शनिवार, 22 अप्रैल 2023

महिमा राम नाम की

“राम नाम नरकेसरी कनककसिपु कलिकाल ।
जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल ॥“

( राम नाम श्री नृसिंह भगवान है, कलियुग हिरण्यकशिपु है और जप करने वाले जन प्रह्लाद के समान हैं, यह राम नाम देवताओं के शत्रु (कलियुग रूपी दैत्य) को मारकर जप करने वालों की रक्षा करेगा )


कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने। प्रणतक्लेशनाशाय गोविन्दाय नमो नमः।।


नाम-जप, कीर्तन आदि यदि अश्रद्धापूर्वक भी किये जाते हैं तो वे असत्‌ नहीं होते; क्योंकि उनमें भगवान्‌ का सम्बन्ध होने से वे ‘कर्म’ नहीं हैं, प्रत्युत ‘उपासना’ हैं ।


देवता कौन ?....(पोस्ट 05)


प्रश्न‒माता, पिता आदि को देवता क्यों कहा गया है; जैसे ‘मातृदेवो भव’ आदि ?

उत्तर‒‘मातृदेवो भव’ आदि में ‘देव’ नाम परमात्मा का है । अतः माता, पिता आदि को साक्षात् ईश्वर मानकर निष्कामभाव से उनका पूजन करनेसे परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है ।

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “कल्याण-पथ “ पुस्तकसे


शुक्रवार, 21 अप्रैल 2023

देवता कौन ?....(पोस्ट 04)


प्रश्न‒भूत, प्रेत, पिशाच आदि को भी देवयोनि क्यों कहा गया है ? जैसे‒‘विद्याधराप्सरोयक्षरक्षोगन्धर्व- किन्नराः । पिशाचो गुह्यकः सिद्धो भूतोऽमी देवयोनयः ॥’ (अमरकोष १ । १ । ११)

उत्तर‒हमलोगों के शरीरों की अपेक्षा उनका शरीर दिव्य होने से उन को भी देव योनि कहा गया है । उनका शरीर वायुतत्त्वप्रधान होता है । जैसे वायु कहीं भी नहीं अटकती,ऐसे ही उनका शरीर कहीं भी नहीं अटकता । उनके शरीर में वायु से भी अधिक विलक्षणता होती है । घर के किवाड़ बंद करने पर वायु तो भीतर नहीं आती, पर भूत-प्रेत भीतर आ सकते हैं । तात्पर्य है कि पृथ्वीतत्त्वप्रधान मनुष्यशरीर की अपेक्षा ही भूत-प्रेत आदि को देवयोनि कहा गया है ।

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “कल्याण-पथ “ पुस्तकसे


गुरुवार, 20 अप्रैल 2023

देवता कौन ?....(पोस्ट 03)


प्रश्न‒जीवों को अधिष्ठातृ देवता कौन बनाता है ?

उत्तर‒भगवान्‌ ने ब्रह्माजी को सृष्टि-रचनाका अधिकार दिया है, अतः ब्रह्माजी के बनाये हुए नियमके अनुसार अधिष्ठातृ देवता स्वतः बनते रहते हैं । जैसे यहाँ किसी को किसी पद पर नियुक्त करते हैं तो उसको उस पद के अनुसार सीमित अधिकार दिया जाता है, ऐसे ही पुण्यों के फलस्वरूप जो जीव अधिष्ठातृ देवता बनते हैं, उनको उस विषयमें सीमित अधिकार मिलता है ।

प्रश्न‒ये अधिष्ठातृ देवता क्या काम करते हैं ?

उत्तर‒ये अपने अधीन वस्तु की रक्षा करते हैं । जैसे,कुएँ का भी अधिष्ठातृ देवता होता है । यदि कुआँ चलाने से पहले उसके अधिष्ठातृ देवता का पूजन किया जाय, उसको प्रणाम किया जाय अथवा उसका नाम लिया जाय तो वह कुएँ की विशेष रक्षा करता है, कुएँ के कारण कोई नुकसान नहीं होने देता । ऐसे ही वृक्ष आदि का भी अधिष्ठातृदेवता होता है । रात्रि में किसी वृक्ष के नीचे रहना पड़े तो उसके अधिष्ठातृ देवता से प्रार्थना करें कि ‘हे वृक्षदेवता ! मैं आपकी शरण में हूँ, आप मेरी रक्षा करें’ तो रात्रिमें रक्षा होती है ।

जंगलमें शौच जाना हो तो वहाँ पर ‘उत्तम भूमि मध्यम काया, उठो देव मैं जंगल आया’‒ऐसा बोलकर शौच जाना चाहिये, नहीं तो वहाँ रहनेवाले देवता तथा भूत-प्रेत कुपित होकर हमारा अनिष्ट कर सकते हैं ।

वर्तमान में अधिष्ठातृदेवताओं का पूजन उठ जाने से जगह-जगह तरह-तरह के उपद्रव हो रहे हैं ।

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “कल्याण-पथ “ पुस्तकसे


बुधवार, 19 अप्रैल 2023

देवता कौन ?....(पोस्ट 02)



देवता तीन तरहके होते हैं‒

(१) आजानदेवता‒जो महासर्ग से महाप्रलय तक (एक कल्पतक) देवलोक में रहते हैं, वे ‘आजानदेवता’ कहलाते हैं । ये देवलोक के बड़े अधिकारी होते हैं । उनके भी दो भेद होते हैं‒

(क) ईश्वरकोटि के देवता‒शिव, शक्ति, गणेश, सूर्य और विष्णु‒यें पाँचों ईश्वर भी हैं और देवता भी । इन पाँचों के अलग-अलग सम्प्रदाय चलते हैं । शिवजी के शैव, शक्तिके शाक्त, गणपतिके गाणपत, सूर्य के सौर और विष्णु के वैष्णव कहलाते हैं । इन पाँचोंमें एक ईश्वर होता है तो अन्य चार देवता होते हैं । वास्तव में ये पाँचों ईश्वरकोटि के ही हैं ।

(ख) साधारण देवता‒इन्द्र, वरुण, मरुत्, रुद्र, आदित्य, वसु आदि सब साधारण देवता हैं ।

(२) मर्त्यदेवता‒जो मनुष्य मृत्युलोक में यज्ञ आदि करके स्वर्गादि लोकों को प्राप्त करते हैं, वे ‘मर्त्यदेवता’कहलाते हैं । ये अपने पुण्यों के बल पर वहाँ रहते हैं और पुण्य क्षीण होने पर फिर मृत्युलोक में लौट आते हैं‒

“ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोक विशालं
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति ।“
………..(गीता ९ । २१)

(३) अधिष्ठातृदेवता‒सृष्टि की प्रत्येक वस्तु का एक मालिक होता है, जिसे ‘अधिष्ठातृदेवता’ कहते हैं । नक्षत्र, तिथि, वार, महीना, वर्ष, युग, चन्द्र, सूर्य, समुद्र, पृथ्वी, जल, वायु, तेज, आकाश, शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि सृष्टि की मुख्य-मुख्य वस्तुओं के अधिष्ठातृदेवता ‘आजानदेवता’ बनते हैं । और कुआँ, वृक्ष आदि साधारण वस्तुओं के अधिष्ठातृदेवता‘मर्त्यदेवता’ (जीव) बनते हैं ।

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “कल्याण-पथ “ पुस्तकसे


श्रीराम जय राम जय जय राम ।

“परबस जीव स्वबस भगवंता। जीव अनेक एक श्रीकंता।।
मुधा भेद जद्यपि कृत माया। बिनु हरि जाइ न कोटि उपाया।।“

( जीव परतंत्र है, भगवान् स्वतंत्र हैं। जीव अनेक हैं, श्रीपति भगवान् एक हैं। यद्यपि माया का किया हुआ यह भेद असत् है तथापि वह भगवान् के भजन के बिना करोड़ों उपाय करनेपर भी नहीं जा सकता )


मंगलवार, 18 अप्रैल 2023

देवता कौन ?....(पोस्ट 01)


मनुष्यों के पृथ्वीतत्त्व प्रधान शरीरों की अपेक्षा देवताओं के शरीर तेजस्तत्त्व प्रधान, दिव्य और शुद्ध होते हैं । मनुष्यों के शरीरों से मल, मूत्र, पसीना आदि पैदा होते हैं । अतः जैसे हम लोगों को मैले से भरे हुए सूअर से दुर्गन्ध आती है, ऐसे ही देवताओं को हमारे (मनुष्योंके) शरीरों से दुर्गन्ध आती है । देवताओं के शरीरों से सुगन्ध आती है । उनके शरीरों की छाया नहीं पड़ती । उनकी पलकें नहीं गिरतीं । वे एक क्षण में बहुत दूर जा सकते हैं और जहाँ चाहें, वहाँ प्रकट हो सकते हैं । इस दिव्यता के कारण ही उनको देवता कहते हैं ।

बारह आदित्य, आठ वसु, ग्यारह रुद्र और दो अश्विनीकुमार‒ये तैंतीस कोटि (तैंतीस प्रकार के) देवता सम्पूर्ण देवताओं में मुख्य माने जाते हैं । उनके सिवाय मरुद्‌गण, गन्धर्व, अप्सराएँ आदि भी देवलोक वासी होने से देवता कहलाते हैं ।

देवता तीन तरहके होते हैं‒
(१) आजानदेवता‒जो महासर्ग से महाप्रलय तक (एक कल्पतक) देवलोक में रहते हैं, वे ‘आजानदेवता’ कहलाते हैं । ये देवलोक के बड़े अधिकारी होते हैं । उनके भी दो भेद होते हैं‒

(क) ईश्वरकोटि के देवता‒शिव, शक्ति, गणेश, सूर्य और विष्णु‒यें पाँचों ईश्वर भी हैं और देवता भी । इन पाँचों के अलग-अलग सम्प्रदाय चलते हैं । शिवजी के शैव, शक्तिके शाक्त, गणपतिके गाणपत, सूर्य के सौर और विष्णु के वैष्णव कहलाते हैं । इन पाँचोंमें एक ईश्वर होता है तो अन्य चार देवता होते हैं । वास्तव में ये पाँचों ईश्वरकोटि के ही हैं ।
(ख) साधारण देवता‒इन्द्र, वरुण, मरुत्, रुद्र, आदित्य, वसु आदि सब साधारण देवता हैं ।

(२) मर्त्यदेवता‒जो मनुष्य मृत्युलोक में यज्ञ आदि करके स्वर्गादि लोकों को प्राप्त करते हैं, वे ‘मर्त्यदेवता’कहलाते हैं । ये अपने पुण्यों के बल पर वहाँ रहते हैं और पुण्य क्षीण होने पर फिर मृत्युलोक में लौट आते हैं‒
“ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोक विशालं
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति ।“
………..(गीता ९ । २१)

(३) अधिष्ठातृदेवता‒सृष्टि की प्रत्येक वस्तु का एक मालिक होता है, जिसे ‘अधिष्ठातृदेवता’ कहते हैं । नक्षत्र, तिथि, वार, महीना, वर्ष, युग, चन्द्र, सूर्य, समुद्र, पृथ्वी, जल, वायु, तेज, आकाश, शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि सृष्टि की मुख्य-मुख्य वस्तुओं के अधिष्ठातृदेवता ‘आजानदेवता’ बनते हैं । और कुआँ, वृक्ष आदि साधारण वस्तुओं के अधिष्ठातृदेवता ‘मर्त्यदेवता’ (जीव) बनते हैं ।

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “कल्याण-पथ “ पुस्तकसे


सोमवार, 17 अप्रैल 2023

भगवत्तत्व (वासुदेव: सर्वम् ...पोस्ट 11)





उपसंहार (ii)

भगवत्तत्त्व सम्पूर्ण देश, काल, वस्तु और व्यक्ति में परिपूर्ण है । अतः उसकी प्राप्ति किसी क्रिया, बल, योग्यता, अधिकार, परिस्थिति, सामर्थ्य, वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदि के आश्रित नहीं है; क्योंकि चेतन-(सत्य-) की प्राप्ति जडता-(असत्य-) के द्वारा नहीं, अपितु जडता के त्याग से होती है ।

मनुष्य यदि अपने ही अनुभव का आदर करे तो उसे सुगमतापूर्वक तत्त्वप्राप्ति हो सकती है । यह प्रत्येक मनुष्य का अनुभव है कि जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति, मूर्च्छा और समाधि की अवस्थाएँ तो परिवर्तनशील तथा अनेक होती हैं, पर इन अवस्थाओं को जाननेवाला अपरिवर्तनशील तथा एक रहता है । यदि अवस्थाओं को जाननेवाला अवस्थाओं से अतीत न होता, तो अवस्थाओंकी भिन्नता, उनकी गणना, उनके परिवर्तन (आने-जाने), उनकी सन्धि और उनके अभावका ज्ञाता (जाननेवाला) कौन होता ? ये अवस्थाएँ ‘अहम्’ (जडसे माने हुए सम्बन्ध-) पर टिकी हुई हैं और ‘अहम्’ सत्यतत्त्व पर टिका हुआ है । तात्पर्य यह है कि एक सत्यतत्त्व के सिवा अन्य किसी भी अवस्था आदि की और माने हुए ‘अहम्’ की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । इस प्रकार अवस्थाओं से तथा ‘अहम्’ से अपने-आप-(स्वरूप-) को अलग अनुभव करने पर तत्त्वज्ञान हो जाता है । तत्त्वज्ञान प्राप्त हो जानेपर ‘अहम्’ और ‘अहम्’ की अवस्थाओं की स्वतन्त्र सत्ता सत्यत्वेन किंचित भी नहीं रहती । जिस प्रकार समुद्र और लहरोंमें सत्ता जलकी ही है, समुद्र और लहरोंकी किसी भी काल में कोई स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं । उसी प्रकार ‘अहम्’ और अवस्थाओं में एक भगवत्तत्त्व की सत्ता है अर्थात् सर्वत्र एक भगवत्तत्त्व ही शेष रह जाता है । इसीको गीताने ‘वासुदेवः सर्वम्’ कहा है ।

नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‒”कल्याण-पथ” पुस्तकसे


रविवार, 16 अप्रैल 2023

भगवत्तत्व (वासुदेव: सर्वम् ...पोस्ट 10)



उपसंहार (i)

उपर्युक्त विवेचनसे यह सिद्ध होता है कि प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप संसारसे अतीत एवं प्राकृत दृष्टियोंसे अगोचर जो सर्वत्र परिपूर्ण भगवत्तत्त्व अथवा परमात्मतत्त्व है, वही सम्पूर्ण दर्शनोंका आधार एवं सम्पूर्ण साधनोंका अन्तिम लक्ष्य है । उसका अनुभव करके कृतकृत्य, ज्ञातज्ञातव्य और प्राप्तप्रातव्य हो जानेके लिये ही मनुष्य-शरीर प्राप्त हुआ है । मनुष्य यदि चाहे तो कर्मयोग, ज्ञानयोग अथवा भक्तियोग‒किसी भी एक योगमार्गका अनुसरण करके उस तत्त्वको सुगमतापूर्वक प्राप्त कर सकता है । उसे चाहिये कि वह इन्द्रियाँ और उनके विषयोंको महत्त्व न देकर विवेक-विचारको ही महत्त्व दे और ‘असत्’ से माने हुए सम्बन्धमें सद्भावका त्याग करके ‘सत्’ का अनुभव कर ले ।

सत्ता दो प्रकारकी होती है‒पारमार्थिक और सांसारिक । पारमार्थिक सत्ता तो स्वतःसिद्ध (अविकारी) है, पर सांसारिक सत्ता उत्पन्न होकर होनेवाली (विकारी) है । साधकसे भूल यह होती है कि वह विकारी सत्ताको स्वतःसिद्ध सत्तामें मिला लेता है, जिससे उसे संसार सत्य प्रतीत होने लगता है अर्थात् वह संसारको सत्य मानने लगता है [*] । इस कारण वह राग-द्वेषके वशीभूत हो जाता है । इसलिये साधकको चाहिये कि वह विवेकदृष्टिको महत्त्व देकर पारमार्थिक सत्ताकी सत्यता एवं सांसारिक सत्ताकी असत्यताको अलग-अलग पहचान ले । इससे उसके राग-द्वेष बहुत कम हो जाते हैं । विवेकदृष्टिकी पूर्णता होनेपर साधकको तत्त्वदृष्टि प्राप्त हो जाती है, जिससे उसमें राग-द्वेष सर्वथा मिट जाते हैं और उसे भगवत्तत्त्वका अनुभव हो जाता है ।

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[*] अस्ति भाति प्रियं रूपं नाम चेत्यंशपञ्चकम् ।
आद्यत्रयं ब्रह्मरूपं जगद्रूपमं ततो द्वयम् ॥
…………(वाक्यसुधा २०)

‘अस्ति, भाति, प्रिय, रूप तथा नाम‒इन पाँचोंमें प्रथम तीन ब्रह्मके रूप हैं और अन्तिम दो जगत्‌के ।’
‒इस श्लोकमें आया ‘अस्ति' पद परमात्माके स्वतःसिद्ध (अविकारी) स्वरूपका वाचक है और‒

जायतेऽस्ति विपरिणमते वर्धतेऽपक्षीयते विनश्यति ।
………..(निरुक्त १ । १ । २)

‘उत्पन्न होना, अस्तित्व धारण करना, सत्तावान् होना, बदलना, बढ़ना, क्षीण होना और नष्ट होना‒ये छः विकार कहे गये हैं ।’ यहाँ आया हुआ ‘अस्ति’ पद संसारके विकारी स्वरूपका वाचक है । तात्पर्य यह है कि इस विकाररूप ‘अस्ति’ में निरन्तर परिवर्तन हो रहा है; यह एक क्षण भी एकरूप नहीं रहता ।

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‒”कल्याण-पथ” पुस्तकसे


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट११) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन पान...