मंगलवार, 20 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वादश स्कन्ध– छठा अध्याय (पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

द्वादश स्कन्धछठा अध्याय (पोस्ट०२)

 

परीक्षित्‌ की परमगति, जनमेजय का सर्पसत्र और वेदों के शाखाभेद

 

सूत उवाच

इत्युक्तः स तथेत्याह महर्षेर्मानयन्वचः

सर्पसत्रादुपरतः पूजयामास वाक्पतिम् २८

सैषा विष्णोर्महामाया बाध्ययालक्षणा यया

मुह्यन्त्यस्यैवात्मभूता भूतेषु गुणवृत्तिभिः २९

न यत्र दम्भीत्यभया विराजिता

मायात्मवादेऽसकृदात्मवादिभिः

न यद्विवादो विविधस्तदाश्रयो

मनश्च सङ्कल्पविकल्पवृत्ति यत् ३०

न यत्र सृज्यं सृजतोभयोः परं

श्रेयश्च जीवस्त्रिभिरन्वितस्त्वहम्

तदेतदुत्सादितबाध्यबाधकं

निषिध्य चोर्मीन्विरमेत तन्मुनिः ३१

परं पदं वैष्णवमामनन्ति तद्य-

न्नेति नेतीत्यतदुत्सिसृक्षवः

विसृज्य दौरात्म्यमनन्यसौहृदा

हृदोपगुह्यावसितं समाहितैः ३२

त एतदधिगच्छन्ति विष्णोर्यत्परमं पदम्

अहं ममेति दौर्जन्यं न येषां देहगेहजम् ३३

अतिवादांस्तितिक्षेत नावमन्येत कञ्चन

न चेमं देहमाश्रित्य वैरं कुर्वीत केनचित् ३४

नमो भगवते तस्मै कृष्णायाकुण्ठमेधसे

यत्पादाम्बुरुहध्यानात्संहितामध्यगामिमाम् ३५

 

श्रीशौनक उवाच

पैलादिभिर्व्यासशिष्यैर्वेदाचार्यैर्महात्मभिः

वेदाश्च कथिता व्यस्ता एतत्सौम्याभिधेहि नः ३६

 

सूत उवाच

समाहितात्मनो ब्रह्मन्ब्रह्मणः परमेष्ठिनः

हृद्याकाशादभून्नादो वृत्तिरोधाद्विभाव्यते ३७

यदुपासनया ब्रह्मन्योगिनो मलमात्मनः

द्रव्यक्रियाकारकाख्यं धूत्वा यान्त्यपुनर्भवम् ३८

ततोऽभूत्त्रिवृदॐकारो योऽव्यक्तप्रभवः स्वराट्

यत्तल्लिङ्गं भगवतो ब्रह्मणः परमात्मनः ३९

शृणोति य इमं स्फोटं सुप्तश्रोत्रे च शून्यदृक्

येन वाग्व्यज्यते यस्य व्यक्तिराकाश आत्मनः ४०

स्वधाम्नो ब्राह्मणः साक्षाद्वाचकः परमात्मनः

स सर्वमन्त्रोपनिषद्वेदबीजं सनातनम् ४१

तस्य ह्यासंस्त्रयो वर्णा अकाराद्या भृगूद्वह

धार्यन्ते यैस्त्रयो भावा गुणनामार्थवृत्तयः ४२

ततोऽक्षरसमाम्नायमसृजद्भगवानजः

अन्तस्थोष्मस्वरस्पर्श ह्रस्वदीर्घादिलक्षणम् ४३

तेनासौ चतुरो वेदांश्चतुर्भिर्वदनैर्विभुः

सव्याहृतिकान्सॐकारांश्चातुर्होत्रविवक्षया ४४

पुत्रानध्यापयत्तांस्तु ब्रह्मर्षीन्ब्रह्मकोविदान्

ते तु धर्मोपदेष्टारः स्वपुत्रेभ्यः समादिशन् ४५

ते परम्परया प्राप्तास्तत्तच्छिष्यैर्धृतव्रतैः

चतुर्युगेष्वथ व्यस्ता द्वापरादौ महर्षिभिः ४६

क्षीणायुषः क्षीणसत्त्वान्दुर्मेधान्वीक्ष्य कालतः

वेदान्ब्रह्मर्षयो व्यस्यन्हृदिस्थाच्युतचोदिताः ४७

अस्मिन्नप्यन्तरे ब्रह्मन्भगवान्लोकभावनः

ब्रह्मेशाद्यैर्लोकपालैर्याचितो धर्मगुप्तये ४८

पराशरात्सत्यवत्यामंशांशकलया विभुः

अवतीर्णो महाभाग वेदं चक्रे चतुर्विधम् ४९

ऋगथर्वयजुःसाम्नां राशीरुद्धृत्य वर्गशः

चतस्रः संहिताश्चक्रे मन्त्रैर्मणिगणा इव ५०

तासां स चतुरः शिष्यानुपाहूय महामतिः

एकैकां संहितां ब्रह्मन्नेकैकस्मै ददौ विभुः ५१

पैलाय संहितामाद्यां बह्वृचाख्यां उवाच ह

वैशम्पायनसंज्ञाय निगदाख्यं यजुर्गणम् ५२

साम्नां जैमिनये प्राह तथा छन्दोगसंहिताम्

अथर्वाङ्गिरसीं नाम स्वशिष्याय सुमन्तवे ५३

पैलः स्वसंहितामूचे इन्द्र प्रमितये मुनिः

बाष्कलाय च सोऽप्याह शिष्येभ्यः संहितां स्वकाम् ५४

चतुर्धा व्यस्य बोध्याय याज्ञवल्क्याय भार्गव

पराशरायाग्निमित्र इन्द्र प्रमितिरात्मवान् ५५

अध्यापयत्संहितां स्वां माण्डूकेयमृषिं कविम्

तस्य शिष्यो देवमित्रः सौभर्यादिभ्य ऊचिवान् ५६

शाकल्यस्तत्सुतः स्वां तु पञ्चधा व्यस्य संहिताम्

वात्स्यमुद्गलशालीय गोखल्यशिशिरेष्वधात् ५७

जातूकर्ण्यश्च तच्छिष्यः सनिरुक्तां स्वसंहिताम्

बलाकपैलजाबाल विरजेभ्यो ददौ मुनिः ५८

बाष्कलिः प्रतिशाखाभ्यो वालखिल्याख्यसंहिताम्

चक्रे बालायनिर्भज्यः कासारश्चैव तां दधुः ५९

बह्वृचाः संहिता ह्येता एभिर्ब्रह्मर्षिभिर्धृताः

श्रुत्वैतच्छन्दसां व्यासं सर्वपापैः प्रमुच्यते ६०

 

सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो ! महर्षि बृहस्पतिजीकी बातका सम्मान करके जनमेजयने कहा कि ‘आपकी आज्ञा शिरोधार्य है।’ उन्होंने सर्प-सत्र बंद कर दिया और देवगुरु बृहस्पतिजीकी विधिपूर्वक पूजा की ॥ २८ ॥ ऋषिगण ! (जिससे विद्वान् ब्राह्मणको भी क्रोध आया, राजाको शाप हुआ, मृत्यु हुई, फिर जनमेजयको क्रोध आया, सर्प मारे गये) यह वही भगवान्‌ विष्णुकी महामाया है। यह अनिर्वचनीय है, इसीसे भगवान्‌के स्वरूपभूत जीव क्रोधादि गुण-वृत्तियोंके द्वारा शरीरोंमें मोहित हो जाते हैं, एक-दूसरेको दु:ख देते और भोगते हैं और अपने प्रयत्नसे इसको निवृत्त नहीं कर सकते ॥ २९ ॥ (विष्णुभगवान्‌के स्वरूपका निश्चय करके उनका भजन करनेसे ही मायासे निवृत्ति होती है; इसलिये उनके स्वरूपका निरूपण सुनो—) यह दम्भी है, कपटी है— इत्याकारक बुद्धिमें बार-बार जो दम्भ-कपटका स्फुरण होता है, वही माया है। जब आत्मवादी पुरुष आत्मचर्चा करने लगते हैं, तब वह परमात्माके स्वरूपमें निर्भय रूपसे प्रकाशित नहीं होती; किन्तु भयभीत होकर अपना मोह आदि कार्य न करती हुई ही किसी प्रकार रहती है। इस रूपमें उसका प्रतिपादन किया गया है। मायाके आश्रित नाना प्रकारके विवाद, मतवाद भी परमात्माके स्वरूपमें नहीं हैं; क्योंकि वे विशेषविषयक हैं और परमात्मा निर्विशेष है। केवल वाद-विवादकी तो बात ही क्या, लोक-परलोकके विषयोंके सम्बन्धमें सङ्कल्प-विकल्प करनेवाला मन भी शान्त हो जाता है ॥ ३० ॥ कर्म, उसके सम्पादनकी सामग्री और उनके द्वारा साध्यकर्म—इन तीनोंसे अन्वित अहङ्कारात्मक जीव—यह सब जिसमें नहीं हैं, वह आत्मस्वरूप परमात्मा न तो कभी किसीके द्वारा बाधित होता है और न तो किसीका विरोधी ही है। जो पुरुष उस परमपदके स्वरूपका विचार करता है, वह मनकी मायामयी लहरों, अहङ्कार आदिका बाध करके स्वयं अपने आत्मस्वरूपमें विहार करने लगता है ॥ ३१ ॥ जो मुमुक्षु एवं विचारशील पुरुष परमपदके अतिरिक्त वस्तुका परित्याग करते हुए ‘नेति-नेति’ के द्वारा उसका निषेध करके ऐसी वस्तु प्राप्त करते हैं, जिसका कभी निषेध नहीं हो सकता और न तो कभी त्याग ही, वही विष्णु भगवान्‌का परमपद है; यह बात सभी महात्मा और श्रुतियाँ एक मतसे स्वीकार करती हैं। अपने चित्तको एकाग्र करनेवाले पुरुष अन्त:करणकी अशुद्धियोंको, अनात्म-भावनाओंको सदा-सर्वदाके लिये मिटाकर अनन्य प्रेमभावसे परिपूर्ण हृदयके द्वारा उसी परमपदका आलिङ्गन करते हैं और उसीमें समा जाते हैं ॥ ३२ ॥ विष्णु- भगवान्‌ का यही वास्तविक स्वरूप है, यही उनका परम पद है। इसकी प्राप्ति उन्हीं लोगोंको होती है, जिनके अन्त:करणमें शरीरके प्रति अहंभाव नहीं है और न तो इसके सम्बन्धी गृह आदि पदार्थोंमें ममता ही। सचमुच जगत्की वस्तुओंमें मैंपन और मेरेपनका आरोप बहुत बड़ी दुर्जनता है ॥ ३३ ॥ शौनकजी ! जिसे इस परमपदकी प्राप्ति अभीष्ट है, उसे चाहिये कि वह दूसरोंकी कटु वाणी सहन कर ले और बदलेमें किसीका अपमान न करे। इस क्षणभङ्गुर शरीरमें अहंता-ममता करके किसी भी प्राणीसे कभी वैर न करे ॥ ३४ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णका ज्ञान अनन्त है। उन्हींके चरणकमलोंके ध्यानसे मैंने इस श्रीमद्भागवत महापुराणका अध्ययन किया है। मैं अब उन्हींको नमस्कार करके यह पुराण समाप्त करता हूँ ॥ ३५ ॥

शौनकजीने पूछा—साधुशिरोमणि सूतजी ! वेदव्यासजीके शिष्य पैल आदि महर्षि बड़े महात्मा और वेदोंके आचार्य थे। उन लोगोंने कितने प्रकारसे वेदोंका विभाजन किया, यह बात आप कृपा करके हमें सुनाइये ॥ ३६ ॥

सूतजीने कहा—ब्रह्मन् ! जिस समय परमेष्ठी ब्रह्माजी पूर्वसृष्टिका ज्ञान सम्पादन करनेके लिये एकाग्र-चित्त हुए, उस समय उनके हृदयाकाशसे कण्ठ-तालु आदि स्थानोंके सङ्घर्षसे रहित एक अत्यन्त विलक्षण अनाहत नाद प्रकट हुआ। जब जीव अपनी मनोवृत्तियोंको रोक लेता है, तब उसे भी उस अनाहत नादका अनुभव होता है ॥ ३७ ॥ शौनकजी ! बड़े-बड़े योगी उसी अनाहत नादकी उपासना करते हैं और उसके प्रभावसे अन्त:करणके द्रव्य (अधिभूत), क्रिया (अध्यात्म) और कारक (अधिदैव) रूप मलको नष्ट करके वह परमगतिरूप मोक्ष प्राप्त करते हैं, जिसमें जन्म- मृत्युरूप संसारचक्र नहीं है ॥ ३८ ॥ उसी अनाहत नादसे ‘अ’ कार, ‘उ’ कार और ‘म’ काररूप तीन मात्राओंसे युक्त ॐकार प्रकट हुआ। इस ॐकारकी शक्तिसे ही प्रकृति अव्यक्तसे व्यक्तरूपमें परिणत हो जाती है। ॐकार स्वयं भी अव्यक्त एवं अनादि है और परमात्मस्वरूप होनेके कारण स्वयंप्रकाश भी है। जिस परम वस्तुको भगवान्‌ ब्रह्म अथवा परमात्माके नामसे कहा जाता है, उसके स्वरूपका बोध भी ॐकारके द्वारा ही होता है ॥ ३९ ॥ जब श्रवणेन्द्रियकी शक्ति लुप्त हो जाती है, तब भी इस ॐकारको—समस्त अर्थोंको प्रकाशित करनेवाले स्फोट तत्त्वको जो सुनता है और सुषुप्ति एवं समाधि-अवस्थाओंमें सबके अभावको भी जानता है, वही परमात्माका विशुद्ध स्वरूप है। वही ॐकार परमात्मासे हृदयाकाशमें प्रकट होकर वेदरूपा वाणीको अभिव्यक्त करता है ॥ ४० ॥ ॐकार अपने आश्रय परमात्मा परब्रह्मका साक्षात् वाचक है। और úकार ही सम्पूर्ण मन्त्र, उपनिषद् और वेदोंका सनातन बीज है ॥ ४१ ॥

शौनकजी ! ॐकारके तीन वर्ण हैं — ‘अ’, ‘उ’, और ‘म’। ये ही तीनों वर्ण सत्त्व, रज, तम—इन तीन गुणों; ऋक्, यजु:, साम—इन तीन नामों; भू:, भुव:, स्व:—इन तीन अर्थों और जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति—इन तीन वृत्तियोंके रूपमें तीन-तीनकी संख्यावाले भावोंको धारण करते हैं ॥ ४२ ॥ इसके बाद सर्वशक्तिमान् ब्रह्माजीने ॐकारसे ही अन्त:स्थ (य, , , व), ऊष्म (श, , , ह), स्वर (‘अ’ से ‘औ’ तक), स्पर्श (‘क से ‘म’ तक) तथा ह्रस्व और दीर्घ आदि लक्षणोंसे युक्त अक्षर-समाम्राय अर्थात् वर्णमालाकी रचना की ॥ ४३ ॥ उसी वर्णमालाद्वारा उन्होंने अपने चार मुखोंसे होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा—इन चार ऋत्विजोंके कर्म बतलानेके लिये ॐकार और व्याहृतियोंके सहित चार वेद प्रकट किये और अपने पुत्र ब्रहमर्षि मरीचि आदिको वेदाध्ययनमें कुशल देखकर उन्हें वेदोंकी शिक्षा दी। वे सभी जब धर्मका उपदेश करनेमें निपुण हो गये, तब उन्होंने अपने पुत्रोंको उनका अध्ययन कराया ॥ ४४-४५ ॥ तदनन्तर, उन्हीं लोगोंके नैष्ठिक ब्रह्मचारी शिष्य-प्रशिष्योंके द्वारा चारों युगोंमें सम्प्रदायके रूपमें वेदोंकी रक्षा होती रही। द्वापरके अन्तमें महर्षियोंने उनका विभाजन भी किया ॥ ४६ ॥ जब ब्रह्मवेत्ता ऋषियोंने देखा कि समयके फेरसे लोगोंकी आयु, शक्ति और बुद्धि क्षीण हो गयी है, तब उन्होंने अपने हृदय-देशमें विराजमान परमात्माकी प्रेरणासे वेदोंके अनेकों विभाग कर दिये ॥ ४७ ॥

शौनकजी ! इस वैवस्वत मन्वन्तरमें भी ब्रह्मा-शङ्कर आदि लोकपालोंकी प्रार्थनासे अखिल विश्वके जीवनदाता भगवान्‌ने धर्मकी रक्षाके लिये महर्षि पराशरद्वारा सत्यवतीके गर्भसे अपने अंशांश-कलास्वरूप व्यासके रूपमें अवतार ग्रहण किया है। परम भाग्यवान् शौनकजी ! उन्होंने ही वर्तमान युगमें वेदके चार विभाग किये हैं ॥ ४८-४९ ॥ जैसे मणियोंके समूहमेंसे विभिन्न जातिकी मणियाँ छाँटकर अलग-अलग कर दी जाती हैं, वैसे ही महामति भगवान्‌ व्यासदेवने मन्त्र- समुदायमेंसे भिन्न-भिन्न प्रकरणोंके अनुसार मन्त्रोंका संग्रह करके उनसे ऋग्, यजु:, साम और अथर्व—ये चार संहिताएँ बनायीं और अपने चार शिष्योंको बुलाकर प्रत्येकको एक-एक संहिताकी शिक्षा दी ॥ ५०-५१ ॥ उन्होंने ‘बह्वृच’ नामकी पहली ऋक्संहिता पैलको, ‘निगद’ नामकी दूसरी यजु:संहिता वैशम्पायनको, सामश्रुतियोंकी ‘छन्दोगसंहिता’ जैमिनिको और अपने शिष्य सुमन्तुको ‘अथर्वाङ्गिरस-संहिता’ का अध्ययन कराया ॥ ५२-५३ ॥ शौनकजी ! पैल मुनिने अपनी संहिताके दो विभाग करके एकका अध्ययन इन्द्रप्रमितिको और दूसरेका बाष्कलको कराया। बाष्कल ने भी अपनी शाखाके चार विभाग करके उन्हें अलग-अलग अपने शिष्य बोध, याज्ञवल्क्य, पराशर और अग्निमित्र को पढ़ाया। परमसंयमी इन्द्रप्रमिति ने प्रतिभाशाली माण्डूकेय ऋषिको अपनी संहिताका अध्ययन कराया। माण्डूकेयके शिष्य थे—देवमित्र। उन्होंने सौभरि आदि ऋषियोंको वेदोंका अध्ययन कराया ॥ ५४—५६ ॥ माण्डूकेयके पुत्रका नाम था शाकल्य। उन्होंने अपनी संहिताके पाँच विभाग करके उन्हें वात्स्य, मुद्गल, शालीय, गोखल्य और शिशिर नामक शिष्योंको पढ़ाया ॥ ५७ ॥ शाकल्यके एक और शिष्य थे—जातूकण्र्यमुनि। उन्होंने अपनी संहिताके तीन विभाग करके तत्सम्बन्धी निरुक्तके साथ अपने शिष्य बलाक, पैज, वैताल और विरजको पढ़ाया ॥ ५८ ॥ बाष्कलके पुत्र बाष्कलिने सब शाखाओंसे एक ‘वालखिल्य’ नामकी शाखा रची। उसे बालायनि, भज्य एवं कासारने ग्रहण किया ॥ ५९ ॥ इन ब्रहमर्षियोंने पूर्वोक्त सम्प्रदायके अनुसार ऋग्वेदसम्बन्धी बह्वृच शाखाओंको धारण किया। जो मनुष्य यह वेदोंके विभाजन का इतिहास श्रवण करता है, वह सब पापोंसे छूट जाता है ॥ ६० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



सोमवार, 19 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वादश स्कन्ध– छठा अध्याय (पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

द्वादश स्कन्धछठा अध्याय (पोस्ट०१)

 

परीक्षित्‌ की परमगति, जनमेजय का सर्पसत्र और वेदों के शाखाभेद

 

सूत उवाच

एतन्निशम्य मुनिनाभिहितं परीक्षिद्

व्यासात्मजेन निखिलात्मदृशा समेन

तत्पादमूलमुपसृत्य नतेन मूर्ध्ना

बद्धाञ्जलिस्तमिदमाह स विष्णुरातः १

 

राजोवाच

सिद्धोऽस्म्यनुगृहीतोऽस्मि भवता करुणात्मना

श्रावितो यच्च मे साक्षादनादिनिधनो हरिः २

नात्यद्भुतमहं मन्ये महतामच्युतात्मनाम्

अज्ञेषु तापतप्तेषु भूतेषु यदनुग्रहः ३

पुराणसंहितामेतामश्रौष्म भवतो वयम्

यस्यां खलूत्तमःश्लोको भगवाननवर्ण्यते ४

भगवंस्तक्षकादिभ्यो मृत्युभ्यो न बिभेम्यहम्

प्रविष्टो ब्रह्म निर्वाणमभयं दर्शितं त्वया ५

अनुजानीहि मां ब्रह्मन्वाचं यच्छाम्यधोक्षजे

मुक्तकामाशयं चेतः प्रवेश्य विसृजाम्यसून् ६

अज्ञानं च निरस्तं मे ज्ञानविज्ञाननिष्ठया

भवता दर्शितं क्षेमं परं भगवतः पदम् ७

 

सूत उवाच

इत्युक्तस्तमनुज्ञाप्य भगवान्बादरायणिः

जगाम भिक्षुभिः साकं नरदेवेन पूजितः ८

परीक्षिदपि राजर्षिरात्मन्यात्मानमात्मना

समाधाय परं दध्यावस्पन्दासुर्यथा तरुः ९

प्राक्कूले बर्हिष्यासीनो गङ्गाकूल उदङ्मुखः

ब्रह्मभूतो महायोगी निःसङ्गश्छिन्नसंशयः १०

तक्षकः प्रहितो विप्राः क्रुद्धेन द्विजसूनुना

हन्तुकामो नृपं गच्छन्ददर्श पथि कश्यपम् ११

तं तर्पयित्वा द्र विणैर्निवर्त्य विषहारिणम्

द्विजरूपप्रतिच्छन्नः कामरूपोऽदशन्नृपम् १२

ब्रह्मभूतस्य राजर्षेर्देहोऽहिगरलाग्निना

बभूव भस्मसात्सद्यः पश्यतां सर्वदेहिनाम् १३

हाहाकारो महानासीद्भुवि खे दिक्षु सर्वतः

विस्मिता ह्यभवन्सर्वे देवासुरनरादयः १४

देवदुन्दुभयो नेदुर्गन्धर्वाप्सरसो जगुः

ववृषुः पुष्पवर्षाणि विबुधाः साधुवादिनः १५

जनमेजयः स्वपितरं श्रुत्वा तक्षकभक्षितम्

यथाजुहाव सन्क्रुद्धो नागान्सत्रे सह द्विजैः १६

सर्पसत्रे समिद्धाग्नौ दह्यमानान्महोरगान्

दृष्ट्वेन्द्रं भयसंविग्नस्तक्षकः शरणं ययौ १७

अपश्यंस्तक्षकं तत्र राजा पारीक्षितो द्विजान्

उवाच तक्षकः कस्मान्न दह्येतोरगाधमः १८

तं गोपायति राजेन्द्र शक्रः शरणमागतम्

तेन संस्तम्भितः सर्पस्तस्मान्नाग्नौ पतत्यसौ १९

पारीक्षित इति श्रुत्वा प्राहर्त्विज उदारधीः

सहेन्द्र स्तक्षको विप्रा नाग्नौ किमिति पात्यते २०

तच्छ्रुत्वाजुहुवुर्विप्राः सहेन्द्रं तक्षकं मखे

तक्षकाशु पतस्वेह सहेन्द्रेण मरुत्वता २१

इति ब्रह्मोदिताक्षेपैः स्थानादिन्द्रः प्रचालितः

बभूव सम्भ्रान्तमतिः सविमानः सतक्षकः २२

तं पतन्तं विमानेन सहतक्षकमम्बरात्

विलोक्याङ्गिरसः प्राह राजानं तं बृहस्पतिः २३

नैष त्वया मनुष्येन्द्र वधमर्हति सर्पराट्

अनेन पीतममृतमथ वा अजरामरः २४

जीवितं मरणं जन्तोर्गतिः स्वेनैव कर्मणा

राजंस्ततोऽन्यो नास्त्यस्य प्रदाता सुखदुःखयोः २५

सर्पचौराग्निविद्युद्भ्यः क्षुत्तृद्व्याध्यादिभिर्नृप

पञ्चत्वमृच्छते जन्तुर्भुङ्क्त आरब्धकर्म तत् २६

तस्मात्सत्रमिदं राजन्संस्थीयेताभिचारिकम्

सर्पा अनागसो दग्धा जनैर्दिष्टं हि भुज्यते २७

 

सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो ! व्यासनन्दन श्रीशुकदेव मुनि समस्त चराचर जगत्को अपनी आत्माके रूपमें अनुभव करते हैं और व्यवहारमें सबके प्रति समदृष्टि रखते हैं। भगवान्‌के शरणागत एवं उनके द्वारा सुरक्षित राजर्षि परीक्षित्‌ने उनका सम्पूर्ण उपदेश बड़े ध्यानसे श्रवण किया। अब वे सिर झुकाकर उनके चरणोंके तनिक और पास खिसक आये तथा अञ्जलि बाँधकर उनसे यह प्रार्थना करने लगे ॥ १ ॥

राजा परीक्षित्‌ने कहा—भगवन् ! आप करुणाके मूर्तिमान् स्वरूप हैं। आपने मुझपर परम कृपा करके अनादि-अनन्त, एकरस, सत्य भगवान्‌ श्रीहरिके स्वरूप और लीलाओंका वर्णन किया है। अब मैं आपकी कृपासे परम अनुगृहीत और कृतकृत्य हो गया हूँ ॥ २ ॥ संसारके प्राणी अपने स्वार्थ और परमार्थके ज्ञानसे शून्य हैं और विभिन्न प्रकारके दु:खोंके दावानलसे दग्ध हो रहे हैं। उनके ऊपर भगवन्मय महात्माओंका अनुग्रह होना कोई नयी घटना अथवा आश्चर्यकी बात नहीं है। यह तो उनके लिये स्वाभाविक ही है ॥ ३ ॥ मैंने और मेरे साथ और बहुत-से लोगोंने आपके मुखारविन्दसे इस श्रीमद्भागवत महापुराणका श्रवण किया है। इस पुराणमें पद-पदपर भगवान्‌ श्रीहरिके उस स्वरूप और उन लीलाओंका वर्णन हुआ है, जिसके गानमें बड़े-बड़े आत्माराम पुरुष रमते रहते हैं ॥ ४ ॥ भगवन् ! आपने मुझे अभयपदका, ब्रह्म और आत्माकी एकताका साक्षात्कार करा दिया है। अब मैं परम शान्तिस्वरूप ब्रह्ममें स्थित हूँ। अब मुझे तक्षक आदि किसी भी मृत्युके निमित्तसे अथवा दल-के-दल मृत्युओंसे भी भय नहीं है। मैं अभय हो गया हूँ ॥ ५ ॥ ब्रह्मन् ! अब आप मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं अपनी वाणी बंद कर लूँ, मौन हो जाऊँ और साथ ही कामनाओंके संस्कारसे भी रहित चित्तको इन्द्रियातीत परमात्माके स्वरूपमें विलीन करके अपने प्राणोंका त्याग कर दूँ ॥ ६ ॥ आपके द्वारा उपदेश किये हुए ज्ञान और विज्ञानमें परिनिष्ठित हो जानेसे मेरा अज्ञान सर्वदाके लिये नष्ट हो गया। आपने भगवान्‌के परम कल्याणमय स्वरूपका मुझे साक्षात्कार करा दिया है ॥ ७ ॥

सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो ! राजा परीक्षित्‌ने भगवान्‌ श्रीशुकदेवजीसे इस प्रकार कहकर बड़े प्रेमसे उनकी पूजा की। अब वे परीक्षित्‌से विदा लेकर समागत त्यागी महात्माओं, भिक्षुओंके साथ वहाँसे चले गये ॥ ८ ॥ राजर्षि परीक्षित्‌ने भी बिना किसी बाह्य सहायताके स्वयं ही अपने अन्तरात्माको परमात्माके चिन्तनमें समाहित किया और ध्यानमग्र हो गये। उस समय उनका श्वास-प्रश्वास भी नहीं चलता था, ऐसा जान पड़ता था मानो कोई वृक्षका ठूँठ हो ॥ ९ ॥ उन्होंने गङ्गाजीके तटपर कुशोंको इस प्रकार बिछा रखा था, जिसमें उनका अग्रभाग पूर्वकी ओर हो और उनपर स्वयं उत्तर मुँह होकर बैठे हुए थे। उनकी आसक्ति और संशय तो पहले ही मिट चुके थे। अब वे ब्रह्म और आत्माकी एकतारूप महायोगमें स्थित होकर ब्रह्मस्वरूप हो गये ॥१०॥

 

शौनकादि ऋषियो ! मुनिकुमार शृङ्गीने क्रोधित होकर परीक्षित्‌को शाप दे दिया था। अब उनका भेजा हुआ तक्षक सर्प राजा परीक्षित्‌को डसनेके लिये उनके पास चला। रास्तेमें उसने कश्यप नामके एक ब्राह्मणको देखा ॥ ११ ॥ कश्यप ब्राह्मण सर्पविषकी चिकित्सा करनेमें बड़े निपुण थे। तक्षकने बहुत-सा-धन देकर कश्यपको वहींसे लौटा दिया, उन्हें राजाके पास न जाने दिया। और स्वयं ब्राह्मणके रूपमें छिपकर, क्योंकि वह इच्छानुसार रूप धारण कर सकता था, राजा परीक्षित्‌के पास गया और उन्हें डस लिया ॥ १२ ॥ राजर्षि परीक्षित्‌ तक्षकके डसनेके पहले ही ब्रह्ममें स्थित हो चुके थे। अब तक्षकके विषकी आगसे उनका शरीर सबके सामने ही जलकर भस्म हो गया ॥ १३ ॥ पृथ्वी, आकाश और सब दिशाओंमें बड़े जोरसे ‘हाय-हाय’ की ध्वनि होने लगी। देवता, असुर, मनुष्य आदि सब-के-सब परीक्षित्‌की यह परम गति देखकर विस्मित हो गये ॥ १४ ॥ देवताओंकी दुन्दुभियाँ अपने-आप बज उठीं। गन्धर्व और अप्सराएँ गान करने लगीं। देवतालोग ‘साधु-साधु’ के नारे लगाकर पुष्पोंकी वर्षा करने लगे ॥ १५ ॥

जब जनमेजयने सुना कि तक्षकने मेरे पिताजीको डस लिया है, तो उसे बड़ा क्रोध हुआ। अब वह ब्राह्मणोंके साथ विधिपूर्वक सर्पोंका अग्निकुण्डमें हवन करने लगा ॥ १६ ॥ तक्षकने देखा कि जनमेजयके सर्प-सत्रकी प्रज्वलित अग्नि में बड़े-बड़े महासर्प भस्म होते जा रहे हैं, तब वह अत्यन्त भयभीत होकर देवराज इन्द्रकी शरणमें गया ॥ १७ ॥ बहुत सर्पोंके भस्म होनेपर भी तक्षक न आया, यह देखकर परीक्षित्‌नन्दन राजा जनमेजयने ब्राह्मणोंसे कहा कि ‘ब्राह्मणो ! अबतक सर्पाधम तक्षक क्यों नहीं भस्म हो रहा है ?’ ॥ १८ ॥ ब्राह्मणोंने कहा—‘राजेन्द्र ! तक्षक इस समय इन्द्रकी शरणमें चला गया है और वे उसकी रक्षा कर रहे हैं। उन्होंने ही तक्षकको स्तम्भित कर दिया है, इसीसे वह अग्निकुण्ड में गिरकर भस्म नहीं हो रहा है’ ॥ १९ ॥ परीक्षित्‌नन्दन जनमेजय बड़े ही बुद्धिमान् और वीर थे। उन्होंने ब्राह्मणोंकी बात सुनकर ऋत्विजोंसे कहा कि ‘ब्राह्मणो ! आपलोग इन्द्रके साथ तक्षकको क्यों नहीं अग्नि में गिरा देते ?’ ॥ २० ॥ जनमेजयकी बात सुनकर ब्राह्मणोंने उस यज्ञमें इन्द्रके साथ तक्षकका अग्निकुण्डमें आवाहन किया। उन्होंने कहा—‘रे तक्षक ! तू मरुद्गणके सहचर इन्द्रके साथ इस अग्निकुण्डमें शीघ्र आ पड़’ ॥ २१ ॥ जब ब्राह्मणोंने इस प्रकार आकर्षणमन्त्रका पाठ किया, तब तो इन्द्र अपने स्थान—स्वर्गलोकसे विचलित हो गये। विमानपर बैठे हुए इन्द्र तक्षकके साथ ही बहुत घबड़ा गये और उनका विमान भी चक्कर काटने लगा ॥ २२ ॥ अङ्गिरानन्दन बृहस्पतिजीने देखा कि आकाशसे देवराज इन्द्र विमान और तक्षकके साथ ही अग्रिकुण्डमें गिर रहे हैं; तब उन्होंने राजा जनमेजयसे कहा— ॥ २३ ॥ ‘नरेन्द्र ! सर्पराज तक्षकको मार डालना आपके योग्य काम नहीं है। यह अमृत पी चुका है। इसलिये यह अजर और अमर है ॥ २४ ॥ राजन् ! जगत्के प्राणी अपने-अपने कर्मके अनुसार ही जीवन, मरण और मरणोत्तर गति प्राप्त करते हैं। कर्मके अतिरिक्त और कोई भी किसीको सुख-दु:ख नहीं दे सकता ॥ २५ ॥ जनमेजय ! यों तो बहुत-से लोगोंकी मृत्यु साँप, चोर, आग, बिजली आदिसे तथा भूख-प्यास, रोग आदि निमित्तोंसे होती है; परन्तु यह तो कहनेकी बात है। वास्तवमें तो सभी प्राणी अपने प्रारब्ध- कर्मका ही उपभोग करते हैं ॥ २६ ॥ राजन् ! तुमने बहुत-से निरपराध सर्पोंको जला दिया है। इस अभिचार-यज्ञका फल केवल प्राणियोंकी हिंसा ही है। इसलिये इसे बन्द कर देना चाहिये। क्योंकि जगत् के सभी प्राणी अपने-अपने प्रारब्धकर्मका ही भोग कर रहे हैं ॥ २७ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वादश स्कन्ध– पाँचवाँ अध्याय


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

द्वादश स्कन्धपाँचवाँ अध्याय

 

श्रीशुकदेवजीका अन्तिम उपदेश

 

 श्रीशुक उवाच

 अत्रानुवर्ण्यतेऽभीक्ष्णं विश्वात्मा भगवान् हरिः ।

 यस्य प्रसादजो ब्रह्मा रुद्रः क्रोधसमुद्‌भवः ॥ १ ॥

 त्वं तु राजन् मरिष्येति पशुबुद्धिमिमां जहि ।

 न जातः प्रागभूतोऽद्य देहवत्त्वं न नङ्‌क्ष्यसि ॥ २ ॥

 न भविष्यसि भूत्वा त्वं पुत्रपौत्रादिरूपवान् ।

 बीजाङ्‌कुरवद् देहादेः व्यतिरिक्तो यथानलः ॥ ३ ॥

 स्वप्ने यथा शिरश्छेदं पञ्चत्वाद्यात्मनः स्वयम् ।

 यस्मात्पश्यति देहस्य तत आत्मा ह्यजोऽमरः ॥ ४ ॥

 घटे भिन्ने घटाकाश आकाशः स्याद् यथा पुरा ।

 एवं देहे मृते जीवो ब्रह्म सम्पद्यते पुनः ॥ ५ ॥

 मनः सृजति वै देहान् गुणान् कर्माणि चात्मनः ।

 तन्मनः सृजते माया ततो जीवस्य संसृतिः ॥ ६ ॥

 स्नेहाधिष्ठानवर्त्यग्नि संयोगो यावदीयते ।

 ततो दीपस्य दीपत्वं एवं देहकृतो भवः ।

 रजःसत्त्वतमोवृत्त्या जायतेऽथ विनश्यति ॥ ७ ॥

 न तत्रात्मा स्वयंज्योतिः यो व्यक्ताव्यक्तयोः परः ।

 आकाश इव चाधारो ध्रुवोऽनन्तोपमस्ततः ॥ ८ ॥

 एवं आत्मानमात्मस्थं आत्मनैवामृश प्रभो ।

 बुद्ध्यानुमानगर्भिण्या वासुदेवानुचिन्तया ॥ ९ ॥

 चोदितो विप्रवाक्येन न त्वां धक्ष्यति तक्षकः ।

 मृत्यवो नोपधक्ष्यन्ति मृत्यूनां मृत्युमीश्वरम् ॥ १० ॥

 अहं ब्रह्म परं धाम ब्रह्माहं परमं पदम् ।

 एवं समीक्ष्य चात्मानं आत्मन्याधाय निष्कले ॥ ११ ॥

 दशन्तं तक्षकं पादे लेलिहानं विषाननैः ।

 न द्रक्ष्यसि शरीरं च विश्वं च पृथगात्मनः ॥ १२ ॥

 एतत्ते कथितं तात यदात्मा पृष्टवान् नृप ।

 हरेर्विश्वात्मनश्चेष्टां किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ १३ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—प्रिय परीक्षित्‌ ! इस श्रीमद्भागवत महापुराणमें बार-बार और सर्वत्र विश्वात्मा भगवान्‌ श्रीहरिका ही संकीर्तन हुआ है। ब्रह्मा और रुद्र भी श्रीहरिसे पृथक् नहीं हैं, उन्हींकी प्रसाद-लीला और क्रोध-लीलाकी अभिव्यक्ति हैं ॥ १ ॥ हे राजन् ! अब तुम यह पशुओंकी-सी अविवेकमूलक धारणा छोड़ दो कि मैं मरूँगा; जैसे शरीर पहले नहीं था और अब पैदा हुआ और फिर नष्ट हो जायगा, वैसे ही तुम भी पहले नहीं थे, तुम्हारा जन्म हुआ, तुम मर जाओगे—यह बात नहीं है ॥ २ ॥ जैसे बीजसे अङ्कुर और अङ्कुरसे बीजकी उत्पत्ति होती है, वैसे ही एक देहसे दूसरे देहकी और दूसरे देहसे तीसरेकी उत्पत्ति होती है। किन्तु तुम न तो किसीसे उत्पन्न हुए हो और न तो आगे पुत्र-पौत्रादिकोंके शरीरके रूपमें उत्पन्न होओगे। अजी, जैसे आग लकड़ीसे सर्वथा अलग रहती है—लकड़ीकी उत्पत्ति और विनाशसे सर्वथा परे, वैसे ही तुम भी शरीर आदिसे सर्वथा अलग हो ॥ ३ ॥ स्वप्नावस्थामें ऐसा मालूम होता है कि मेरा सिर कट गया है और मैं मर गया हूँ, मुझे लोग श्मशानमें जला रहे हैं; परन्तु ये सब शरीरकी ही अवस्थाएँ दीखती हैं, आत्माकी नहीं। देखनेवाला तो उन अवस्थाओंसे सर्वथा परे, जन्म और मृत्युसे रहित, शुद्ध-बुद्ध परमतत्त्वस्वरूप है ॥ ४ ॥ जैसे घड़ा फूट जानेपर आकाश पहलेकी ही भाँति अखण्ड रहता है, परन्तु घटाकाशताकी निवृत्ति हो जानेसे लोगोंको ऐसा प्रतीत होता है कि वह महाकाशसे मिल गया है—वास्तवमें तो वह मिला हुआ था ही, वैसे ही देहपात हो जानेपर ऐसा मालूम पड़ता है मानो जीव ब्रह्म हो गया। वास्तवमें तो वह ब्रह्म था ही, उसकी अब्रह्मता तो प्रतीतिमात्र थी ॥ ५ ॥ मन ही आत्माके लिये शरीर, विषय और कर्मोंकी कल्पना कर लेता है; और उस मनकी सृष्टि करती है माया (अविद्या)। वास्तवमें माया ही जीवके संसार-चक्रमें पडऩेका कारण है ॥ ६ ॥ जबतक तेल, तेल रखनेका पात्र, बत्ती और आगका संयोग रहता है, तभीतक दीपकमें दीपकपना है; वैसे ही उनके ही समान जबतक आत्माका कर्म, मन, शरीर और इनमें रहनेवाले चैतन्याध्यासके साथ सम्बन्ध रहता है तभीतक उसे जन्म-मृत्युके चक्र संसारमें भटकना पड़ता है और रजोगुण, सत्त्वगुण तथा तमोगुणकी वृत्तियोंसे उसे उत्पन्न, स्थित एवं विनष्ट होना पड़ता है ॥ ७ ॥ परन्तु जैसे दीपकके बुझ जानेसे तत्त्वरूप तेजका विनाश नहीं होता, वैसे ही संसारका नाश होनेपर भी स्वयंप्रकाश आत्माका नाश नहीं होता। क्योंकि वह कार्य और कारण, व्यक्त और अव्यक्त सबसे परे है, वह आकाशके समान सबका आधार है, नित्य और निश्चल है, वह अनन्त है। सचमुच आत्माकी उपमा आत्मा ही है ॥ ८ ॥

हे राजन् ! तुम अपनी विशुद्ध एवं विवेकवती बुद्धिको परमात्माके चिन्तनसे भरपूर कर लो और स्वयं ही अपने अन्तरमें स्थित परमात्माका साक्षात्कार करो ॥ ९ ॥ देखो, तुम मृत्युओंकी भी मृत्यु हो ! तुम स्वयं ईश्वर हो। ब्राह्मणके शापसे प्रेरित तक्षक तुम्हें भस्म न कर सकेगा। अजी, तक्षककी तो बात ही क्या, स्वयं मृत्यु और मृत्युओंका समूह भी तुम्हारे पासतक न फटक सकेंगे ॥ १० ॥ तुम इस प्रकार अनुसंधान—चिन्तन करो कि ‘मैं ही सर्वाधिष्ठान परब्रह्म हूँ। सर्वाधिष्ठान ब्रह्म मैं ही हूँ।’ इस प्रकार तुम अपने-आपको अपने वास्तविक एकरस अनन्त अखण्ड स्वरूपमें स्थित कर लो ॥ ११ ॥ उस समय अपनी विषैली जीभ लपलपाता हुआ, अपने होठोंके कोने चाटता हुआ तक्षक आये और अपने विषपूर्ण मुखोंसे तुम्हारे पैरोंमें डस ले—कोई परवा नहीं। तुम अपने आत्मस्वरूपमें स्थित होकर इस शरीरको—और तो क्या, सारे विश्वको भी अपनेसे पृथक् न देखोगे ॥ १२ ॥ आत्मस्वरूप बेटा परीक्षित्‌ ! तुमने विश्वात्मा भगवान्‌की लीलाके सम्बन्धमें जो प्रश्न किया था, उसका उत्तर मैंने दे दिया, अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ १३ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां द्वादशस्कन्धे ब्रह्मोपदेशो नाम पंचमोऽध्यायः ॥ ५ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करणपुस्तककोड 1535 से 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

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