शुक्रवार, 21 अप्रैल 2023

देवता कौन ?....(पोस्ट 04)


प्रश्न‒भूत, प्रेत, पिशाच आदि को भी देवयोनि क्यों कहा गया है ? जैसे‒‘विद्याधराप्सरोयक्षरक्षोगन्धर्व- किन्नराः । पिशाचो गुह्यकः सिद्धो भूतोऽमी देवयोनयः ॥’ (अमरकोष १ । १ । ११)

उत्तर‒हमलोगों के शरीरों की अपेक्षा उनका शरीर दिव्य होने से उन को भी देव योनि कहा गया है । उनका शरीर वायुतत्त्वप्रधान होता है । जैसे वायु कहीं भी नहीं अटकती,ऐसे ही उनका शरीर कहीं भी नहीं अटकता । उनके शरीर में वायु से भी अधिक विलक्षणता होती है । घर के किवाड़ बंद करने पर वायु तो भीतर नहीं आती, पर भूत-प्रेत भीतर आ सकते हैं । तात्पर्य है कि पृथ्वीतत्त्वप्रधान मनुष्यशरीर की अपेक्षा ही भूत-प्रेत आदि को देवयोनि कहा गया है ।

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “कल्याण-पथ “ पुस्तकसे


गुरुवार, 20 अप्रैल 2023

देवता कौन ?....(पोस्ट 03)


प्रश्न‒जीवों को अधिष्ठातृ देवता कौन बनाता है ?

उत्तर‒भगवान्‌ ने ब्रह्माजी को सृष्टि-रचनाका अधिकार दिया है, अतः ब्रह्माजी के बनाये हुए नियमके अनुसार अधिष्ठातृ देवता स्वतः बनते रहते हैं । जैसे यहाँ किसी को किसी पद पर नियुक्त करते हैं तो उसको उस पद के अनुसार सीमित अधिकार दिया जाता है, ऐसे ही पुण्यों के फलस्वरूप जो जीव अधिष्ठातृ देवता बनते हैं, उनको उस विषयमें सीमित अधिकार मिलता है ।

प्रश्न‒ये अधिष्ठातृ देवता क्या काम करते हैं ?

उत्तर‒ये अपने अधीन वस्तु की रक्षा करते हैं । जैसे,कुएँ का भी अधिष्ठातृ देवता होता है । यदि कुआँ चलाने से पहले उसके अधिष्ठातृ देवता का पूजन किया जाय, उसको प्रणाम किया जाय अथवा उसका नाम लिया जाय तो वह कुएँ की विशेष रक्षा करता है, कुएँ के कारण कोई नुकसान नहीं होने देता । ऐसे ही वृक्ष आदि का भी अधिष्ठातृदेवता होता है । रात्रि में किसी वृक्ष के नीचे रहना पड़े तो उसके अधिष्ठातृ देवता से प्रार्थना करें कि ‘हे वृक्षदेवता ! मैं आपकी शरण में हूँ, आप मेरी रक्षा करें’ तो रात्रिमें रक्षा होती है ।

जंगलमें शौच जाना हो तो वहाँ पर ‘उत्तम भूमि मध्यम काया, उठो देव मैं जंगल आया’‒ऐसा बोलकर शौच जाना चाहिये, नहीं तो वहाँ रहनेवाले देवता तथा भूत-प्रेत कुपित होकर हमारा अनिष्ट कर सकते हैं ।

वर्तमान में अधिष्ठातृदेवताओं का पूजन उठ जाने से जगह-जगह तरह-तरह के उपद्रव हो रहे हैं ।

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “कल्याण-पथ “ पुस्तकसे


बुधवार, 19 अप्रैल 2023

देवता कौन ?....(पोस्ट 02)



देवता तीन तरहके होते हैं‒

(१) आजानदेवता‒जो महासर्ग से महाप्रलय तक (एक कल्पतक) देवलोक में रहते हैं, वे ‘आजानदेवता’ कहलाते हैं । ये देवलोक के बड़े अधिकारी होते हैं । उनके भी दो भेद होते हैं‒

(क) ईश्वरकोटि के देवता‒शिव, शक्ति, गणेश, सूर्य और विष्णु‒यें पाँचों ईश्वर भी हैं और देवता भी । इन पाँचों के अलग-अलग सम्प्रदाय चलते हैं । शिवजी के शैव, शक्तिके शाक्त, गणपतिके गाणपत, सूर्य के सौर और विष्णु के वैष्णव कहलाते हैं । इन पाँचोंमें एक ईश्वर होता है तो अन्य चार देवता होते हैं । वास्तव में ये पाँचों ईश्वरकोटि के ही हैं ।

(ख) साधारण देवता‒इन्द्र, वरुण, मरुत्, रुद्र, आदित्य, वसु आदि सब साधारण देवता हैं ।

(२) मर्त्यदेवता‒जो मनुष्य मृत्युलोक में यज्ञ आदि करके स्वर्गादि लोकों को प्राप्त करते हैं, वे ‘मर्त्यदेवता’कहलाते हैं । ये अपने पुण्यों के बल पर वहाँ रहते हैं और पुण्य क्षीण होने पर फिर मृत्युलोक में लौट आते हैं‒

“ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोक विशालं
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति ।“
………..(गीता ९ । २१)

(३) अधिष्ठातृदेवता‒सृष्टि की प्रत्येक वस्तु का एक मालिक होता है, जिसे ‘अधिष्ठातृदेवता’ कहते हैं । नक्षत्र, तिथि, वार, महीना, वर्ष, युग, चन्द्र, सूर्य, समुद्र, पृथ्वी, जल, वायु, तेज, आकाश, शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि सृष्टि की मुख्य-मुख्य वस्तुओं के अधिष्ठातृदेवता ‘आजानदेवता’ बनते हैं । और कुआँ, वृक्ष आदि साधारण वस्तुओं के अधिष्ठातृदेवता‘मर्त्यदेवता’ (जीव) बनते हैं ।

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “कल्याण-पथ “ पुस्तकसे


श्रीराम जय राम जय जय राम ।

“परबस जीव स्वबस भगवंता। जीव अनेक एक श्रीकंता।।
मुधा भेद जद्यपि कृत माया। बिनु हरि जाइ न कोटि उपाया।।“

( जीव परतंत्र है, भगवान् स्वतंत्र हैं। जीव अनेक हैं, श्रीपति भगवान् एक हैं। यद्यपि माया का किया हुआ यह भेद असत् है तथापि वह भगवान् के भजन के बिना करोड़ों उपाय करनेपर भी नहीं जा सकता )


मंगलवार, 18 अप्रैल 2023

देवता कौन ?....(पोस्ट 01)


मनुष्यों के पृथ्वीतत्त्व प्रधान शरीरों की अपेक्षा देवताओं के शरीर तेजस्तत्त्व प्रधान, दिव्य और शुद्ध होते हैं । मनुष्यों के शरीरों से मल, मूत्र, पसीना आदि पैदा होते हैं । अतः जैसे हम लोगों को मैले से भरे हुए सूअर से दुर्गन्ध आती है, ऐसे ही देवताओं को हमारे (मनुष्योंके) शरीरों से दुर्गन्ध आती है । देवताओं के शरीरों से सुगन्ध आती है । उनके शरीरों की छाया नहीं पड़ती । उनकी पलकें नहीं गिरतीं । वे एक क्षण में बहुत दूर जा सकते हैं और जहाँ चाहें, वहाँ प्रकट हो सकते हैं । इस दिव्यता के कारण ही उनको देवता कहते हैं ।

बारह आदित्य, आठ वसु, ग्यारह रुद्र और दो अश्विनीकुमार‒ये तैंतीस कोटि (तैंतीस प्रकार के) देवता सम्पूर्ण देवताओं में मुख्य माने जाते हैं । उनके सिवाय मरुद्‌गण, गन्धर्व, अप्सराएँ आदि भी देवलोक वासी होने से देवता कहलाते हैं ।

देवता तीन तरहके होते हैं‒
(१) आजानदेवता‒जो महासर्ग से महाप्रलय तक (एक कल्पतक) देवलोक में रहते हैं, वे ‘आजानदेवता’ कहलाते हैं । ये देवलोक के बड़े अधिकारी होते हैं । उनके भी दो भेद होते हैं‒

(क) ईश्वरकोटि के देवता‒शिव, शक्ति, गणेश, सूर्य और विष्णु‒यें पाँचों ईश्वर भी हैं और देवता भी । इन पाँचों के अलग-अलग सम्प्रदाय चलते हैं । शिवजी के शैव, शक्तिके शाक्त, गणपतिके गाणपत, सूर्य के सौर और विष्णु के वैष्णव कहलाते हैं । इन पाँचोंमें एक ईश्वर होता है तो अन्य चार देवता होते हैं । वास्तव में ये पाँचों ईश्वरकोटि के ही हैं ।
(ख) साधारण देवता‒इन्द्र, वरुण, मरुत्, रुद्र, आदित्य, वसु आदि सब साधारण देवता हैं ।

(२) मर्त्यदेवता‒जो मनुष्य मृत्युलोक में यज्ञ आदि करके स्वर्गादि लोकों को प्राप्त करते हैं, वे ‘मर्त्यदेवता’कहलाते हैं । ये अपने पुण्यों के बल पर वहाँ रहते हैं और पुण्य क्षीण होने पर फिर मृत्युलोक में लौट आते हैं‒
“ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोक विशालं
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति ।“
………..(गीता ९ । २१)

(३) अधिष्ठातृदेवता‒सृष्टि की प्रत्येक वस्तु का एक मालिक होता है, जिसे ‘अधिष्ठातृदेवता’ कहते हैं । नक्षत्र, तिथि, वार, महीना, वर्ष, युग, चन्द्र, सूर्य, समुद्र, पृथ्वी, जल, वायु, तेज, आकाश, शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि सृष्टि की मुख्य-मुख्य वस्तुओं के अधिष्ठातृदेवता ‘आजानदेवता’ बनते हैं । और कुआँ, वृक्ष आदि साधारण वस्तुओं के अधिष्ठातृदेवता ‘मर्त्यदेवता’ (जीव) बनते हैं ।

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “कल्याण-पथ “ पुस्तकसे


सोमवार, 17 अप्रैल 2023

भगवत्तत्व (वासुदेव: सर्वम् ...पोस्ट 11)





उपसंहार (ii)

भगवत्तत्त्व सम्पूर्ण देश, काल, वस्तु और व्यक्ति में परिपूर्ण है । अतः उसकी प्राप्ति किसी क्रिया, बल, योग्यता, अधिकार, परिस्थिति, सामर्थ्य, वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदि के आश्रित नहीं है; क्योंकि चेतन-(सत्य-) की प्राप्ति जडता-(असत्य-) के द्वारा नहीं, अपितु जडता के त्याग से होती है ।

मनुष्य यदि अपने ही अनुभव का आदर करे तो उसे सुगमतापूर्वक तत्त्वप्राप्ति हो सकती है । यह प्रत्येक मनुष्य का अनुभव है कि जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति, मूर्च्छा और समाधि की अवस्थाएँ तो परिवर्तनशील तथा अनेक होती हैं, पर इन अवस्थाओं को जाननेवाला अपरिवर्तनशील तथा एक रहता है । यदि अवस्थाओं को जाननेवाला अवस्थाओं से अतीत न होता, तो अवस्थाओंकी भिन्नता, उनकी गणना, उनके परिवर्तन (आने-जाने), उनकी सन्धि और उनके अभावका ज्ञाता (जाननेवाला) कौन होता ? ये अवस्थाएँ ‘अहम्’ (जडसे माने हुए सम्बन्ध-) पर टिकी हुई हैं और ‘अहम्’ सत्यतत्त्व पर टिका हुआ है । तात्पर्य यह है कि एक सत्यतत्त्व के सिवा अन्य किसी भी अवस्था आदि की और माने हुए ‘अहम्’ की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । इस प्रकार अवस्थाओं से तथा ‘अहम्’ से अपने-आप-(स्वरूप-) को अलग अनुभव करने पर तत्त्वज्ञान हो जाता है । तत्त्वज्ञान प्राप्त हो जानेपर ‘अहम्’ और ‘अहम्’ की अवस्थाओं की स्वतन्त्र सत्ता सत्यत्वेन किंचित भी नहीं रहती । जिस प्रकार समुद्र और लहरोंमें सत्ता जलकी ही है, समुद्र और लहरोंकी किसी भी काल में कोई स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं । उसी प्रकार ‘अहम्’ और अवस्थाओं में एक भगवत्तत्त्व की सत्ता है अर्थात् सर्वत्र एक भगवत्तत्त्व ही शेष रह जाता है । इसीको गीताने ‘वासुदेवः सर्वम्’ कहा है ।

नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‒”कल्याण-पथ” पुस्तकसे


रविवार, 16 अप्रैल 2023

भगवत्तत्व (वासुदेव: सर्वम् ...पोस्ट 10)



उपसंहार (i)

उपर्युक्त विवेचनसे यह सिद्ध होता है कि प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप संसारसे अतीत एवं प्राकृत दृष्टियोंसे अगोचर जो सर्वत्र परिपूर्ण भगवत्तत्त्व अथवा परमात्मतत्त्व है, वही सम्पूर्ण दर्शनोंका आधार एवं सम्पूर्ण साधनोंका अन्तिम लक्ष्य है । उसका अनुभव करके कृतकृत्य, ज्ञातज्ञातव्य और प्राप्तप्रातव्य हो जानेके लिये ही मनुष्य-शरीर प्राप्त हुआ है । मनुष्य यदि चाहे तो कर्मयोग, ज्ञानयोग अथवा भक्तियोग‒किसी भी एक योगमार्गका अनुसरण करके उस तत्त्वको सुगमतापूर्वक प्राप्त कर सकता है । उसे चाहिये कि वह इन्द्रियाँ और उनके विषयोंको महत्त्व न देकर विवेक-विचारको ही महत्त्व दे और ‘असत्’ से माने हुए सम्बन्धमें सद्भावका त्याग करके ‘सत्’ का अनुभव कर ले ।

सत्ता दो प्रकारकी होती है‒पारमार्थिक और सांसारिक । पारमार्थिक सत्ता तो स्वतःसिद्ध (अविकारी) है, पर सांसारिक सत्ता उत्पन्न होकर होनेवाली (विकारी) है । साधकसे भूल यह होती है कि वह विकारी सत्ताको स्वतःसिद्ध सत्तामें मिला लेता है, जिससे उसे संसार सत्य प्रतीत होने लगता है अर्थात् वह संसारको सत्य मानने लगता है [*] । इस कारण वह राग-द्वेषके वशीभूत हो जाता है । इसलिये साधकको चाहिये कि वह विवेकदृष्टिको महत्त्व देकर पारमार्थिक सत्ताकी सत्यता एवं सांसारिक सत्ताकी असत्यताको अलग-अलग पहचान ले । इससे उसके राग-द्वेष बहुत कम हो जाते हैं । विवेकदृष्टिकी पूर्णता होनेपर साधकको तत्त्वदृष्टि प्राप्त हो जाती है, जिससे उसमें राग-द्वेष सर्वथा मिट जाते हैं और उसे भगवत्तत्त्वका अनुभव हो जाता है ।

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[*] अस्ति भाति प्रियं रूपं नाम चेत्यंशपञ्चकम् ।
आद्यत्रयं ब्रह्मरूपं जगद्रूपमं ततो द्वयम् ॥
…………(वाक्यसुधा २०)

‘अस्ति, भाति, प्रिय, रूप तथा नाम‒इन पाँचोंमें प्रथम तीन ब्रह्मके रूप हैं और अन्तिम दो जगत्‌के ।’
‒इस श्लोकमें आया ‘अस्ति' पद परमात्माके स्वतःसिद्ध (अविकारी) स्वरूपका वाचक है और‒

जायतेऽस्ति विपरिणमते वर्धतेऽपक्षीयते विनश्यति ।
………..(निरुक्त १ । १ । २)

‘उत्पन्न होना, अस्तित्व धारण करना, सत्तावान् होना, बदलना, बढ़ना, क्षीण होना और नष्ट होना‒ये छः विकार कहे गये हैं ।’ यहाँ आया हुआ ‘अस्ति’ पद संसारके विकारी स्वरूपका वाचक है । तात्पर्य यह है कि इस विकाररूप ‘अस्ति’ में निरन्तर परिवर्तन हो रहा है; यह एक क्षण भी एकरूप नहीं रहता ।

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‒”कल्याण-पथ” पुस्तकसे


शनिवार, 15 अप्रैल 2023

भगवत्तत्व (वासुदेव: सर्वम् ...पोस्ट 09)


ज्ञानीके व्यवहार की विशेषता

तत्त्वज्ञान होनेसे पूर्वतक साधक (अन्तःकरणको अपना माननेके कारण) तत्त्वमें अन्तःकरणसहित अपनी स्थिति मानता है । ऐसी स्थितिमें उसकी वृत्तियाँ व्यवहारसे हटकर तत्त्वोन्मुखी हो जाती हैं, अतः उसके द्वारा संसारके व्यवहारमें भूलें भी हो सकती हैं । अन्तःकरण-(जडता-) से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जानेपर जड-चेतनके सम्बन्धसे होनेवाला सूक्ष्म ‘अहम्’ पूर्णतः नष्ट हो जाता है । फिर तत्त्वज्ञ पुरुषकी स्वरूपमें नित्य-निरन्तर स्वाभाविक स्थिति रहती है । इसलिये साधनावस्थामें अन्तःकरणको लेकर तत्त्वमें तल्लीन होनेके कारण जो व्यवहारमें भूलें हो सकती हैं, वे भूलें सिद्धावस्थाको प्राप्त तत्त्वज्ञ पुरुषके द्वारा नहीं होतीं, अपितु उसका व्यवहार स्वतः स्वाभाविक सुचारुरूपसे होता है और दूसरोंके लिये आदर्श होता है [*] । इसका कारण यह है कि अन्तःकरणसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जानेपर तत्त्वज्ञ पुरुषकी स्थिति तो अपने स्वाभाविक स्वरूप अर्थात् तत्त्वमें हो जाती है और अन्तःकरणकी स्थिति अपने स्वाभाविक स्थान‒शरीर-(जडता-) में हो जाती है । ऐसी स्थितिमें तत्त्व तो रहता है, पर तत्त्वज्ञ (तत्त्वका ज्ञाता) नहीं रहता अर्थात् व्यक्तित्व (अहम्) पूर्णतः मिट जाता है । व्यक्तित्वके मिटनेपर राग-द्वेष कौन करे और किससे करे ? उसके अपने कहलानेवाले अन्तःकरणमें अन्तकरणसहित संसारकी स्वतन्त्र सत्ताका अत्यन्त अभाव हो जाता है और परमात्मतत्त्वकी सत्ताका भाव नित्य-निरन्तर जाग्रत् रहता है । अन्तःकरणसे अपना कोई सम्बन्ध न रहनेपर उसका अन्तःकरण मानो जल जाता है । जैसे गैसकी जली हुई बत्तीसे विशेष प्रकाश होता है, वैसे ही उस जले हुए अन्तःकरणसे विशेष ज्ञान प्रकाशित होता है ।

जिस प्रकार परमात्माकी सत्ता-स्फूर्तिसे संसारमात्रका व्यवहार चलते रहनेपर भी परमात्मतत्त्व- (ब्रह्म-) में किंचित भी अन्तर नहीं आता, उसी प्रकार तत्त्वज्ञ पुरुषके स्वभाव [†], जिज्ञासुओंकी जाननेकी अभिलाषा [‡] और भगवत्प्रेरणा [§]‒-- इनके द्वारा तत्त्वज्ञ पुरुषके शरीरसे सुचारु रूप से व्यवहार होते रहने पर भी उसके स्वरूप में किंचित भी अन्तर नहीं आता । उसमें स्वतःसिद्ध निर्लिप्तता रहती है [**] । जबतक प्रारब्धका वेग रहता है, तब तक उसके अन्तःकरण और बहिःकरणसे आदर्श व्यवहार होता रहता है ।

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[*] “यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥“
…………………….(गीता ३ । २१)

‘श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं । वह जो कुछ (वचनोंसे) प्रमाण देता है, दूसरे मनुष्य उसीके अनुसार आचरण करते हैं ।’

[†] “सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि ।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥“
……………….(गीता ३ । ३३)

[‡] “तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥“
……………..(गीता ४ । ३४)

[§] अहम्‌का नाश होनेपर तत्त्वज्ञ महापुरुषकी भगवान्‌के साथ एकता हो जाती है‒‘मम साधर्म्यमागताः’ (गीता १४ । २), अतः उसके द्वारा होनेवाली मात्र क्रियाएँ भगवत्प्रेरित ही होती हैं ।

[**] अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः ।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥…(गीता १३ । ३१)
प्रकाश च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव ।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति ॥“…(गीता १४ । २२)
उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते ।
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्गते ॥“…(गीता १४ । २३)

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‒”कल्याण-पथ” पुस्तकसे


भगवत्तत्व (वासुदेव: सर्वम् ...पोस्ट 08)



व्यवहार के विविध रूप

साधारण (विषयी) पुरुष, विवेकी (साधक) पुरुष और तत्त्वज्ञ (सिद्ध) पुरुष‒तीनोंके भाव अलग-अलग होते हैं । साधारण पुरुष संसारको सत् मानकर राग-द्वेषपूर्वक प्रवृत्ति या निवृत्तिरूप व्यवहार करते हैं । इसके आगे विचारदृष्टिकी प्रधानतावाले विवेकी पुरुषका व्यवहार राग-द्वेषरहित एवं शास्त्रविधिके अनुसार होता है[*] । विवेकदृष्टिकी प्रधानता रहनेके कारण‒किंचित राग-द्वेष रहनेपर भी उसका (विवेकदृष्टि-प्रधान साधकका) व्यवहार राग-द्वेषपूर्वक नहीं होता अर्थात् वह राग-द्वेषके वशीभूत होकर व्यवहार नहीं करता[**] । उसमें राग-द्वेष बहुत कम‒नहींके बराबर रहते हैं । जितने अंशमें अविवेक रहता है, उतने ही अंशमें राग-द्वेष रहते हैं । जैसे-जैसे विवेक जाग्रत् होता जाता है, वैसे-वैसे राग-द्वेष कम होते चले जाते हैं और वैराग्य बढ़ता चला जाता है । वैराग्य बढ़नेसे बहुत सुख मिलता है; क्योंकि दुःख तो रागमें ही है[***] । पूर्ण विवेक जाग्रत् होनेपर राग-द्वेष पूर्णतः मिट जाते हैं । विवेकी पुरुषको संसारकी सत्ता दर्पणमें पड़े हुए प्रतिबिम्बके समान असत् दीखती है । इसके आगे तत्त्वदृष्टि प्राप्त होनेपर तत्त्वज्ञ पुरुष स्वप्नकी स्मृतिके समान संसारको देखता है । इसलिये बाहरसे व्यवहार समान होनेपर भी विवेकी और तत्त्वज्ञ पुरुषके भावोंमें अत्यन्त अन्तर रहता है ।

साधारण पुरुषमें इन्द्रियोंकी, साधक पुरुषमें विवेक-विचारकी और सिद्ध पुरुषमें स्वरूपकी प्रधानता रहती है । साधारण पुरुषके राग-द्वेष पत्थरपर पड़ी लकीरके समान (दृढ़) होते हैं । विवेकी पुरुषके राग-द्वेष आरम्भमें बालूपर पड़ी लकीरके समान एवं विवेककी पूर्णता होनेपर जलपर पड़ी लकीरके समान होते हैं । तत्त्वज्ञ पुरुषके राग-द्वेष आकाशमें पड़ी लकीरके समान (जिसमें लकीर खिंचती ही नहीं, केवल अँगुली दीखती है) होते हैं; क्योंकि उसकी दृष्टिमें संसारकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती ।

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[*] “तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ॥“
.........................(गीता १६ । २४)

‘तेरे लिये कर्तव्य और अकर्तव्यकी व्यवस्थामें शास्त्र ही प्रमाण है । ऐसा जानकर तू इस लोकमें शास्त्र-विधिसे नियत कर्म ही करनेयोग्य है ।’

[**] “इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥“
......................(गीता ३ । ३४)

‘इन्द्रिय, इन्द्रियके अर्थमें अर्थात् प्रत्येक इन्द्रियके विषयमें राग और द्वेष व्यवस्थासे स्थित हैं । मनुष्यको उन दोनोंके वशमें नहीं होना चाहिये; क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याण-मार्गमें विघ्र करनेवाले महान् शत्रु हैं ।’

[***] साधकको चाहिये कि वह इस साधनजन्य सुखमें सन्तोष अथवा सुखका भोग न करें भगवान् कहते हैं कि‒---

“तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम् ।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसड्‌गेन चानघ ॥“
.........................(गीता १४ । ६)

‘हे निष्पाप अर्जुन ! उन तीनों गुणोंमें सत्त्वगुण निर्मल होनेके कारण प्रकाश करनेवाला और विकाररहित है । वह सुखके सम्बन्ध (भोग) से और ज्ञानके सम्बन्ध-(अभिमान-) से साधकको बाँधता है ।’

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‒”कल्याण-पथ” पुस्तकसे


भगवत्तत्व (वासुदेव: सर्वम् ...पोस्ट 07)


तत्त्वप्राप्तिका उपाय

तत्त्वको प्राप्त करनेका सर्वोत्तम उपाय है‒एकमात्र तत्त्वप्राप्तिका ही उद्देश्य बनाना । वास्तवमें उद्देश्य पहले बना है और उस उद्देश्यकी सिद्धिके लिये मनुष्य-शरीर पीछे मिला है । परंतु मनुष्य भोगोंमें आसक्त होकर अपने उस (तत्त्व-प्राप्तिके) उद्देश्यको भूल जाता है । इसलिये उस उद्देश्यको पहचानकर उसकी सिद्धिका दृढ़ निश्रय करना है । उद्देश्यपूर्तिका निश्चय जितना दृढ़ होता है, उतनी ही तेजीसे साधक तत्त्वप्राप्तिकी ओर अग्रसर होता है । उद्देश्यकी दृढ़ताके लिये सबसे पहले साधक बहिःकरण-(इन्द्रियदृष्टि-) को महत्त्व न देकर अन्तःकरण-(बुद्धि अथवा विचारदृष्टि-) को महत्त्व दे । विचारदृष्टिसे दिखायी देगा कि जितने भी शरीरादि सांसारिक पदार्थ हैं, वे सब-के-सब उत्पत्तिसे पहले भी नहीं थे और विनाशके बाद भी नहीं रहेंगे एवं वर्तमानमें भी वे निरन्तर बदल रहे हैं । तात्पर्य यह कि सब पदार्थ आदि और अन्तवाले हैं । जो पदार्थ आदि और अन्तवाला होता है, वह वास्तवमें होता ही नहीं; क्योंकि यह सिद्धान्त है कि जो पदार्थ आदि और अन्तमें नहीं होता, वह वर्तमानमें भी नहीं होता‒‘आदावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा’ (माण्डूक्यकारिका) । इस प्रकार विचार-दृष्टिको महत्त्व देनेसे सत् और असत्, प्रकृति और पुरुषके अलग-अलग ज्ञान-(विवेक-) का अनुभव हो जाता है और साधकमें वास्तविक तत्त्व-(सत्-) को प्राप्त करनेकी उत्कट अभिलाषा जाग्रत् हो जाती है । संसारके सुखको तो क्या, साधनजन्य सात्त्विक सुखका भी आश्रय न लेनेसे परम व्याकुलता जाग्रत् हो जाती है । फलतः साधक संसार-(असत्‌-) से सर्वथा विमुख हो जाता है और उसे तत्त्वदृष्टि प्राप्त हो जाती है, जिसके प्राप्त होनेसे एकमात्र सत्-तत्त्व‒भगवत्तत्त्वकी सत्ताका अनुभव हो जाता है ।

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‒”कल्याण-पथ” पुस्तकसे


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...