तत्त्वज्ञानकी प्राप्तिमें दो मुख्य बाधाएँ हैं :‒ मोह और शास्त्रीय मतभेद ।
गीतामें आया है‒
“यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति ।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥“
..................(गीता २ । ५२-५३)
‘जिस समय तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदलको तर जायगी, उसी समय तू सुने हुए और सुननेमें आनेवाले भोगोंसे वैराग्यको प्राप्त हो जायगा ।’
‘जिस कालमें शास्त्रीय मतभेदोंसे विचलित हुई तेरी बुद्धि निश्चल हो जायगी और परमात्मामें अचल हो जायगी, उस कालमें तू योगको प्राप्त हो जायगा ।’
अज्ञान, अविवेकको ‘मोह’ कहते हैं । अविवेकका अर्थ विवेकका अभाव नहीं है, प्रत्युत विवेकका अनादर है । अतः विवेकका आदर नहीं करना, उसको महत्व नहीं देना, उसकी तरफ खयाल नहीं करना ‘अविवेक’ है । विवेक स्वतःसिद्ध है । विवेकज्ञान साधन है और तत्त्वज्ञान साध्य है । जैसे साध्यरूप तत्त्वज्ञान स्वतःसिद्ध है, ऐसे ही साधनरूप विवेकज्ञान भी स्वतःसिद्ध है ।
अज्ञानका चिह्न ‘राग’ हैं‒‘रागो लिङ्गमबोधस्य चित्तव्यायामभूमिषु ।’ शरीर, धन-सम्पत्ति, परिवार, मान-बड़ाई आदि किसीमें भी राग होना अज्ञानका, मोहका लक्षण है । जितना राग है, उतना ही मोह है, उतना ही अज्ञान है, उतनी ही मूढ़ता है, उतनी ही गलती है, उतनी ही बाधा है । इस रागके ही काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि अनेक रूप हैं ।
दूसरी बाधा है‒श्रुतिविप्रतिपत्ति अर्थात् शास्त्रीय मतभेद । कोई कहते हैं कि अद्वैत है, कोई कहते हैं कि द्वैत है, कोई कहते हैं कि विशिष्टाद्वैत है, कोई कहते हैं कि शुद्धाद्वैत है, कोई कहते हैं कि द्वैताद्वैत है कोई कहते हैं कि अचिन्त्यभेदाभेद है‒इस प्रकार अनेक मतभेद हैं । इन मतभेदोंके कारण साधककी बुद्धि भ्रमित हो जाती है और उसके लिये यह निश्चय करना बड़ा कठिन हो जाता है कि कौन-सा मत ठीक है, कौन-सा बेठीक है !
‒इस प्रकार मोह और शास्त्रीय मतभेद अर्थात् सांसारिक मोह और शास्त्रीय मोह‒दोनों से तरने पर ही तत्त्वज्ञान का, नित्ययोग का अनुभव होता है । केवल अपने कल्याण का उद्देश्य हो और रुपये-पैसे, कुटुम्ब-परिवार आदिसे कोई स्वार्थका सम्बन्ध न हो तो हम मोहरूपी दलदल से तर गये !
नारायण ! नारायण !!
(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “तत्त्वज्ञान कैसे हो ?” पुस्तकसे