मंगलवार, 7 मार्च 2023

एकश्लोकी रामायण

आदौ रामतपोवनादिगमनं हत्वा मृगं कांचनं
वैदेहीहरणं जटायुमरणं सुग्रीवसंभाषणम् ।
वालीनिर्दलनं समुद्रतरणं लंकापुरीदाहनं
पश्चाद्रावणकुंभकर्णहननमेतद्धि रामायणम् ॥


सोमवार, 6 मार्च 2023

रावणकृत शिव तांडव स्तोत्र

|| ॐ नम: शिवाय ||

जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले
गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम्‌।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं
चकार चंडतांडवं तनोतु नः शिवः शिवम् ॥1॥
जटाकटाहसंभ्रमभ्रमन्निलिंपनिर्झरी ।
विलोलवीचिवल्लरी विराजमानमूर्द्धनि ।
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके
किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम ॥2॥
धरा धरेंद्रनंदिनीविलासबंधुवंधुर-
स्फुरदृगंतसंतति प्रमोदमानमानसे ।
कृपाकटाक्षधारणी निरुद्धदुर्धरापदि
क्वचिद्दिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥3॥
जटा भुजंगपिंगलस्फुरत्फणामणिप्रभा-
कदंबकुंकुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे ।
मदांध सिंधुरस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे
मनो विनोदमद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि ॥4॥
सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर-
प्रसूनधूलिधोरणीविधूसरांघ्रिपीठभूः ।
भुजंगराजमालया निबद्धजाटजूटकः
श्रियै चिराय जायतां चकोर बंधुशेखरः ॥5॥
ललाटचत्वरज्वलद्धनंजयस्फुलिङ्गभा-
निपीतपंचसायकं नमन्निलिंपनायकम्‌ ।
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं
महाकपालि संपदे शिरोजटालमस्तु नः ॥6॥
करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल-
द्धनंजयाहुतीकृतप्रचंडपंचसायके ।
धराधरेंद्र नंदिनी कुचाग्रचित्रपत्रक-
प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम ॥7॥
नवीनमेघमंडलीनिरुद्धदुर्धरस्फुर-
त्कुहूनिशीथिनीतमः प्रबंधबद्धकंधरः ।
निलिम्पनिर्झरि धरस्तनोतु कृत्ति सिंधुरः
कलानिधानबंधुरः श्रियं जगद्धुरंधरः ॥8॥
प्रफुल्लनीलपञ्कजप्रपंचकालिमप्रभा-
वलम्बिकंठकंदलीरुचिप्रबद्धकंधरम्‌
स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥9॥
अखर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमञ्जरी-
रसप्रवाहमाधुरी विजृम्भणामधुव्रतम्‌ ।
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं
गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे ॥10॥
जयत्वदभ्रविभ्रम भ्रमद्भुजङ्गमश्वस-
द्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट्-
धिमिद्धिमिद्धिमिद्ध्वनन्मृदंगतुंगमंगल-
ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्ड ताण्डवः शिवः ॥11॥
दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंगमौक्तिकस्रजो-
र्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः ।
तृणारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः
समप्रवृत्तिक: कदा सदाशिवं भजाम्यहम् ॥12॥
कदा निलिंपनिर्झरी निकुञ्जकोटरे वसन्‌
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमञ्जलिं वहन्‌ ।
विलोललोललोचनो ललामभाललग्नकः
शिवेति मंत्रमुच्चरन्‌ कदा सुखी भवाम्यहम्‌ ॥13॥
इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तमं स्तवं
पठन् स्मरन्‌ ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्‌ ।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं
विमोहनं हि देहिनां सुशंकरस्य चिंतनम ॥14॥
पूजाऽवसानसमये दशवक्त्रगीतं
यः शम्भुपूजनमिदं पठति प्रदोषे ।
तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरङ्गयुक्तां
लक्ष्मीं सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥15॥

-------गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “शिवस्तोत्ररत्नाकर” (कोड 1417) से


रविवार, 5 मार्च 2023

☼ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम: ☼


जैसे कठपुतली, नचानेवाले की इच्छा के अनुसार ही नाचती है, वैसे ही यह सारा संसार ईश्वर के अधीन है ॥ 

“ईशस्य हि वशे लोको योषा दारुमयी यथा ॥“

...........(श्रीमद्भागवत १.६.७)


शनिवार, 4 मार्च 2023

दस नामापराध (पोस्ट ०७)

।। ॐ श्री परमात्मने नम: ।।

‘धर्मान्तरैः साम्यम्’ (१०) भगवान्‌ के नाम की अन्य धर्मों के साथ तुलना करना अर्थात् गंगास्नान करो, चाहे नाम-जप करो । नाम-जप करो, चाहे गोदान कर दो । सब बराबर है । ऐसे किसीके बराबर नामकी बात कह दो तो नामका अपराध हो जायगा । नाम महाराज तो अकेला ही है । इसके समान दूसरा कोई साधन, धर्म है ही नहीं । भगवान् शंकरका नाम लो चाहे भगवान् विष्णुका नाम लो । ये नाम दूसरोंके समान नाम नहीं हैं । नामकी महिमा सबमें अधिक है, सबसे श्रेष्ठ है ।

इस प्रकार इन दस अपराधोंसे रहित होकर नाम लिया जाय तो वह बड़ी जल्दी उन्नति करनेवाला होता है । अगर नाम जपनेवालेसे इन अपराधोमेंसे कभी कोई अपराध बन भी जाय तो उसके लिये दूसरा प्रायश्चित्त करनेकी जरूरत नहीं है उसको तो ज्यादा नाम-जप ही करना चाहिये; क्योंकि नामापराध को दूर करनेवाला दूसरा प्रायश्चित्त है ही नहीं ।
नाम महाराजकी तो बहुत विलक्षण, अलौकिक महिमा है, जिस महिमाको स्वयं भगवान् भी कह नहीं सकते । इस वास्ते जो केवल नामनिष्ठ है; जो रात-दिन नाम-जपके ही परायण है, जिनका सम्पूर्ण जीवन नाम-जपमें ही लगा है;नाम महाराजके प्रभावसे उनके लिये इन अपराधों में से कोई भी अपराध लागू नहीं होता । ऐसे बहुत-से सन्त हुए हैं, जो शास्त्रों, पुराणों, स्मृतियों आदिको नहीं जानते थे, परन्तु नाम महाराजके प्रभावसे उन्होंने वेदों, पुराणों आदि के सिद्धान्त अपनी साधारण ग्रामीण भाषामें लिख लिये हैं । इस वास्ते सच्चे हृदयसे नाम में लग जाओ भाई; क्योंकि यह कलियुगका मौका है । बड़ा सुन्दर अवसर मिल गया है ।

नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “भगवन्नाम” पुस्तकसे


शुक्रवार, 3 मार्च 2023

दस नामापराध (पोस्ट ०६)

|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||


‘नामास्तीति निषिद्धवृत्तिविहितत्यागौ’‒--
(८) निषिद्ध आचरण करना और (९) विहित कर्मोंका त्याग कर देना । 
जैसे, हम नाम-जप करते हैं तो झूठ-कपट कर लिया,दूसरों को धोखा दे दिया, चोरी कर ली, दूसरों का हक मार लिया तो इसमें क्या पाप लगेगा । अगर लग भी जाय तो नामके सामने सब खत्म हो जायगा; क्योंकि नाममें पापोंके नाश करनेकी अपार शक्ति है‒इस भावसे नामके सहारे निषिद्ध आचरण करना नामापराध है ।

भगवान्‌ का नाम लेते हैं । अब संध्या की क्या जरूरत है ? गायत्री की क्या जरूरत है ? श्राद्ध की क्या जरूरत है ? तर्पण की क्या जरूरत है ? क्या इस बात की जरूरत है ? इस प्रकार नामके भरोसे शास्त्र-विधि का त्याग करना भी नाम महाराज का अपराध है । यह नहीं छोड़ना चाहिये । अरे भाई ! यह तो कर देना चाहिये । शास्त्रने आज्ञा दी है । गृहस्थोंके लिये जो बताया है, वह करना चाहिये ।

नाम्नोऽस्ति यावती शक्तिः पापनिर्हरणे हरेः ।
तावत् कर्तुं न शक्नोति  पातकं पातकी जनः ॥

भगवान्‌ के नाम में इतने पापों के नाश करने की शक्ति है कि उतने पाप पापी कर नहीं सकता । लोग कहते हैं कि अभी पाप कर लो, ठगी-धोखेबाजी कर लो, पीछे राम-राम कर लेंगे तो नाम उसके पापों का नाश नहीं करेगा । क्योंकि उसने तो भगवन्नाम को पापों की वृद्धिमें हेतु बनाया है । भगवान्‌ के नाम के भरोसे पाप किये हैं, उसको नाम कैसे दूर करेगा ?

इस विषय में हमने एक कहानी सुनी है । एक कोई सज्जन थे । उनको अंग्रेजों से एक अधिकार मिल गया था कि जिस किसीको फाँसी होती हो, अगर वहाँ जाकर खड़ा रह जाय तो उसके सामने फाँसी नहीं दी जायगी‒ऐसी उसको छूट दी हुई थी । उसकी लड़की जिसको ब्याही थी, वह दामाद उद्दण्ड हो गया । चोरी भी करे, डाका भी डाले,अन्याय भी करे । उसकी स्त्री ने मना किया तो वह कहता है क्या बात है ? तेरा बाप, अपनी बेटी को विधवा होने देगा क्या ? उसका जवाँई हूँ ।
उस लड़की ने अपने पिताजी से कह दिया‒ ‘पिताजी ! आपके जवाँई तो आजकल उद्दण्ड हो गये हैं ? कहना मानते हैं नहीं । ससुर ने बुलाकर कहा कि ऐसा मत करो, तो कहने लगा‒‘जब आप हमारे ससुर हैं, तो मेरेको किस बातका भय है ।’ ऐसा होते-होते एक बार उसका जवाँई किसी अपराध में पकड़ा गया और उसे फाँसीकी सजा हो गयी । जब लडकी को पता लगा तो उसने आकर कहा‒पिताजी ! मैं विधवा हो जाऊँगी । पिताजी कहते हैं‒बेटी ! तू आज नहीं तो कल, एक दिन विधवा हो जायगी । उसकी रक्षा मैं कहाँतक करूँ । मेरेको अधिकार मिला है, वह दुरुपयोग करनेके लिये नहीं है । बेटी के मोह में आकर पाप का अनुमोदन करूँ, पाप की वृद्धि करूँ । यह बात नहीं होगी । वे नहीं गये ।

ऐसे ही नाम महाराजके भरोसे कोई पाप करेगा तो नाम-महाराज वहाँ नहीं जायँगे । उसका वज्रलेप पाप होगा,बड़ा भयंकर पाप होगा ।

नारायण !     नारायण !!     

 (शेष आगामी पोस्ट में)
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “भगवन्नाम” पुस्तकसे


अधरं मधुरं वदनं मधुरं........

मधुराष्टकम्  


अधरं मधुरं वदनं मधुरं नयनं मधुरं हसितं मधुरम् | 
हृदयं मधुरं, गमनं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ||1||
वचनं मधुरं चरितं मधुरं वसनं मधुरं वलितं मधुरम्  |
चलितं मधुरं भ्रमितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरं ||2||
वेणुर्मधुरो रेणुर्मधुर: पाणिर्मधुर: पादौ मधुरौ |
नृत्यं मधुरं सख्यं मधुरं  मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ||3||
गीतं मधुरं पीतं मधुरं भुक्तं मधुरं सुप्तं मधुरम् |
रूपं मधुरं तिलकं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ||4||
करणं मधुरं तरणं मधुरं हरणं मधुरं रमणं मधुरम् |
वमितं मधुरं शमितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ||5||
गुंजा मधुरा माला मधुरा यमुना मधुरा वीची मधुरा |
सलिलं मधुरं कमलं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ||6||
गोपी मधुरा लीला मधुरा  युक्तं मधुरं मुक्तं मधुरं 
दृष्टं मधुरं शिष्टं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ||7||
गोपा मधुरा गावो मधुरा यष्टिर्मधुरा सृष्टिर्मधुरा  |
दलितं मधुरं फलितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ||8||

(श्री मधुराधिपति का सभी कुछ मधुर है | उनके अधर मधुर हैं,मुख मधुर है,नेत्र मधुर हैं,हास्य मधुर है,हृदय मधुर है और गति भी अतिमधुर है || उनके वचन मधुर हैं,चरित्र मधुर हैं,वस्त्र मधुर हैं, अंगभंगी मधुर है, चाल मधुर है और भ्रमण भी अतिमधुर है; श्री मधुराधिपति का सभी कुछ मधुर है|| उनका गान मधुर है, पान मधुर है,भोजन मधुर है,शयन मधुर है,रूप मधुर है और तिलक भी अतिमधुर है; श्री मधुराधिपति का सभी कुछ मधुर है|| उनका कार्य मधुर है,तैरना मधुर है,हरण मधुर है,रमण मधुर है,उद्गार मधुर है  और शांति भी अति मधुर है; श्री मधुराधिपति का सभी कुछ मधुर है|| उनकी गुंजा मधुर है,माला मधुर है, यमुना मधुर है, उसकी तरंगें मधुर हैं,उसका जल मधुर है और कमल भी अतिमधुर है; श्री मधुराधिपति का सभी कुछ मधुर है|| गोपियाँ मधुर हैं,उनकी लीला मधुर है,उनका संयोग मधुर है,वियोग मधुर है, निरीक्षण मधुर है और शिष्टाचार भी मधुर है; श्री मधुराधिपति का सभी कुछ मधुर है|| गोप मधुर हैं, गौएँ मधुर हैं,लकुटी मधुर है,रचना मधुर है.दलन मधुर है और उसका फल भी अतिमधुर है; श्री मधुराधिपति का सभी कुछ मधुर है||)

--गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “स्तोत्र रत्नावली” पुस्तक से (पुस्तक कोड  1629)


गुरुवार, 2 मार्च 2023

दस नामापराध (पोस्ट ०५)

|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||

‘नाम्न्यर्थवादभ्रमः’‒(७) नाममें अर्थवादका भ्रम है । यह महिमा बढ़ा-चढ़ाकर कही है; इतनी महिमा थोडी है नामकी ! नाममात्रसे कल्याण कैसे हो जायगा ? ऐसा भ्रम न करें; क्योंकि भगवान्‌ का नाम लेनेसे कल्याण हो जायगा । नाममें खुद भगवान् विराजमान हैं । मनुष्य नींद लेता है तो नाम लेते ही सुबोध होता है अर्थात् किसीको नींद आयी हुई है तो उसका नाम लेकर पुकारो तो वह नींदमें सुन लेगा । नींदमें सम्पूर्ण इन्द्रियाँ मनमें, मन बुद्धिमें और बुद्धि अविद्यामें लीन हुई रहती है‒ऐसी जगह भी नाममें विलक्षण शक्ति है । ‘शब्दशक्तेरचिन्त्यत्वात्’ शब्दमें अपार, असीम, अचिन्त्य शक्ति मानी है । नींदमें सोता हुआ जग जाय । अनादि कालसे सोया हुआ जीव सन्त-महात्माओंके वचनोंसे जग जाता है,उसको होश आ जाता है । जिस बेहोशीमें अनन्त जन्म बीत गये । लाखों-करोड़ों वर्ष बीत गये । ऐसे नींदमें सोता हुआ भी, शब्द में इतनी अलौकिक विलक्षण शक्ति है, जिससे वह जाग्रत् हो जाय, अविद्या मिट जाय, अज्ञान मिट जाय । ऐसे उपदेशसे विचित्र हो जाय आदमी ।

यह तो देखनेमें आता है । सत्संग सुननेसे आदमी में परिवर्तन आता है । उसके भावोंमें महान् परिवर्तन हो जाता है । पहले उसमें क्या-क्या इच्छाएँ थीं, उसकी क्या दशा थी,किधर वृत्ति थी, क्या काम करता था ? और अब क्या करता है ? इसका पता लग जायगा । इस वास्ते शब्दमें अचिन्त्य शक्ति है ।

नाम में अर्थवादकी कल्पना करना कि नामकी महिमा झूठी गा दी है, लोगोंकी रुचि करनेके लिये यह धोखा दिया है । थोड़ा ठंडे दिमागसे सोचो कि सन्त-महात्मा भी धोखा देंगे तो तुम्हारे कल्याणकी, हितकी बात कौन कहेगा ?
बड़े अच्छे-अच्छे महापुरुष हुए हैं और उन्होंने कहा है‒‘भैया ! भगवान्‌का नाम लो ।’ असम्भव सम्भव हो जाय । लोगोंने ऐसा करके देखा है । असम्भव बात भी सम्भव हो जाती है । जो नहीं होनेवाली है वह भी हो जाती है । जिनके ऐसी बीती है उम्रमें, उन लोगोंने कहा है । ऐसी असम्भव बात सम्भव हो जाय, न होनेवाली हो जाय । इसमें क्या आश्चर्य है ? क्योंकि ‘कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुं समर्थ ईश्वरः’ ईश्वर करनेमें, न करनेमें, अन्यथा करनेमें समर्थ होता है । वह ईश्वर वशमें हो जाय अर्थात् भगवान् भगवन्नाम लेनेवालेके वशमें हो जाते हैं ।

नाम महाराज से क्या नहीं हो सकता ? ऐसा कुछ है ही नहीं, जो न हो सके अर्थात् सब कुछ हो सकता है । भगवान्‌ का नाम लेनेसे ऐसे लाभ होता है बड़ा भारी । नामसे बड़े-बड़े असाध्य रोग मिट गये हैं, बड़े-बड़े उपद्रव मिट गये हैं, भूत-प्रेत-पिशाच आदिके उपद्रव मिट गये हैं । भगवान्‌ का नाम लेनेवाले सन्तोंके दर्शनमात्रसे अनेक प्रेतोंका उद्धार हो गया । भगवान्‌का नाम लेनेवाले पुरुषोंके संगसे, उनकी कृपासे अनेक जीवोंका उद्धार हो गया है ।

सज्जनो ! आप विचार करें तो यह बात प्रत्यक्ष दीखेगी कि जिन देशोंमें सन्त-महात्मा घूमते हैं, जिन गाँवोंमें, जिन प्रान्तोंमें सन्त रहते हैं और जिन गाँवोंमें सन्तों ने भगवान्‌ के नामका प्रचार किया है, वे गाँव आज विलक्षण हैं दूसरे गाँवोंसे । जिन गाँवोंमें सौ-दो-सौ वर्षोंसे कोई सन्त नहीं गया है, वे गाँव ऐसे ही पड़े हैं अर्थात् वहांके लोगोंकी भूत-प्रेत-जैसी दशा है । भगवान्‌का नाम लेनेवाले पुरुष जहाँ घूमे हैं,पवित्रता आ गयी, विलक्षणता आ गयी, अलौकिकता आ गयी । वे गाँव सुधर गये, घर सुधर गये, वहाँके व्यक्ति सुधर गये,उनको होश आ गया । वे स्वयं भी कहते हैं, हम मामूली थे पर भगवान्‌ का नाम मिला, सन्त मिल गये तो हम मालामाल हो गये ।

१९९३ वि॰ सं॰ में हमलोग तीर्थयात्रामें गये थे तो काठियावाड़ में एक भाई मिला । उसने हम को पाँच-सात वर्षोंकी उम्र बतायी । अरे भाई ! तुम इतने बड़े दीखते हो, तो क्या बात है ? उस भाईने कहा‒मैं सात वर्षोंसे ही ‘कल्याण’ मासिक पत्रिका का ग्राहक हूँ । जबसे इधर रुचि हुई, तबसे ही मैं अपनेको मनुष्य मानता हूँ । पहले की उम्र को मैं मनुष्य मानता ही नहीं, मनुष्यके लायक काम नहीं किया । उद्दण्ड, उच्छृंखल होते रहे । तो बोलो, कितना विलक्षण लाभ होता है ? ‘तीर्थयात्रा-ट्रेन गीताप्रेस की है’‒ऐसा सुनते तो लोग परिक्रमा करते । जहाँ गाड़ी खड़ी रहती, वहाँके लोग कीर्तन करते और स्टेशनों-स्टेशनों पर कीर्तन होता कि आज तीर्थयात्राकी गाड़ी आनेवाली है ।
यह महिमा किस बातकी है ? यह सब भगवान्‌ को,भगवान्‌ के नामको लेकर है । आज भी हम गोस्वामीजीकी महिमा गाते हैं, रामायणजी की महिमा गाते हैं, तो क्या है ? भगवान्‌ का चरित्र है, भगवान्‌ का नाम है । गोस्वामीजी महाराज भी कहते हैं‒‘एहि महँ रघुयति नाम उदारा ।’ इसमें भगवान्‌ का नाम है जो कि वेद, पुराणका सार है । इस कारण रामायणकी इतनी महिमा है । भगवान्‌की महिमा,भगवान्‌ के चरित्र, भगवान्‌ के गुण होनेसे रामायणकी महिमा है । जिसका भगवान्‌ से सम्बन्ध जुड़ जाता है, वह विलक्षण हो जाता है । गंगाजी सबसे श्रेष्ठ क्यों हैं ? भगवान्‌ के चरणोंका जल है । भगवान्‌ के साथ सम्बन्ध है । इस वास्ते भगवान्‌ के नामकी महिमामें अर्थवादकी कल्पना करना गलत है ।

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में)
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “भगवन्नाम” पुस्तकसे


बुधवार, 1 मार्च 2023

दस नामापराध (पोस्ट ०४)

|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||

(६) जब हम नाम-जप करते हैं तो गुरु-सेवा करने की क्या आवश्यकता है ? गुरुकी आज्ञापालन करने की क्या जरूरत है ? नाम-जप इतना कमजोर है क्या ? नाम-जप को गुरु-सेवा आदिसे बल मिलता है क्या ? नाम-जप उनके सहारे है क्या ? नाम-जपमें इतनी सामर्थ्य नहीं है जो कि गुरुकी सेवा करनी पड़े ? सहारा लेना पड़े ? इस प्रकार गुरुमें अश्रद्धा करना नामापराध है ।

वेदोंमें अश्रद्धा करनेवालेपर भी नाम महाराज प्रसन्न नहीं होते । वे तो श्रुति हैं, सबकी माँ-बाप हैं । सबको रास्ता बतानेवाली हैं । इस वास्ते वेदों में अश्रद्धा न करे । ऐसे शास्त्रों में-पुराण, शास्त्र, इतिहास में भी अश्रद्धा न करे,तिरस्कार-अपमान न करे । सबका आदर करे । शास्त्रों में,पुराणों में, वेदों में, सन्तों की वाणी में, भगवान्‌ के नाम की महिमा भरी पड़ी है । शास्त्रों, सन्तों आदि ने जो भगवन्नामकी महिमा गायी है, यदि वह इकट्ठी की जाय तो महाभारत से बड़ा पोथा बन जाय । इतनी महिमा गायी है फिर भी इसका अन्त नहीं है । फिर भी उनकी निन्दा करे और नाम से लाभ लेना चाहे तो कैसे होगा ?

जिन गुरु महाराज से हमें नाम मिला है, यदि उनका निरादर करेंगे, तिरस्कार करेंगे तो नाम महाराज रुष्ट हो जायेंगे । कोई कहते हैं कि हमने गुरु किये पर वे ठीक नहीं निकले । ऐसी बात भी हो जाय तो मैं एक बात कहता हूँ कि आप उनको छोड़ दो भले ही, परन्तु निन्दा मत करो ।

गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः ।
उत्पथप्रतिपन्नस्य परित्यागो विधीयते ॥

ऐसा विधान आता है । इस वास्ते गुरु को छोड़ दो और नाम-जप करो । भगवान्‌ के नाम का जप तो करो, पर गुरु की निन्दा मत करो । जिससे कुछ भी पाया है पारमार्थिक बातें ली हैं, जिससे लाभ हुआ है, भगवान्‌ की तरफ रुचि हुई है,चेत हुआ है, होश हुआ है, उसकी निन्दा मत करो ।

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में)
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “भगवन्नाम” पुस्तकसे


दस नामापराध (पोस्ट ०३)

|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||


‘श्रीशेशयोर्भेदधी’‒(३) भगवान् विष्णु के भक्त हैं तो शंकर की निन्दा न करें । दोनों में भेद-बुद्धि न करें । भगवान् शंकर और विष्णु दो नहीं हैं‒

उभयोः प्रकृतिस्त्वेका प्रत्ययभेदेन भिन्नवद्‌भाति ।
कलयति कश्चिन्मूढो हरिहरभेदं विना शास्त्रम् ॥

भगवान् विष्णु और शंकर इन दोनों का स्वभाव एक है । परन्तु भक्तों के भावों के भेद से भिन्न की तरह दीखते हैं । इस वास्ते कोई मूढ़ दोनों का भेद करता है तो वह शास्त्र नहीं जानता । दूसरा अर्थ होता है ‘हृञ् हरणे’ धातु तो एक है पर प्रत्यय-भेद है । हरि और हर ऐसे प्रत्यय-भेद से भिन्न की तरह दीखते हैं । ‘हरि-हर’ के भेद को लेकर कलह करता है वह ‘विना शास्त्रम्’ पढ़ा लिखा नहीं है और ‘विनाशाय अस्त्रम्’‒अपना नाश करनेका अस्त्र है ।

भगवान् शंकर और विष्णु इन दोनों का आपस में बड़ा प्रेम है । गुणों के कारण से देखा जाय तो भगवान् विष्णु का सफेद रूप होना चाहिये और भगवान् शंकर का काला रूप होना चाहिये; परन्तु भगवान् विष्णु का श्याम वर्ण है और भगवान् शंकर का गौर वर्ण है, बात क्या है । भगवान् शंकर ध्यान करते हैं भगवान् विष्णु का और भगवान् विष्णु ध्यान करते हैं भगवान् शंकर का । ध्यान करते हुए दोनों का रंग बदल गया । विष्णु तो श्यामरूप हो गये और शंकर गौर वर्णवाले हो गये‒‘कर्पूरगौरं करुणावतारम् ।’

अपने ललाटपर भगवान् राम के धनुषका तिलक करते हैं शंकर और शंकर के त्रिशूल का तिलक करते हैं रामजी । ये दोनों आपस में एक-एक के इष्ट हैं । इस वास्ते इनमें भेद-बुद्धि करना, तिरस्कार करना, अपमान करना बड़ी गलती है । इससे भगवन्नाम महाराज रुष्ट हो जायँगे । इस वास्ते भाई,भगवान्‌ के नाम से लाभ लेना चाहते हो तो भगवान् विष्णु में और शंकर में भेद मत करो ।

कई लोग बड़ी-बड़ी भेद-बुद्धि करते हैं । जो भगवान् कृष्ण के भक्त हैं, भगवान् विष्णु के भक्त हैं, वे कहते हैं कि हम शंकर का दर्शन ही नहीं करेंगे । यह गलती की बात है । अपने तो दोनों का आदर करना है । दोनों एक ही हैं । ये दो रूप से प्रकट होते हैं‒‘सेवक स्वामि सखा सिय पी के ।’

‘अश्रद्धा श्रुतिशास्त्रदैशिकगिराम्’‒वेद, शास्त्र और सन्त-महापुरुषोंके वचनोंमें अश्रद्धा करना अपराध है ।

(४) जब हम नाम-जप करते हैं तो हमारे लिये वेदों के पठन-पाठन की क्या आवश्यकता है ? वैदिक कर्मों की क्या आवश्यकता है । इस प्रकार वेदों पर अश्रद्धा करना नामापराध है ।

(५) शास्त्रों ने बहुत कुछ कहा है । कोई शास्त्र कुछ कहता है तो कोई कुछ कहता है । उनकी आपस में सम्मति नहीं मिलती । ऐसे शास्त्रों को पढ़ने से क्या फायदा है ? उनको पढ़ना तो नाहक वाद-विवाद में पड़ना है । इस वास्ते नाम-प्रेमी को शास्त्रों का पठन-पाठन नहीं करना चाहिये, इस प्रकार शास्त्रों में अश्रद्धा करना नामापराध है ।

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में)
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “भगवन्नाम” पुस्तकसे


कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने। प्रणत क्लेशनाशाय गोविन्दाय नमो नमः॥


   ।। श्री हरि: ।।

जिनके हृदय में निरन्तर प्रेमरूपिणी भक्ति निवास करती है, वे शुद्धान्त:करण पुरुष स्वप्नमें भी यमराजको नहीं देखते ॥ जिनके हृदयमें भक्ति महारानीका निवास है, उन्हें प्रेत, पिशाच, राक्षस या दैत्य आदि स्पर्श करनेमें भी समर्थ नहीं हो सकते ॥ भगवान्‌ तप, वेदाध्ययन, ज्ञान और कर्म आदि किसी भी साधनसे वशमें नहीं किये जा सकते; वे केवल भक्तिसे ही वशीभूत होते हैं। इसमें श्रीगोपीजन प्रमाण हैं ॥ मनुष्योंका सहस्रों जन्मके पुण्य-प्रतापसे भक्तिमें अनुराग होता है। कलियुगमें केवल भक्ति, केवल भक्ति ही सार है। भक्तिसे तो साक्षात् श्रीकृष्णचन्द्र सामने उपस्थित हो जाते हैं ॥ 

येषां चित्ते वसेद्‌भक्तिः सर्वदा प्रेमरूपिणी ।
नते पश्यन्ति कीनाशं स्वप्नेऽप्यमलमूर्तयः ॥ 
न प्रेतो न पिशाचो वा राक्षसो वासुरोऽपि वा ।
भक्तियुक्तमनस्कानां स्पर्शने न प्रभुर्भवेत् ॥ 
न तपोभिर्न वेदैश्च न ज्ञानेनापि कर्मणा ।
हरिर्हि साध्यते भक्त्या प्रमाणं तत्र गोपिकाः ॥ 
नृणां जन्मसहस्रेण भक्तौ प्रीतिर्हि जायते ।
कलौ भक्तिः कलौ भक्तिः भक्त्या कृष्णः पुरः स्थितः ॥ 

………. (श्रीमद्भागवतमाहात्म्य २|१६-१९)


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

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