रविवार, 25 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वादश स्कन्ध– ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

द्वादश स्कन्धग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट०१)

 

भगवान्‌ के अङ्ग, उपाङ्ग और आयुधों का रहस्य

तथा विभिन्न सूर्यगणों का वर्णन

 

अथेममर्थं पृच्छामो भवन्तं बहुवित्तमम्

समस्ततन्त्रराद्धान्ते भवान्भागवत तत्त्ववित् १

तान्त्रिकाः परिचर्यायां केवलस्य श्रियः पतेः

अङ्गोपाङ्गायुधाकल्पं कल्पयन्ति यथा च यैः २

तन्नो वर्णय भद्रं ते क्रियायोगं बुभुत्सताम्

येन क्रियानैपुणेन मर्त्यो यायादमर्त्यताम् ३

 

सूत उवाच

नमस्कृत्य गुरून्वक्ष्ये विभूतीर्वैष्णवीरपि

याः प्रोक्ता वेदतन्त्राभ्यामाचार्यैः पद्मजादिभिः ४

मायाद्यैर्नवभिस्तत्त्वैः स विकारमयो विराट्

निर्मितो दृश्यते यत्र सचित्के भुवनत्रयम् ५

एतद्वै पौरुषं रूपं भूः पादौ द्यौः शिरो नभः

नाभिः सूर्योऽक्षिणी नासे वायुः कर्णौ दिशः प्रभोः ६

प्रजापतिः प्रजननमपानो मृत्युरीशितुः

तद्बाहवो लोकपाला मनश्चन्द्रो भ्रुवौ यमः ७

लज्जोत्तरोऽधरो लोभो दन्ता ज्योत्स्ना स्मयो भ्रमः

रोमाणि भूरुहा भूम्नो मेघाः पुरुषमूर्धजाः ८

यावानयं वै पुरुषो यावत्या संस्थया मितः

तावानसावपि महा पुरुषो लोकसंस्थया ९

कौस्तुभव्यपदेशेन स्वात्मज्योतिर्बिभर्त्यजः

तत्प्रभा व्यापिनी साक्षात्श्रीवत्समुरसा विभुः १०

स्वमायां वनमालाख्यां नानागुणमयीं दधत्

वासश्छन्दोमयं पीतं ब्रह्मसूत्रं त्रिवृत्स्वरम् ११

बिभर्ति साङ्ख्यं योगं च देवो मकरकुण्डले

मौलिं पदं पारमेष्ठ्यं सर्वलोकाभयङ्करम् १२

अव्याकृतमनन्ताख्यमासनं यदधिष्ठितः

धर्मज्ञानादिभिर्युक्तं सत्त्वं पद्ममिहोच्यते १३

ओजःसहोबलयुतं मुख्यतत्त्वं गदां दधत्

अपां तत्त्वं दरवरं तेजस्तत्त्वं सुदर्शनम् १४

नभोनिभं नभस्तत्त्वमसिं चर्म तमोमयम्

कालरूपं धनुः शार्ङ्गं तथा कर्ममयेषुधिम् १५

इन्द्रियाणि शरानाहुराकूतीरस्य स्यन्दनम्

तन्मात्राण्यस्याभिव्यक्तिं मुद्रयार्थक्रियात्मताम् १६

मण्डलं देवयजनं दीक्षा संस्कार आत्मनः

परिचर्या भगवत आत्मनो दुरितक्षयः १७

भगवान्भगशब्दार्थं लीलाकमलमुद्वहन्

धर्मं यशश्च भगवांश्चामरव्यजनेऽभजत् १८

आतपत्रं तु वैकुण्ठं द्विजा धामाकुतोभयम्

त्रिवृद्वेदः सुपर्णाख्यो यज्ञं वहति पूरुषम् १९

अनपायिनी भगवती श्रीः साक्षादात्मनो हरेः

विष्वक्सेनस्तन्त्रमूर्तिर्विदितः पार्षदाधिपः

नन्दादयोऽष्टौ द्वाःस्थाश्च तेऽणिमाद्या हरेर्गुणाः २०

वासुदेवः सङ्कर्षणः प्रद्युम्नः पुरुषः स्वयम्

अनिरुद्ध इति ब्रह्मन्मूर्तिव्यूहोऽभिधीयते २१

स विश्वस्तैजसः प्राज्ञस्तुरीय इति वृत्तिभिः

अर्थेन्द्रियाशयज्ञानैर्भगवान्परिभाव्यते २२

अङ्गोपाङ्गायुधाकल्पैर्भगवांस्तच्चतुष्टयम्

बिभर्ति स्म चतुर्मूर्तिर्भगवान्हरिरीश्वरः २३

द्विजऋषभ स एष ब्रह्मयोनिः स्वयंदृक्

स्वमहिमपरिपूर्णो मायया च स्वयैतत्

सृजति हरति पातीत्याख्ययानावृताक्षो

विवृत इव निरुक्तस्तत्परैरात्मलभ्यः २४

श्रीकृष्ण कृष्णसख वृष्ण्यृषभावनिध्रुग्

राजन्यवंशदहनानपवर्गवीर्य

गोविन्द गोपवनिताव्रजभृत्यगीत

तीर्थश्रवः श्रवणमङ्गल पाहि भृत्यान् २५

य इदं कल्य उत्थाय महापुरुषलक्षणम्

तच्चित्तः प्रयतो जप्त्वा ब्रह्म वेद गुहाशयम् २६

 

शौनकजीने कहा—सूतजी ! आप भगवान्‌ के परमभक्त और बहुज्ञोंमें शिरोमणि हैं। हमलोग समस्त शास्त्रोंके सिद्धान्तके सम्बन्धमें आपसे एक विशेष प्रश्र पूछना चाहते हैं, क्योंकि आप उसके मर्मज्ञ हैं ॥ १ ॥ हमलोग क्रियायोग का यथावत् ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं; क्योंकि उसका कुशलता- पूर्वक ठीक-ठीक आचरण करनेसे मरणधर्मा पुरुष अमरत्व प्राप्त कर लेता है। अत: आप हमें यह बतलाइये कि पाञ्चरात्रादि तन्त्रोंकी विधि जाननेवाले लोग केवल श्रीलक्ष्मीपति भगवान्‌की आराधना करते समय किन-किन तत्त्वोंसे उनके चरणादि अङ्ग, गरुडादि उपाङ्ग, सुदर्शनादि आयुध और कौस्तुभादि आभूषणोंकी कल्पना करते हैं ? भगवान्‌ आपका कल्याण करें ॥ २-३ ॥

सूतजीने कहा—शौनकजी ! ब्रह्मादि आचार्योंने, वेदोंने और पाञ्चरात्रादि तन्त्र-ग्रन्थोंने विष्णुभगवान्‌की जिन विभूतियोंका वर्णन किया है, मैं श्रीगुरुदेवके चरणोंमें नमस्कार करके आप- लोगोंको वही सुनाता हूँ ॥ ४ ॥ भगवान्‌ के जिस चेतनाधिष्ठित विराट् रूपमें यह त्रिलोकी दिखायी देती है, वह प्रकृति, सूत्रात्मा, महत्तत्त्व, अहङ्कार और पञ्चतन्मात्रा—इन नौ तत्त्वोंके सहित ग्यारह इन्द्रिय तथा पञ्चभूत—इन सोलह विकारोंसे बना हुआ है ॥ ५ ॥ यह भगवान्‌का ही पुरुषरूप है। पृथ्वी इसके चरण हैं, स्वर्ग मस्तक है, अन्तरिक्ष नाभि है, सूर्य नेत्र हैं, वायु नासिका है और दिशाएँ कान हैं ॥ ६ ॥ प्रजापति लिङ्ग है, मृत्यु गुदा है, लोकपालगण भुजाएँ हैं, चन्द्रमा मन है और यमराज भौंहें हैं ॥ ७ ॥ लज्जा ऊपरका होठ है, लोभ नीचेका होठ है, चन्द्रमा की चाँदनी दन्तावली है, भ्रम मुसकान है, वृक्ष रोम हैं और बादल ही विराट् पुरुष के सिरपर उगे हुए बाल हैं ॥ ८ ॥ शौनकजी ! जिस प्रकार यह व्यष्टि पुरुष अपने परिमाण से सात बित्ते का है उसी प्रकार वह समष्टि पुरुष भी इस लोकसंस्थिति के साथ अपने सात बित्ते का है ॥ ९ ॥

स्वयं भगवान्‌ अजन्मा हैं। वे कौस्तुभमणिके बहाने जीव-चैतन्यरूप आत्मज्योतिको ही धारण करते हैं और उसकी सर्वव्यापिनी प्रभाको ही वक्ष:स्थलपर श्रीवत्सरूपसे ॥ १० ॥ वे अपनी सत्त्व, रज आदि गुणोंवाली मायाको वनमालाके रूपसे, छन्दको पीताम्बरके रूपसे तथा अ+उ+म्—इन तीन मात्रावाले प्रणवको यज्ञोपवीतके रूपमें धारण करते हैं ॥ ११ ॥ देवाधिदेव भगवान्‌ सांख्य और योगरूप मकराकृत कुण्डल तथा सब लोकोंको अभय करनेवाले ब्रह्मलोकको ही मुकुटके रूपमें धारण करते हैं ॥ १२ ॥ मूलप्रकृति ही उनकी शेषशय्या है, जिसपर वे विराजमान रहते हैं और धर्म-ज्ञानादियुक्त सत्त्वगुण ही उनके नाभिकमलके रूपमें वर्णित हुआ है ॥ १३ ॥ वे मन, इन्द्रिय और शरीरसम्बन्धी शक्तियोंसे युक्त प्राणतत्त्वरूप कौमोदकी गदा, जलतत्त्वरूप पाञ्चजन्य शङ्ख और तेजस्तत्त्वरूप सुदर्शनचक्रको धारण करते हैं ॥ १४ ॥ आकाशके समान निर्मल आकाश-स्वरूप खड्ग, तमोमय अज्ञानरूप ढाल, कालरूप शार्ङ्गधनुष और कर्मका ही तरकस धारण किये हुए हैं ॥ १५ ॥ इन्द्रियोंको ही भगवान्‌के बाणोंके रूपमें कहा गया है। क्रियाशक्तियुक्त मन ही रथ है। तन्मात्राएँ रथके बाहरी भाग हैं और वर-अभय आदिकी मुद्राओंसे उनकी वरदान, अभयदान आदिके रूपमें क्रियाशीलता प्रकट होती है ॥ १६ ॥ सूर्यमण्डल अथवा अग्रि-मण्डल ही भगवान्‌की पूजाका स्थान है, अन्त:करणकी शुद्धि ही मन्त्रदीक्षा है और अपने समस्त पापोंको नष्ट कर देना ही भगवान्‌की पूजा है ॥ १७ ॥

ब्राह्मणो ! समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्य—इन छ: पदार्थोंका नाम ही लीला-कमल है, जिसे भगवान्‌ अपने करकमलमें धारण करते हैं। धर्म और यशको क्रमश: चँवर एवं व्यजन (पंखे) के रूपसे तथा अपने निर्भय धाम वैकुण्ठको छत्ररूपसे धारण किये हुए हैं। तीनों वेदोंका ही नाम गरुड है। वे ही अन्तर्यामी परमात्माका वहन करते हैं ॥ १८-१९ ॥ आत्मस्वरूप भगवान्‌की उनसे कभी न बिछुडऩेवाली आत्मशक्तिका ही नाम लक्ष्मी है। भगवान्‌के पार्षदोंके नायक विश्वविश्रुत विष्वक्सेन पाञ्चरात्रादि आगमरूप हैं। भगवान्‌के स्वाभाविक गुण अणिमा, महिमा आदि अष्टसिद्धियोंको ही नन्द-सुनन्दादि आठ द्वारपाल कहते हैं ॥ २० ॥ शौनकजी ! स्वयं भगवान्‌ ही वासुदेव, सङ्कर्षण, प्रद्युम्र और अनिरुद्ध—इन चार मूर्तियोंके रूपमें अवस्थित हैं; इसलिये उन्हींको चतुव्र्यूहके रूपमें कहा जाता है ॥ २१ ॥ वे ही जाग्रत्-अवस्थाके अभिमानी ‘विश्व’ बनकर शब्द, स्पर्श आदि बाह्य विषयोंको ग्रहण करते और वे ही स्वप्नावस्थाके अभिमानी ‘तैजस’ बनकर बाह्य विषयोंके बिना ही मन-ही-मन अनेक विषयोंको देखते और ग्रहण करते हैं। वे ही सुषुप्ति-अवस्थाके अभिमानी ‘प्राज्ञ’ बनकर विषय और मनके संस्कारोंसे युक्त अज्ञानसे ढक जाते हैं और वही सबके साक्षी ‘तुरीय’ रहकर समस्त ज्ञानोंके अधिष्ठान रहते हैं ॥ २२ ॥ इस प्रकार अङ्ग, उपाङ्ग, आयुध और आभूषणोंसे युक्त तथा वासुदेव, सङ्कर्षण, प्रद्युम्र एवं अनिरुद्ध—इन चार मूर्तियोंके रूपमें प्रकट सर्व- शक्तिमान् भगवान्‌ श्रीहरि ही क्रमश: विश्व, तैजस, प्राज्ञ एवं तुरीयरूपसे प्रकाशित होते हैं ॥ २३ ॥

शौनकजी ! वही सर्वस्वरूप भगवान्‌ वेदोंके मूल कारण हैं, वे स्वयंप्रकाश एवं अपनी महिमासे परिपूर्ण हैं। वे अपनी मायासे ब्रह्मा आदि रूपों एवं नामोंसे इस विश्वकी सृष्टि, स्थिति और संहार सम्पन्न करते हैं। इन सब कर्मों और नामोंसे उनका ज्ञान कभी आवृत नहीं होता। यद्यपि शास्त्रोंमें भिन्नके समान उनका वर्णन हुआ है अवश्य, परन्तु वे अपने भक्तोंको आत्मस्वरूपसे ही प्राप्त होते हैं ॥ २४ ॥ सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण ! आप अर्जुनके सखा हैं। आपने यदुवंशशिरोमणिके रूपमें अवतार ग्रहण करके पृथ्वीके द्रोही भूपालोंको भस्म कर दिया है। आपका पराक्रम सदा एकरस रहता है। व्रजकी गोपबालाएँ और आपके नारदादि प्रेमी निरन्तर आपके पवित्र यशका गान करते रहते हैं। गोविन्द ! आपके नाम, गुण और लीलादिका श्रवण करनेसे ही जीवका मङ्गल हो जाता है। हम सब आपके सेवक हैं। आप कृपा करके हमारी रक्षा कीजिये ॥ २५ ॥

पुरुषोत्तम भगवान्‌के चिह्नभूत अङ्ग, उपाङ्ग और आयुध आदिके इस वर्णनका जो मनुष्य भगवान्‌में ही चित्त लगाकर पवित्र होकर प्रात:काल पाठ करेगा, उसे सबके हृदयमें रहनेवाले ब्रह्मस्वरूप परमात्माका ज्ञान हो जायगा ॥ २६ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



शनिवार, 24 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वादश स्कन्ध– दसवाँ अध्याय (पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

द्वादश स्कन्धदसवाँ अध्याय (पोस्ट०२)

 

मार्कण्डेयजी को भगवान्‌ शङ्कर का वरदान

 

 सूत उवाच -

एवं स्तुतः स भगवान् आदिदेवः सतां गतिः ।

परितुष्टः प्रसन्नात्मा प्रहसन् तं अभाषत ॥ १८ ॥

 

 श्रीभगवानुवाच -

 वरं वृणीष्व नः कामं वरदेशा वयं त्रयः ।

 अमोघं दर्शनं येषां मर्त्यो यद् विन्दतेऽमृतम् ॥ १९ ॥

 ब्राह्मणाः साधवः शान्ता निःसङ्‌गा भूतवत्सलाः ।

 एकान्तभक्ता अस्मासु निर्वैराः समदर्शिनः ॥ २० ॥

 सलोका लोकपालास्तान् वन्दन्त्यर्चन्त्युपासते ।

 अहं च भगवान् ब्रह्मा स्वयं च हरिरीश्वरः ॥ २१ ॥

 न ते मय्यच्युतेऽजे च भिदामण्वपि चक्षते ।

 नात्मनश्च जनस्यापि तद् युष्मान् वयमीमहि ॥ २२ ॥

 न ह्यम्मयानि तीर्थानि न देवाश्चेतनोज्झिताः ।

 ते पुनन्ति उरुकालेन यूयं दर्शनमात्रतः ॥ २३ ॥

 ब्राह्मणेभ्यो नमस्यामो येऽस्मद् रूपं त्रयीमयम् ।

 बिभ्रत्यात्मसमाधान तपःस्वाध्यायसंयमैः ॥ २४ ॥

 श्रवणाद् दर्शनाद् वापि महापातकिनोऽपि वः ।

 शुध्येरन् अन्त्यजाश्चापि किमु संभाषणादिभिः ॥ २५ ॥

 

 सूत उवाच -

इति चन्द्रललामस्य धर्मगुह्योपबृंहितम् ।

 वचोऽमृतायनं ऋषिः नातृप्यत् कर्णयोः पिबन् ॥ २६ ॥

 स चिरं मायया विष्णोः भ्रामितः कर्शितो भृशम् ।

 शिववागमृतध्वस्त क्लेशपुञ्जस्तमब्रवीत् ॥ २७ ॥

 

 श्रीमार्कण्डेय उवाच -

अहो ईश्वरलीलेयं दुर्विभाव्या शरीरिणाम् ।

 यन्नमन्तीशितव्यानि स्तुवन्ति जगदीश्वराः ॥ २८ ॥

 धर्मं ग्राहयितुं प्रायः प्रवक्तारश्च देहिनाम् ।

 आचरन्ति अनुमोदन्ते क्रियमाणं स्तुवन्ति च ॥ २९ ॥

 नैतावता भगवतः स्वमायामयवृत्तिभिः ।

 न दुष्येतानुभावस्तैः मायिनः कुहकं यथा ॥ ३० ॥

 सृष्ट्वेदं मनसा विश्वं आत्मनानुप्रविश्य यः ।

 गुणैः कुर्वद्‌भिराभाति कर्तेव स्वप्नदृग् यथा ॥ ३१ ॥

 तस्मै नमो भगवते त्रिगुणाय गुणात्मने ।

 केवलायाद्वितीयाय गुरवे ब्रह्ममूर्तये ॥ ३२ ॥

 कं वृणे नु परं भूमन् वरं त्वद् वरदर्शनात् ।

 यद्दर्शनात्पूर्णकामः सत्यकामः पुमान् भवेत् ॥ ३३ ॥

 वरमेकं वृणेऽथापि पूर्णात् कामाभिवर्षणात् ।

 भगवति अच्युतां भक्तिं तत्परेषु तथा त्वयि ॥ ३४ ॥

 

 सूत उवाच -

इत्यर्चितोऽभिष्टुतश्च मुनिना सूक्तया गिरा ।

 तं आह भगवान् शर्वः शर्वया चाभिनन्दितः ॥ ३५ ॥

 कामो महर्षे सर्वोऽयं भक्तिमान् त्वं अमधोक्षजे ।

 आकल्पान्ताद् यशः पुण्यं अमजरामरता तथा ॥ ३६ ॥

 ज्ञानं त्रैकालिकं ब्रह्मन् विज्ञानं च विरक्तिमत् ।

 ब्रह्मवर्चस्विनो भूयात् पुराणाचार्यतास्तु ते ॥ ३७ ॥

 

 

 सूत उवाच -

एवं वरान् स मुनये दत्त्वागात् त्र्यक्ष ईश्वरः ।

 देव्यै तत्कर्म कथयन् अनुभूतं पुरामुना ॥ ३८ ॥

 सोऽप्यवाप्तमहायोग महिमा भार्गवोत्तमः ।

 विचरति अधुनाप्यद्धा हरावेकान्ततां गतः ॥ ३९ ॥

 अनुवर्णितमेतत्ते मार्कण्डेयस्य धीमतः ।

 अनुभूतं भगवतो मायावैभवमद्‌भुतम् ॥ ४० ॥

 एतत् केचिद् अविद्वांसो मायासंसृतिरात्मनः ।

 अनाद्यावर्तितं नॄणां कादाचित्कं प्रचक्षते ॥ ४१ ॥

य एवमेतद्‌भृगुवर्य वर्णितं

     रथाङ्‌गपाणेः अनुभावभावितम् ।

 संश्रावयेत् संश्रृणुयादु तावुभौ

     तयोर्न कर्माशयसंसृतिर्भवेत् ॥ ४२ ॥

 

सूतजी कहते हैं—शौनकजी ! जब मार्कण्डेय मुनिने संतोंके परम आश्रय देवाधिदेव भगवान्‌ शङ्कर की इस प्रकार स्तुति की, तब वे उनपर अत्यन्त सन्तुष्ट हुए और बड़े प्रसन्न चित्तसे हँसते हुए कहने लगे ॥ १८ ॥

भगवान्‌ शङ्कर ने कहा—मार्कण्डेयजी ! ब्रह्मा, विष्णु तथा मैं—हम तीनों ही वरदाताओं के स्वामी हैं, हमलोगों का दर्शन कभी व्यर्थ नहीं जाता। हमलोगों से ही मरणशील मनुष्य भी अमृतत्व की प्राप्ति कर लेता है। इसलिये तुम्हारी जो इच्छा हो, वही वर मुझसे माँग लो ॥ १९ ॥ ब्राह्मण स्वभावसे ही परोपकारी, शान्तचित्त एवं अनासक्त होते हैं। वे किसी के साथ वैरभाव नहीं रखते और समदर्शी होनेपर भी प्राणियों का कष्ट देखकर उसके निवारण के लिये पूरे हृदयसे जुट जाते हैं। उनकी सबसे बड़ी विशेषता तो यह होती है कि वे हमारे अनन्य प्रेमी एवं भक्त होते हैं ॥ २० ॥ सारे लोक और लोकपाल ऐसे ब्राह्मणों की वन्दना, पूजा और उपासना किया करते हैं। केवल वे ही क्यों; मैं, भगवान्‌ ब्रह्मा तथा स्वयं साक्षात् ईश्वर विष्णु भी उनकी सेवामें संलग्र रहते हैं ॥ २१ ॥ ऐसे शान्त महापुरुष मुझमें, विष्णुभगवान्‌में, ब्रह्मामें, अपनेमें और सब जीवोंमें अणुमात्र भी भेद नहीं देखते। सदा- सर्वदा, सर्वत्र और सर्वथा एकरस आत्माका ही दर्शन करते हैं। इसलिये हम तुम्हारे-जैसे महात्माओंकी स्तुति और सेवा करते हैं ॥ २२ ॥ मार्कण्डेयजी ! केवल जलमय तीर्थ ही तीर्थ नहीं होते तथा केवल जड मूर्तियाँ ही देवता नहीं होतीं। सबसे बड़े तीर्थ और देवता तो तुम्हारे-जैसे संत हैं; क्योंकि वे तीर्थ और देवता बहुत दिनोंमें पवित्र करते हैं, परन्तु तुमलोग दर्शनमात्रसे ही पवित्र कर देते हो ॥ २३ ॥ हमलोग तो ब्राह्मणोंको ही नमस्कार करते हैं; क्योंकि वे चित्तकी एकाग्रता, तपस्या, स्वाध्याय, धारणा, ध्यान और समाधिके द्वारा हमारे वेदमय शरीरको धारण करते हैं ॥ २४ ॥ मार्कण्डेयजी ! बड़े-बड़े महापापी और अन्त्यज भी तुम्हारे-जैसे महापुरुषोंके चरित्रश्रवण और दर्शनसे ही शुद्ध हो जाते हैं; फिर वे तुमलोगोंके सम्भाषण और सहवास आदिसे शुद्ध हो जायँ, इसमें तो कहना ही क्या है ॥ २५ ॥

सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो ! चन्द्रभूषण भगवान्‌ शङ्करकी एक-एक बात धर्मके गुप्ततम रहस्यसे परिपूर्ण थी। उसके एक-एक अक्षरमें अमृतका समुद्र भरा हुआ था। मार्कण्डेय मुनि अपने कानोंके द्वारा पूरी तन्मयताके साथ उसका पान करते रहे; परन्तु उन्हें तृप्ति न हुई ॥ २६ ॥ वे चिरकालतक विष्णुभगवान्‌की मायासे भटक चुके थे और बहुत थके हुए भी थे। भगवान्‌ शिवकी कल्याणी वाणीका अमृतपान करनेसे उनके सारे क्लेश नष्ट हो गये। उन्होंने भगवान्‌ शङ्करसे इस प्रकार कहा ॥ २७ ॥

मार्कण्डेयजीने कहा—सचमुच सर्वशक्तिमान् भगवान्‌की यह लीला सभी प्राणियोंकी समझके परे है। भला, देखो तो सही—ये सारे जगत्के स्वामी होकर भी अपने अधीन रहनेवाले मेरे-जैसे जीवोंकी वन्दना और स्तुति करते हैं ॥ २८ ॥ धर्मके प्रवचनकार प्राय: प्राणियोंको धर्मका रहस्य और स्वरूप समझानेके लिये उसका आचरण और अनुमोदन करते हैं तथा कोई धर्मका आचरण करता है, तो उसकी प्रशंसा भी करते हैं ॥ २९ ॥ जैसे जादूगर अनेकों खेल दिखलाता है और उन खेलोंसे उसके प्रभावमें कोई अन्तर नहीं पड़ता, वैसे ही आप अपनी स्वजनमोहिनी मायाकी वृत्तियोंको स्वीकार करके किसीकी वन्दना-स्तुति आदि करते हैं तो केवल इस कामके द्वारा आपकी महिमामें कोई त्रुटि नहीं आती ॥ ३० ॥ आपने स्वप्नद्रष्टाके समान अपने मनसे ही सम्पूर्ण विश्वकी सृष्टि की है और इसमें स्वयं प्रवेश करके कर्ता न होनेपर भी कर्म करनेवाले गुणोंके द्वारा कर्ताके समान प्रतीत होते हैं ॥ ३१ ॥ भगवन् ! आप त्रिगुणस्वरूप होनेपर भी उनके परे उनकी आत्माके रूपमें स्थित हैं। आप ही समस्त ज्ञानके मूल, केवल, अद्वितीय ब्रह्मस्वरूप हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ ३२ ॥ अनन्त ! आपके श्रेष्ठ दर्शनसे बढक़र ऐसी और कौन-सी वस्तु है, जिसे मैं वरदानके रूपमें माँगूँ ? मनुष्य आपके दर्शनसे ही पूर्णकाम और सत्यसङ्कल्प हो जाता है ॥ ३३ ॥ आप स्वयं तो पूर्ण हैं ही, अपने भक्तोंकी भी समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाले हैं। इसलिये मैं आपका दर्शन प्राप्त कर लेनेपर भी एक वर और माँगता हूँ। वह यह कि भगवान्‌में, उनके शरणागत भक्तोंमें और आपमें मेरी अविचल भक्ति सदा-सर्वदा बनी रहे ॥ ३४ ॥

सूतजी कहते हैं—शौनकजी ! जब मार्कण्डेय मुनिने सुमधुर वाणीसे इस प्रकार भगवान्‌ शङ्करकी स्तुति और पूजा की, तब उन्होंने भगवती पार्वतीकी प्रसाद-प्रेरणासे यह बात कही ॥ ३५ ॥ महर्षे ! तुम्हारी सारी कामनाएँ पूर्ण हों। इन्द्रियातीत परमात्मामें तुम्हारी अनन्य भक्ति सदा-सर्वदा बनी रहे। कल्पपर्यन्त तुम्हारा पवित्र यश फैले और तुम अजर एवं अमर हो जाओ ॥ ३६ ॥ ब्रह्मन् ! तुम्हारा ब्रह्मतेज तो सर्वदा अक्षुण्ण रहेगा ही। तुम्हें भूत, भविष्य और वर्तमानके समस्त विशेष ज्ञानोंका एक अधिष्ठानरूप ज्ञान, और वैराग्ययुक्त स्वरूपस्थितिकी प्राप्ति हो जाय। तुम्हें पुराणका आचार्यत्व भी प्राप्त हो ॥ ३७ ॥

सूतजी कहते हैं—शौनकजी ! इस प्रकार त्रिलोचन भगवान्‌ शङ्कर मार्कण्डेय मुनिको वर देकर भगवती पार्वतीसे मार्कण्डेय मुनिकी तपस्या और उनके प्रलय-सम्बन्धी अनुभवोंका वर्णन करते हुए वहाँसे चले गये ॥ ३८ ॥ भृगुवंशशिरोमणि मार्कण्डेय मुनिको उनके महायोगका परम फल प्राप्त हो गया। वे भगवान्‌के अनन्यप्रेमी हो गये। अब भी वे भक्तिभावभरित हृदयसे पृथ्वीपर विचरण किया करते हैं ॥ ३९ ॥ परम ज्ञानसम्पन्न मार्कण्डेय मुनिने भगवान्‌की योगमायासे जिस अद्भुत लीलाका अनुभव किया था, वह मैंने आपलोगोंको सुना दिया ॥ ४० ॥ शौनकजी ! यह जो मार्कण्डेयजीने अनेक कल्पोंका—सृष्टिप्रलयोंका अनुभव किया, वह भगवान्‌की मायाका ही वैभव था, तात्कालिक था और उन्हींके लिये था, सर्वसाधारणके लिये नहीं। कोई-कोई इस मायाकी रचनाको न जानकर अनादिकालसे बार-बार होनेवाले सृष्टि-प्रलय ही इसको भी बतलाते हैं। (इसलिये आपको यह शङ्का नहीं करनी चाहिये कि इसी कल्पके हमारे पूर्वज मार्कण्डेयजीकी आयु इतनी लम्बी कैसे हो गयी ?) ॥ ४१ ॥ भृगुवंशशिरोमणे ! मैंने आपको यह जो मार्कण्डेयचरित्र सुनाया है, वह भगवान्‌ चक्रपाणिके प्रभाव और महिमासे भरपूर है। जो इसका श्रवण एवं कीर्तन करते हैं, वे दोनों ही कर्म-वासनाओंके कारण प्राप्त होनेवाले आवागमन के चक्करसे सर्वदाके लिये छूट जाते हैं ॥ ४२ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां द्वादशस्कन्धे दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वादश स्कन्ध– दसवाँ अध्याय (पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

द्वादश स्कन्धदसवाँ अध्याय (पोस्ट०१)

 

मार्कण्डेयजी को भगवान्‌ शङ्कर का वरदान

 

सूत उवाच -

स एवं अनुभूयेदं नारायणविनिर्मितम् ।

वैभवं योगमायायाः तमेव शरणं ययौ ॥ १ ॥

 

 श्रीमार्कण्डेय उवाच -

 प्रपन्नोऽस्म्यङ्‌घ्रिमूलं ते प्रपन्नाभयदं हरे ।

 यन्माययापि विबुधा मुह्यन्ति ज्ञानकाशया ॥ २ ॥

 

 सूत उवाच -

 तमेवं निभृतात्मानं वृषेण दिवि पर्यटन् ।

 रुद्राण्या भगवान् रुद्रो ददर्श स्वगणैर्वृतः ॥ ३ ॥

 अथोमा तं ऋषिं वीक्ष्य गिरिशं समभाषत ।

 पश्येमं भगवन् विप्रं निभृतात्मेन्द्रियाशयम् ॥ ४ ॥

 निभृतोदझषव्रातं वातापाये यथार्णवः ।

 कुर्वस्य तपसः साक्षात् संसिद्धिं सिद्धिदो भवान् ॥ ५ ॥

 

 श्रीभगवानुवाच -

 नैवेच्छत्याशिषः क्वापि ब्रह्मर्षिर्मोक्षमप्युत ।

 भक्तिं परां भगवति लब्धवान् पुरुषेऽव्यये ॥ ६ ॥

 अथापि संवदिष्यामो भवान्येतेन साधुना ।

 अयं हि परमो लाभो नृणां साधुसमागमः ॥ ७ ॥

 

 सूत उवाच -

 इत्युक्त्वा तमुपेयाय भगवान् स सतां गतिः ।

 ईशानः सर्वविद्यानां ईश्वरः सर्वदेहिनाम् ॥ ८ ॥

 तयोरागमनं साक्षाद् ईशयोर्जगदात्मनोः ।

 न वेद रुद्धधीवृत्तिः आत्मानं विश्वमेव च ॥ ९ ॥

 भगवान् तदभिज्ञाय गिरिशो योगमायया ।

 आविशत्तद्‌गुहाकाशं वायुश्छिद्रमिवेश्वरः ॥ १० ॥

 आत्मन्यपि शिवं प्राप्तं तडित्पिङ्‌गजटाधरम् ।

 त्र्यक्षं दशभुजं प्रांशुं उद्यन्तं इव भास्करम् ॥ ११ ॥

 व्याघ्रचर्माम्बरं शूल खट्वाङ्‌गचर्मभिः ।

 अक्षमालाडमरुक कपालासिधनुः सह ॥ १२ ॥

 बिभ्राणं सहसा भातं विचक्ष्य हृदि विस्मितः ।

 किमिदं कुत एवेति समाधेर्विरतो मुनिः ॥ १३ ॥

 नेत्रे उन्मील्य ददृशे सगणं सोमयाऽऽगतम् ।

 रुद्रं त्रिलोकैकगुरुं ननाम शिरसा मुनिः ॥ १४ ॥

 तस्मै सपर्यां व्यदधात् सगणाय सहोमया ।

 स्वागतासनपाद्यार्घ्य गन्धस्रग् धूपदीपकैः ॥ १५ ॥

 आह चात्मानुभावेन पूर्णकामस्य ते विभो ।

 करवाम किमीशान येनेदं निर्वृतं जगत् ॥ १६ ॥

 नमः शिवाय शान्ताय सत्त्वाय प्रमृडाय च ।

 रजोजुषेऽप्य घोराय नमस्तुभ्यं तमोजुषे ॥ १७ ॥

 

सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो ! मार्कण्डेय मुनिने इस प्रकार नारायण-निर्मित योगमाया- वैभवका अनुभव किया। अब यह निश्चय करके कि इस मायासे मुक्त होनेके लिये मायापति भगवान्‌ की शरण ही एकमात्र उपाय है, उन्हींकी शरणमें स्थित हो गये ॥ १ ॥

मार्कण्डेयजीने मन-ही-मन कहा—प्रभो ! आपकी माया वास्तवमें प्रतीतिमात्र होनेपर भी सत्य ज्ञानके समान प्रकाशित होती है और बड़े-बड़े विद्वान् भी उसके खेलोंमें मोहित हो जाते हैं। आपके श्रीचरणकमल ही शरणागतोंको सब प्रकारसे अभयदान करते हैं। इसलिये मैंने उन्हींकी शरण ग्रहण की है ॥ २ ॥

सूतजी कहते हैं—मार्कण्डेयजी इस प्रकार शरणागतिकी भावनामें तन्मय हो रहे थे। उसी समय भगवान्‌ शङ्कर भगवती पार्वतीजीके साथ नन्दीपर सवार होकर आकाशमार्गसे विचरण करते हुए उधर आ निकले और मार्कण्डेयजीको उसी अवस्थामें देखा। उनके साथ बहुत-से गण भी थे ॥ ३ ॥ जब भगवती पार्वतीने मार्कण्डेय मुनिको ध्यानकी अवस्थामें देखा, तब उनका हृदय वात्सल्य-स्नेहसे उमड़ आया। उन्होंने शङ्करजीसे कहा—‘भगवन् ! तनिक इस ब्राह्मणकी ओर तो देखिये। जैसे तूफान शान्त हो जानेपर समुद्रकी लहरें और मछलियाँ शान्त हो जाती हैं और समुद्र धीर-गम्भीर हो जाता है, वैसे ही इस ब्राह्मणका शरीर, इन्द्रिय और अन्त:करण शान्त हो रहा है। समस्त सिद्धियोंके दाता आप ही हैं। इसलिये कृपा करके आप इस ब्राह्मणकी तपस्याका प्रत्यक्ष फल दीजिये’ ॥ ४-५ ॥

भगवान्‌ शङ्कर ने कहा—देवि ! ये ब्रहमर्षि लोक अथवा परलोककी कोई भी वस्तु नहीं चाहते। और तो क्या, इनके मनमें कभी मोक्षकी भी आकाङ्क्षा नहीं होती। इसका कारण यह है कि घट- घटवासी अविनाशी भगवान्‌के चरणकमलोंमें इन्हें परम भक्ति प्राप्त हो चुकी है ॥ ६ ॥ प्रिये ! यद्यपि इन्हें हमारी कोई आवश्यकता नहीं है, फिर भी मैं इनके साथ बातचीत करूँगा; क्योंकि ये महात्मा पुरुष हैं। जीवमात्रके लिये सबसे बड़े लाभकी बात यही है कि संत पुरुषोंका समागम प्राप्त हो ॥ ७ ॥

सूतजी कहते हैं—शौनकजी ! भगवान्‌ शङ्कर समस्त विद्याओंके प्रवर्तक और सारे प्राणियोंके हृदयमें विराजमान अन्तर्यामी प्रभु हैं। जगत्के जितने भी संत हैं, उनके एकमात्र आश्रय और आदर्श भी वही हैं। भगवती पार्वतीसे इस प्रकार कहकर भगवान्‌ शङ्कर मार्कण्डेय मुनिके पास गये ॥ ८ ॥ उस समय मार्कण्डेय मुनिकी समस्त मनोवृत्तियाँ भगवद्भावमें तन्मय थीं। उन्हें अपने शरीर और जगत् का बिलकुल पता न था। इसलिये उस समय वे यह भी न जान सके कि मेरे सामने सारे विश्वके आत्मा स्वयं भगवान्‌ गौरी-शङ्कर पधारे हुए हैं ॥ ९ ॥ शौनकजी ! सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ कैलासपतिसे यह बात छिपी न रही कि मार्कण्डेय मुनि इस समय किस अवस्थामें हैं। इसलिये जैसे वायु अवकाशके स्थानमें अनायास ही प्रवेश कर जाती है, वैसे ही वे अपनी योगमायासे मार्कण्डेय मुनिके हृदयाकाशमें प्रवेश कर गये ॥ १० ॥ मार्कण्डेय मुनिने देखा कि उनके हृदयमें तो भगवान्‌ शङ्करके दर्शन हो रहे हैं। शङ्करजीके सिरपर बिजलीके समान चमकीली पीली-पीली जटाएँ शोभायमान हो रही हैं। तीन नेत्र हैं और दस भुजाएँ। लंबा-तगड़ा शरीर उदयकालीन सूर्यके समान तेजस्वी है ॥ ११ ॥ शरीरपर बाघाम्बर धारण किये हुए हैं और हाथोंमें शूल, खट्वांग, ढाल, रुद्राक्ष-माला, डमरू, खप्पर, तलवार और धनुष लिये हैं ॥ १२ ॥ मार्कण्डेय मुनि अपने हृदयमें अकस्मात् भगवान्‌ शङ्करका यह रूप देखकर विस्मित हो गये। ‘यह क्या है ? कहाँसे आया ?’ इस प्रकारकी वृत्तियोंका उदय हो जानेसे उन्होंने अपनी समाधि खोल दी ॥ १३ ॥ जब उन्होंने आँखें खोलीं, तब देखा कि तीनों लोकोंके एकमात्र गुरु भगवान्‌ शङ्कर श्रीपार्वतीजी तथा अपने गणोंके साथ पधारे हुए हैं। उन्होंने उनके चरणोंमें माथा टेककर प्रणाम किया ॥ १४ ॥ तदनन्तर मार्कण्डेय मुनिने स्वागत, आसन, पाद्य, अघ्र्य, गन्ध, पुष्पमाला, धूप और दीप आदि उपचारोंसे भगवान्‌ शङ्कर, भगवती पार्वती और उनके गणोंकी पूजा की ॥ १५ ॥ इसके पश्चात् मार्कण्डेय मुनि उनसे कहने लगे—‘सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान् प्रभो ! आप अपनी आत्मानुभूति और महिमासे ही पूर्णकाम हैं। आपकी शान्ति और सुखसे ही सारे जगत्में सुख-शान्तिका विस्तार हो रहा है, ऐसी अवस्थामें मैं आपकी क्या सेवा करूँ ? ॥ १६ ॥ मैं आपके त्रिगुणातीत सदाशिव स्वरूपको और सत्त्वगुणसे युक्त शान्तस्वरूपको नमस्कार करता हूँ। मैं आपके रजोगुणयुक्त सर्वप्रवर्तक स्वरूप एवं तमोगुणयुक्त अघोर स्वरूपको नमस्कार करता हूँ’ ॥ १७ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करणपुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट११) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन पान...