॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वादश स्कन्ध– नवाँ अध्याय (पोस्ट०२)
मार्कण्डेयजी का माया-दर्शन
स कदाचिद् भ्रमन्
तस्मिन् पृथिव्याः ककुदि द्विजः ।
न्याग्रोधपोतं
ददृशे फलपल्लव शोभितम् ॥ २० ॥
प्राग्उत्तरस्यां
शाखायां तस्यापि ददृशे शिशुम् ।
शयानं पर्णपुटके
ग्रसन्तं प्रभया तमः ॥ २१ ॥
महामरकतश्यामं
श्रीमद् वदनपङ्कजम् ।
कम्बुग्रीवं महोरस्कं सुनासं सुन्दरभ्रुवम् ॥ २२ ॥
श्वासैजदलकाभातं
कम्बुश्रीकर्णदाडिमम् ।
विद्रुमाधरभासेषत्
शोणायित सुधास्मितम् ॥ २३ ॥
पद्मगर्भारुणापाङ्गं
हृद्यहासावलोकनम् ।
श्वासैजद्बलिसंविग्न
निम्ननाभिदलोदरम् ॥ २४ ॥
चार्वङ्गुलिभ्यां
पाणिभ्यां उन्नीय चरणाम्बुजम् ।
मुखे निधाय
विप्रेन्द्रो धयन्तं वीक्ष्य विस्मितः ॥ २५ ॥
तद्दर्शनाद् वीतपरिश्रमो मुदा
प्रोत्फुल्लहृत्पद्मविलोचनाम्बुजः ।
प्रहृष्टरोमाद्भुतभावशङ्कितः
प्रष्टुं
पुरस्तं प्रससार बालकम् ॥ २६ ॥
तावच्छिशोर्वै
श्वसितेन भार्गवः
सोऽन्तः शरीरं
मशको यथाविशत् ।
तत्राप्यदो
न्यस्तमचष्ट कृत्स्नशो
यथा
पुरामुह्यदतीव विस्मितः ॥ २७ ॥
खं रोदसी
भागणानद्रिसागरान्
द्वीपान्
सवर्षान् ककुभः सुरासुरान् ।
वनानि देशान् सरितः
पुराकरान्
खेटान् व्रजानाश्रमवर्णवृत्तयः
॥ २८ ॥
महान्ति भूतान्यथ
भौतिकान्यसौ
कालं च नानायुग
कल्पकल्पनम् ।
यत्किञ्चिदन्यद्
व्यवहारकारणं
ददर्श विश्वं
सदिवावभासितम् ॥ २९ ॥
हिमालयं पुष्पवहां च तां नदीं
निजाश्रमं तत्र
ऋषीन् अपश्यत ।
विश्वं
विपश्यञ्छ्वसिताच्छिशोर्वै
बहिर्निरस्तो
न्यपतल्लयाब्धौ ॥ ३० ॥
तस्मिन् पृथिव्याः ककुदि प्ररूढं
वटं च
तत्पर्णपुटे शयानम् ।
तोकं च
तत्प्रेमसुधास्मितेन
निरीक्षितोऽपाङ्गनिरीक्षणेन ॥ ३१ ॥
अथ तं बालकं वीक्ष्य नेत्राभ्यां धिष्ठितं हृदि ।
अभ्ययादतिसङ्क्लिष्टः
परिष्वक्तुं अधोक्षजम् ॥ ३२ ॥
तावत्स भगवान्
साक्षात् योगाधीशो गुहाशयः ।
अन्तर्दधे ऋषेः
सद्यो यथेहानीशनिर्मिता ॥ ३३ ॥
तमन्वथ वटो
ब्रह्मन् सलिलं लोकसम्प्लवः ।
तिरोधायि क्षणादस्य
स्वाश्रमे पूर्ववन् स्थितः ॥ ३४ ॥
शौनकजी ! मार्कण्डेय मुनि इसी प्रकार प्रलयके जलमें
बहुत समयतक भटकते रहे। एक बार उन्होंने पृथ्वीके एक टीलेपर एक छोटा-सा बरगदका पेड़
देखा। उसमें हरे-हरे पत्ते और लाल-लाल फल शोभायमान हो रहे थे ॥ २० ॥ बरगदके
पेड़में ईशानकोणपर एक डाल थी, उसमें एक पत्तोंका दोना-सा बन गया
था। उसीपर एक बड़ा ही सुन्दर नन्हा-सा शिशु लेट रहा था। उसके शरीरसे ऐसी उज्ज्वल
छटा छिटक रही थी, जिससे आस-पासका अँधेरा दूर हो रहा था ॥ २१
॥ वह शिशु मरकतमणिके समान साँवल-साँवला था। मुखकमलपर सारा सौन्दर्य फूटा पड़ता था।
गरदन शङ्खके समान उतार-चढ़ाववाली थी। छाती चौड़ी थी। तोतेकी चोंचके समान सुन्दर
नासिका और भौंहें बड़ी मनोहर थीं ॥ २२ ॥ काली-काली घुँघराली अलकें कपोलोंपर लटक
रही थीं और श्वास लगनेसे कभी-कभी हिल भी जाती थीं। शङ्खके समान घुमावदार कानोंमें
अनारके लाल-लाल फूल शोभायमान हो रहे थे। मूँगेके समान लाल-लाल होठोंकी कान्तिसे
उनकी सुधामयी श्वेत मुसकान कुछ लालिमामिश्रित हो गयी थी ॥ २३ ॥ नेत्रोंके कोने
कमलके भीतरी भागके समान तनिक लाल-लाल थे। मुसकान और चितवन बरबस हृदयको पकड़ लेती
थी। बड़ी गम्भीर नाभि थी। छोटी-सी तोंद पीपलके पत्तेके समान जान पड़ती और श्वास
लेनेके समय उसपर पड़ी हुई बलें तथा नाभि भी हिल जाया करती थी ॥ २४ ॥ नन्हें-नन्हें
हाथोंमें बड़ी सुन्दर-सुन्दर अँगुलियाँ थीं। वह शिशु अपने दोनों करकमलोंसे एक
चरणकमलको मुखमें डालकर चूस रहा था। मार्कण्डेय मुनि यह दिव्य दृश्य देखकर अत्यन्त
विस्मित हो गये ॥ २५ ॥
शौनकजी ! उस दिव्य शिशुको देखते ही मार्कण्डेय मुनिकी
सारी थकावट जाती रही। आनन्दसे उनके हृदय-कमल और नेत्रकमल खिल गये। शरीर पुलकित हो
गया। उस नन्हें-से शिशुके इस अद्भुत भावको देखकर उनके मनमें तरह-तरहकी शङ्काएँ—‘यह
कौन है’ इत्यादि— आने लगीं और वे उस शिशुसे ये बातें पूछनेके लिये उसके सामने सरक
गये ॥ २६ ॥ अभी मार्कण्डेयजी पहुँच भी न पाये थे कि उस शिशुके श्वासके साथ उसके
शरीरके भीतर उसी प्रकार घुस गये, जैसे कोई मच्छर किसीके पेटमें चला
जाय। उस शिशुके पेटमें जाकर उन्होंने सब-की-सब वही सृष्टि देखी, जैसी प्रलयके पहले उन्होंने देखी थी। वे वह सब विचित्र दृश्य देखकर
आश्चर्यचकित हो गये। वे मोहवश कुछ सोच-विचार भी न सके ॥ २७ ॥ उन्होंने उस शिशुके
उदरमें आकाश, अन्तरिक्ष, ज्योतिर्मण्डल,
पर्वत, समुद्र, द्वीप,
वर्ष, दिशाएँ, देवता,
दैत्य, वन, देश, नदियाँ, नगर, खानें, किसानोंके गाँव, अहीरोंकी बस्तियाँ, आश्रम, वर्ण, उनके
आचार-व्यवहार, पञ्चमहाभूत, भूतोंसे बने
हुए प्राणियोंके शरीर तथा पदार्थ, अनेक युग और कल्पोंके
भेदसे युक्त काल आदि सब कुछ देखा। केवल इतना ही नहीं जिन देशों, वस्तुओं और कालोंके द्वारा जगत्का व्यवहार सम्पन्न होता है, वह सब कुछ वहाँ विद्यमान था। कहाँतक कहें, यह
सम्पूर्ण विश्व न होनेपर भी वहाँ सत्यके समान प्रतीत होते देखा ॥ २८-२९ ॥ हिमालय
पर्वत, वही पुष्पभद्रा नदी, उसके तटपर
अपना आश्रम और वहाँ रहनेवाले ऋषियोंको भी मार्कण्डेयजीने प्रत्यक्ष ही देखा। इस
प्रकार सम्पूर्ण विश्वको देखते-देखते ही वे उस दिव्य शिशुके श्वासके द्वारा ही
बाहर आ गये और फिर प्रलय-कालीन समुद्रमें गिर पड़े ॥ ३० ॥ अब फिर उन्होंने देखा कि
समुद्रके बीचमें पृथ्वीके टीलेपर वही बरगदका पेड़ ज्यों-का-त्यों विद्यमान है और
उसके पत्तेके दोनेमें वही शिशु सोया हुआ है। उसके अधरोंपर प्रेमामृतसे परिपूर्ण
मन्द-मन्द मुसकान है और अपनी प्रेमपूर्ण चितवनसे वह मार्कण्डेयजीकी ओर देख रहा है
॥ ३१ ॥ अब मार्कण्डेय मुनि इन्द्रियातीत भगवान्को जो शिशुके रूपमें क्रीडा कर रहे
थे और नेत्रोंके मार्गसे पहले ही हृदयमें विराजमान हो चुके थे, आलिङ्गन करनेके लिये बड़े श्रम और कठिनाईसे आगे बढ़े ॥ ३२ ॥ परन्तु शौनकजी
! भगवान् केवल योगियोंके ही नहीं, स्वयं योगके भी स्वामी और
सबके हृदयमें छिपे रहनेवाले हैं। अभी मार्कण्डेय मुनि उनके पास पहुँच भी न पाये थे
कि वे तुरंत अन्तर्धान हो गये—ठीक वैसे ही, जैसे अभागे और
असमर्थ पुरुषोंके परिश्रमका पता नहीं चलता कि वह फल दिये बिना ही क्या हो गया ?
॥ ३३ ॥ शौनकजी ! उस शिशुके अन्तर्धान होते ही वह बरगदका वृक्ष तथा
प्रलयकालीन दृश्य एवं जल भी तत्काल लीन हो गया और मार्कण्डेय मुनिने देखा कि मैं
तो पहलेके समान ही अपने आश्रममें बैठा हुआ हूँ ॥ ३४ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां द्वादशस्कन्धे मायादर्शनं नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥
हरिः ॐ तत्सत्
श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से