तत्त्वप्राप्तिका उपाय
तत्त्वको प्राप्त करनेका सर्वोत्तम उपाय है‒एकमात्र तत्त्वप्राप्तिका ही उद्देश्य बनाना । वास्तवमें उद्देश्य पहले बना है और उस उद्देश्यकी सिद्धिके लिये मनुष्य-शरीर पीछे मिला है । परंतु मनुष्य भोगोंमें आसक्त होकर अपने उस (तत्त्व-प्राप्तिके) उद्देश्यको भूल जाता है । इसलिये उस उद्देश्यको पहचानकर उसकी सिद्धिका दृढ़ निश्रय करना है । उद्देश्यपूर्तिका निश्चय जितना दृढ़ होता है, उतनी ही तेजीसे साधक तत्त्वप्राप्तिकी ओर अग्रसर होता है । उद्देश्यकी दृढ़ताके लिये सबसे पहले साधक बहिःकरण-(इन्द्रियदृष्टि-) को महत्त्व न देकर अन्तःकरण-(बुद्धि अथवा विचारदृष्टि-) को महत्त्व दे । विचारदृष्टिसे दिखायी देगा कि जितने भी शरीरादि सांसारिक पदार्थ हैं, वे सब-के-सब उत्पत्तिसे पहले भी नहीं थे और विनाशके बाद भी नहीं रहेंगे एवं वर्तमानमें भी वे निरन्तर बदल रहे हैं । तात्पर्य यह कि सब पदार्थ आदि और अन्तवाले हैं । जो पदार्थ आदि और अन्तवाला होता है, वह वास्तवमें होता ही नहीं; क्योंकि यह सिद्धान्त है कि जो पदार्थ आदि और अन्तमें नहीं होता, वह वर्तमानमें भी नहीं होता‒‘आदावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा’ (माण्डूक्यकारिका) । इस प्रकार विचार-दृष्टिको महत्त्व देनेसे सत् और असत्, प्रकृति और पुरुषके अलग-अलग ज्ञान-(विवेक-) का अनुभव हो जाता है और साधकमें वास्तविक तत्त्व-(सत्-) को प्राप्त करनेकी उत्कट अभिलाषा जाग्रत् हो जाती है । संसारके सुखको तो क्या, साधनजन्य सात्त्विक सुखका भी आश्रय न लेनेसे परम व्याकुलता जाग्रत् हो जाती है । फलतः साधक संसार-(असत्-) से सर्वथा विमुख हो जाता है और उसे तत्त्वदृष्टि प्राप्त हो जाती है, जिसके प्राप्त होनेसे एकमात्र सत्-तत्त्व‒भगवत्तत्त्वकी सत्ताका अनुभव हो जाता है ।
नारायण ! नारायण !!
(शेष आगामी पोस्ट में )