बुधवार, 3 मई 2023

ज्ञान योग .......तत्त्वज्ञान का सहज उपाय ….पोस्ट 02



मनुष्य है, पशु है, पक्षी है, ईंट है, चूना है, पत्थर है—इस प्रकार वस्तुओंमें तो फर्क है, पर ‘है’ में कोई फर्क नहीं है । ऐसे ही मैं मनुष्य हूँ, मैं देवता हूँ, मैं पशु हूँ, मैं पक्षी हूँ—इस प्रकार मनुष्य आदि योनियाँ तो बदली हैं, पर स्वयं नहीं बदला है । अनेक शरीरोंमें, अनेक अवस्थाओंमें चिन्मय सत्ता एक है । बालक, जवान और वृद्ध—ये तीनों अलग-अलग हैं, पर तीनों अवस्थाओंमें सत्ता एक है । कुमारी, विवाहिता और विधवा—ये तीनों अलग-अलग हैं, पर इन तीनोंमे सत्ता एक है । जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, मूर्च्छा और समाधि—ये पाँचों अवस्थाएं अलग-अलग हैं, पर इन पाँचों में सत्ता एक है । अवस्थाएँ बदलती हैं, पर उनको जाननेवाला नहीं बदलता । ऐसे ही मूढ़, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र, और निरुद्ध—इन पाँचों वृत्तियों में फर्क पड़ता है, पर इनको जाननेवालेमें कोई फर्क नहीं पड़ता ।
यदि जाननेवाला भी बदल जाय तो इन पाँचोंकी गणना कौन करेगा ? एक मार्मिक बात है कि सबके परिवर्तनका ज्ञान होता है, पर स्वयंके परिवर्तनका ज्ञान कभी किसीको नहीं होता । सबका इदंतासे भान होता है, पर अपने स्वरूपका इदंतासे भान कभी किसीको नहीं होता सबके अभावका ज्ञान होता है, पर अपने अभावका ज्ञान कभी किसीको नहीं होता । तात्पर्य है कि ‘है’ (सत्तामात्र) में हमारी स्थित स्वतः है करनी नहीं है । भूल यह होती है कि हम ‘संसार है’—इस प्रकार ‘नहीं’ में ‘है’ का आरोप कर लेते हैं । ‘नहीं’ में ‘है’ का आरोप करनेसे ही ‘नहीं’ (संसार) की सत्ता दीखती है और ‘है’ की तरफ दृष्टि नहीं जाती । वास्तवमें ‘है में संसार’—इस प्रकार ‘नहीं’ में ‘है’ का अनुभव करना चाहिये । ‘नहीं’ में ‘है’ का अनुभव करनेसे ‘नहीं’ नहीं रहेगा और ‘है’ रह जायगा । भगवान् कहते हैं:- 

“नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।“........... (गीता २/१६)

‘असत् की सत्ता विद्यमान नहीं है अर्थात् असत् का अभाव ही विद्यमान है और सत् का अभाव विद्यमान नहीं है अर्थात् सत् का भाव ही विद्यमान है ।’एक ही देश काल वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, परिस्थिति आदिमें अपनी जो परिच्छिन्न सत्ता दीखती है, वह अहम् (व्यक्तित्व, एकदेशीयता) को लेकर ही दीखती है । जबतक अहम रहता है, तभी तक मनुष्य अपनेको एक देश, काल आदिमें देखता है । अहम् के मिटने पर एक देश, काल आदिमें परिच्छिन सत्ता नहीं रहती, प्रत्युत अपरिच्छिन्न सत्तामात्र रहती है ।
वास्तव में अहम है नहीं, प्रत्युत केवल उसकी मान्यता है । सांसारिक पदार्थोंकी जैसी सत्ता प्रतीत होती है, वैसी सत्ता भी अहम् की नहीं है । सांसारिक पदार्थ तो उत्पत्ति-विनाशवाले हैं, पर अहम् उत्पत्ति-विनाशवाला भी नहीं है । इसलिये तत्त्वबोध होने पर शरीरादि पदार्थ तो रहते हैं, पर अहम् मिट जाता है ।
अतः तत्त्वबोध होने पर ज्ञानी नहीं रहता, प्रत्युत ज्ञानमात्र रहता है । इसलिये आजतक कोई ज्ञानी हुआ नहीं, ज्ञानी है नहीं, ज्ञानी होगा नहीं और ज्ञानी होना सम्भव ही नहीं । अहम् ज्ञानी में होता है, ज्ञानमें नहीं । अतः ज्ञानी नहीं है, प्रत्युत ज्ञानमात्र है, सत्तामात्र है । उस ज्ञानका कोई ज्ञाता नहीं है, कोई धर्मी नहीं है, मालिक नहीं है । कारण कि वह ज्ञान स्वयं प्रकाश है, अतः स्वयंसे ही स्वयंका ज्ञान होता है । वास्तवमें ज्ञान होता नहीं है, प्रत्युत अज्ञान मिटता है । अज्ञान मिटानेको ही तत्त्वज्ञानका होना कह देते हैं ।

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “साधन-सुधा-सिन्धु” पुस्तकसे


मंगलवार, 2 मई 2023

ज्ञान योग .......तत्त्वज्ञान का सहज उपाय ….पोस्ट 01


ज्ञानयोग
तत्त्वज्ञानका सहज उपाय ….पोस्ट 01

हमारा स्वरूप चिन्मय सत्तामात्र है और उसमें अहम् नहीं है—यह बात यदि समझमें आ जाय तो इसी क्षण जीवनमुक्ति है ! इसमें समय लगनेकी बात नहीं है । समय तो उसमें लगता है, जो अभी नहीं और जिसका निर्माण करना है । जो अभी है, उसका निर्माण नहीं करना है, प्रत्युत उसकी तरफ दृष्टि डालनी है, उसको स्वीकार करना है जैसे—

“संकर सहज सरूपु सम्हारा लागि समाधि अखंड अपारा”
  ………(रामचरितमानस, बालकाण्ड ५८/४)

दो अक्षर हैं—‘मैं हूँ’ । इसमें ‘मैं’ प्रकृतिका अंश है और ‘हूँ’ परमात्माका अंश है । ‘मैं’ जड़ है और ‘हूँ’ चेतन है । ‘मैं’ आधेय है और ‘हूँ’ आधार है । ‘मैं’ प्रकाश्य है और ‘हूँ’ प्रकाशक है । ‘मैं’ परिवर्तनशील है और ‘हूँ’ अपरिवर्तनशील है । ‘मैं’ अनित्य है और ‘हूँ’ नित्य है । ‘मैं’ विकारी है और ‘हूँ’ निर्विकार है । ‘मैं’ और ‘हूँ’ को मिला लिया—यही चिज्जडग्रन्थि (जड़-चेतन की ग्रन्थि) है, यही बन्धन है, यही अज्ञान है । ‘मैं’ और ‘हूँ’ को अलग-अलग अनुभव करना ही मुक्ति है तत्त्वबोध है । यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि ‘मैं’ को साथ मिलानेसे ही ‘हूँ’ कहा जाता है । अगर ‘मैं’ को साथ न मिलायें तो ‘हूँ’ नहीं रहेगा, प्रत्युत ‘है’ रहेगा । वह ‘है’ ही अपना स्वरूप है ।

एक ही व्यक्ति अपने बापके सामने कहता है कि ‘मैं बेटा हूँ’, बेटे के सामने कहता है कि ‘मैं बाप हूँ’, दादा के सामने कहता है कि ‘मैं पोता हूँ’, पोता के सामने कहता है कि ‘मैं दादा हूँ’, बहनके सामने कहता है कि ‘मैं भाई हूँ’, पत्नीके सामने कहता है कि ‘मैं पति हूं’, भानजे के सामने कहता है कि ‘मैं मामा हूँ’, मामा के सामने कहता है कि ‘मैं भानजा हूँ’ आदि-आदि । तात्पर्य है कि बेटा, बाप, पोता, दादा, भाई, पति, मामा, भानजा आदि तो अलग-अलग हैं, पर ‘हूँ’ सबमें एक है । ‘मैं’ तो बदला है, पर ‘हूँ’ नहीं बदला । वह ‘मैं’ बापके सामने बेटा हो जाता, बेटेके सामने बाप हो जाता है अर्थात् वह जिसके सामने जाता है, वैसा ही हो जाता है । अगर उससे पूछें कि ‘तू कौन है’ तो उसको खुदका पता नहीं है ! यदि ‘मैं’ की खोज करें तो ‘मैं’ मिलेगा ही नहीं, प्रत्युत सत्ता मिलेगी । कारण कि वास्तवमें सत्ता ‘है’ की ही है, ‘मैं’ की सत्ता है ही नहीं ।
बेटेकी अपेक्षा बाप है, बापकी अपेक्षा बेटा है—इस प्रकार बेटा, बाप, पोता, दादा आदि नाम अपेक्षासे (सापेक्ष) हैं; अतः ये स्वयं के नाम नहीं हैं । स्वयं का नाम तो निरपेक्ष ‘है’ है । वह ‘है’ ‘मैं’ को जाननेवाला है । ‘मैं’ जानने वाला नहीं है और जो जानने वाला है, वह ‘मैं’ नहीं है । ‘मैं’ ज्ञेय (जानने में आनेवाला) है और ‘है’ ज्ञाता (जाननेवाला) है । ‘मैं’ एकदेशीय है और उसको जानने वाला ‘है’ सर्वदेशीय है । ‘मैं’ से सम्बन्ध मानें या न मानें, ‘मैं’ की सत्ता नहीं है । सत्ता ‘है’ की ही है । परिवर्तन ‘मैं’ में होता है, ‘है’ में नहीं । ‘हूँ’ भी वास्तव में ‘है’ का ही अंश है । ‘मैं’ पनको पकड़नेसे ही वह अंश है । अगर मैं-पन को न पकड़ें तो वह अंश (‘हूँ’) नहीं है, प्रत्युत ‘है’ (सत्ता मात्र है) ‘मैं’ अहंता और ‘मेरा बाप, मेरा बेटा’ आदि ममता है । अहंता-ममतासे रहित होते ही मुक्ति है—
“निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥“
                        …………………(गीता २/७१)
यही ‘ब्राह्मी स्थिति’ है । इस ब्राह्मी स्थितिको प्राप्त होनेपर अर्थात् ‘है’ में स्थितिका अनुभव होने पर शरीरका कोई मालिक नहीं रहता अर्थात् शरीरको मैं—मेरा कहनेवाला कोई नहीं रहता ।

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “साधन-सुधा-सिन्धु” पुस्तकसे


सोमवार, 1 मई 2023

तत्त्वज्ञान क्या है ? (आत्मज्ञान तथा परमात्मज्ञान)...पोस्ट 07


चिन्मय सत्ता तो वही (एक ही) है । अगर हम उस सत्ता में ही रहें तो सत्ता के सिवाय ये अनुकूलता-प्रतिकूलता आदि कुछ है ही नहीं । जैसे, छोटा बालक माँ की गोदी में ही रहता है, गोदी से नीचे उतरते ही रोने लग जाता है, ऐसे ही हम उस सत्ता में ही रहें, सत्ता से नीचे उतरें ही नहीं, कभी उतर जायँ तो व्याकुल हो जायँ !  चाहे अनुकूलता आ जाय, चाहे प्रतिकूलता आ जाय; चाहे जन्म हो जाय, चाहे मृत्यु हो जाय; चाहे नीरोगता आ जाय, चाहे बीमारी आ जाय; चाहे संयोग हो जाय, चाहे वियोग हो जाय; चाहे सम्पत्ति आ जाय, चाहे विपत्ति आ जाय; चाहे मुनाफा हो जाय, चाहे घाटा लग जाय; चाहे करोड़पति हो जाय, चाहे कँगला हो जाय; चिन्मय सत्ता में क्या फर्क पड़ता है ? सत्ता में कुछ होता है ही नहीं । उसमें न कुछ हुआ है, न कुछ हो रहा है, न कुछ होगा और न कुछ हो सकता ही है । कुछ भी होगा तो वह टिकेगा नहीं और सत्ता मिटेगी नहीं । उस सत्तामें हमारी स्थिति स्वतः है ।

‘है’ में हमारी स्थिति स्वतः है और ‘नहीं’ में हमने स्थिति मानी है । मैं पुरुष हूँ, मैं स्त्री हूँ; मैं बालक हूँ, मैं जवान हूँ, मैं बूढ़ा हूँ; मैं बलवान् हूँ, मैं निर्बल हूँ; मैं विद्वान् हूँ, मैं मूर्ख हूँ‒यह सब मानी हुई स्थिति है । वास्तवमें हमारी स्थिति निरन्तर ‘है’ में है । उस ‘है’ के सिवाय किसी की भी सत्ता नहीं है । उस ‘है’ के समान विद्यमान कोई हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं, हो सकता नहीं । वह सदा ज्यों-का-त्यों मौजूद है । वह सभीके प्रत्यक्ष है, किसीसे बिलकुल भी छिपा हुआ नहीं है । यही ब्रह्मज्ञान है, तत्त्वज्ञान है । जो ‘है’ (चिन्मय सत्ता) में स्थित है, वही तत्त्वज्ञानी है, जीवन्मुक्त है, महात्मा है । गीतामें आया है‒

“समं   सर्वेषु   भूतेषु     तिष्ठन्तं    परमेश्वरम् ।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ॥“
                                                ……................(१३ । २७)
‘जो नष्ट होते हुए सम्पूर्ण प्राणियों में परमात्मा को नाशरहित और समरूप से स्थित देखता है (नहीं’ को न देखकर केवल ‘है’ को देखता है), वही वास्तव में सही देखता है ।’

“समं   पश्यन्हि   सर्वत्र     समवस्थितमीश्वरम् ।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् ॥“
                                                      …...................(१३ । २८)

‘क्योंकि सब जगह समरूप से स्थित ईश्वर को समरूप से देखनेवाला मनुष्य अपने-आपसे अपनी हिंसा नहीं करता, इसलिये वह परमगतिको प्राप्त हो जाता है ।’

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “तत्त्वज्ञान कैसे हो ?” पुस्तकसे


देवता कौन ?.... (पोस्ट 14)


प्रश्न‒क्या देवोपासना करनेसे मुक्ति हो सकती है ?

उत्तर‒देवताओंको भगवान्‌का स्वरूप समझकर निष्कामभावसे उपासना करनेसे मुक्ति हो सकती है । मृत्यु-लोकमें भी पुत्र माता-पिताको, पत्नी पतिको ईश्वर मानकर उनकी निष्कामभावसे सेवा करे तो भगवत्प्राप्ति हो सकती है । यदि सम्पूर्ण प्राणियोंमें ईश्वरभाव करके निष्कामभावसे केवल भगवत्प्राप्तिके उद्देश्यसे उनकी सेवा, आदर, पूजन किया जाय तो उससे भी भगवत्प्राप्ति हो सकती है ।[†]

अगर सकामभावसे देवोपासना की जाय तो उससे मुक्ति नहीं होगी । हाँ, देवोपासनासे कामनाओंकी पूर्ति हो जायगी और उसका अधिक-से-अधिक यह फल होगा कि उन देवताओंके लोकोंकी प्राप्ति हो जायगी‒‘यान्ति देवव्रता देवान् (गीता ९ । २५) ।
……………………………………………
[†] “यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् ।
स्वकर्मणा तमभर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ॥“
………………(गीता १८ । ४६)

(जिस परमात्मासे सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति होती है और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, उस परमात्माका अपने कर्मके द्वारा पूजन करके मनुष्य सिद्धिको प्राप्त हो जाता है)

नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

......(गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “कल्याण-पथ “ पुस्तकसे)


रविवार, 30 अप्रैल 2023

तत्त्वज्ञान क्या है ? (आत्मज्ञान तथा परमात्मज्ञान)...पोस्ट 06


प्रश्न‒सत्तामें एकदेशीयता दीखनेमें क्या कारण है ?

उत्तर‒सत्ता को बुद्धि का विषय बनाने से अथवा मन, बुद्धि और अहम्‌ के संस्कार रहने से ही सत्ता में एकदेशीयता दीखती है । वास्तविक सत्ता मन-बुद्धि-अहम्‌‌के अधीन नहीं है, प्रत्युत उनको प्रकाशित करनेवाला तथा उनसे अतीत है । सत्तामात्रमें न मन है, न बुद्धि है, न अहम् है ।

प्रश्न‒यह एकदेशीयता कैसे मिटे ?

उत्तर‒एकदेशीयता मिट जाय‒यह आग्रह भी छोड़कर सत्तामात्रमें स्थित (चुप) हो जाय । चुप होने से मन-बुद्धि-अहम्‌ के संस्कार स्वतः मिट जायेंगे । जैसे समुद्र में बर्फ के ढेले तैर रहे हों तो उनको गलाने के लिये कुछ करनेकी जरूरत ही नहीं है, वे तो स्वतः गल जायेंगे । ऐसे ही सत्तामात्रमें  शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि-अहम् आदि की प्रतीति हो रही है तो उनको न हटाना है, न रखना है । चुप अर्थात् निर्विकल्प होने से वे स्वतः गल जायेंगे [*] ।

सत्तामात्र को देखें तो वह कभी बद्ध हुआ ही नहीं, प्रत्युत सदा ही मुक्त है । अगर वह बद्ध होगा तो कभी मुक्त नहीं हो सकता और मुक्त है तो कभी बद्ध नहीं हो सकता । बन्धन का भाव (सत्ता) विद्यमान नहीं है और मुक्ति का अभाव विद्यमान नहीं है । बन्धन की केवल मान्यता है । वह मान्यता छोड़ दें तो मुक्ति स्वतःसिद्ध है ।

मानवमात्र तत्त्वज्ञानका अधिकारी है; क्योंकि सत्तामें सब मनुष्य एक हो जाते हैं । क्रूर-से-क्रूर भूत, प्रेत, पिशाच, राक्षस आदिमें भी वही सत्ता है और सौम्य-से-सौम्य सन्त, महात्मा, तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्त, भगवत्प्रेमी आदिमें भी वही सत्ता है । वह सत्ता परमात्मसत्तासे सदा अभिन्न है । केवल उस सत्ताके सम्मुख होना है । इसमें क्या अभ्यास है ? क्या परिश्रम है ? क्या कठिनता है ? क्या दुर्लभता है ? क्या परोक्षता है ? सत्तामें न मल है, न विक्षेप है, न आवरण है । अभ्यास तो दृढ़ और अदृढ़ दो तरहका होता है, पर सत्ता दो तरहकी होती ही नहीं । सत्ता और उसका ज्ञान होता है तो सदा दृढ़ ही होता है, अदृढ़ होता ही नहीं ।

अनुकूल-से-अनुकूल परिस्थितिमें भी वही सत्ता है, प्रतिकूल-से-प्रतिकूल परिस्थितिमें भी वही सत्ता है । जीवनमें भी वही सत्ता है, मौतमें भी वही सत्ता है । अमृतमें भी वही सत्ता है, जहरमें भी वही सत्ता है । स्वर्गमें भी वही सत्ता है, नरकमें भी वही सत्ता है । रोगमें भी वही सत्ता है, नीरोगमें भी वही सत्ता है । विद्यामें भी वही सत्ता है, अविद्यामें भी वही सत्ता है । ज्ञानीमें भी वही सत्ता है, मूढ़में भी वही सत्ता है । मित्रमें भी वही सत्ता है, शत्रुमें भी वही सत्ता है । धनीमें भी वही सत्ता है, निर्धनमें भी वही सत्ता है । बलवान्‌में भी वही सत्ता है, निर्बलमें भी वही सत्ता है ।

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[*] ‘एक निर्विकल्प अवस्था होती है और एक निर्विकल्प बोध होता है । निर्विकल्प अवस्था करण-सापेक्ष होती है और निर्विकल्प बोध करण-निरपेक्ष होता है । तात्पर्य है कि निर्विकल्प अवस्था मन-बुद्धिकी होती है और निर्विकल्प बोध मन-बुद्धिसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर स्वयंसे होता है । निर्विकल्प अवस्थामें निर्विकल्पता अखण्डरूपसे नहीं रहती, प्रत्युत उससे व्युत्थान होता है । परन्तु निर्विकल्प बोधमें निर्विकल्पता अखण्डरूपसे रहती है और उससे कभी व्युत्थान नहीं होता । निर्विकल्प अवस्थासे भी असंग होनेपर स्वतःसिद्ध निर्विकल्प बोधका अनुभव हो जाता है ।

नारायण ! नारायण !!
(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “तत्त्वज्ञान कैसे हो ?” पुस्तकसे


देवता कौन ?.... (पोस्ट 13)


 प्रश्न‒क्या देवोपासना सब के लिये आवश्यक है ?

उत्तर‒जैसे प्राणिमात्र को ईश्वर का स्वरूप मानकर आदर-सत्कार करना चाहिये, ऐसे ही देवताओं को ईश्वर का स्वरूप मानकर उनकी तिथि के अनुसार उन का पूजन करना गृहस्थ और वानप्रस्थके लिये आवश्यक है । परन्तु उनका पूजन कोई भी कामना न रखकर, केवल भगवान् और शास्त्रकी आज्ञा मानकर ही किया जाना चाहिये ।

प्रश्न‒देवोपासना करनेसे क्या लाभ है ?

उत्तर‒निष्कामभावसे देवताओंका पूजन करनेसे अन्तःकरणकी शुद्धि होती है और वे देवता यज्ञ (कर्तव्यकर्म) की सामग्री भी देते हैं । उस सामग्री का सदुपयोग करके मनुष्य मनोऽभिलषित वस्तुकी प्राप्ति कर सकते हैं ।[*]

...........................................
[*] काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः ।
    क्षिप्रं हि मानुषे लोके  सिद्धिर्भवति  कर्मजा ॥
                                  ………….(गीता ४ । १२)
(कर्मोंकी सिद्धि (फल) चाहने वाले मनुष्य देवताओं की उपासना किया करते हैं; क्योंकि इस मनुष्यलोक में कर्मोंसे  उत्पन्न होनेवाली सिद्धि जल्दी मिल जाती है)

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “कल्याण-पथ “ पुस्तकसे


शनिवार, 29 अप्रैल 2023

तत्त्वज्ञान क्या है ? (आत्मज्ञान तथा परमात्मज्ञान)...पोस्ट 05



आत्मज्ञान और परमात्मज्ञान एक ही है । कारण कि चिन्मय सत्ता एक ही है, पर जीव की उपाधि से अलग-अलग दीखती है । भगवान् कहते हैं‒

“ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।“
                                         ..............(गीता १५ । ७)

(इस संसार में जीव बना हुआ आत्मा सदा से मेरा ही अंश है ।)

प्रकृतिके अंश ‘अहम्’ को पकडने के कारण ही यह जीव अंश कहलाता है । अगर यह अहम्‌ को न पकड़े तो एक सत्ता-ही-सत्ता है । सत्ता (होनेपन) के सिवाय सब कल्पना है । वह चिन्मय सत्ता सब कल्पनाओं का आधार है, अधिष्ठान है, प्रकाशक है, आश्रय है, जीवनदाता है । उस सत्ता में एकदेशीयपना नहीं है । वह चिन्मय सत्ता सर्वव्यापक है । सम्पूर्ण सृष्टि (क्रियाएँ और पदार्थ) उस सत्ता के अन्तर्गत है । सृष्टि तो उत्पन्न और नष्ट होती रहती है, पर सत्ता ज्यों-की-त्यों रहती है । गीतामें आया है‒

“यथा सर्वगतं सौक्ष्मादाकाशं नोपलिप्यते ।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ॥“
                 ............(१३ । ३२)

(जैसे सब जगह व्याप्त आकाश अत्यन्त सूक्ष्म होने से कहीं भी लिप्त नहीं होता, ऐसे ही सब जगह परिपूर्ण आत्मा किसी भी देहमें लिप्त नहीं होता ।)

तात्पर्य है कि चिन्मय सत्ता केवल शरीर आदि में स्थित नहीं है, प्रत्युत आकाश की तरह सम्पूर्ण शरीरों के, सृष्टिमात्र के बाहर-भीतर सर्वत्र परिपूर्ण है । वह सर्वव्यापी सत्ता ही हमारा स्वरूप है और वही परमात्मतत्त्व है । तात्पर्य है कि सर्वदेशीय सत्ता एक ही है । साधक का लक्ष्य निरन्तर उस सत्ता की ओर ही रहना चाहिये ।

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “तत्त्वज्ञान कैसे हो ?” पुस्तकसे


देवता कौन ?.... (पोस्ट 12)


प्रश्न‒यज्ञ आदि करने से देवताओं की पुष्टि होती है और यज्ञ आदि न करनेसे वे क्षीण हो जाते हैं‒इसका तात्पर्य क्या है ?

उत्तर‒जैसे वृक्ष, लता आदिमें स्वाभाविक ही फल-फूल लगते हैं; परन्तु यदि उनको खाद और पानी दिया जाय तो उनमें फल-फूल विशेषता से लगते हैं । ऐसे ही शास्त्रविधि के अनुसार देवताओं के लिये यज्ञादि अनुष्ठान करनेसे देवताओं को खुराक मिलती है, जिससे वे पुष्ट होते हैं और उनको बल मिलता है, सुख मिलता है । परंतु यज्ञ आदि न करनेसे उनको विशेष बल, शक्ति नहीं मिलती ।

यज्ञ आदि न करने से मर्त्यदेवताओं की शक्ति तो क्षीण होती ही है, आजानदेवताओ में जो कार्य करने की क्षमता होती है, उसमें भी कमी आ जाती है । उस कमी के कारण ही संसार में अनावृष्टि, अतिवृष्टि आदि उपद्रव होने लगते हैं ।

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “कल्याण-पथ “ पुस्तकसे


शुक्रवार, 28 अप्रैल 2023

श्रीराम जय राम जय जय राम

गुन तुम्हार समुझइ निज दोसा। जेहि सब भाँति तुम्हार भरोसा॥
राम भगत प्रिय लागहिं जेही। तेहि उर बसहु सहित बैदेही॥

(हे राम ! जो गुणों को आपका और दोषों को अपना समझता है, जिसे सब प्रकार से आपका ही भरोसा है, और रामभक्त जिसे प्यारे लगते हैं, उसके हृदय में आप सीता सहित निवास कीजिए)


तत्त्वज्ञान क्या है ? (आत्मज्ञान तथा परमात्मज्ञान)...पोस्ट 04


साधकको ‘सत्’ और ‘चित्’ (चेतन) की तरफ विशेष ध्यान देना चाहिये । सत्‌का स्वरूप है‒सत्तामात्र और चित्‌का स्वरूप है‒ज्ञानमात्र । उत्पत्तिका आधार होनेसे यह ‘सत्ता’ (सत्) है तथा प्रतीतिका प्रकाशक होनेसे यह ‘ज्ञान’ (चित्) है । यह सत्ता और ज्ञान ही ‘चिन्मय सत्ता’ है, जो कि हमारा स्वरूप है । जैसे, सुषुप्तिमें अनुभव होता है कि ‘मैं बड़े सुखसे सोया अर्थात् मैं तो था ही’‒ यह ‘सत्ता’ है और ‘मुझे कुछ भी पता नहीं था’‒यह ‘ज्ञान’ है । तात्पर्य है कि सुषुप्तिमें अपनी सत्ता तथा अहम्‌के अभावका (मुझे कुछ भी पता नहीं था‒इसका) ज्ञान रहता है । जैसे, आँखसे सब वस्तुएँ दीखती हैं, पर आँखसे आँख नहीं दीखती; अतः यह कह सकते हैं कि जिससे सब वस्तुएँ दीखती हैं, वही आँख है । ऐसे ही जिसको अहम्‌के भाव और अभावका ज्ञान होता है, वही चिन्मय सत्ता (स्वरूप) है । उस चिन्मय सत्ताके अभावका ज्ञान कभी किसीको नहीं होता । चित् ही बुद्धिमें ज्ञान-रूपसे आता है और भौतिक जगत्‌में (नेत्रोंके सामने) प्रकाश-रूपसे आता है । बुद्धिमें जानना और न जानना रहता है तथा नेत्रोंके सामने प्रकाश और अँधेरा रहता है । जैसे सम्पूर्ण संसारकी स्थिति एक सत्ताके अन्तर्गत है, ऐसे ही सम्पूर्ण पढ़ना, सुनना, सीखना, समझना आदि एक ज्ञानके अन्तर्गत है । ये सत् और चित् सबके प्रत्यक्ष हैं, किसीसे भी छिपे हुए नहीं हैं । इनके सिवाय जो असत् है, वह ठहरता नहीं है और जो जड़ है, वह टिकता नहीं है । सत् और चित्‌का अभाव कभी विद्यमान नहीं है एवं असत् और जडका भाव कभी विद्यमान नहीं है । सत् और चित् सबसे पहले भी हैं, सबसे बादमें भी हैं और अभी भी ज्यों-के-त्यों हैं ।

जिनकी मान्यतामें कालकी सत्ता है, उनके लिये यह कहा जाता है कि परमात्मतत्त्व भूतमें भी है, भविष्यमें भी है और वर्तमानमें भी है । वास्तवमें न तो भूत है, न भविष्य है और न वर्तमान ही है, प्रत्युत एक परमात्मतत्त्व ही है । वह परमात्मतत्त्व कालका भी महाकाल है, कालका भी भक्षण करनेवाला है‒     
                   
(१)  ब्रह्म अगनि तन बीचमें, मथकर काढ़े कोय ।
       उलट कालको खात है हरिया गुरुगम होय ॥
 (२) नवग्रह चौसठ जोगिणी,  बावन बीर प्रजंत ।
      काल भक्ष सबको करै,    हरि शरणै डरपंत ॥
                                           .............. (करुणासागर ६४)

काल उसी को खाता है, जो पैदा हुआ है । जो पैदा ही नहीं हुआ, उसको काल कैसे खाये ? ऐसा वह परमात्मतत्त्व जीवमात्र को नित्यप्राप्त है । उस सर्वसमर्थ परमात्मतत्त्वमें यह सामर्थ्य नहीं है कि वह कभी किसीसे अलग हो जाय, कभी किसीको अप्राप्त हो जाय । वह नित्य-निरन्तर सबमें ज्यों-का-त्यों विद्यमान है, नित्यप्राप्त है । यह ‘परमात्मज्ञान’ है ।

नारायण ! नारायण !!

   (शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “तत्त्वज्ञान कैसे हो ?” पुस्तकसे


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट११) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन पान...