शुक्रवार, 23 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वादश स्कन्ध– नवाँ अध्याय (पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

द्वादश स्कन्धनवाँ अध्याय (पोस्ट०२)

 

मार्कण्डेयजी का माया-दर्शन

 

 स कदाचिद्‌ भ्रमन् तस्मिन् पृथिव्याः ककुदि द्विजः ।

 न्याग्रोधपोतं ददृशे फलपल्लव शोभितम् ॥ २० ॥

 प्राग्‌उत्तरस्यां शाखायां तस्यापि ददृशे शिशुम् ।

 शयानं पर्णपुटके ग्रसन्तं प्रभया तमः ॥ २१ ॥

 महामरकतश्यामं श्रीमद् वदनपङ्‌कजम् ।

 कम्बुग्रीवं महोरस्कं सुनासं सुन्दरभ्रुवम् ॥ २२ ॥

 श्वासैजदलकाभातं कम्बुश्रीकर्णदाडिमम् ।

 विद्रुमाधरभासेषत् शोणायित सुधास्मितम् ॥ २३ ॥

 पद्मगर्भारुणापाङ्‌गं हृद्यहासावलोकनम् ।

 श्वासैजद्‌बलिसंविग्न निम्ननाभिदलोदरम् ॥ २४ ॥

 चार्वङ्‌गुलिभ्यां पाणिभ्यां उन्नीय चरणाम्बुजम् ।

 मुखे निधाय विप्रेन्द्रो धयन्तं वीक्ष्य विस्मितः ॥ २५ ॥

तद्दर्शनाद् वीतपरिश्रमो मुदा

     प्रोत्फुल्लहृत्पद्मविलोचनाम्बुजः ।

 प्रहृष्टरोमाद्‌भुतभावशङ्‌कितः

     प्रष्टुं पुरस्तं प्रससार बालकम् ॥ २६ ॥

 तावच्छिशोर्वै श्वसितेन भार्गवः

     सोऽन्तः शरीरं मशको यथाविशत् ।

 तत्राप्यदो न्यस्तमचष्ट कृत्स्नशो

     यथा पुरामुह्यदतीव विस्मितः ॥ २७ ॥

 खं रोदसी भागणानद्रिसागरान्

     द्वीपान् सवर्षान् ककुभः सुरासुरान् ।

 वनानि देशान् सरितः पुराकरान्

     खेटान् व्रजानाश्रमवर्णवृत्तयः ॥ २८ ॥

 महान्ति भूतान्यथ भौतिकान्यसौ

     कालं च नानायुग कल्पकल्पनम् ।

 यत्किञ्चिदन्यद् व्यवहारकारणं

     ददर्श विश्वं सदिवावभासितम् ॥ २९ ॥

हिमालयं पुष्पवहां च तां नदीं

     निजाश्रमं तत्र ऋषीन् अपश्यत ।

 विश्वं विपश्यञ्छ्वसिताच्छिशोर्वै

     बहिर्निरस्तो न्यपतल्लयाब्धौ ॥ ३० ॥

तस्मिन् पृथिव्याः ककुदि प्ररूढं

     वटं च तत्पर्णपुटे शयानम् ।

 तोकं च तत्प्रेमसुधास्मितेन

     निरीक्षितोऽपाङ्‌गनिरीक्षणेन ॥ ३१ ॥

अथ तं बालकं वीक्ष्य नेत्राभ्यां धिष्ठितं हृदि ।

 अभ्ययादतिसङ्‌क्लिष्टः परिष्वक्तुं अधोक्षजम् ॥ ३२ ॥

 तावत्स भगवान् साक्षात् योगाधीशो गुहाशयः ।

 अन्तर्दधे ऋषेः सद्यो यथेहानीशनिर्मिता ॥ ३३ ॥

 तमन्वथ वटो ब्रह्मन् सलिलं लोकसम्प्लवः ।

 तिरोधायि क्षणादस्य स्वाश्रमे पूर्ववन् स्थितः ॥ ३४ ॥

 

शौनकजी ! मार्कण्डेय मुनि इसी प्रकार प्रलयके जलमें बहुत समयतक भटकते रहे। एक बार उन्होंने पृथ्वीके एक टीलेपर एक छोटा-सा बरगदका पेड़ देखा। उसमें हरे-हरे पत्ते और लाल-लाल फल शोभायमान हो रहे थे ॥ २० ॥ बरगदके पेड़में ईशानकोणपर एक डाल थी, उसमें एक पत्तोंका दोना-सा बन गया था। उसीपर एक बड़ा ही सुन्दर नन्हा-सा शिशु लेट रहा था। उसके शरीरसे ऐसी उज्ज्वल छटा छिटक रही थी, जिससे आस-पासका अँधेरा दूर हो रहा था ॥ २१ ॥ वह शिशु मरकतमणिके समान साँवल-साँवला था। मुखकमलपर सारा सौन्दर्य फूटा पड़ता था। गरदन शङ्खके समान उतार-चढ़ाववाली थी। छाती चौड़ी थी। तोतेकी चोंचके समान सुन्दर नासिका और भौंहें बड़ी मनोहर थीं ॥ २२ ॥ काली-काली घुँघराली अलकें कपोलोंपर लटक रही थीं और श्वास लगनेसे कभी-कभी हिल भी जाती थीं। शङ्खके समान घुमावदार कानोंमें अनारके लाल-लाल फूल शोभायमान हो रहे थे। मूँगेके समान लाल-लाल होठोंकी कान्तिसे उनकी सुधामयी श्वेत मुसकान कुछ लालिमामिश्रित हो गयी थी ॥ २३ ॥ नेत्रोंके कोने कमलके भीतरी भागके समान तनिक लाल-लाल थे। मुसकान और चितवन बरबस हृदयको पकड़ लेती थी। बड़ी गम्भीर नाभि थी। छोटी-सी तोंद पीपलके पत्तेके समान जान पड़ती और श्वास लेनेके समय उसपर पड़ी हुई बलें तथा नाभि भी हिल जाया करती थी ॥ २४ ॥ नन्हें-नन्हें हाथोंमें बड़ी सुन्दर-सुन्दर अँगुलियाँ थीं। वह शिशु अपने दोनों करकमलोंसे एक चरणकमलको मुखमें डालकर चूस रहा था। मार्कण्डेय मुनि यह दिव्य दृश्य देखकर अत्यन्त विस्मित हो गये ॥ २५ ॥

शौनकजी ! उस दिव्य शिशुको देखते ही मार्कण्डेय मुनिकी सारी थकावट जाती रही। आनन्दसे उनके हृदय-कमल और नेत्रकमल खिल गये। शरीर पुलकित हो गया। उस नन्हें-से शिशुके इस अद्भुत भावको देखकर उनके मनमें तरह-तरहकी शङ्काएँ—‘यह कौन है’ इत्यादि— आने लगीं और वे उस शिशुसे ये बातें पूछनेके लिये उसके सामने सरक गये ॥ २६ ॥ अभी मार्कण्डेयजी पहुँच भी न पाये थे कि उस शिशुके श्वासके साथ उसके शरीरके भीतर उसी प्रकार घुस गये, जैसे कोई मच्छर किसीके पेटमें चला जाय। उस शिशुके पेटमें जाकर उन्होंने सब-की-सब वही सृष्टि देखी, जैसी प्रलयके पहले उन्होंने देखी थी। वे वह सब विचित्र दृश्य देखकर आश्चर्यचकित हो गये। वे मोहवश कुछ सोच-विचार भी न सके ॥ २७ ॥ उन्होंने उस शिशुके उदरमें आकाश, अन्तरिक्ष, ज्योतिर्मण्डल, पर्वत, समुद्र, द्वीप, वर्ष, दिशाएँ, देवता, दैत्य, वन, देश, नदियाँ, नगर, खानें, किसानोंके गाँव, अहीरोंकी बस्तियाँ, आश्रम, वर्ण, उनके आचार-व्यवहार, पञ्चमहाभूत, भूतोंसे बने हुए प्राणियोंके शरीर तथा पदार्थ, अनेक युग और कल्पोंके भेदसे युक्त काल आदि सब कुछ देखा। केवल इतना ही नहीं जिन देशों, वस्तुओं और कालोंके द्वारा जगत्का व्यवहार सम्पन्न होता है, वह सब कुछ वहाँ विद्यमान था। कहाँतक कहें, यह सम्पूर्ण विश्व न होनेपर भी वहाँ सत्यके समान प्रतीत होते देखा ॥ २८-२९ ॥ हिमालय पर्वत, वही पुष्पभद्रा नदी, उसके तटपर अपना आश्रम और वहाँ रहनेवाले ऋषियोंको भी मार्कण्डेयजीने प्रत्यक्ष ही देखा। इस प्रकार सम्पूर्ण विश्वको देखते-देखते ही वे उस दिव्य शिशुके श्वासके द्वारा ही बाहर आ गये और फिर प्रलय-कालीन समुद्रमें गिर पड़े ॥ ३० ॥ अब फिर उन्होंने देखा कि समुद्रके बीचमें पृथ्वीके टीलेपर वही बरगदका पेड़ ज्यों-का-त्यों विद्यमान है और उसके पत्तेके दोनेमें वही शिशु सोया हुआ है। उसके अधरोंपर प्रेमामृतसे परिपूर्ण मन्द-मन्द मुसकान है और अपनी प्रेमपूर्ण चितवनसे वह मार्कण्डेयजीकी ओर देख रहा है ॥ ३१ ॥ अब मार्कण्डेय मुनि इन्द्रियातीत भगवान्‌को जो शिशुके रूपमें क्रीडा कर रहे थे और नेत्रोंके मार्गसे पहले ही हृदयमें विराजमान हो चुके थे, आलिङ्गन करनेके लिये बड़े श्रम और कठिनाईसे आगे बढ़े ॥ ३२ ॥ परन्तु शौनकजी ! भगवान्‌ केवल योगियोंके ही नहीं, स्वयं योगके भी स्वामी और सबके हृदयमें छिपे रहनेवाले हैं। अभी मार्कण्डेय मुनि उनके पास पहुँच भी न पाये थे कि वे तुरंत अन्तर्धान हो गये—ठीक वैसे ही, जैसे अभागे और असमर्थ पुरुषोंके परिश्रमका पता नहीं चलता कि वह फल दिये बिना ही क्या हो गया ? ॥ ३३ ॥ शौनकजी ! उस शिशुके अन्तर्धान होते ही वह बरगदका वृक्ष तथा प्रलयकालीन दृश्य एवं जल भी तत्काल लीन हो गया और मार्कण्डेय मुनिने देखा कि मैं तो पहलेके समान ही अपने आश्रममें बैठा हुआ हूँ ॥ ३४ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां द्वादशस्कन्धे मायादर्शनं नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वादश स्कन्ध– नवाँ अध्याय (पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

द्वादश स्कन्धनवाँ अध्याय (पोस्ट०१)

 

मार्कण्डेयजी का माया-दर्शन

 

सूत उवाच

स्तुतो भगवानित्थं मार्कण्डेयेन धीमता ।

नारायणो नरसखः प्रीत आह भृगूद्वहम् ॥ १ ॥

 

 श्रीभगवानुवाच -

भो भो ब्रह्मर्षिवर्योऽसि सिद्ध आत्मसमाधिना ।

 मयि भक्त्यानपायिन्या तपःस्वाध्यायसंयमैः ॥ २ ॥

 वयं ते परितुष्टाः स्म त्वद्‌बृहद्‌व्रतचर्यया ।

 वरं प्रतीच्छ भद्रं ते वरदेशादभीप्सितम् ॥ ३ ॥

 

 श्रीऋषिरुवाच -

 जितं ते देवदेवेश प्रपन्नार्तिहराच्युत ।

 वरेणैतावतालं नो यद्‌ भवान् समदृश्यत ॥ ४ ॥

 गृहीत्वाजादयो यस्य श्रीमत् पादाब्जदर्शनम् ।

 मनसा योगपक्वेन स भवान् मेऽक्षगोचरः ॥ ५ ॥

 अथाप्यम्बुजपत्राक्ष पुण्यश्लोकशिखामणे ।

 द्रक्ष्ये मायां यया लोकः सपालो वेद सद्‌भिदाम् ॥ ६ ॥

 

 सूत उवाच -

 इतीडितोऽर्चितः कामं ऋषिणा भगवान् मुने ।

 तथेति स स्मयन् प्रागाद् बदर्याश्रममीश्वरः ॥ ७ ॥

 तमेव चिन्तयन्नर्थं ऋषिः स्वाश्रम एव सः ।

 वसन् अग्न्यर्कसोमाम्बु भूवायुवियदात्मसु ॥ ८ ॥

 ध्यायन् सर्वत्र च हरिं भावद्रव्यैरपूजयत् ।

 क्वचित् पूजां विसस्मार प्रेमप्रसरसम्प्लुतः ॥ ९ ॥

 तस्यैकदा भृगुश्रेष्ठ पुष्पभद्रातटे मुनेः ।

 उपासीनस्य सन्ध्यायां ब्रह्मन् वायुरभून्महान् ॥ १० ॥

तं चण्डशब्दं समुदीरयन्तं

     बलाहका अन्वभवन् करालाः ।

 अक्षस्थविष्ठा मुमुचुस्तडिद्‌भिः

     स्वनन्त उच्चैरभि वर्षधाराः ॥ ११ ॥

 ततो व्यदृश्यन्त चतुः समुद्राः

     समन्ततः क्ष्मातलमाग्रसन्तः ।

 समीरवेगोर्मिभिरुग्रनक्र

     महाभयावर्तगभीरघोषाः ॥ १२ ॥

अन्तर्बहिश्चाद्‌भिरतिद्युभिः खरैः

     शतह्रदाभिरुपतापितं जगत् ।

 चतुर्विधं वीक्ष्य सहात्मना मुनिः

     जलाप्लुतां क्ष्मां विमनाः समत्रसत् ॥ १३ ॥

 तस्यैवमुद्वीक्षत ऊर्मिभीषणः

     प्रभञ्जनाघूर्णितवार्महार्णवः ।

 आपूर्यमाणो वरषद्‌भिरम्बुदैः

     क्ष्मामप्यधाद् द्वीपवर्षाद्रिभिः समम् ॥ १४ ॥

 सक्ष्मान्तरिक्षं सदिवं सभागणं

     त्रैलोक्यमासीत् सह दिग्भिराप्लुतम् ।

 स एक एवोर्वरितो महामुनिः

     बभ्राम विक्षिप्य जटा जडान्धवत् ॥ १५ ॥

 क्षुत्तृट्परीतो मकरैस्तिमिङ्‌गिलैः

     उपद्रुतो वीचिनभस्वताहतः ।

 तमस्यपारे पतितो भ्रमन् दिशो

     न वेद खं गां च परिश्रमेषितः ॥ १६ ॥

  क्वचिद् गतो महावर्ते तरलैस्ताडितः क्वचित् ।

 यादोभिर्भक्ष्यते क्वापि स्वयं अन्योन्यघातिभिः ॥ १७ ॥

 क्वचिच्छोकं क्वचिन्मोहं क्वचिद् दुखं सुखं भयम् ।

 क्वचित् मृत्युं अवाप्नोति व्याध्यादिभिरुतार्दितः ॥ १८ ॥

 अयुतायतवर्षाणां सहस्राणि शतानि च ।

 व्यतीयुर्भ्रमतः तस्मिन् विष्णुमायावृतात्मनः ॥ १९ ॥

 

सूतजी कहते हैं—जब ज्ञानसम्पन्न मार्कण्डेय मुनिने इस प्रकार स्तुति की, तब भगवान्‌ नर- नारायण ने प्रसन्न होकर मार्कण्डेयजीसे कहा ॥ १ ॥

भगवान्‌ नारायणने कहा—सम्मान्य ब्रहमर्षि-शिरोमणि ! तुम चित्तकी एकग्रता, तपस्या, स्वाध्याय, संयम और मेरी अनन्य भक्तिसे सिद्ध हो गये हो ॥ २ ॥ तुम्हारे इस आजीवन ब्रह्मचर्यव्रतकी निष्ठा देखकर हम तुमपर बहुत ही प्रसन्न हुए हैं। तुम्हारा कल्याण हो ! मैं समस्त वर देनेवालोंका स्वामी हूँ। इसलिये तुम अपना अभीष्ट वर मुझसे माँग लो ॥ ३ ॥

मार्कण्डेय मुनिने कहा—देवदेवेश ! शरणागत-भयहारी अच्युत ! आपकी जय हो ! जय हो ! हमारे लिये बस इतना ही वर पर्याप्त है कि आपने कृपा करके अपने मनोहर स्वरूपका दर्शन कराया ॥ ४ ॥ ब्रह्मा-शङ्कर आदि देवगण योग-साधनाके द्वारा एकाग्र हुए मनसे ही आपके परम सुन्दर श्रीचरणकमलोंका दर्शन प्राप्त करके कृतार्थ हो गये हैं। आज उन्हीं आपने मेरे नेत्रोंके सामने प्रकट होकर मुझे धन्य बनाया है ॥ ५ ॥ पवित्रकीर्ति महानुभावोंके शिरोमणि कमलनयन ! फिर भी आपकी आज्ञाके अनुसार मैं आपसे वर माँगता हूँ। मैं आपकी वह माया देखना चाहता हूँ, जिससे मोहित होकर सभी लोक और लोकपाल अद्वितीय वस्तु ब्रह्ममें अनेकों प्रकारके भेद-विभेद देखने लगते हैं ॥ ६ ॥

सूतजी कहते हैं—शौनकजी ! जब इस प्रकार मार्कण्डेय मुनिने भगवान्‌ नर-नारायणकी इच्छानुसार स्तुति-पूजा कर ली एवं वरदान माँग लिया, तब उन्होंने मुसकराते हुए कहा—‘ठीक है, ऐसा ही होगा।’ इसके बाद वे अपने आश्रम बदरीवनको चले गये ॥ ७ ॥ मार्कण्डेय मुनि अपने आश्रमपर ही रहकर निरन्तर इस बातका चिन्तन करते रहते कि मुझे मायाके दर्शन कब होंगे। वे अग्रि, सूर्य, चन्द्रमा, जल, पृथ्वी, वायु, आकाश एवं अन्त:करणमें—और तो क्या, सर्वत्र भगवान्‌का ही दर्शन करते हुए मानसिक वस्तुओंसे उनका पूजन करते रहते। कभी-कभी तो उनके हृदयमें प्रेमकी ऐसी बाढ़ आ जाती कि वे उसके प्रवाहमें डूबने-उतराने लगते, उन्हें इस बातकी भी याद न रहती कि कब कहाँ किस प्रकार भगवान्‌की पूजा करनी चाहिये ? ॥ ८-९ ॥

शौनकजी ! एक दिनकी बात है, सन्ध्याके समय पुष्पभद्रा नदीके तटपर मार्कण्डेय मुनि भगवान्‌की उपासनामें तन्मय हो रहे थे। ब्रह्मन् ! उसी समय एकाएक बड़े जोरकी आँधी चलने लगी ॥ १० ॥ उस समय आँधीके कारण बड़ी भयङ्कर आवाज होने लगी और बड़े विकराल बादल आकाशमें मँडराने लगे। बिजली चमक-चमककर कडक़ने लगी और रथके धुरेके समान जलकी मोटी-मोटी धाराएँ पृथ्वीपर गिरने लगीं ॥ ११ ॥ यही नहीं, मार्कण्डेय मुनिको ऐसा दिखायी पड़ा कि चारों ओरसे चारों समुद्र समूची पृथ्वीको निगलते हुए उमड़े आ रहे हैं। आँधीके वेगसे समुद्रमें बड़ी-बड़ी लहरें उठ रही हैं, बड़े भयङ्कर भँवर पड़ रहे हैं और भयङ्कर ध्वनि कान फाड़े डालती है। स्थान-स्थानपर बड़े-बड़े मगर उछल रहे हैं ॥ १२ ॥ उस समय बाहर-भीतर, चारों ओर जल-ही-जल दीखता था। ऐसा जान पड़ता था कि उस जलराशिमें पृथ्वी ही नहीं, स्वर्ग भी डूबा जा रहा है; ऊपरसे बड़े वेगसे आँधी चल रही है और बिजली चमक रही है, जिससे सम्पूर्ण जगत् संतप्त हो रहा है। जब मार्कण्डेय मुनिने देखा कि इस जल-प्रलयसे सारी पृथ्वी डूब गयी है, उद्भिज्ज, स्वेदज, अण्डज और जरायुज—चारों प्रकारके प्राणी तथा स्वयं वे भी अत्यन्त व्याकुल हो रहे हैं, तब वे उदास हो गये और साथ ही अत्यन्त भयभीत भी ॥ १३ ॥ उनके सामने ही प्रलयसमुद्रमें भयङ्कर लहरें उठ रही थीं, आँधीके वेगसे जलराशि उछल रही थी और प्रलयकालीन बादल बरस-बरसकर समुद्रको और भी भरते जा रहे थे। उन्होंने देखा कि समुद्रने द्वीप, वर्ष और पर्वतोंके साथ सारी पृथ्वीको डुबा दिया ॥ १४ ॥ पृथ्वी, अन्तरक्षि, स्वर्ग, ज्योतिर्मण्डल (ग्रह, नक्षत्र एवं तारोंका समूह) और दिशाओंके साथ तीनों लोक जलमें डूब गये। बस, उस समय एकमात्र महामुनि मार्कण्डेय ही बच रहे थे। उस समय वे पागल और अंधेके समान जटा फैलाकर यहाँसे वहाँ और वहाँसे यहाँ भाग- भागकर अपने प्राण बचानेकी चेष्टा कर रहे थे ॥ १५ ॥ वे भूख-प्याससे व्याकुल हो रहे थे। किसी ओर बड़े-बड़े मगर तो किसी ओर बड़े-बड़े तिमिङ्गल मच्छ उनपर टूट पड़ते। किसी ओरसे हवाका झोंका आता, तो किसी ओरसे लहरोंके थपेड़े उन्हें घायल कर देते। इस प्रकार इधर-उधर भटकते- भटकते वे अपार अज्ञानान्धकारमें पड़ गये—बेहोश हो गये और इतने थक गये कि उन्हें पृथ्वी और आकाशका भी ज्ञान न रहा ॥ १६ ॥ वे कभी बड़े भारी भँवरमें पड़ जाते, कभी तरल तरङ्गोंकी चोटसे चञ्चल हो उठते। जब कभी जलजन्तु आपसमें एक-दूसरेपर आक्रमण करते, तब ये अचानक ही उनके शिकार बन जाते ॥ १७ ॥ कहीं शोकग्रस्त हो जाते, तो कहीं मोहग्रस्त। कभी दु:ख-ही-दु:खके निमित्त आते, तो कभी तनिक सुख भी मिल जाता। कभी भयभीत होते, कभी मर जाते, तो कभी तरह-तरहके रोग उन्हें सताने लगते ॥ १८ ॥ इस प्रकार मार्कण्डेय मुनि विष्णुभगवान्‌की मायाके चक्कर में मोहित हो रहे थे। उस प्रलयकाल के समुद्रमें भटकते-भटकते उन्हें सैकड़ों-हजारों ही नहीं, लाखों-करोड़ों वर्ष बीत गये ॥ १९ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



गुरुवार, 22 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वादश स्कन्ध– आठवाँ अध्याय (पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

द्वादश स्कन्धआठवाँ अध्याय (पोस्ट०२)

 

मार्कण्डेयजी की तपस्या और वर-प्राप्ति

 

तस्यैवं युञ्जतश्चित्तं तपःस्वाध्यायसंयमैः ।

 अनुग्रहायाविरासीत् नरनारायणो हरिः ॥ ३२ ॥

तौ शुक्लकृष्णौ नवकञ्जलोचनौ

     चतुर्भुजौ रौरववल्कलाम्बरौ ।

 पवित्रपाणी उपवीतकं त्रिवृत्

     कमण्डलुं दण्डमृजुं च वैणवम् ॥ ३३ ॥

 पद्माक्षमालामुत जन्तुमार्जनं

     वेदं च साक्षात् तप एव रूपिणौ ।

 तपत् तडिद्वर्णपिशङ्‌गरोचिषा

     प्रांशू दधानौ विबुधर्षभार्चितौ ॥ ३४ ॥

ते वै भगवतो रूपे नरनारायणौ ऋषी ।

 दृष्ट्वोत्थायादरेणोच्चैः ननामाङ्‌गेन दण्डवत् ॥ ३५ ॥

 स तत् सन्दर्शनानन्द निर्वृतात्मेन्द्रियाशयः ।

 हृष्टरोमाश्रुपूर्णाक्षो न सेहे तावुदीक्षितुम् ॥ ३६ ॥

 उत्थाय प्राञ्जलिः प्रह्व औत्सुक्यादाश्लिषन्निव ।

 नमो नम इतीशानौ बभाशे गद्‌गदाक्षरम् ॥ ३७ ॥

 तयोरासनमादाय पादयोरवनिज्य च ।

 अर्हणेनानुलेपेन धूपमाल्यैः अपूजयत् ॥ ३८ ॥

 सुखमासनमासीनौ प्रसादाभिमुखौ मुनी ।

 पुनरानम्य पादाभ्यां गरिष्ठाविदमब्रवीत् ॥ ३९ ॥

 श्रीमार्कण्डेय उवाच -

किं वर्णये तव विभो यदुदीरितोऽसुः

     संस्पन्दते तमनु वाङ्‌मन इन्द्रियाणि ।

 स्पन्दन्ति वै तनुभृतामजशर्वयोश्च

     स्वस्याप्यथापि भजतामसि भावबन्धुः ॥ ४० ॥

 मूर्ती इमे भगवतो भगवन् त्रिलोक्याः

     क्षेमाय तापविरमाय च मृत्युजित्यै ।

 नाना बिभर्ष्यवितुमन्यतनूर्यथेदं

     सृष्ट्वा पुनर्ग्रससि सर्वमिवोर्णनाभिः ॥ ४१ ॥

 तस्यावितुः स्थिरचरेशितुरङ्‌घ्रिमूलं

     यत्स्थं न कर्मगुणकालरुजः स्पृशन्ति ।

 यद्वै स्तुवन्ति निनमन्ति यजन्त्यभीक्ष्णं

     ध्यायन्ति वेदहृदया मुनयस्तदाप्त्यै ॥ ४२ ॥

 नान्यं तवाङ्‌घ्र्युपनयादपवर्गमूर्तेः

     क्षेमं जनस्य परितोभिय ईश विद्मः ।

 ब्रह्मा बिभेत्यलमतो द्विपरार्धधिष्ण्यः

     कालस्य ते किमुत तत्कृतभौतिकानाम् ॥ ४३ ॥

 तद् वै भजाम्यृतधियस्तव पादमूलं

     हित्वेदमात्मच्छदि चात्मगुरोः परस्य ।

 देहाद्यपार्थमसदन्त्यमभिज्ञमात्रं

     विन्देत ते तर्हि सर्वमनीषितार्थम् ॥ ४४ ॥

 सत्त्वं रजस्तम इतीश तवात्मबन्धो

     मायामयाः स्थितिलयोदयहेतवोऽस्य ।

 लीला धृता यदपि सत्त्वमयी प्रशान्त्यै

     नान्ये नृणां व्यसनमोहभियश्च याभ्याम् ॥ ४५ ॥

 तस्मात्तवेह भगवन्नथ तावकानां

     शुक्लां तनुं स्वदयितां कुशला भजन्ति ।

 यत्सात्वताः पुरुषरूपमुशन्ति सत्त्वं

     लोको यतोऽभयमुतात्मसुखं न चान्यत् ॥ ४६ ॥

 तस्मै नमो भगवते पुरुषाय भूम्ने

     विश्वाय विश्वगुरवे परदैवतायै ।

 नारायणाय ऋषये च नरोत्तमाय

     हंसाय संयतगिरे निगमेश्वराय ॥ ४७ ॥

 यं वै न वेद वितथाक्षपथैर्भ्रमद्धीः

     सन्तं स्वखेष्वसुषु हृद्यपि दृक्पथेषु ।

 तन्माययावृतमतिः स उ एव साक्षाद्

     आद्यस्तवाखिलगुरोरुपसाद्य वेदम् ॥ ४८ ॥

 यद्दर्शनं निगम आत्मरहःप्रकाशं

     मुह्यन्ति यत्र कवयोऽजपरा यतन्तः ।

 तं सर्ववादविषयप्रतिरूपशीलं

     वन्दे महापुरुषमात्मनिगूढबोधम् ॥ ४९ ॥

 

शौनकजी ! मार्कण्डेय मुनि तपस्या, स्वाध्याय, धारणा, ध्यान और समाधिके द्वारा भगवान्‌में चित्त लगानेका प्रयत्न करते रहते थे। अब उनपर कृपाप्रसादकी वर्षा करनेके लिये मुनिजन-नयन-मनोहारी नरोत्तम नर और भगवान्‌ नारायण प्रकट हुए ॥ ३२ ॥ उन दोनोंमें एकका शरीर गौरवर्ण था और दूसरेका श्याम। दोनोंके ही नेत्र तुरंतके खिले हुए कमलके समान कोमल और विशाल थे। चार-चार भुजाएँ थीं। एक मृगचर्म पहने हुए थे, तो दूसरे वृक्षकी छाल। हाथोंमें कुश लिये हुए थे और गलेमें तीन-तीन सूतके यज्ञोपवीत शोभायमान थे। वे कमण्डलु और बाँसका सीधा दण्ड ग्रहण किये हुए थे ॥ ३३ ॥ कमलगट्टेकी माला और जीवोंको हटानेके लिये वस्त्रकी कूँची भी रखे हुए थे। ब्रह्मा, इन्द्र आदिके भी पूज्य भगवान्‌ नर-नारायण कुछ ऊँचे कदके थे और वेद धारण किये हुए थे। उनके शरीरसे चमकती हुई बिजलीके समान पीले-पीले रंगकी कान्ति निकल रही थी। वे ऐसे मालूम होते थे, मानो स्वयं तप ही मूर्तिमान् हो गया हो ॥ ३४ ॥ जब मार्कण्डेय मुनिने देखा कि भगवान्‌के साक्षात् स्वरूप नर-नारायण ऋषि पधारे हैं, तब वे बड़े आदरभावसे उठकर खड़े हो गये और धरतीपर दण्डवत् लोटकर साष्टाङ्ग प्रणाम किया ॥ ३५ ॥ भगवान्‌के दिव्य दर्शनसे उन्हें इतना आनन्द हुआ कि उनका रोम-रोम, उनकी सारी इन्द्रियाँ एवं अन्त:करण शान्तिके समुद्रमें गोता खाने लगे। शरीर पुलकित हो गया। नेत्रोंमें आँसू उमड़ आये, जिनके कारण वे उन्हें भर आँख देख भी न सकते ॥ ३६ ॥ तदनन्तर वे हाथ जोडक़र उठ खड़े हुए। उनका अङ्ग-अङ्ग भगवान्‌के सामने झुका जा रहा था। उनके हृदयमें उत्सुकता तो इतनी थी, मानो वे भगवान्‌का आलिङ्गन कर लेंगे। उनसे और कुछ तो बोला न गया, गद्गद वाणीसे केवल इतना ही कहा—‘नमस्कार ! नमस्कार’ ॥ ३७ ॥ इसके बाद उन्होंने दोनोंको आसनपर बैठाया, बड़े प्रेमसे उनके चरण पखारे और अघ्र्य, चन्दन, धूप और माला आदिसे उनकी पूजा करने लगे ॥ ३८ ॥ भगवान्‌ नर-नारायण सुखपूर्वक आसनपर विराजमान थे और मार्कण्डेयजीपर कृपा-प्रसादकी वर्षा कर रहे थे। पूजाके अनन्तर मार्कण्डेय मुनिने उन सर्वश्रेष्ठ मुनिवेषधारी नर-नारायणके चरणोंमें प्रणाम किया और यह स्तुति की ॥ ३९ ॥

मार्कण्डेय मुनिने कहा—भगवन् ! मैं अल्पज्ञ जीव भला, आपकी अनन्त महिमाका कैसे वर्णन करूँ ? आपकी प्रेरणासे ही सम्पूर्ण प्राणियों—ब्रह्मा, शङ्कर तथा मेरे शरीरमें भी प्राणशक्तिका सञ्चार होता है और फिर उसीके कारण वाणी, मन तथा इन्द्रियोंमें भी बोलने, सोचने-विचारने और करने-जाननेकी शक्ति आती है। इस प्रकार सबके प्रेरक और परम स्वतन्त्र होनेपर भी आप अपना भजन करनेवाले भक्तोंके प्रेम-बन्धनमें बँधे हुए हैं ॥ ४० ॥ प्रभो ! आपने केवल विश्वकी रक्षाके लिये ही जैसे मत्स्य-कूर्म आदि अनेकों अवतार ग्रहण किये हैं, वैसे ही आपने ये दोनों रूप भी त्रिलोकीके कल्याण, उसकी दु:ख-निवृत्ति और विश्वके प्राणियोंको मृत्युपर विजय प्राप्त करानेके लिये ग्रहण किया है। आप रक्षा तो करते ही हैं, मकड़ीके समान अपनेसे ही इस विश्वको प्रकट करते हैं और फिर स्वयं अपनेमें ही लीन भी कर लेते हैं ॥ ४१ ॥ आप चराचरका पालन और नियमन करनेवाले हैं। मैं आपके चरणकमलोंमें प्रणाम करता हूँ। जो आपके चरणकमलोंकी शरण ग्रहण कर लेते हैं, उन्हें कर्म, गुण और कालजनित क्लेश स्पर्श भी नहीं कर सकते। वेदके मर्मज्ञ ऋषि-मुनि आपकी प्राप्तिके लिये निरन्तर आपका स्तवन, वन्दन, पूजन और ध्यान किया करते हैं ॥ ४२ ॥ प्रभो ! जीवके चारों ओर भय-ही-भयका बोलबाला है। औरोंकी तो बात ही क्या, आपके कालरूपसे स्वयं ब्रह्मा भी अत्यन्त भयभीत रहते हैं; क्योंकि उनकी आयु भी सीमित—केवल दो परार्धकी है। फिर उनके बनाये हुए भौतिक शरीरवाले प्राणियोंके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है। ऐसी अवस्था  में आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण करनेके अतिरिक्त और कोई भी परम कल्याण तथा सुख-शान्ति का उपाय हमारी समझमें नहीं आता; क्योंकि आप स्वयं ही मोक्षस्वरूप हैं ॥ ४३ ॥ भगवन् ! आप समस्त जीवों के परम गुरु, सबसे श्रेष्ठ और सत्य ज्ञानस्वरूप हैं। इसलिये आत्मस्वरूप को ढक देनेवाले देह-गेह आदि निष्फल, असत्य, नाशवान् और प्रतीतिमात्र पदार्थों को त्याग कर मैं आपके चरणकमलों  की ही शरण ग्रहण करता हूँ। कोई भी प्राणी यदि आपकी शरण ग्रहण कर लेता है, तो वह उससे अपने सारे अभीष्ट पदार्थ प्राप्त कर लेता है ॥ ४४ ॥ जीवोंके परम सुहृद् प्रभो ! यद्यपि सत्त्व, रज और तम—ये तीनों गुण आपकी ही मूर्ति हैं—इन्हींके द्वारा आप जगत्की उत्पत्ति, स्थिति, लय आदि अनेकों मायामयी लीलाएँ करते हैं फिर भी आपकी सत्त्वगुणमयी मूर्ति ही जीवोंको शान्ति प्रदान करती है। रजोगुणी और तमोगुणी मूर्तियोंसे जीवोंको शान्ति नहीं मिल सकती। उनसे तो दु:ख, मोह और भयकी वृद्धि ही होती है ॥ ४५ ॥ भगवन् ! इसलिये बुद्धिमान् पुरुष आपकी और आपके भक्तोंकी परम प्रिय एवं शुद्ध मूर्ति नर-नारायणकी ही उपासना करते हैं। पाञ्चरात्र-सिद्धान्तके अनुयायी विशुद्ध सत्त्वको ही आपका श्रीविग्रह मानते हैं। उसीकी उपासनासे आपके नित्यधाम वैकुण्ठकी प्राप्ति होती है। उस धामकी यह विलक्षणता है कि वह लोक होनेपर भी सर्वथा भयरहित और भोगयुक्त होनेपर भी आत्मानन्दसे परिपूर्ण है। वे रजोगुण और तमोगुणको आपकी मूर्ति स्वीकार नहीं करते ॥ ४६ ॥ भगवन् ! आप अन्तर्यामी, सर्वव्यापक, सर्वस्वरूप, जगद्गुरु परमाराध्य और शुद्धस्वरूप हैं। समस्त लौकिक और वैदिक वाणी आपके अधीन है। आप ही वेदमार्गके प्रवर्तक हैं। मैं आपके इस युगल स्वरूप नरोत्तम नर और ऋषिवर नारायणको नमस्कार करता हूँ ॥ ४७ ॥ आप यद्यपि प्रत्येक जीवकी इन्द्रियों तथा उनके विषयोंमें, प्राणोंमें तथा हृदयमें भी विद्यमान हैं तो भी आपकी मायासे जीवकी बुद्धि इतनी मोहित हो जाती है—ढक जाती है कि वह निष्फल और झूठी इन्द्रियोंके जालमें फँसकर आपकी झाँकीसे वञ्चित हो जाता है। किन्तु सारे जगत्के गुरु तो आप ही हैं। इसलिये पहले अज्ञानी होनेपर भी जब आपकी कृपासे उसे आपके ज्ञान-भण्डार वेदोंकी प्राप्ति होती है, तब वह आपके साक्षात् दर्शन कर लेता है ॥ ४८ ॥ प्रभो ! वेदमें आपका साक्षात्कार करानेवाला वह ज्ञान पूर्णरूपसे विद्यमान है, जो आपके स्वरूपका रहस्य प्रकट करता है। ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े प्रतिभाशाली मनीषी उसे प्राप्त करनेका यत्न करते रहनेपर भी मोहमें पड़ जाते हैं। आप भी ऐसे लीलाविहारी हैं कि विभिन्न मतवाले आपके सम्बन्धमें जैसा सोचते-विचारते हैं, वैसा ही शील-स्वभाव और रूप ग्रहण करके आप उनके सामने प्रकट हो जाते हैं। वास्तवमें आप देह आदि समस्त उपाधियोंमें छिपे हुए विशुद्ध विज्ञानघन ही हैं। हे पुरुषोत्तम ! मैं आपकी वन्दना करता हूँ ॥ ४९ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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