|| श्री परमात्मने नम: ||
कर्म
सर्वत्र आदिष्टं न जानाति च किञ्चन ।
कर्म
ब्रह्म विजानाति जीवन्मुक्तः स उच्यते॥९॥
शास्त्रविहित
कर्म के अतिरिक्त जो अन्य कुछ नहीं जानता तथा कर्म को ब्रह्मस्वरूप जानता हुआ
सम्पादित करता रहता है,
वही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ ९ ॥
चिन्मयं
व्यापितं सर्वमाकाशं जगदीश्वरम् ।
सहितं सर्वभूतानां जीवन्मुक्त: स
उच्यते ॥ १० ॥
सभी प्राणियों
के हृदयाकाश में व्याप्त चिन्मय परमात्मतत्त्व को जो जानता है, वही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ १० ॥
अनादिवर्ती
भूतानां जीवः शिवो न हन्यते ।
निर्वैरः
सर्वभूतेषु जीवन्मुक्तः स उच्यते॥११॥
प्राणियों में
स्थित शिवस्वरूप जीवात्मा अनादि है और इसका नाश नहीं हो सकता - ऐसा जानकर जो सभी
प्राणियों के प्रति वैर- रहित हो जाता है, वही वस्तुतः
जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ ११ ॥
आत्मा
गुरुस्त्वं विश्वं च चिदाकाशो न लिप्यते ।
गतागतं
द्वयोर्नास्ति जीवन्मुक्तः स उच्यते ॥ १२ ॥
आत्मा ही गुरुरूप
और विश्वरूप है,
इस चैतन्य आकाश को कुछ भी मलिन नहीं कर सकता । भूतकाल और वर्तमान
दोनों ही काल के अंश होने से एक ही हैं, दो नहीं, जो ऐसा जानता है, वही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता
है ॥ १२ ॥
गर्भध्यानेन
पश्यन्ति ज्ञानिनां मन उच्यते ।
सोऽहं
मनो विलीयन्ते जीवन्मुक्तः स उच्यते ॥ १३ ॥
अन्तःध्यान के
द्वारा जिसे ज्ञानीजन देख पाते हैं,वह 'मन' कहा जाता है । उस मन को सोऽहं ( वह परमतत्त्व
मैं ही हूँ) - की भावना में जो विलीन कर लेता है, वही
वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ १३ ॥
......शेष
आगामी पोस्ट में
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958)
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