा मुनयः सप्रजेश्वराः ॥ १ ॥

 पितरः सिद्धगंधर्वा विद्याधरमहोरगाः ।

 चारणा यक्षरक्षांसि किन्नराप्सरसो द्विजाः ॥ २ ॥

 द्रष्टुकामा भगवतो निर्याणं परमोत्सुकाः ।

 गायंतश्च गृणंतश्च शौरेः कर्माणि जन्म च ॥ ३ ॥

 ववृषुः पुष्पवर्षाणि विमानावलिभिर्नभः ।

 कुर्वंतः सङ्‌कुलं राजन् भक्त्या परमया युताः ॥ ४ ॥

 भगवान् पितामहं वीक्ष्य विभूतीरात्मनो विभुः ।

 संयोज्यात्मनि चात्मानं पद्मनेत्रे न्यमीलयत् ॥ ५ ॥

 लोकाभिरामां स्वतनुं धारणा ध्यान मङ्गलम् ।

 योगधारणयाऽऽग्नेय्या दग्ध्वा धामाविशत्स्वकम् ॥ ६ ॥

 दिवि दुंदुभयो नेदुः पेतुः सुमनसश्च खात् ।

 सत्यं धर्मो धृतिर्भूमेः कीर्तिः श्रीश्चानु तं ययुः ॥ ७ ॥

 देवादयो ब्रह्ममुख्या न विशंतं स्वधामनि ।

 अविज्ञातगतिं कृष्णं ददृशुश्चातिविस्मिताः ॥ ८ ॥

 सौदामन्या यथाऽऽकाशे यांत्या हित्वाभ्रमण्डलम् ।

 गतिर्न लक्ष्यते मर्त्यैः तथा कृष्णस्य दैवतैः ॥ ९ ॥

 ब्रह्मरुद्रादयस्ते तु दृष्ट्वा योगगतिं हरेः ।

 विस्मितास्तां प्रशंसंतः स्वं स्वं लोकं ययुस्तदा ॥ १० ॥

राजन् परस्य तनुभृज्जननाप्ययेहा

     मायाविडम्बनमवेहि यथा नटस्य ।

 सृष्ट्वात्मनेदमनुविश्य विहृत्य चांते

     संहृत्य चात्ममहिनोपरतः स आस्ते ॥ ११ ॥

 मर्त्येन यो गुरुसुतं यमलोकनीतं

     त्वां चानयच्छरणदः परमास्त्रदग्धम् ।

 जिग्येंऽतकांतकमपीशमसावनीशः

     किं स्वावने स्वरनयन् मृगयुं सदेहम् ॥ १२ ॥

तथाप्यशेषस्थितिसम्भवाप्ययेषु

     अनन्यहेतुर्यदशेषशक्तिधृक् ।

 नैच्छत् प्रणेतुं वपुरत्र शेषितं

     मर्त्येन किं स्वस्थगतिं प्रदर्शयन् ॥ १३ ॥

य एतां प्रातरुत्थाय कृष्णस्य पदवीं पराम् ।

 प्रयतः कीर्तयेद् भक्त्या तामेवाप्नोत्यनुत्तमाम् ॥ १४ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्‌ ! दारुकके चले जानेपर ब्रह्माजी, शिव-पार्वती, इन्द्रादि लोकपाल, मरीचि आदि प्रजापति, बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, पितर-सिद्ध, गन्धर्व-विद्याधर, नाग-चारण, यक्ष-राक्षस, किन्नर-अप्सराएँ तथा गरुड़लोकके विभिन्न पक्षी अथवा मैत्रेय आदि ब्राह्मण भगवान्‌ श्रीकृष्णके परमधाम-प्रस्थानको देखनेके लिये बड़ी उत्सुकतासे वहाँ आये। वे सभी भगवान्‌ श्रीकृष्णके जन्म और लीलाओंका गान अथवा वर्णन कर रहे थे। उनके विमानोंसे सारा आकाश भर-सा गया था। वे बड़ी भक्तिसे भगवान्‌पर पुष्पोंकी वर्षा कर रहे थे ॥ १—४ ॥ सर्वव्यापक भगवान्‌ श्रीकृष्णने ब्रह्माजी और अपने विभूतिस्वरूप देवताओंको देखकर अपने आत्माको स्वरूपमें स्थित किया और कमलके समान नेत्र बंद कर लिये ॥ ५ ॥ भगवान्‌का श्रीविग्रह उपासकोंके ध्यान और धारणाका मङ्गलमय आधार और समस्त लोकोंके लिये परम रमणीय आश्रय है; इसलिये उन्होंने (योगियोंके समान) अग्रिदेवतासम्बन्धी योगधारणाके द्वारा उसको जलाया नहीं, सशरीर अपने धाममें चले गये ॥ ६ ॥ उस समय स्वर्गमें नगारे बजने लगे और आकाशसे पुष्पोंकी वर्षा होने लगी। परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णके पीछे-पीछे इस लोकसे सत्य,धर्म, धैर्य, कीर्ति और श्रीदेवी भी चली गयीं ॥ ७ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णकी गति मन और वाणीके परे है; तभी तो जब भगवान्‌ अपने धाममें प्रवेश करने लगे, तब ब्रह्मादि देवता भी उन्हें न देख सके। इस घटनासे उन्हें बड़ा ही विस्मय हुआ ॥ ८ ॥ जैसे बिजली मेघमण्डलको छोडक़र जब आकाशमें प्रवेश करती है, तब मनुष्य उसकी चाल नहीं देख पाते, वैसे ही बड़े-बड़े देवता भी श्रीकृष्णकी गतिके सम्बन्धमें कुछ न जान सके ॥ ९ ॥ ब्रह्माजी और भगवान्‌ शङ्कर आदि देवता भगवान्‌की यह परमयोगमयी गति देखकर बड़े विस्मयके साथ उसकी प्रशंसा करते अपने-अपने लोकमें चले गये ॥ १० ॥

परीक्षित्‌ ! जैसे नट अनेकों प्रकारके स्वाँग बनाता है, परन्तु रहता है उन सबसे निर्लेप; वैसे ही भगवान्‌का मनुष्योंके समान जन्म लेना, लीला करना और फिर उसे संवरण कर लेना उनकी मायाका विलासमात्र है— अभिनयमात्र है। वे स्वयं ही इस जगत्की सृष्टि करके इसमें प्रवेश करके विहार करते हैं और अन्तमें संहार-लीला करके अपने अनन्त महिमामय स्वरूपमें ही स्थित हो जाते हैं ॥ ११ ॥ सान्दीपनि गुरुका पुत्र यमपुरी चला गया था, परन्तु उसे वे मनुष्य-शरीरके साथ लौटा लाये। तुम्हारा ही शरीर ब्रह्मास्त्रसे जल चुका था; परन्तु उन्होंने तुम्हें जीवित कर दिया। वास्तवमें उनकी शरणागतवत्सलता ऐसी ही है। और तो क्या कहूँ, उन्होंने कालोंके महाकाल भगवान्‌ शङ्करको भी युद्धमें जीत लिया और अत्यन्त अपराधी—अपने शरीरपर ही प्रहार करनेवाले व्याधको भी सदेह स्वर्ग भेज दिया। प्रिय परीक्षित्‌ ! ऐसी स्थितिमें क्या वे अपने शरीरको सदाके लिये यहाँ नहीं रख सकते थे ? अवश्य ही रख सकते थे ॥ १२ ॥ यद्यपि भगवान्‌ श्रीकृष्ण सम्पूर्ण जगत् की स्थिति, उत्पत्ति और संहारके निरपेक्ष कारण हैं, और सम्पूर्ण शक्तियोंके धारण करनेवाले हैं तथापि उन्होंने अपने शरीरको इस संसारमें बचा रखनेकी इच्छा नहीं की। इससे उन्होंने यह दिखाया कि इस मनुष्य-शरीरसे मुझे क्या प्रयोजन है ? आत्मनिष्ठ पुरुषोंके लिये यही आदर्श है कि वे शरीर रखनेकी चेष्टा न करें ॥ १३ ॥ जो पुरुष प्रात:काल उठकर भगवान्‌ श्रीकृष्णके परमधामगमनकी इस कथाका एकाग्रता और भक्तिके साथ कीर्तन करेगा, उसे भगवान्‌ का वही सर्वश्रेष्ठ परमपद प्राप्त होगा ॥ १४ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



मंगलवार, 13 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

यदुकुलका संहार

 

रामः समुद्र वेलायां योगमास्थाय पौरुषम्

तत्याज लोकं मानुष्यं संयोज्यात्मानमात्मनि २६

रामनिर्याणमालोक्य भगवान्देवकीसुतः

निषसाद धरोपस्थे तुष्णीमासाद्य पिप्पलम् २७

बिभ्रच्चतुर्भुजं रूपं भ्राजिष्णु प्रभया स्वया

दिशो वितिमिराः कुर्वन्विधूम इव पावकः २८

श्रीवत्साङ्कं घनश्यामं तप्तहाटकवर्चसम्

कौशेयाम्बरयुग्मेन परिवीतं सुमङ्गलम् २९

सुन्दरस्मितवक्त्राब्जं नीलकुन्तलमण्डितम्

पुण्डरीकाभिरामाक्षं स्फुरन्मकरकुण्डलम् ३०

कटिसूत्रब्रह्मसूत्र किरीटकटकाङ्गदैः

हारनूपुरमुद्राभिः कौस्तुभेन विराजितम् ३१

वनमालापरीताङ्गं मूर्तिमद्भिर्निजायुधैः

कृत्वोरौ दक्षिणे पादमासीनं पङ्कजारुणम् ३२

मुषलावशेषायःखण्ड कृतेषुर्लुब्धको जरा

मृगास्याकारं तच्चरणं विव्याध मृगशङ्कया ३३

चतुर्भुजं तं पुरुषं दृष्ट्वा स कृतकिल्बिषः

भीतः पपात शिरसा पादयोरसुरद्विषः ३४

अजानता कृतमिदं पापेन मधुसूदन

क्षन्तुमर्हसि पापस्य उत्तमःश्लोक मेऽनघ ३५

यस्यानुस्मरणं नृणामज्ञानध्वान्तनाशनम्

वदन्ति तस्य ते विष्णो मयासाधु कृतं प्रभो ३६

तन्माऽऽशु जहि वैकुण्ठ पाप्मानं मृगलुब्धकम्

यथा पुनरहं त्वेवं न कुर्यां सदतिक्रमम् ३७

यस्यात्मयोगरचितं न विदुर्विरिञ्चो

रुद्रादयोऽस्य तनयाः पतयो गिरां ये

त्वन्मायया पिहितदृष्टय एतदञ्जः

किं तस्य ते वयमसद्गतयो गृणीमः ३८

 

श्रीभगवानुवाच

मा भैर्जरे त्वमुत्तिष्ठ काम एष कृतो हि मे

याहि त्वं मदनुज्ञातः स्वर्गं सुकृतिनां पदम् ३९

इत्यादिष्टो भगवता कृष्णेनेच्छाशरीरिणा

त्रिः परिक्रम्य तं नत्वा विमानेन दिवं ययौ ४०

दारुकः कृष्णपदवीमन्विच्छन्नधिगम्य ताम्

वायुं तुलसिकामोदमाघ्रायाभिमुखं ययौ ४१

तं तत्र तिग्मद्युभिरायुधैर्वृतं

ह्यश्वत्थमूले कृतकेतनं पतिम्

स्नेहप्लुतात्मा निपपात पादयो

रथादवप्लुत्य सबाष्पलोचनः ४२

अपश्यतस्त्वच्चरणाम्बुजं प्रभो दृष्टिः प्रणष्टा तमसि प्रविष्टा

दिशो न जाने न लभे च शान्तिं यथा निशायामुडुपे प्रणष्टे ४३

इति ब्रुवति सूते वै रथो गरुडलाञ्छनः

खमुत्पपात राजेन्द्र साश्वध्वज उदीक्षतः ४४

तमन्वगच्छन्दिव्यानि विष्णुप्रहरणानि च

तेनातिविस्मितात्मानं सूतमाह जनार्दनः ४५

गच्छ द्वारवतीं सूत ज्ञातीनां निधनं मिथः

सङ्कर्षणस्य निर्याणं बन्धुभ्यो ब्रूहि मद्दशाम् ४६

द्वारकायां च न स्थेयं भवद्भिश्च स्वबन्धुभिः

मया त्यक्तां यदुपुरीं समुद्रः प्लावयिष्यति ४७

स्वं स्वं परिग्रहं सर्वे आदाय पितरौ च नः

अर्जुनेनाविताः सर्व इन्द्र प्रस्थं गमिष्यथ ४८

त्वं तु मद्धर्ममास्थाय ज्ञाननिष्ठ उपेक्षकः

मन्मायारचितामेतां विज्ञयोपशमं व्रज ४९

इत्युक्तस्तं परिक्रम्य नमस्कृत्य पुनः पुनः

तत्पादौ शीर्ष्ण्युपाधाय दुर्मनाः प्रययौ पुरीम् ५०

 

परीक्षित्‌ ! बलरामजीने समुद्रतटपर बैठकर एकाग्रचित्तसे परमात्मचिन्तन करते हुए अपने आत्माको आत्मस्वरूपमें ही स्थिर कर लिया और मनुष्यशरीर छोड़ दिया ॥ २६ ॥ जब भगवान्‌ श्रीकृष्णने देखा कि मेरे बड़े भाई बलरामजी परमपदमें लीन हो गये, तब वे एक पीपलके पेडक़े तले जाकर चुपचाप धरतीपर ही बैठ गये ॥ २७ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने उस समय अपनी अङ्गकान्तिसे देदीप्यमान चतुर्भुज रूप धारण कर रखा था और धूमसे रहित अग्रिके समान दिशाओंको अन्धकार-रहित—प्रकाशमान बना रहे थे ॥ २८ ॥ वर्षाकालीन मेघके समान साँवले शरीरसे तपे हुए सोनेके समान ज्योति निकल रही थी। वक्ष:स्थलपर श्रीवत्सका चिह्न शोभायमान था। वे रेशमी पीताम्बरकी धोती और वैसा ही दुपट्टा धारण किये हुए थे। बड़ा ही मङ्गलमय रूप था ॥ २९ ॥ मुखकमलपर सुन्दर मुसकान और कपोलोंपर नीली-नीली अलकें बड़ी ही सुहावनी लगती थीं। कमलके समान सुन्दर-सुन्दर एवं सुकुमार नेत्र थे। कानोंमें मकराकृत कुण्डल झिलमिला रहे थे ॥ ३० ॥ कमरमें करधनी, कंधेपर यज्ञोपवीत, माथेपर मुकुट, कलाइयोंमें कंगन, बाँहोंमें बाजूबंद, वक्ष:स्थलपर हार, चरणोंमें नूपुर, अँगुलियोंमें अँगूठियाँ और गलेमें कौस्तुभमणि शोभायमान हो रही थी ॥ ३१ ॥ घुटनोंतक वनमाला लटकी हुई थी। शङ्ख, चक्र, गदा आदि आयुध मूर्तिमान् होकर प्रभुकी सेवा कर रहे थे। उस समय भगवान्‌ अपनी दाहिनी जाँघपर बायाँ चरण रखकर बैठे हुए थे लाल-लाल तलवा रक्त कमलके समान चमक रहा था ॥ ३२ ॥

परीक्षित्‌ ! जरा नामका एक बहेलिया था। उसने मूसलके बचे हुए टुकड़ेसे अपने बाणकी गाँसी बना ली थी। उसे दूरसे भगवान्‌का लाल-लाल तलवा हरिनके मुखके समान जान पड़ा। उसने उसे सचमुच हरिन समझकर अपने उसी बाणसे बींध दिया ॥ ३३ ॥ जब वह पास आया, तब उसने देखा कि ‘अरे ! ये तो चतुर्भुज पुरुष हैं।’ अब तो वह अपराध कर चुका था, इसलिये डरके मारे काँपने लगा और दैत्यदलन भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणोंपर सिर रखकर धरतीपर गिर पड़ा ॥ ३४ ॥ उसने कहा—‘हे मधुसूदन ! मैंने अनजानमें यह पाप किया है। सचमुच मैं बहुत बड़ा पापी हूँ; परन्तु आप परमयशस्वी और निर्विकार हैं। आप कृपा करके मेरा अपराध क्षमा कीजिये ॥ ३५ ॥ सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान् प्रभो ! महात्मालोग कहा करते हैं कि आपके स्मरणमात्रसे मनुष्योंका अज्ञानान्धकार नष्ट हो जाता है। बड़े खेदकी बात है कि मैंने स्वयं आपका ही अनिष्ट कर दिया ॥ ३६ ॥ वैकुण्ठनाथ ! मैं निरपराध हरिणोंको मारनेवाला महापापी हूँ। आप मुझे अभी-अभी मार डालिये, क्योंकि मर जानेपर मैं फिर कभी आप-जैसे महापुरुषोंका ऐसा अपराध न करूँगा ॥ ३७ ॥ भगवन् ! सम्पूर्ण विद्याओंके पारदर्शी ब्रह्माजी और उनके पुत्र रुद्र आदि भी आपकी योगमायाका विलास नहीं समझ पाते; क्योंकि उनकी दृष्टि भी आपकी मायासे आवृत है। ऐसी अवस्थामें हमारे- जैसे पापयोनि लोग उसके विषयमें कह ही क्या सकते हैं ? ॥ ३८ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—हे जरे ! तू डर मत, उठ-उठ ! यह तो तूने मेरे मनका काम किया है। जा, मेरी आज्ञासे तू उस स्वर्गमें निवास कर, जिसकी प्राप्ति बड़े-बड़े पुण्यवानोंको होती है ॥ ३९ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण तो अपनी इच्छासे शरीर धारण करते हैं। जब उन्होंने जरा व्याधको यह आदेश दिया, तब उसने उनकी तीन बार परिक्रमा की, नमस्कार किया और विमानपर सवार होकर स्वर्गको चला गया ॥ ४० ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णका सारथि दारुक उनके स्थानका पता लगाता हुआ उनके द्वारा धारण की हुई तुलसीकी गन्धसे युक्त वायु सूँघकर और उससे उनके होनेके स्थानका अनुमान लगाकर सामनेकी ओर गया ॥ ४१ ॥ दारुकने वहाँ जाकर देखा कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण पीपलके वृक्षके नीचे आसन लगाये बैठे हैं। असह्य तेजवाले आयुध मूर्तिमान् होकर उनकी सेवामें संलग्र हैं। उन्हें देखकर दारुकके हृदयमें प्रेमकी बाढ़ आ गयी। नेत्रोंसे आँसुओंकी धारा बहने लगी। वह रथसे कूदकर भगवान्‌के चरणोंपर गिर पड़ा ॥ ४२ ॥ उसने भगवान्‌से प्रार्थना की—‘प्रभो ! रात्रिके समय चन्द्रमाके अस्त हो जानेपर राह चलनेवालेकी जैसी दशा हो जाती है आपके चरणकमलोंका दर्शन न पाकर मेरी भी वैसी ही दशा हो गयी है। मेरी दृष्टि नष्ट हो गयी है, चारों ओर अँधेरा छा गया है। अब न तो मुझे दिशाओंका ज्ञान है और न मेरे हृदयमें शान्ति ही है’ ॥ ४३ ॥ परीक्षित्‌ ! अभी दारुक इस प्रकार कह ही रहा था कि उसके सामने ही भगवान्‌का गरुड़ध्वज रथ पताका और घोड़ोंके साथ आकाशमें उड़ गया ॥ ४४ ॥ उसके पीछे-पीछे भगवान्‌के दिव्य आयुध भी चले गये। यह सब देखकर दारुकके आश्चर्यकी सीमा न रही। तब भगवान्‌ने उससे कहा— ॥ ४५ ॥ ‘दारुक ! अब तुम द्वारका चले जाओ और वहाँ यदुवंशियोंके पारस्परिक संहार, भैया बलरामजीकी परम गति और मेरे स्वधामगमनकी बात कहो ’ ॥ ४६ ॥ उनसे कहना कि ‘अब तुमलोगोंको अपने परिवारवालोंके साथ द्वारकामें नहीं रहना चाहिये। मेरे न रहनेपर समुद्र उस नगरीको डुबो देगा ॥ ४७ ॥ सब लोग अपनी-अपनी धन-सम्पत्ति, कुटुम्ब और मेरे माता-पिताको लेकर अर्जुनके संरक्षणमें इन्द्रप्रस्थ चले जायँ ॥ ४८ ॥ दारुक ! तुम मेरे द्वारा उपदिष्ट भागवतधर्मका आश्रय लो और ज्ञाननिष्ठ होकर सबकी उपेक्षा कर दो तथा इस दृश्यको मेरी मायाकी रचना समझकर शान्त हो जाओ’ ॥ ४९ ॥ भगवान्‌का यह आदेश पाकर दारुकने उनकी परिक्रमा की और उनके चरणकमल अपने सिरपर रखकर बारंबार प्रणाम किया। तदनन्तर वह उदास मनसे द्वारकाके लिये चल पड़ा ॥ ५० ॥

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे त्रिंशोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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