॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वादश स्कन्ध– तीसरा अध्याय (पोस्ट०१)
राज्य, युगधर्म और
कलियुग के दोषों से बचने का उपाय—नामसङ्कीर्तन
श्रीशुक उवाच –
दृष्ट्वाऽऽत्मनि
जये व्यग्रान् नृपान् हसति भूरियम् ।
अहो मा
विजिगीषन्ति मृत्योः क्रीडनका नृपाः ॥ १ ॥
काम एष
नरेन्द्राणां मोघः स्याद् विदुषामपि ।
येन फेनोपमे
पिण्डे येऽतिविश्रम्भिता नृपाः ॥ २ ॥
पूर्वं
निर्जित्य षड्वर्गं जेष्यामो राजमंत्रिणः ।
ततः सचिवपौराप्त
करीन्द्रानस्य कण्टकान् ॥ ३ ॥
एवं क्रमेण
जेष्यामः पृथ्वीं सागरमेखलाम् ।
इति आशाबद्ध
हृदया न पश्यन्ति अन्तिकेऽन्तकम् ॥ ४ ॥
समुद्रावरणां
जित्वा मां विशन्त्यब्धिमोजसा ।
कियदात्मजयस्यैतन्
मुक्तिरात्मजये फलम् ॥ ५ ॥
यां विसृज्यैव
मनवः तत्सुताश्च कुरूद्वह ।
गता यथागतं
युद्धे तां मां जेष्यन्त्यबुद्धयः ॥ ६ ॥
मत्कृते
पितृपुत्राणां भ्रातृणां चापि विग्रहः ।
जायते ह्यसतां
राज्ये ममता-बद्धचेतसाम् ॥ ७ ॥
ममैवेयं मही
कृत्स्ना न ते मूढेति वादिनः ।
स्पर्धमाना मिथो
घ्नन्ति म्रियन्ते मत्कृते नृपाः ॥ ८ ॥
पृथुः पुरूरवा
गाधिः नहुषो भरतोऽर्जुनः ।
मान्धाता सगरो
रामः खट्वाङ्गो धुन्धुहा रघुः ॥ ९ ॥
तृणबिन्दुर्ययातिश्च
शर्यातिः शन्तनुर्गयः ।
भगीरथः
कुवलयाश्वः ककुत्स्थो नैषधो नृगः ॥ १० ॥
हिरण्यकशिपुर्वृत्रो
रावणो लोकरावणः ।
नमुचिः शंबरो
भौमो हिरण्याक्षोऽथ तारकः ॥ ११ ॥
अन्ये च बहवो
दैत्या राजानो ये महेश्वराः ।
सर्वे सर्वविदः
शूराः सर्वे सर्वजितोऽजिताः ॥ १२ ॥
ममतां
मय्यवर्तन्त कृत्वोच्चैर्मर्त्यधर्मिणः ।
कथावशेषाः कालेन
ह्यकृतार्थाः कृता विभो ॥ १३ ॥
कथा इमास्ते कथिता महीयसां
विताय लोकेषु
यशः परेयुषाम् ।
विज्ञानवैराग्यविवक्षया विभो
वचोविभूतीर्न तु
पारमार्थ्यम् ॥ १४ ॥
यस्तु उत्तमश्लोकगुणानुवादः
संगीगीयतेऽभीक्ष्णममंगगलघ्नः ।
तमेव नित्यं
श्रृणुयादभीक्ष्णं
कृष्णेऽमलां
भक्तिमभीप्समानः ॥ १५ ॥
श्रीराजोवाच -
केनोपायेन भगवन् कलेर्दोषान् कलौ जनाः ।
विधमिष्यन्ति
उपचितान् तन्मे ब्रूहि यथा मुने ॥ १६ ॥
युगानि
युगधर्मांश्च मानं प्रलयकल्पयोः ।
कालस्येश्वररूपस्य
गतिं विष्णोर्महात्मनः ॥ १७ ॥
श्रीशुक उवाच -
कृते प्रवर्तते धर्मः चतुष्पात् तज्जनैर्धृतः ।
सत्यं दया तपो दानं
इति पादा विभोर्नृप ॥ १८ ॥
सन्तुष्टाः करुणा
मैत्राः शान्ता दान्ताः तितिक्षवः ।
आत्मारामाः समदृशः
प्रायशः श्रमणा जनाः ॥ १९ ॥
त्रेतायां
धर्मपादानां तुर्यांशो हीयते शनैः ।
अधर्मपादैः अनृत
हिंसासंतोषविग्रहैः ॥ २० ॥
तदा
क्रियातपोनिष्ठा नातिहिंस्रा न लंपटाः ।
त्रैवर्गिकास्त्रयीवृद्धा वर्णा ब्रह्मोत्तरा
नृप ॥ २१ ॥
तपःसत्यदयादानेषु
अर्धं ह्रस्वति द्वापरे ।
हिंसातुष्ट्यनृतद्वेषैः धर्मस्य-अधर्मलक्षणैः ॥ २२ ॥
यशस्विनो महाशीलाः
स्वाध्यायाध्ययने रताः ।
आढ्याः कुटुम्बिनो
हृष्टा वर्णाः क्षत्रद्विजोत्तराः ॥ २ ॥
कलौ तु धर्महेतूनां
तुर्यांशोऽधर्महेतुभिः ।
एधमानैः क्षीयमाणो
ह्यन्ते सोऽपि विनङ्क्ष्यति ॥ २४ ॥
तस्मिन् लुब्धा
दुराचारा निर्दयाः शुष्कवैरिणः ।
दुर्भगा
भूरितर्षाश्च शूद्रदासोत्तराः प्रजाः ॥ २५ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित् ! जब पृथ्वी देखती
है कि राजा लोग मुझपर विजय प्राप्त करनेके लिये उतावले हो रहे है, तब वह हँसने लगती है और कहती है—‘‘कितने आश्चर्यकी बात है कि ये राजा लोग,
जो स्वयं मौतके खिलौने हैं, मुझे जीतना चाहते
हैं ॥ १ ॥ राजाओंसे यह बात छिपी नहीं है कि वे एक-न-एक दिन मर जायँगे, फिर भी वे व्र्यथमें ही मुझे जीतनेकी कामना करते हैं। सचमुच इस कामनासे
अंधे होनेके कारण ही वे पानीके बुलबुलेके समान क्षणभङ्गुर शरीरपर विश्वास कर बैठते
हैं और धोखा खाते हैं ॥ २ ॥ वे सोचते हैं कि ‘हम पहले मनके सहित अपनी पाँचों
इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करेंगे—अपने भीतरी शत्रुओंको वशमें करेंगे; क्योंकि इनको जीते बिना बाहरी शत्रुओंको जीतना कठिन है। उसके बाद अपने
शत्रुके मन्ङ्क्षत्रयों, अमात्यों, नागरिकों,
नेताओं और समस्त सेनाको भी वशमें कर लेंगे। जो भी हमारे
विजय-मार्गमें काँटे बोयेगा, उसे हम अवश्य जीत लेंगे ॥ ३ ॥
इस प्रकार धीरे-धीरे क्रमसे सारी पृथ्वी हमारे अधीन हो जायगी और फिर तो समुद्र ही
हमारे राज्यकी खार्ईंका काम करेगा।’ इस प्रकार वे अपने मनमें अनेकों आशाएँ बाँध
लेते हैं और उन्हें यह बात बिलकुल नहीं सूझती कि उनके सिरपर काल सवार है ॥ ४ ॥
यहींतक नहीं, जब एक द्वीप
उनके वशमें हो जाता है, तब वे दूसरे द्वीपपर विजय करनेके
लिये बड़ी शक्ति और उत्साहके साथ समुद्रयात्रा करते हैं। अपने मनको, इन्द्रियोंको वशमें करके लोग मुक्ति प्राप्त करते हैं, परन्तु ये लोग उनको वशमें करके भी थोड़ा-सा भूभाग ही प्राप्त करते हैं।
इतने परिश्रम और आत्मसंयमका यह कितना तुच्छ फल है !’’ ॥ ५ ॥ परीक्षित् ! पृथ्वी
कहती है कि ‘बड़े-बड़े मनु और उनके वीर पुत्र मुझे ज्यों-की-त्यों छोडक़र जहाँसे
आये थे, वहीं खाली हाथ लौट गये, मुझे
अपने साथ न ले जा सके। अब ये मूर्ख राजा मुझे युद्धमें जीतकर वशमें करना चाहते हैं
॥ ६ ॥ जिनके चित्तमें यह बात दृढ़ मूल हो गयी है कि यह पृथ्वी मेरी है, उन दुष्टोंके राज्यमें मेरे लिये पिता-पुत्र और भाई-भाई भी आपसमें लड़
बैठते हैं ॥ ७ ॥ वे परस्पर इस प्रकार कहते हैं कि ‘ओ मूढ़ ! यह सारी पृथ्वी मेरी
ही है, तेरी नहीं’, इस प्रकार राजालोग
एक-दूसरेको कहते-सुनते हैं, एक-दूसरेसे स्पर्धा करते हैं,
मेरे लिये एक-दूसरेको मारते हैं और स्वयं मर मिटते हैं ॥ ८ ॥ पृथु,
पुरूरवा, गाधि, नहुष,
भरत, सहस्रबाहु, अर्जुन,
मान्धाता, सगर, राम,
खट्वाङ्ग, धुन्धुमार, रघु,
तृणबिन्दु, ययाति, शर्याति,
शन्तनु, गय, भगीरथ,
कुवलयाश्व, ककुत्स्थ, नल,
नृग, हिरण्यकशिपु, वृत्रासुर,
लोकद्रोही रावण, नमुचि, शम्बर,
भौमासुर, हिरण्याक्ष और तारकासुर तथा और
बहुत-से दैत्य एवं शक्तिशाली नरपति हो गये। ये सब लोग सब कुछ समझते थे, शूर थे, सभीने दिग्विजयमें दूसरोंको हरा दिया;
किन्तु दूसरे लोग इन्हें न जीत सके, परन्तु
सब-के-सब मृत्युके ग्रास बन गये। राजन् ! उन्होंने अपने पूरे अन्त:करणसे मुझसे
ममता की और समझा कि ‘यह पृथ्वी मेरी है’। परन्तु विकराल कालने उनकी लालसा पूरी न
होने दी। अब उनके बल-पौरुष और शरीर आदिका कुछ पता ही नहीं है। केवल उनकी कहानी
मात्र शेष रह गयी है ॥ ९—१३ ॥
परीक्षित् ! संसारमें बड़े-बड़े प्रतापी और महान्
पुरुष हुए हैं। वे लोकोंमें अपने यशका विस्तार करके यहाँसे चल बसे। मैंने तुम्हें
ज्ञान और वैराग्यका उपदेश करनेके लिये ही उनकी कथा सुनायी है। यह सब वाणीका विलास
मात्र है। इसमें पारमार्थिक सत्य कुछ भी नहीं है ॥ १४ ॥ भगवान् श्रीकृष्णका
गुणानुवाद समस्त अमङ्गलोंका नाश करनेवाला है, बड़े-बड़े
महात्मा उसीका गान करते रहते हैं। जो भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें अनन्य प्रेममयी
भक्तिकी लालसा रखता हो, उसे नित्य-निरन्तर भगवान्के दिव्य
गुणानुवादका ही श्रवण करते रहना चाहिये ॥ १५ ॥
राजा परीक्षित्ने पूछा—भगवन् ! मुझे तो कलियुगमें
राशि-राशि दोष ही दिखायी दे रहे हैं। उस समय लोग किस उपायसे उन दोषोंका नाश
करेंगे। इसके अतिरिक्त युगोंका स्वरूप, उनके धर्म,
कल्पकी स्थिति और प्रलयकालके मान एवं सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान्
भगवान्के कालरूपका भी यथावत् वर्णन कीजिये ॥ १६-१७ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित् ! सत्ययुगमें
धर्मके चार चरण होते हैं; वे चरण हैं—सत्य, दया, तप और दान। उस समयके लोग पूरी निष्ठाके साथ अपने-अपने धर्मका पालन करते
हैं। धर्म स्वयं भगवान्का स्वरूप है ॥ १८ ॥ सत्ययुगके लोग बड़े सन्तोषी और दयालु
होते हैं। वे सबसे मित्रताका व्यवहार करते और शान्त रहते हैं। इन्द्रियाँ और मन
उनके वशमें रहते हैं और सुख-दु:ख आदि द्वन्द्वोंको वे समान भावसे सहन करते हैं।
अधिकांश लोग तो समदर्शी और आत्माराम होते हैं और बाकी लोग स्वरूपस्थितिके लिये
अभ्यासमें तत्पर रहते हैं ॥ १९ ॥ परीक्षित् ! धर्मके समान अधर्मके भी चार चरण
हैं—असत्य, हिंसा, असन्तोष और कलह।
त्रेतायुगमें इनके प्रभावसे धीरे-धीरे धर्मके सत्य आदि चरणोंका चतुर्थांश क्षीण हो
जाता है ॥ २० ॥ राजन् ! उस समय वर्णोंमें ब्राह्मणोंकी प्रधानता अक्षुण्ण रहती है।
लोगोंमें अत्यन्त हिंसा और लम्पटताका अभाव रहता है। सभी लोग कर्मकाण्ड और
तपस्यामें निष्ठा रखते हैं और अर्थ, धर्म एवं कामरूप
त्रिवर्गका सेवन करते हैं। अधिकांश लोग कर्मप्रतिपादक वेदोंके पारदर्शी विद्वान्
होते हैं ॥ २१ ॥ द्वापरयुगमें हिंसा, असन्तोष, झूठ और द्वेष—अधर्मके इन चरणोंकी वृद्धि हो जाती है एवं इनके कारण धर्मके
चारों चरण—तपस्या, सत्य, दया और दान
आधे-आधे क्षीण हो जाते हैं ॥ २२ ॥ उस समयके लोग बड़े यशस्वी, कर्मकाण्डी और वेदोंके अध्ययन-अध्यापनमें बड़े तत्पर होते हैं। लोगोंके
कुटुम्ब बड़े-बड़े होते हैं, प्राय: लोग धनाढ्य एवं सुखी
होते हैं। उस समय वर्णोंमें क्षत्रिय और ब्राह्मण दो वर्णोंकी प्रधानता रहती है ॥
२३ ॥ कलियुगमें तो अधर्मके चारों चरण अत्यन्त बढ़ जाते हैं। उनके कारण धर्मके
चारों चरण क्षीण होने लगते हैं और उनका चतुर्थांश ही बच रहता है। अन्तमें तो उस चतुर्थांशका
भी लोप हो जाता है ॥ २४ ॥ कलियुगमें लोग लोभी, दुराचारी और
कठोरहृदय होते हैं। वे झूठमूठ एक-दूसरेसे वैर मोल ले लेते हैं, एवं लालसा-तृष्णाकी तरङ्गोंमें बहते रहते हैं। उस समयके अभागे लोगोंमें
शूद्र, केवट आदिकी ही प्रधानता रहती है ॥ २५ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से