।। श्रीराधाकृष्णाभ्याम् नम: ।।
शिव और आसुरि को गोपीरूप से
रासमण्डल में श्रीकृष्ण का दर्शन
(पोस्ट
02)
नारद जी कहते हैं --मिथिलेश्वर ! कुछ
गोपाङ्गनाएँ पुरुषवेष धारण- कर, मुकुट और
कुण्डलों से मण्डित हो, स्वयं नायक बन जातीं और श्रीकृष्ण के
सामने उन्हीं की तरह नृत्य करने लगती थीं। जिनकी मुख- कान्ति शत-शत चन्द्रमाओं- को
तिरस्कृत करती थी, ऐसी गोपसुन्दरियाँ श्रीराधा का वेष धारण
करके श्रीराधा तथा उनके प्राणवल्लभ को आनन्दित करती हुई उनके यश गाती थीं। कुछ
व्रजाङ्गनाएँ स्तम्भ, स्वेद आदि सात्त्विक भावोंसे युक्त,
प्रेम-विह्वल एवं परमानन्द में निमग्न हो, योगिजनों
की भाँति समाधिस्थ होकर भूमिपर बैठ जाती थीं। कोई लताओं में, वृक्षों में, भूतल में, विभिन्न
दिशाओं में तथा अपने-आप में भी भगवान् श्रीपति का दर्शन करती हुई मौनभाव धारण कर
लेती थीं। इस प्रकार रासमण्डल में सर्वेश्वर, भक्तवत्सल
गोविन्दकी शरण ले, वे सब गोप- सुन्दरियाँ पूर्णमनोरथ हो
गयीं। महामते राजन् ! वहाँ गोपियोंको भगवान् का जो कृपाप्रसाद प्राप्त हुआ,
वह ज्ञानियोंको भी नहीं मिलता, फिर कर्मियोंको
तो मिल ही कैसे सकता है ? ॥
महामते ! इस प्रकार राधावल्लभ प्रभु
श्यामसुन्दर श्रीकृष्णचन्द्र के रास में जो एक विचित्र घटना हुई,
उसे सुनो। श्रीकृष्ण के प्रिय भक्त एवं महातपस्वी एक मुनि थे,
जिनका नाम 'आसुरि’ था।
वे नारदगिरिपर श्रीहरिके ध्यान में तत्पर हो तपस्या करते थे । हृदय- कमलमें
ज्योतिर्मण्डलके भीतर राधासहित मनोहर- मूर्ति श्यामसुन्दर श्रीकृष्णका वे चिन्तन
किया करते थे । एक समय रात में जब मुनि ध्यान करने लगे, तब
श्रीकृष्ण उनके ध्यान में नहीं आये। उन्होंने बारंबार ध्यान लगाया, किंतु सफलता नहीं मिली। इससे वे महामुनि खिन्न हो गये। फिर वे मुनि ध्यान से
उठकर श्रीकृष्णदर्शन की लालसा से बदरीखण्डमण्डित नारायणाश्रम को गये; किंतु वहाँ उन मुनीश्वर को नर-नारायण के दर्शन नहीं हुए। तब अत्यन्त
विस्मित हो, वे ब्राह्मण देवता लोकालोक पर्वतपर गये; किंतु वहाँ सहस्र सिरवाले अनन्तदेव का भी उन्हें दर्शन नहीं हुआ।
तब उन्होंने वहाँके पार्षदोंसे पूछा- 'भगवान् यहाँ से कहाँ गये हैं ?' उन्होंने उत्तर
दिया- 'हम नहीं जानते।' उनके इस प्रकार
उत्तर देनेपर उस समय मुनि के मन में बड़ा खेद हुआ। फिर वे क्षीरसागर से सुशोभित
श्वेतद्वीप में गये; किंतु वहाँ भी शेषशय्यापर श्रीहरि का
दर्शन उन्हें नहीं हुआ। तब मुनि का चित्त और भी खिन्न हो गया । उनका मुख प्रेम से
पुलकित दिखायी देता था । उन्होंने पार्षदों से पूछा - 'भगवान्
यहाँ से कहाँ चले गये ?' पुनः वही उत्तर मिला- 'हम लोग नहीं जानते।' उनके यों कहनेपर मुनि भारी
चिन्ता में पड़ गये और सोचने लगे- 'क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? कैसे श्रीहरि का दर्शन हो ?' ।।
यों कहते हुए मन के समान गतिशील आसुरि
मुनि वैकुण्ठधाम में गये; किंतु वहाँ भी
लक्ष्मी के साथ निवास करनेवाले भगवान् नारायण का दर्शन उन्हें नहीं हुआ। नरेश्वर !
वहाँके भक्तोंमें भी आसुरि मुनि ने भगवान् को नहीं देखा। तब वे योगीन्द्र
मुनीश्वर गोलोकमें गये; परंतु वहाँ के वृन्दावनीय निकुञ्ज में
भी परात्पर श्रीकृष्णका दर्शन उन्हें नहीं हुआ । तब मुनि का चित्त खिन्न हो गया और
वे श्रीकृष्ण-विरह से अत्यन्त व्याकुल हो गये। वहाँ उन्होंने पार्षदों से पूछा- 'भगवान् यहाँसे कहाँ गये हैं ?' तब वहाँ रहनेवाले
पार्षद गोपोंने उनसे कहा - 'वामनावतार के ब्रह्माण्ड में,
जहाँ कभी पृश्निगर्भ अवतार हुआ था, वहाँ
साक्षात् भगवान् पधारे हैं ।' उनके यों कहने पर महामुनि
आसुरि वहाँ से उस ब्रह्माण्डमें आये ।
[वहां भी] श्रीहरि का दर्शन न होने से
तीव्र गति से चलते हुए मुनि कैलास पर्वत पर गये । वहाँ महादेव जी श्रीकृष्ण के
ध्यान में तत्पर होकर बैठे थे । उन्हें नमस्कार करके रात्रि में खिन्न- चित्त हुए
महामुनि ने पूछा ।।
आसुरि बोले- भगवन् ! मैंने सारा
ब्रह्माण्ड इधर-उधर छान डाला, भगवद्दर्शन की
इच्छा से वैकुण्ठ से लेकर गोलोक तक का चक्कर लगा आया, किंतु
कहीं भी देवाधिदेव का दर्शन मुझे नहीं हुआ। सर्वज्ञशिरोमणे ! बताइये, इस समय भगवान् कहाँ हैं ? ॥
श्रीमहादेवजी बोले- आसुरे ! तुम धन्य
हो । ब्रह्मन् ! तुम श्रीकृष्णके निष्काम भक्त हो । महामुने ! मैं जानता हूँ,
तुमने श्रीकृष्णदर्शन की लालसा से महान् क्लेश उठाया है। क्षीरसागर में
रहने वाले हंसमुनि बड़े कष्टमें पड़ गये थे। उन्हें उस क्लेश से मुक्त करने के
लिये जो बड़ी उतावली के साथ वहाँ गये थे, वे ही भगवान्
रसिकशेखर साक्षात् श्रीकृष्ण अभी-अभी वृन्दावन में आकर सखियोंके साथ रास-क्रीडा कर
रहे हैं। मुने ! आज उन देवेश्वर ने अपनी माया से छः महीने के बराबर बड़ी रात बनायी
है। मैं उसी रासोत्सव का दर्शन करने के लिये वहाँ जाऊँगा। तुम भी शीघ्र ही चलो,
जिससे तुम्हारा मनोरथ पूर्ण हो जाय ॥ २२ – ४९ ॥
.....शेष आगामी पोस्ट में
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “श्रीगर्ग-संहिता” पुस्तककोड 2260 (वृन्दावन खण्ड-अध्याय 24)