गुरुवार, 6 अक्तूबर 2022

कामना और आवश्यकता (पोस्ट 03)

 


।। श्रीहरिः ।।

 

कामना और आवश्यकता (पोस्ट 03)

 

कामनाओं के त्याग से आवश्यकता की पूर्ति हो जाती हैयह नियम है । कामना का त्याग करने में हम स्वतन्त्र हैं । कामना किसी में भी निरन्तर नहीं रहती, प्रत्युत उत्पन्न-नष्ट होती रहती है । परन्तु आवश्यकता निरन्तर रहती है । हमें सत्ता चाहिये तो नित्य सत्ता चाहिये, ज्ञान चाहिये तो अनन्त ज्ञान चाहिये, सुख चाहिये तो अनन्त सुख चाहियेयह सत्-चित्-आनन्द की आवश्यकता हमारे में निरन्तर रहती है । निरन्तर न रहने वाली कामना को तो हम पकड़ लेते हैं, पर निरन्तर रहनेवाली आवश्यकता की तरफ हम ध्यान ही नहीं देतेयह हमारी भूल है ।

 

अगर हम कामनाओं का त्याग कर दें तो परमात्मा की प्राप्ति हो जायगी अथवा परमात्मा की प्राप्ति कर लें तो कामनाओं का त्याग हो जायगा । इन दोनों को ही गीता ने योगकहा है

 

तं विद्यादुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम् ।

                                                                                  (६ । २३)

जिसमें दुःखोंके संयोगका ही वियोग है, उसीको योग नामसे जानना चाहिये ।

 

समत्वं योग उच्यते ।

                                                                  (२ । ४८)

                                समत्व ही योग कहा जाता है ।

 

तात्पर्य है कि जड़ता का त्याग करना भी योग है और चिन्मयता में स्थित होना भी योग है । दुःखरूप संसार से माना हुआ सम्बन्ध ही दुःखसंयोगहै । दुःखों का घर होनेसे संसार दुःखालयहै‒‘दुःखालयमशाश्वतम्’ (गीता ८ । १५) । जैसे पुस्तकालय में पुस्तकें मिलती हैं, वस्त्रालय में वस्त्र मिलता है, भोजनालय में भोजन मिलता है, ऐसें ही दुःखालय में दुःख-ही-दुःख मिलता है । दुःखालयमें  सुख ही नहीं मिलता, फिर आनन्द तो दूर रहा ! परन्तु परमात्मा में आनन्द-ही-आनन्द हैयं लब्ध्वा चापरं लाभ मन्यते नाधिकं ततः (गीता ६ । २२) । ऐसे महान् आनन्दकी ही हमें आवश्यकता है, जिसकी पूर्ति के लिये ही हमें यह मनुष्यजन्म मिला है ।

 

मनुष्य अनन्तकाल तक जन्मता-मरता रहे तो भी उसकी आवश्यकता मिटेगी नहीं और कामना टिकेगी नहीं । बाल्यावस्था में खिलौनों की कामना होती है, फिर बड़े होने पर रुपयोंकी कामना हो जाती है, फिर स्त्री-पुत्र, मान-बड़ाई आदि की कामना हो जाती है । इस प्रकार कोई भी कामना टिकती नहीं, बदलती रहती है, पर आवश्यकता कभी मिटती नहीं, बदलती नहीं । उस आवश्यकता की पूर्ति के लिये ही कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग ध्यानयोग आदि साधन हैं ।

 

नारायण ! नारायण !!

 

(शेष आगामी पोस्ट में )

------गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की सत्संग मुक्ताहारपुस्तकसे



कामना और आवश्यकता (पोस्ट 02)

 

।। श्रीहरिः ।।

 


कामना और आवश्यकता
(पोस्ट 02)

 

इतिहास पढ़ लें, भागवत आदि ग्रन्थ पढ़ लें, ऐसा कोई व्यक्ति नहीं मिलेगा, जिसकी सब कामनाएँ पूरी हो गयी हों । कामना का तो त्याग ही होता है, पूर्ति नहीं होती । संसार क्षणभंगुर है, प्रतिक्षण नष्ट होनेवाला है, फिर उसकी कामना पूरी कैसे होगी ?[*] शरीर-संसार से सम्बन्ध मानने के कारण हमें अपने में जो कमी प्रतीत होती है, उसकी पूर्ति परमात्मा की प्राप्ति से ही होगी । हमें त्रिलोकी का आधिपत्य मिल जाय, संसारमात्र मिल जाय, अनेक ब्रह्माण्ड मिल जायँ तो भी हमारी आवश्यकता की पूर्ति नहीं होगी । न कामना की पूर्ति होगी, न आवश्यकता की । क्योंकि जो कुछ मिलेगा, शरीर को ही मिलेगा, हमें (स्वयं को) नहीं मिलेगा । जड़ वस्तु चेतन तक कैसे पहुँच सकती है ? परमात्मा के अंश को परमात्मा की ही आवश्यकता है । मेरी मुक्ति हो जाय, मेरा कल्याण हो जाय, मेरे को तत्वज्ञान हो जाय, मैं सम्पूर्ण दुःखों से छूट जाऊँ, मेरे को महान् आनन्द मिल जाय, मेरे को भगवत्प्रेम मिल जाययह सब स्वयं की आवश्यकता है । कामना का तो त्याग ही होता है, पर आवश्यकता का त्याग कभी हुआ नहीं, होगा नहीं, हो सकता नहीं । आवश्यकताकी तो पूर्ति ही होती है । जितने भी सन्त-महात्मा हो चुके हैं, उनकी कामनाओं का त्याग हुआ है और आवश्यकताकी पूर्ति हुई है । इसलिये गीतामें कामना के त्याग पर बहुत जोर दिया गया है ।

 

जहाँ जीव ने प्रकृति के अंश को पकड़ा है, वहीं से कामना और आवश्यकता का भेद उत्पन्न हुआ है । अगर जीव प्रकृति के अंशको छोड़ दे तो कामना का त्याग हो जायगा और आवश्यकता की पूर्ति हो जायगी । जड़ता से सम्बन्ध-विच्छेद होते ही कामनाओं का नाश और परमात्मा की प्राप्ति स्वतः हो जाती है, क्योंकि परमात्मा सब जगह नित्य-निरन्तर विद्यमान हैं । परमात्मा की प्राप्ति में संसार की कामना ही बाधक है । जड़ता को साथ में रखनेसे  ही आवश्यकता की पूर्ति (परमात्मप्राप्ति) नहीं होती । साधन करनेवाले बहुत-से लोग सांसारिक कामना की पूर्ति की तरह ही पारमार्थिक आवश्यकता की पूर्ति के लिये भी उद्योग करते हैं । अर्थात् जड़ के द्वारा चेतन की प्राप्ति चाहते हैं, शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि के द्वारा परमात्माकी प्राप्ति चाहते हैं । परन्तु यह सिद्धान्त है कि जड़ के द्वारा चेतन की प्राप्ति होती नहीं, होनी सम्भव नहीं । किन्तु चेतन की प्राप्ति जड़ के त्याग से ही होती है ।

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[*] कुछ कामनाएँ पूरी होती हैं, कुछ पूरी नहीं होतींयह सबका अनुभव है । इससे सिद्ध होता है  कामनाकी पूर्ति-अपूर्ति कामनाके अधीन नहीं है, प्रत्युत किसी विधान (पूर्वकृत कर्मफल) के अधीन है ।

 

नारायण ! नारायण !!

 

(शेष आगामी पोस्ट में )

------गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की सत्संग मुक्ताहारपुस्तकसे



बुधवार, 5 अक्तूबर 2022

कामना और आवश्यकता (पोस्ट 01)

 

।। श्रीहरिः ।।

 


कामना और आवश्यकता
(पोस्ट 01)

 

भगवान्‌ ने गीता में कहा है‒‘ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः’ (गीता १५ । ७) । इस संसार में जीव बना हुआ आत्मा मेरा ही सनातन अंश है ।शरीर में तो माता और पिता दोनों का अंश है, पर स्वयं में परमात्मा और प्रकृति दोनों का अंश नहीं है, प्रत्युत यह केवल परमात्मा का ही शुद्ध अंश है‒‘ममैवांशः। तात्पर्य है कि जैसे परमात्मा हैं,ऐसे ही उनका अंश जीवात्मा है । गोस्वामीजी महाराज कहते हैं

 

ईस्वर  अंस  जीव अबिनासी ।

चेतन अमल सहज सुखरासी ॥

                             (मानस, उत्तर॰ ११७ । १)

 

अतः जैसे परमात्मा चेतन, निर्दोष और सहज सुखकी राशि हैं, ऐसे ही जीव भी चेतन, निर्दोष और सहज सुखकी राशि है । परन्तु परमात्मा का ऐसा अंश होते हुए भी जीव माया के वश में हो जाता है‒‘सो मायाबस भयउ गोसाईंऔर प्रकृति में स्थित मन, इन्द्रियों को अपनी तरफ खींचने लगता है अर्थात् उनको अपना और अपने लिये मानने लगता है‒‘मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति’ (गीता १५ । ७) । हम परमात्मा के अंश हैं तथा परमात्मा में स्थित हैं और शरीर प्रकृति का अंश है तथा प्रकृति में स्थित है । परमात्मा में स्थित होते हुए भी हम अपने को शरीर में स्थित मान लेते हैंयह कितनी बड़ी भूल है ! प्रकृति का अंश तो प्रकृति में ही स्थित रहता है, पर हम परमात्मा के अंश होते हुए भी परमात्मा में स्थित नहीं रहते प्रत्युत स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर में स्थित हो जाते हैं, जो कि प्रकृति का कार्य है । इस प्रकार प्रकृति को पकड़ने से ही जीव परमात्मा का अंश कहलाता है । अगर प्रकृति को न पकड़े तो यह अंश नहीं है, प्रत्युत साक्षात् परमात्मा (ब्रह्म) ही है

 

परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः ॥

                                             (गीता १३ । २२)

 

अनादित्वान्निर्गुणत्वात् परमात्मायमव्ययः ।

                                             (गीता १३ । ३१)

 

प्रकृति को पकड़ने से जीव में संसार की भी इच्छा उत्पन्न हो गयी और परमात्मा की भी इच्छा उत्पन्न हो गयी । प्रकृति के जड़-अंश की प्रधानता से संसार की इच्छा होती है और परमात्मा के चेतन-अंश की प्रधानता से परमात्मा की इच्छा होती है । संसार की इच्छा कामनाहै और परमात्मा की इच्छा आवश्यकताहै, जिसको मुमुक्षा, तत्त्व-जिज्ञासा और प्रेम-पिपासा भी कह सकते हैं । आवश्यकता की तो पूर्ति होती है, पर कामना की पूर्ति कभी किसी की हुई नहीं, होगी नहीं, हो सकती नहीं ।

 

नारायण ! नारायण !!

 

(शेष आगामी पोस्ट में )

------गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की सत्संग मुक्ताहारपुस्तकसे



गुरुवार, 18 अगस्त 2022

जय श्रीकृष्ण !

भक्तवाञ्छाकल्पतरु लीलापुरुषोत्तम 
भगवान् श्रीकृष्ण के अवतरणदिवस 
(श्रीकृष्ण जन्माष्टमी - स्मार्त) पर 
हार्दिक शुभकामनाएं !!

भगवान कृष्ण का जन्म और मरण कभी नहीं होता है |  वे अपनी योगमाया से नाना प्रकार के रूप धारण करके लोगों के सम्मुख प्रकट होते हैं  | भगवान की यह योगमाया उनकी अत्यन्त प्रभावशालिनी ऐश्वर्यमयी शक्ति है  | भगवान् का अवतार जीवों के जन्म की भाँति नहीं होता है | वे अपने भक्तों पर अनुग्रह करके उन्हें अपनी शरण प्रदान करने के लिए अनेक दिव्य लीला-कार्य करने के लिए अपनी योगमाया से जन्मधारण की केवल लीलामात्र करते हैं | जब भगवान् अवतार लेते हैं तब उनके अवतारतत्त्व  को न समझने वाले  अज्ञानी लोग उनका जन्म हुआ मानते हैं और जब वे अन्तर्धान हो जाते हैं, उस समय उनका विनाश समझ लेते हैं | भगवान् का अवतारी शरीर प्राणियों के शरीर की भांति प्राकृत उपादानों से बना हुआ नहीं होता है | मनुष्य भगवान् के जन्म-कर्मों की दिव्यता  को जिस समय समझ लेता है, उसी समय से वह आसक्ति, अभिमान, अहंकार और समस्त कामनाओं तथा राग-द्वेषादि समस्त दुर्गुणों का त्याग करके समभाव , अनन्यभाव और निष्कामभाव से भगवान् की भक्ति करने लगता है और मरने के बाद उसका पुनर्जन्म नहीं होता, वह भगवान् के परमधाम को चला जाता है | भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं ----

“जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वत: |
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ||”

......(कल्याण, अवतार-कथांक)


रविवार, 12 दिसंबर 2021

श्रीहरि




|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

यदि आपको परम गति की इच्छा है तो अपने मुखसे ही श्रीमद्भागवत के आधे अथवा चौथाई श्लोकका भी नित्य नियमपूर्वक पाठ कीजिये ॥ ॐकार, गायत्री, पुरुषसूक्त, तीनों वेद, श्रीमद्भागवत, ‘ॐनमो भगवते वासुदेवाय’—यह द्वादशाक्षर मन्त्र, बारह मूर्तियोंवाले सूर्यभगवान्‌, प्रयाग, संवत्सररूप काल, ब्राह्मण, अग्निहोत्र, गौ, द्वादशी तिथि, तुलसी, वसन्त ऋतु और भगवान्‌ पुरुषोत्तम—इन सबमें बुद्धिमान् लोग वस्तुत: कोई अन्तर नहीं मानते ॥ जो पुरुष अहर्निश अर्थसहित श्रीमद्भागवत-शास्त्रका पाठ करता है, उसके करोड़ों जन्मोंका पाप नष्ट हो जाता है—इसमें तनिक भी संदेह नहीं है ॥ जो पुरुष नित्यप्रति भागवतका आधा या चौथाई श्लोक भी पढ़ता है, उसे राजसूय और अश्वमेधयज्ञों का फल मिलता है ॥ नित्य भागवत का पाठ करना, भगवान्‌ का चिन्तन करना, तुलसीको सींचना और गौकी सेवा करना—ये चारों समान हैं ॥ जो पुरुष अन्तसमय में श्रीमद्भागवत का वाक्य सुन लेता है, उसपर प्रसन्न होकर भगवान्‌ उसे वैकुण्ठधाम देते हैं ॥ जो पुरुष इसे सोनेके सिंहासनपर रखकर विष्णुभक्त को दान करता है, वह अवश्य ही भगवान्‌ का सायुज्य प्राप्त करता है ॥

हरिः ॐ तत्सत्

(श्रीमद्भागवतमाहात्म्य ३|३३-४१)


बुधवार, 8 दिसंबर 2021

!!श्रीहरि:!!

योगक्षेमं वहाम्यहम्

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं : हे अर्जुन ! (संसारके हितके लिये) मैं ही सूर्यरूपसे तपता हूँ, मैं ही जलको ग्रहण करता हूँ और (फिर उस जलको मैं ही) वर्षारूपसे बरसा देता हूँ । (और तो क्या कहूँ) अमृत और मृत्यु तथा सत् और असत् भी मैं ही हूँ ।

तीनों वेदोंमें कहे हुए सकाम अनुष्ठानको करनेवाले और सोमरस को पीनेवाले जो पापरहित मनुष्य यज्ञोंके द्वारा (इन्द्ररूपसे) मेरा पूजन करके स्वर्गप्राप्तिकी प्रार्थना करते हैं, वे (पुण्योंके फलस्वरूप) पवित्र इन्द्रलोकको प्राप्त करके वहाँ स्वर्गके देवताओंके दिव्य भोगोंको भोगते हैं।
वे उस विशाल स्वर्गलोकके भोगोंको भोगकर पुण्य क्षीण होनेपर मृत्युलोकमें आ जाते हैं। इस प्रकार तीनों वेदोंमें कहे हुए सकाम धर्मका आश्रय लिये हुए भोगोंकी कामना करनेवाले मनुष्य आवागमनको प्राप्त होते हैं।

जो अनन्य भक्त मेरा चिन्तन करते हुए मेरी भलीभाँति उपासना करते हैं, मुझमें निरन्तर लगे हुए उन भक्तोंका योगक्षेम (अप्राप्तकी प्राप्ति और प्राप्तकी रक्षा) मैं वहन करता हूँ।
हे कुन्तीनन्दन ! जो भी भक्त (मनुष्य) श्रद्धापूर्वक अन्य देवताओंका पूजन करते हैं, वे भी मेरा ही पूजन करते हैं, पर करते हैं अविधिपूर्वक अर्थात् देवताओंको मुझसे अलग मानते हैं। क्योंकि सम्पूर्ण यज्ञोंका भोक्ता और स्वामी मैं ही हूँ; किन्तु वे मुझे तत्त्वसे नहीं जानते, इसीसे उनका पतन होता है।

(सकामभावसे) देवताओंका पूजन करनेवाले (शरीर छोडऩेपर) देवताओंको प्राप्त होते हैं। पितरोंका पूजन करनेवाले पितरोंको प्राप्त होते हैं। भूत-प्रेतोंका पूजन करनेवाले भूत-प्रेतोंको प्राप्त होते हैं। परन्तु मेरा पूजन करनेवाले मुझे ही प्राप्त होते हैं।

जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल आदि (यथासाध्य एवं अनायास प्राप्त वस्तु)-को प्रेमपूर्वक मेरे अर्पण करता है, उस मुझमें तल्लीन हुए अन्त:करणवाले भक्तके द्वारा प्रेमपूर्वक दिये हुए उपहार (भेंट)-को मैं खा लेता हूँ अर्थात् स्वीकार कर लेता हूँ।

हे कुन्तीपुत्र ! तू जो कुछ करता है, जो कुछ भोजन करता है, जो कुछ यज्ञ करता है, जो कुछ दान देता है और जो कुछ तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर दे।

इस प्रकार (मेरे अर्पण करनेसे) कर्मबन्धनसे और शुभ (विहित) और अशुभ (निषिद्ध) सम्पूर्ण कर्मोंके फलोंसे तू मुक्त हो जायगा। ऐसे अपनेसहित सब कुछ मेरे अर्पण करनेवाला और सबसे सर्वथा मुक्त हुआ तू मुझे प्राप्त हो जायगा।

मैं सम्पूर्ण प्राणियोंमें समान हूँ। (उन प्राणियोंमें) न तो कोई मेरा द्वेषी है और न कोई प्रिय है। परन्तु जो प्रेमपूर्वक मेरा भजन करते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें हूँ।

अगर कोई दुराचारी-से-दुराचारी भी अनन्यभक्त होकर मेरा भजन करता है तो उसको साधु ही मानना चाहिये। कारण कि उसने निश्चय बहुत अच्छी तरह कर लिया है।

वह तत्काल (उसी क्षण) धर्मात्मा हो जाता है और निरन्तर रहनेवाली शान्तिको प्राप्त हो जाता है । हे कुन्तीनन्दन ! मेरे भक्तका पतन नहीं होता—ऐसी तुम प्रतिज्ञा करो।

श्रीमद्भगवद्गीता.....नँवे अध्याय से

[अनुवाद- परमश्रद्धेय स्वामीजी रामसुखदास जी महाराज विरचित गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित गीता टीका "साधक संजीवनी" से ]



शुक्रवार, 9 जुलाई 2021

गीता और भागवत के श्रीकृष्ण


|| श्रीहरि: ||

 

गीता और भागवत के श्रीकृष्ण

 

कुछ लोग गीता के श्रीकृष्ण को निपुण तत्त्ववेत्ता, महायोगेश्वर, निर्भय योद्धा और अतुलनीय राजनीति-विशारद मानते हैं, परंतु भागवत के श्रीकृष्ण को इसके विपरीत नचैया, भोग-विलास-परायण, गाने-बजानेवाला और खिलाड़ी समझते हैं; इसीसे वे भागवत के श्रीकृष्ण को नीची दृष्टि से देखते हैं या उनको अस्वीकार करते हैं और गीता के  या महाभारत के श्रीकृष्ण को ऊँचा या आदर्श मानते हैं। वास्तव में यह बात ठीक नहीं है। श्रीकृष्ण जो भागवत के हैं, वे ही महाभारत या गीता के हैं। एक ही भगवान् की भिन्न-भिन्न स्थलों और भिन्न-भिन्न परिस्थितियोंमें  भिन्न-भिन्न लीलाएँ हैं। भागवत के श्रीकृष्ण को भोग-विलास-परायण और साधारण नचैया-गवैया समझना भारी भ्रम है। अवश्य ही भागवत की लीलामें पवित्र और महान् दिव्य प्रेम का विकास अधिक था; परंतु वहाँ भी ऐश्वर्य-लीलाकी कमी नहीं थी। असुर-वध, गोवर्द्धन-धारण, अग्नि- पान, वत्स-बालरूप-धारण आदि भगवान् की ईश्वरीय लीलाएँ ही तो हैं। नवनीत-भक्षण, सखा-सह-विहार, गोपी-प्रेम आदि तो गोलोक की दिव्य लीलाएँ हैं। इसी से कुछ भक्त भी वृन्दावनविहारी मुरलीधर रसराज प्रेममय भगवान् श्रीकृष्ण की ही उपासना करते हैं,उनकी मधुर भावना में—

 

कृष्णोऽन्यो यदुसम्भूतो यः पूर्णः सोऽस्त्यतः परः ।

वृन्दावनं परित्यज्य स क्वचिन्नैव गच्छति ।

 

यदुनन्दन श्रीकृष्ण दूसरे हैं और वृन्दावनविहारी पूर्ण श्रीकृष्ण दूसरे हैं। पूर्ण श्रीकृष्ण वृन्दावन छोड़कर कभी अन्यत्र गमन नहीं करते। बात ठीक है—

 

जिन्ह के रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी ॥

 

इसी प्रकार कुछ भक्त गीता के 'तोत्त्रवेत्रैकपाणि' योगेश्वर श्रीकृष्ण के ही उपासक हैं। रुचिके अनुसार उपास्यदेव के स्वरूपभेद में कोई आपत्ति नहीं; परंतु जो लोग भागवत या महाभारत के श्रीकृष्ण को वास्तवमें भिन्न-भिन्न मानते हैं या किसी एक का अस्वीकार करते हैं, उनकी बात कभी नहीं माननी चाहिये । महाभारत में भागवत के और भागवत में महाभारत के श्रीकृष्ण के एक होने के अनेक प्रमाण मिलते हैं। एक ही ग्रन्थ की एक बात मानना और दूसरी को मन के प्रतिकूल होने के कारण न मानना वास्तव में यथेच्छाचार के सिवा और कुछ भी नहीं है।

 

साधकों को इन सारे बखेड़ों से अलग रहकर भगवान् को पहचानने और अपने को 'सर्वभावेन' उनके चरणों में समर्पणकर--शरणागत होकर उन्हें प्राप्त करने की चेष्टा करनी चाहिये।

 

.............गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीराधा-माधव-चिन्तन पुस्तक (कोड 49) से

 

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रविवार, 27 जून 2021

कलियुग के धर्म (पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

कलियुग के धर्म

(पोस्ट०२)

 

श्री शुकदेवजी कहते हैं -प्रिय परीक्षित्‌ ! जब सब डाकुओंका संहार हो चुकेगा, तब नगरकी और देशकी सारी प्रजाका हृदय पवित्रतासे भर जायगा; क्योंकि भगवान्‌ कल्किके शरीरमें लगे हुए अङ्गरागका स्पर्श पाकर अत्यन्त पवित्र हुई वायु उनका स्पर्श करेगी और इस प्रकार वे भगवान्‌के श्रीविग्रहकी दिव्य गन्ध प्राप्त कर सकेंगे ॥ २१ ॥ उनके पवित्र हृदयोंमें सत्त्वमूर्ति भगवान्‌ वासुदेव विराजमान होंगे और फिर उनकी सन्तान पहलेकी भाँति हृष्ट-पुष्ट और बलवान् होने लगेगी ॥ २२ ॥ प्रजाके नयन-मनोहारी हरि ही धर्मके रक्षक और स्वामी हैं। वे ही भगवान्‌ जब कल्किके रूपमें अवतार ग्रहण करेंगे, उसी समय सत्ययुगका प्रारम्भ हो जायगा और प्रजाकी सन्तान-परम्परा स्वयं ही सत्त्वगुणसे युक्त हो जायगी ॥ २३ ॥ जिस समय चन्द्रमा, सूर्य और बृहस्पति एक ही समय एक ही साथ पुष्य नक्षत्रके प्रथम पलमें प्रवेश करते हैं, एक राशिपर आते हैं, उसी समय सत्ययुगका प्रारम्भ होता है ॥ २४ ॥

परीक्षित्‌ ! चन्द्रवंश और सूर्यवंशमें जितने राजा हो गये हैं या होंगे, उन सबका मैंने संक्षेप से वर्णन कर दिया ॥ २५ ॥ तुम्हारे जन्मसे लेकर राजा नन्दके अभिषेकतक एक हजार एक सौ पंद्रह वर्षका समय लगेगा ॥ २६ ॥ जिस समय आकाशमें सप्तर्षियोंका उदय होता है, उस समय पहले उनमेंसे दो ही तारे दिखायी पड़ते हैं। उनके बीचमें दक्षिणोत्तर रेखापर समभागमें अश्विनी आदि नक्षत्रोंमेंसे एक नक्षत्र दिखायी पड़ता है ॥ २७ ॥ उस नक्षत्रके साथ सप्तर्षिगण मनुष्योंकी गणनासे सौ वर्षतक रहते हैं। वे तुम्हारे जन्मके समय और इस समय भी मघा नक्षत्रपर स्थित हैं ॥ २८ ॥

स्वयं सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ ही शुद्ध सत्त्वमय विग्रहके साथ श्रीकृष्णके रूपमें प्रकट हुए थे। वे जिस समय अपनी लीला संवरण करके परमधामको पधार गये, उसी समय कलियुगने संसारमें प्रवेश किया। उसीके कारण मनुष्योंकी मति-गति पापकी ओर ढुलक गयी ॥ २९ ॥ जबतक लक्ष्मीपति भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपने चरणकमलोंसे पृथ्वीका स्पर्श करते रहे, तबतक कलियुग पृथ्वीपर अपना पैर न जमा सका ॥ ३० ॥ परीक्षित्‌ ! जिस समय सप्तर्षि मघा-नक्षत्रपर विचरण करते रहते हैं, उसी समय कलियुगका प्रारम्भ होता है। कलियुगकी आयु देवताओंकी वर्षगणनासे बारह सौ वर्षोंकी अर्थात् मनुष्योंकी गणनाके अनुसार चार लाख बत्तीस हजार वर्षकी है ॥ ३१ ॥ जिस समय सप्तर्षि मघासे चलकर पूर्वाषाढ़ा-नक्षत्रमें जा चुके होंगे, उस समय राजा नन्दका राज्य रहेगा। तभीसे कलियुगकी वृद्धि शुरू होगी ॥ ३२ ॥ पुरातत्त्ववेत्ता ऐतिहासिक विद्वानोंका कहना है कि जिस दिन भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपने परम-धामको प्रयाण किया, उसी दिन, उसी समय कलियुगका प्रारम्भ हो गया ॥ ३३ ॥ परीक्षित्‌ ! जब देवताओंकी वर्षगणनाके अनुसार एक हजार वर्ष बीत चुकेंगे, तब कलियुगके अन्तिम दिनोंमें फिरसे कल्किभगवान्‌ की कृपासे मनुष्योंके मनमें सात्त्विकताका सञ्चार होगा, लोग अपने वास्तविक स्वरूपको जान सकेंगे और तभीसे सत्ययुगका प्रारम्भ भी होगा ॥ ३४ ॥

परीक्षित्‌ ! मैंने तो तुमसे केवल मनुवंशका, सो भी संक्षेपसे वर्णन किया है। जैसे मनुवंशकी गणना होती है, वैसे ही प्रत्येक युगमें ब्राह्मण, वैश्य और शूद्रोंकी भी वंशपरम्परा समझनी चाहिये ॥ ३५ ॥ राजन् ! जिन पुरुषों और महात्माओंका वर्णन मैंने तुमसे किया है, अब केवल नामसे ही उनकी पहचान होती है। अब वे नहीं हैं, केवल उनकी कथा रह गयी है। अब उनकी कीर्ति ही पृथ्वीपर जहाँ-तहाँ सुननेको मिलती है ॥ ३६ ॥ भीष्मपितामहके पिता राजा शन्तनुके भाई देवापि और इक्ष्वाकुवंशी मरु इस समय कलाप-ग्राममें स्थित हैं। वे बहुत बड़े योगबलसे युक्त हैं ॥ ३७ ॥ कलियुगके अन्तमें कल्किभगवान्‌की आज्ञासे वे फिर यहाँ आयँगे और पहलेकी भाँति ही वर्णाश्रमधर्मका विस्तार करेंगे ॥ ३८ ॥ सत्ययुग, त्रेता द्वापर और कलियुग—ये ही चार युग हैं; ये पूर्वोक्त क्रमके अनुसार अपने-अपने समयमें पृथ्वीके प्राणियोंपर अपना प्रभाव दिखाते रहते हैं ॥ ३९ ॥ परीक्षित्‌ ! मैंने तुमसे जिन राजाओंका वर्णन किया है, वे सब और उनके अतिरिक्त दूसरे राजा भी इस पृथ्वीको ‘मेरी-मेरी’ करते रहे, परन्तु अन्तमें मरकर धूलमें मिल गये ॥ ४० ॥ इस शरीरको भले ही कोई राजा कह ले; परन्तु अन्तमें यह कीड़ा, विष्ठा अथवा राखके रूपमें ही परिणत होगा, राख ही होकर रहेगा। इसी शरीरके या इसके सम्बन्धियोंके लिये जो किसी भी प्राणीको सताता है, वह न तो अपना स्वार्थ जानता है और न तो परमार्थ। क्योंकि प्राणियोंको सताना तो नरकका द्वार है ॥ ४१ ॥ वे लोग यही सोचा करते हैं कि मेरे दादा-परदादा इस अखण्ड भूमण्डलका शासन करते थे; अब यह मेरे अधीन किस प्रकार रहे और मेरे बाद मेरे बेटे-पोते, मेरे वंशज किस प्रकार इसका उपभोग करें ॥ ४२ ॥ वे मूर्ख इस आग, पानी और मिट्टीके शरीरको अपना आपा मान बैठते हैं और बड़े अभिमानके साथ डींग हाँकते हैं कि यह पृथ्वी मेरी है। अन्तमें वे शरीर और पृथ्वी दोनोंको छोडक़र स्वयं ही अदृश्य हो जाते हैं ॥ ४३ ॥ प्रिय परीक्षित्‌ ! जो-जो नरपति बड़े उत्साह और बल-पौरुषसे इस पृथ्वीके उपभोगमें लगे रहे, उन सबको कालने अपने विकराल गालमें धर दबाया। अब केवल इतिहासमें उनकी कहानी ही शेष रह गयी है ॥ ४४ ॥

 

 ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (द्वादश स्कन्ध दूसरा अध्याय) कोड-1536  

 

 



शनिवार, 26 जून 2021

कलियुग के धर्म (पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

कलियुग के धर्म

(पोस्ट०१)

 

श्री शुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्‌ ! समय बड़ा बलवान् है; ज्यों-ज्यों घोर कलियुग आता जायगा, त्यों-त्यों उत्तरोत्तर धर्म, सत्य, पवित्रता, क्षमा, दया, आयु, बल और स्मरणशक्तिका लोप होता जायगा ॥ १ ॥ कलियुग में जिसके पास धन होगा, उसीको लोग कुलीन, सदाचारी और सद्गुणी मानेंगे। जिसके हाथमें शक्ति होगी वही धर्म और न्यायकी व्यवस्था अपने अनुकूल करा सकेगा ॥ २ ॥ विवाह-सम्बन्धके लिये कुल-शील-योग्यता आदिकी परख-निरख नहीं रहेगी, युवक-युवतीकी पारस्परिक रुचिसे ही सम्बन्ध हो जायगा। व्यवहारकी निपुणता, सच्चाई और ईमानदारीमें नहीं रहेगी; जो जितना छल-कपट कर सकेगा, वह उतना ही व्यवहारकुशल माना जायगा। स्त्री और पुरुषकी श्रेष्ठताका आधार उनका शील-संयम न होकर केवल रतिकौशल ही रहेगा। ब्राह्मणकी पहचान उसके गुण-स्वभावसे नहीं यज्ञोपवीतसे हुआ करेगी ॥ ३ ॥ वस्त्र, दण्ड- कमण्डलु आदिसे ही ब्रह्मचारी, संन्यासी आदि आश्रमियोंकी पहचान होगी और एक-दूसरेका चिह्न स्वीकार कर लेना ही एकसे दूसरे आश्रममें प्रवेशका स्वरूप होगा। जो घूस देने या धन खर्च करनेमें असमर्थ होगा, उसे अदालतोंसे ठीक-ठीक न्याय न मिल सकेगा। जो बोल-चालमें जितना चालाक होगा, उसे उतना ही बड़ा पण्डित माना जायगा ॥ ४ ॥ असाधुताकी—दोषी होनेकी एक ही पहचान रहेगी—गरीब होना। जो जितना अधिक दम्भ-पाखण्ड कर सकेगा, उसे उतना ही बड़ा साधु समझा जायगा। विवाहके लिये एक-दूसरेकी स्वीकृति ही पर्याप्त होगी, शास्त्रीय विधि-विधानकी— संस्कार आदिकी कोई आवश्यकता न समझी जायगी। बाल आदि सँवारकर कपड़े-लत्तेसे लैस हो जाना ही स्नान समझा जायगा ॥ ५ ॥ लोग दूरके तालाबको तीर्थ मानेंगे और निकटके तीर्थ गङ्गा- गोमती, माता-पिता आदिकी उपेक्षा करेंगे। सिरपर बड़े-बड़े बाल—काकुल रखाना ही शारीरिक सौन्दर्यका चिह्न समझा जायगा और जीवनका सबसे बड़ा पुरुषार्थ होगा—अपना पेट भर लेना। जो जितनी ढिठाईसे बात कर सकेगा, उसे उतना ही सच्चा समझा जायगा ॥ ६ ॥ योग्यता चतुराईका सबसे बड़ा लक्षण यह होगा कि मनुष्य अपने कुटुम्बका पालन कर ले। धर्मका सेवन यशके लिये किया जायगा। इस प्रकार जब सारी पृथ्वीपर दुष्टोंका बोलबाला हो जायगा, तब राजा होनेका कोई नियम न रहेगा; ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्रोंमें जो बली होगा, वही राजा बन बैठेगा। उस समयके नीच राजा अत्यन्त निर्दय एवं क्रूर होंगे; लोभी तो इतने होंगे कि उनमें और लुटेरोंमें कोई अन्तर न किया जा सकेगा। वे प्रजाकी पूँजी एवं पत्नियोंतकको छीन लेंगे। उनसे डरकर प्रजा पहाड़ों और जंगलोंमें भाग जायगी। उस समय प्रजा तरह-तरहके शाक, कन्द-मूल, मांस, मधु, फल-फूल और बीज-गुठली आदि खा-खाकर अपना पेट भरेगी ॥ ७—९ ॥ कभी वर्षा न होगी—सूखा पड़ जायगा; तो कभी कर-पर-कर लगाये जायँगे। कभी कड़ाकेकी सर्दी पड़ेगी, तो कभी पाला पड़ेगा, कभी आँधी चलेगी, कभी गरमी पड़ेगी, तो कभी बाढ़ आ जायगी। इन उत्पातोंसे तथा आपसके सङ्घर्षसे प्रजा अत्यन्त पीडि़त होगी, नष्ट हो जायगी ॥ १० ॥ लोग भूख- प्यास तथा नाना प्रकारकी चिन्ताओंसे दुखी रहेंगे। रोगोंसे तो उन्हें छुटकारा ही न मिलेगा। कलियुग में मनुष्यों की परमायु केवल बीस या तीस वर्षकी होगी ॥ ११ ॥

परीक्षित्‌ ! कलिकाल के दोषसे प्राणियोंके शरीर छोटे-छोटे, क्षीण और रोगग्रस्त होने लगेंगे। वर्ण और आश्रमोंका धर्म बतलानेवाला वेद-मार्ग नष्टप्राय हो जायगा ॥ १२ ॥ धर्ममें पाखण्डकी प्रधानता हो जायगी। राजे-महाराजे डाकू-लुटेरोंके समान हो जायँगे। मनुष्य चोरी, झूठ तथा निरपराध हिंसा आदि नाना प्रकारके कुकर्मोंसे जीविका चलाने लगेंगे ॥ १३ ॥ चारों वर्णोंके लोग शूद्रोंके समान हो जायँगे। गौएँ बकरियोंकी तरह छोटी-छोटी और कम दूध देनेवाली हो जायँगी। वानप्रस्थी और संन्यासी आदि विरक्त आश्रमवाले भी घर-गृहस्थी जुटाकर गृहस्थोंका-सा व्यापार करने लगेंगे। जिनसे वैवाहिक सम्बन्ध है, उन्हींको अपना सम्बन्धी माना जायगा ॥ १४ ॥ धान, जौ, गेहूँ आदि धान्योंके पौधे छोटे-छोटे होने लगेंगे। वृक्षोंमें अधिकांश शमीके समान छोटे और कँटीले वृक्ष ही रह जायँगे। बादलोंमें बिजली तो बहुत चमकेगी, परन्तु वर्षा कम होगी। गृहस्थोंके घर अतिथि-सत्कार या वेदध्वनिसे रहित होनेके कारण अथवा जनसंख्या घट जानेके कारण सूने- सूने हो जायँगे ॥ १५ ॥ परीक्षित्‌ ! अधिक क्या कहें—कलियुगका अन्त होते-होते मनुष्योंका स्वभाव गधों-जैसा दु:सह बन जायगा, लोग प्राय: गृहस्थीका भार ढोनेवाले और विषयी हो जायँगे। ऐसी स्थितिमें धर्मकी रक्षा करनेके लिये सत्त्वगुण स्वीकार करके स्वयं भगवान्‌ अवतार ग्रहण करेंगे ॥ १६ ॥

प्रिय परीक्षित्‌ ! सर्वव्यापक भगवान्‌ विष्णु सर्वशक्तिमान् हैं। वे सर्वस्वरूप होनेपर भी चराचर जगत् के सच्चे शिक्षक—सद्गुरु हैं। वे साधु—सज्जन पुरुषोंके धर्मकी रक्षाके लिये, उनके कर्मका बन्धन काटकर उन्हें जन्म-मृत्युके चक्रसे छुड़ानेके लिये अवतार ग्रहण करते हैं ॥ १७ ॥ उन दिनों शम्भल-ग्राममें विष्णुयश नामके एक श्रेष्ठ ब्राह्मण होंगे। उनका हृदय बड़ा उदार एवं भगवद्भक्तिसे पूर्ण होगा। उन्हींके घर कल्किभगवान्‌ अवतार ग्रहण करेंगे ॥ १८ ॥ श्रीभगवान्‌ ही अष्टसिद्धियोंके और समस्त सद्गुणोंके एकमात्र आश्रय हैं। समस्त चराचर जगत्के वे ही रक्षक और स्वामी हैं। वे देवदत्त नामक शीघ्रगामी घोड़ेपर सवार होकर दुष्टोंको तलवारके घाट उतारकर ठीक करेंगे ॥ १९ ॥ उनके रोम-रोमसे अतुलनीय तेजकी किरणें छिटकती होंगी। वे अपने शीघ्रगामी घोड़े से पृथ्वीपर सर्वत्र विचरण करेंगे और राजाके वेषमें छिपकर रहनेवाले कोटि-कोटि डाकुओंका संहार करेंगे ॥ २० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (द्वादश स्कन्धदूसरा अध्याय) कोड-1536   



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