मंगलवार, 3 अक्तूबर 2023

गीता प्रबोधनी पहला अध्याय (पोस्ट.०२)


 

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

  

सञ्जय उवाच


दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।

आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत्॥ २॥

पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्।

व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता॥ ३॥

अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि।

युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथ:॥ ४॥

धृष्टकेतुश्चेकितान: काशिराजश्च वीर्यवान्।

पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गव:॥ ५॥

युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्।

सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथा:॥ ६॥

अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम।

नायका मम सैन्यस्य सञ्ज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते॥ ७॥

भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जय:।

अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च॥ ८॥

अन्ये च बहव: शूरा मदर्थे त्यक्तजीविता:।

नानाशस्त्रप्रहरणा: सर्वे युद्धविशारदा:॥ ९॥

 

 संजय बोले

 उस समय वज्रव्यूह से खड़ी हुई पाण्डव-सेना को देखकर और द्रोणाचार्य के पास जाकर राजा दुर्योधन यह वचन बोला । हे आचार्य! आपके बुद्धिमान् शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्नके द्वारा व्यूहरचना से खड़ी की हुई पाण्डवों की इस बड़ी भारी सेनाको देखिये। यहाँ (पाण्डवोंकी सेनामें) बड़े-बड़े शूरवीर हैं, जिनके बहुत बड़े-बड़े धनुष हैं तथा जो युद्धमें भीम और अर्जुनके समान हैं। उनमें युयुधान (सात्यकि), राजा विराट और महारथी द्रुपद भी हैं। धृष्टकेतु और चेकितान तथा पराक्रमी काशिराज भी हैं। पुरुजित् और कुन्तिभोजये (दोनों भाई) तथा मनुष्यों में श्रेष्ठ शैब्य भी हैं। पराक्रमी युधामन्यु और पराक्रमी उत्तमौजा भी हैं। सुभद्रापुत्र अभिमन्यु और द्रौपदी के पाँचों पुत्र भी हैं। ये सब-के-सब महारथी हैं। हे द्विजोत्तम! हमारे पक्षमें भी जो मुख्य हैं, उनपर भी आप ध्यान दीजिये। आपको याद दिलाने के लिये मेरी सेना के जो नायक हैं, उनको मैं कहता हूँ। आप (द्रोणाचार्य) और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्रामविजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्रभूरिश्रवा । इनके अतिरिक्त बहुत-से शूरवीर हैं, जिन्होंने मेरे लिये अपने जीने की इच्छा का भी त्याग कर दिया है, और जो अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों को चलाने वाले हैं तथा जो सब-के-सब युद्धकला में अत्यन्त चतुर हैं।

 

ॐ तत्सत् !

 

शेष आगामी पोस्ट में .........

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)



सोमवार, 2 अक्तूबर 2023

मानस में नाम-वन्दना (पोस्ट.. 02)

 

|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||

 

गिरा और बीचिये दोनों स्त्रीलिंग पद हैं, अरथ और जलये दोनों पुँल्लिंग पद हैं । ये दोनों दृष्टान्त सीता और रामकी परस्पर अभिन्नता बतानेके लिये दिये गये हैं । इनका उलट-पुलट करके प्रयोग किया है । पहले गिरास्त्रीलिंग पद कहकर अरथपुँल्लिंग पद कहा, यह तो ठीक है; क्योंकि पहले सीता और उसके बाद राम हैं, पर दूसरे उदाहरणमें उलट दिया अर्थात् जल’[*] पुँल्लिंग पद पहले रखा और उसके साथ बीचिस्त्रीलिंग पद बादमें रखा । इसका तात्पर्य रामसीताहुआ । इस प्रकार कहनेसे दोनोंकी अभिन्नता सिद्ध होती है । सीतारामसब लोग कहते हैं, पर रामसीताऐसा नहीं कहते हैं । जब भगवान्‌के प्रति विशेष प्रेम बढ़ता है, उस समय सीता और राम भिन्न-भिन्न नहीं दीखते । इस कारण किसको पहले कहें, किसको पीछे कहेंयह विचार नहीं रहता, तब ऐसा होता है । श्रीभरतजी महाराज जब चित्रकूट जा रहे हैं तो प्रयागमें प्रवेश करते समय कहते हैं

 

भरत  तीसरे  पहर   कहँ   कीन्ह   प्रबेसु   प्रयाग ।

कहत राम सिय राम सिय उमगि उमगि अनुराग ॥

                                                    ………….(मानस, अयोध्याकाण्ड, दोहा २०३)

 

प्रेममें उमँग-उमँगकर रामसिय-रामसिय कहने लगते हैं । उस समय प्रेमकी अधिकताके कारण दोनोंकी एकताका अनुभव होता है । इसलिये चाहे श्रीसीताराम कहोचाहे रामसीता कहो, ये दोनों अभिन्न हैं । ऐसे श्रीसीतारामजीकी वन्दना करते हैं । अब इससे आगे नाम महाराजकी वन्दना करके नौ दोहोंमें नाममहिमाका वर्णन करते हैं ।

एक नाम-जप होता है और एक मन्त्र-जप होता है ।  रामनाम मन्त्र भी है और नाम भी है । नाममें सम्बोधन होता है तथा मन्त्रमें नमन और स्वाहा होता है । जैसे रामाय नमःयह मन्त्र है । इसका विधिसहित अनुष्ठान होता है और राम ! राम !! राम !!! ऐसे नाम लेकर केवल पुकार करते हैं ।  रामनामकी पुकार विधिरहित होती है । इस प्रकार भगवान्‌को सम्बोधन करनेका तात्पर्य यह है कि हम भगवान्‌को पुकारें, जिससे भगवान्‌की दृष्टि हमारी तरफ खिंच जाय ।

 

कैसा ही क्यों न जन नींद सोता ।

वो नाम लेते  ही  सुबोध  होता ॥

 

जैसे, सोये हुए किसी व्यक्तिको पुकारें तो वह अपना नाम सुनते ही नींदसे जग जाता है, ऐसे ही राम ! राम !! राम !!! करनेसे रामजी हमारी तरफ खिंच जाते हैं । जैसे, एक बच्चा माँ-माँ पुकारता है तो माताओंका चित्त उस बच्चेकी तरफ आकृष्ट हो जाता है । जिनके छोटे बालक हैं, उन सबका एक बार तो उस बालककी तरफ चित्त खिंचेगा, पर उठकर वही माँ दौड़ेगी, जिसको वह बच्चा अपनी माँ मानता है । माँ नाम तो उन सबका ही है, जिनके बालक हैं । फिर वे सब क्यों नहीं दौड़तीं ? सब कैसे दौड़ें ! वह बालक तो अपनी माँ को ही पुकारता है । दूसरी माताओंके कितने ही सुन्दर गहने हों, सुन्दर कपड़े हों, कितना ही अच्छा स्वभाव हो, पर उनको वह अपनी माँ नहीं मानता । वह तो अपनी माँको ही चाहता है,इसलिये उस बालककी माँ ही उसकी तरफ खिंचती है । ऐसे ही राम-रामहम आर्त होकर पुकारें और भगवान्‌को ही अपना मानें तो भगवान् हमारी तरफ खिंच जायेंगे ।

______________________________________

[*] जलशब्द संस्कृत भाषाके अनुसार नपुंसकलिंग है, पर हिन्दी में जलशब्द पुँल्लिंग माना गया है । हिन्दी में नपुंसक लिंग होता ही नहीं ।

 

राम !   राम !!   राम !!!

 

(शेष आगामी पोस्ट में )

---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की मानस में नाम-वन्दनापुस्तकसे




भगवद्भक्त का महत्त्व




 श्री परमात्मने नम:

 

श्रीभगवान् कहते हैं— मुझ में भक्ति रखनेवाला मानव मेरे गुणों से सम्पन्न होकर मुक्त हो जाता है । उसकी वृत्ति गुण का अनुसरण करने लगती है । वह सदा मेरी कथा – वार्ता में लगता है । मेरा गुणानुवाद सुनने मात्र से वह आनन्द में तन्मय हो उठता है । उसका शरीर पुलकित हो जाता है और वाणी गद्गद हो जाती है। उसकी आँखों में आँसू भर आते और वह अपनी सुधि-बुधि खो बैठता है । मेरी पवित्र सेवा में नित्य नियुक्त रहने के कारण सुख, चार प्रकार की सालोक्यादि मुक्ति,  ब्रह्मा का पद अथवा अमरत्व कुछ भी पाने की अभिलाषा वह नहीं करता । ब्रह्मा, इन्द्र एवं मनु की उपाधि तथा स्वर्ग के राज्य का सुख - ये सभी परम दुर्लभ है; किंतु मेरा भक्त स्वप्न में भी इनकी इच्छा नहीं करता ।

 

मद्भक्तियुक्तो मर्त्यश्च स मुक्तो मद्गुणान्वितः ।

मद्गुणाधीनवृत्तिर्यः कथाविष्टश्च संततम् ॥

मगुणश्रुतिमात्रेण सानन्दः पुलकान्वितः ।

सगद्गदः साश्रुनेत्रः स्वात्मविस्मृत एव च ॥

न वाञ्छति सुखं मुक्तिं सालोक्यादिचतुष्टयम् ।

ब्रह्मत्वममरत्वं वा तद्वाञ्छा मम सेवने ॥

इन्द्रत्वं च मनुत्वं च ब्रह्मत्वं च सुदुर्लभम् ।

स्वर्गराज्यादिभोगं च स्वप्नेऽपि च न वाञ्छति ॥

 

………..(देवीभागवत, नवम स्कन्ध )

......गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “परलोक और पुनर्जन्मांक” पुस्तक से (कोड 572)

 




गीता प्रबोधनी पहला अध्याय (पोस्ट.०१)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:

धृतराष्ट्र उवाच

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव:।
मामका: पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय॥ १॥

धृतराष्ट्र बोले—हे संजय ! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में इकट्ठे हुए युद्ध की इच्छा वाले मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने भी क्या किया ?

व्याख्या—

यह हिन्दू संस्कृति की विलक्षणता है कि इसमें प्रत्येक कार्य अपने कल्याण का उद्देश्य सामने रखकर ही करने की प्रेरणा की गयी है। इसलिए युद्ध-जैसा घोर कर्म भी 'धर्मक्षेत्र' ( धर्मभूमि ) एवं 'कुरुक्षेत्र'  ( तीर्थभूमि ) - में किया गया है, जिसमें युद्ध में मरने वालों का भी कल्याण हो जाय। भगवान् की ओर से सृष्टि में कोई भी (मेरे और तेरे का) विभाग नहीं किया गया है | सम्पूर्ण सृष्टि पाँचभौतिक है | सभी मनुष्य समान हैं और उन्हें आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी भी समान रूप से मिले हुए हैं | परन्तु मनुष्य मोह के वशीभूत होकर उनमें विभाग कर लेता है कि ये मनुष्य,घर, गाँव,प्रांत, देश, आकाश,जल आदि मेरे हैं और ये तेरे हैं | इस ‘मेरे’ और ‘तेरे’ भेद से ही सम्पूर्ण संघर्ष उत्पन्न होते हैं | महाभारत का युद्ध भी ‘मामका:’ (मेरे पुत्र) और ‘पांडवा:’ (पांडु के पुत्र)—इस भेद के कारण आरम्भ हुआ है |

ॐ तत्सत् !

शेष आगामी पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)


रविवार, 1 अक्तूबर 2023

मानस में नाम-वन्दना (पोस्ट.. 01)



|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||

श्रीसीताराम-वन्दना

गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न ।
बंदउँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न ॥
………..(मानस, बालकाण्ड, दोहा १८)

गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी महाराज कथा प्रारम्भ करनेसे पहले सभी की वन्दना करते हैं । इस दोहे में श्रीसीतारामजी को नमस्कार करते हैं । इसके बाद नाम-वन्दना और नाम-महिमा को लगातार नौ दोहे और बहत्तर चौपाइयों में कहते हैं ।

श्रीगोस्वामी जी महाराज को यह नौ संख्या बहुत प्रिय लगती है । नौ संख्याको कितना ही गुणा किया जाय, तो उन अंकोंको जोड़नेपर नौ ही बचेंगे । जैसे, नौ संख्या को नौ से गुणा करने पर इक्यासी होते हैं । इक्यासी के आठ और एक, इन दोनों को जोड़ने पर फिर नौ हो जाते हैं । इस प्रकार कितनी ही लम्बी संख्या क्यों न हो जाय, पर अन्त में नौ ही रहेंगे; क्योंकि यह संख्या पूर्ण है ।

गोस्वामी जी महाराज को जहाँ-कहीं ज्यादा महिमा करनी होती है तो नौ तरह की उपमा और नौ तरह के उदाहरण देते हैं । नौ संख्या आखिरी हद है, इससे बढ़कर कोई संख्या नहीं है । यह नौ संख्या अटल है ।
संबत सोरह सै एकतीसा ।
करउँ कथा हरि पद धरि सीसा ॥
नौमी भौम बार मधुमासा ।
अवधपुरी यह चरित प्रकासा ॥
……………(मानस, बालकाण्ड, दोहा ३४ । ४,५)

रामजन्म तिथि बार सब जस त्रेता महँ भास ।
तस इकतीसा महँ को जोग लगन ग्रह रास ॥

भगवान् श्रीराम ने त्रेतायुगमें चैत्र मास, शुक्लपक्ष, नवमी तिथि,मंगलवार के दिन शुभ मुहूर्तके समय अयोध्या में अवतार लिया । भगवान्‌ के अवतारके दिन जैसा शुभ मुहूर्त था, ठीक वैसा ही शुभ मुहूर्त का संयोग संवत् १६३१ में भगवान्‌ के अवतार के दिन बना । श्रीगोस्वामीजी महाराज ने अयोध्या में उसी दिन श्रीरामचरितमानस ग्रन्थ लिखना आरम्भ किया । जबतक ऐसा संयोग नहीं बना, तब तक वैसे शुभ मुहूर्त की प्रतीक्षा करते रहे । यहाँ अठारहवें दोहे में श्रीसीतारामजी के चरणोंकी वन्दना करते हैं । सीतारामजी की बहुत विलक्षणता है । ‘जिन्हहि परम प्रिय खिन्न’, दुःखी आदमी किसीको प्यारा नहीं लगता । दीन-दुःखीको सब दुत्कारते हैं, पर सीतारामजी को जो दुःखी होता है, वह ज्यादा प्यारा लगता है, वह उनका परमप्रिय है, उसपर विशेष कृपा करते हैं । उन श्रीसीतारामजीके चरणोंमें मैं प्रणाम करता हूँ ।

श्रीसीतारामजी अलग-अलग नहीं हैं । इस बातको समझानेके लिये दो दृष्टान्त देते हैं । जैसे, गिरा-अरथ और जल-बीचि कहनेका तात्पर्य है कि वाणी और उसका अर्थ कहनेमें दो हैं, पर वास्तवमें दो नहीं, एक हैं । वाणीसे कुछ भी कहोगे तो उसका कुछ-न-कुछ अर्थ होगा ही और किसीको कुछ अर्थ समझाना हो तो वाणीसे ही कहा जायगा‒ऐसे परस्पर अभिन्न हैं । इसी तरह जल होगा तो उसकी तरंग भी होगी । तरंग और जल कहने में दो हैं, पर जलसे तरंग या तरंगसे जल अलग नहीं है एक ही है ।

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे




गीता प्रबोधनी ---------प्राक्कथन

 ॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥



श्रीमद्भगवद्गीता विश्व का अद्वितीय ग्रन्थ है | इस पर अब तक न जाने कितनी टीकाएँ लिखी जा चुकी हैं, लिखी जा रही हैं और भविष्य में लिखी जायँगी, पर इसके गूढ़ भावों का अन्त न आया है, न आयेगा | कारण कि यह अनन्त भगवान् के मुख से निकली हुई दिव्य वाणी (परम वचन) है | इस दिव्य वाणी पर जो कुछ भी कहता या लिखता है, वह वास्तव में अपनी बुद्धि का ही परिचय देता है | गीता के भावों को कोई इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि से नहीं पकड़ सकता | हाँ, इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसहित अपने आपको भगवान् के समर्पित करके अपना कल्याण कर सकता है | जो अपने-आपको भगवान् के समर्पित कर देता है, उनके शरणागत हो जाता है , उस पर गीता-ज्ञान का प्रवाह स्वतः आ जाता है | तात्पर्य है कि गीता को समझने के लिए शरणागत होना आवश्यक है | अर्जुन भी जब भगवान् के शरणागत हुए , तभी भगवान् के मुख से गीता का प्राकट्य हुआ , जिससे अर्जुन का मोह नष्ट हुआ और उन्हें स्मृति प्राप्त हुई--'नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा ' (गीता १८ | ७३) |

गीता-ज्ञान को जानने का परिणाम है--'वासुदेवः सर्वम्' का अनुभव हो जाना | इसके अनुभव में ही गीता की पूर्णता है | यही वास्तविक शरणागति है | तात्पर्य है कि जब भक्त शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसहित अपने-आपको भगवान् के समर्पित कर देता है, तब शरणागत (मैं-पन) नहीं रहता , प्रत्युत् केवल शरण्य (भगवान्) ही रह जाते हैं, जिनमें मैं-तू-यह-वह चारों का ही सर्वथा अभाव है | इसलिए जब कोई महात्मा गीता को जान लेता है, तब वह मौन हो जाता है | उसके पास कुछ कहने या लिखने के लिए शब्द नहीं रहते | वह साधकों के प्रति गीता के विषय में कुछ भी कहता है तो वह शाखाचन्द्रन्याय से संकेतमात्र होता है |

लगभग बीस वर्ष पहले मैंने गीता पर “साधक-संजीवनी” नामक विस्तृत हिन्दी टीका लिखी थी | जिज्ञासु साधकों ने उसे बड़े उत्साहपूर्वक अपनाया और उससे लाभ भी उठाया | साथ ही साधकों की यह मांग भी बढ़ती रही कि “साधक-संजीवनी” का कलेवर बहुत बड़ा होने से इसे अपने पास रखने में कठिनाई होती है तथा विस्तार अधिक होने से पूरा पढ़ने के लिए समय भी नहीं मिल पाता | इसे ध्यान में रखते हुए गीता पर एक संक्षिप्त टीका लिखने का विचार किया गया, जो “गीता-प्रबोधनी” नाम से साधकों की सेवा में प्रस्तुत है | इसमें गीता के मूल श्लोक एवं अर्थ के साथ संक्षिप्त व्याख्या दी गयी है | परन्तु सभी श्लोकों की व्याख्या नहीं दी गयी है | अनेक श्लोकों का केवल अर्थ दिया गया है | टीका को संक्षिप्त बनाने की दृष्टि रहने से व्याख्या का विस्तार करने में संकोच किया गया है | अत: साधक को यदि किसी व्याख्या का विषय विस्तार से समझने की आवश्यकता प्रतीत हो तो उसे “ साधक-संजीवनी” टीका देखनी चाहिए |

गीता के भावों का अंत न होने से इस “गीता-प्रबोधनी” टीका में कुछ नए भाव आये हैं, जो अन्य किसी टीका में हमारे देखने में नहीं आये | साधकों से प्रार्थना है कि वे किसी मत,सम्प्रदाय आदि का आग्रह न रखते हुए इस टीका को पढ़ें और लाभ उठायें |
विनीत—

स्वामी रामसुखदास
ॐ तत्सत् !

शेष आगामी पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)


गीता प्रबोधनी ......ध्यान

 ॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥



ध्यान

“यस्यांगेऽखिलसृष्टिसौष्ठवमिदं प्रोतं सदा वर्तते,
यल्लीलाश्रवणेन दुर्जयमन: शीघ्रं हरौ रुध्यते |
नाम्नैकेन ही यस्य पापनिरतो जीवो भयान्मुच्यते,
वत्सीकृत्य तु फाल्गुनं करुणया गीतादुहे नो नम: ||”

(जिन भगवान् श्रीकृष्ण के अंग में सम्पूर्ण सृष्टि का सौंदर्य ओत-प्रोत है, जिनकी लीला का श्रवण करने से दुर्जय मन भी शीघ्र ही भगवान् में ठहर जाता है, जिनका एक नाम लेने मात्र से पाप में आसक्त जीव भी भय से मुक्त हो जाता है और जिन्होंने अर्जुन को बछड़ा बनाकर कृपापूर्वक गीतारूपी दूध को दुहा, उन्हें हम प्रणाम करते हैं)

ॐ तत्सत् !

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)


रविवार, 24 सितंबर 2023

# भक्तराज प्रह्लाद और ध्रुव #

|| ॐ नमो नारायणाय ||

 विश्व के भक्तों में भक्तप्रवर श्रीप्रह्लाद और ध्रुव की भक्ति, प्रेम, सहिष्णुता अत्यन्त ही अलौकिक थी। दोनों प्रातःस्मरणीय भक्त श्रीभगवान्‌ के विलक्षण प्रेमी थे।  प्रह्लादजी के निष्काम भाव की महिमा कही नहीं जा सकती।  आरंभ से ही इनमें पूर्ण निष्काम भाव था।  जब भगवान्‌ नृसिंहदेव ने इनसे वर मांगनेको कहा तब इन्होंने जवाब दिया कि ‘नाथ!  मैं क्या लेन देन करनेवाला व्यापारी हूं?  मैं तो आपका सेवक हूं, सेवक का काम मांगना नहीं है और स्वामी का कुछ दे दिलाकर सेवक को टाल देना नहीं है।’  परन्तु जब भगवान्‌ ने फिर आग्रह किया तो प्रह्लाद ने एक वरदान तो यह मांगा कि ‘मेरे पिता ने आपसे द्वेष करके आपकी भक्ति में बाधा पहुंचाने के लिये मुझपर जो अत्याचार किये, हे प्रभो!  आपकी कृपा से मेरे पिता उस दुष्कर्म से उत्पन्न हुए पाप से अभी छूट जायं।’ 

 ‘स्वत्प्रसादात्‌ प्रभो सद्यस्तेन मुच्यते मे पिता।’ 

 कितनी महानता है!  दूसरा वरदान यह मांगा कि ‘प्रभो!  यदि आप मुझे वरदान देना ही चाहते हैं तो यह दीजिये कि मेरे मन में कभी कुछ मांगने की अभिलाषा ही न हो।’  

 कितनी अद्भुत निष्कामता और दृढ़ता है।  पिता ने कितना कष्ट दिया, परन्तु प्रह्लादजी सब कष्ट सुखपूर्वक सहते रहे, पितासे कभी द्वेष नहीं किया, और अन्तमें महान्‌ निष्कामी होनेपर भी पिताका अपराध क्षमा करनेके लिये भगवान्‌ से प्रार्थना की!

 भक्तवर ध्रुवजी में एक बातकी और विशेषता है, उनमें अपनी सौतेली माता सुरुचीजीके लिये भगवान्‌ से यह कहा कि ‘नाथ!  मेरी माताने यदि मेरा तिरस्कार न किया होता तो आज आपके दुर्लभ दर्शनका अलभ्य लाभ मुझे कैसे मिलता?  माता ने बड़ा ही उपकार किया है।’  इस तरह दोषमें उल्टा गुणका आरोप कर उन्होंने भगवान्‌ से सौतेली माँ के लिये मुक्तिका वरदान मांगा।  कितने मह्त्त्व की बात है!

 पर इससे यह नहीं समझना चाहिये, कि भक्तवर प्रह्लादजी ने पिता में दोषारोपण कर भगवान्‌ के सामने उसे अपराधी बतलाया, इससे उनका भाव नीचा है।  ध्रुवजी की सौतेली माताने ध्रुवसे द्वेष किया था, उनके इष्टदेव भगवान्‌ से नहीं, परन्तु प्रह्लादजी के पिता हिरण्यकशिपु ने तो प्रह्लाद के इष्टदेव भगवान्‌ से द्वेष किया था।  अपने प्रति किया हुआ दोष तो भक्त मानते ही नहीं, फिर माता-पिताद्वारा किया हुआ तिरस्कार तो उत्तम फलका कारण होता है।  इसलिये ध्रुवजीका मातामें गुणका आरोप करना उचित ही था।  परन्तु प्रह्लादजी के तो इष्टदेवका तिरस्कार था।  प्रह्लादजीने अपनेको कष्ट देनेवाला जानकर पिताको दोषी नहीं बतलाया, उन्होंने भगवान्‌ से उनका अपराध  करनेके लिये क्षमा मांगकर पिताका उद्धार चाहा।

 बहुतसी बातोंमें एकसे होनेपर भी प्रह्लादजी में निष्काम भावकी विशेषता थी और ध्रुवजीमें सौतेली माताके प्रति गुणारोप कर उसके लिये मुक्ति मांगनेकी ! वास्तवमें दोनों ही विलक्षण भक्त थे।  भगवान्‌ का दर्शन करनेके लिये दोनोंकी ही प्रतिज्ञा अटल थी, दोनोंने उसको बड़ी ही दृढ़ता और तत्परता से पूरा किया।  प्रह्लादजी ने घरमें पिता के द्वारा दिये हुए कष्ट प्रसन्न मन से सहे, तो ध्रुवजी ने वनमें अनेक कष्टोंको सानन्द सहन किया।  नियमोंसे कोई किसीप्रकार भी नहीं हटे, अपने सिद्धान्तपर दृढ़तासे डटे रहे, कोई भी भय या प्रलोभन उन्हें तनिक सा भी नहीं झुका सका।

 वास्तवमें दोनों ही परम आदर्श और वन्दनीय हैं, हमें दोनों ही के जीवनसे शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये।

 
...........००३. १२. आषाढ़ कृष्ण ११  सं०१९८६वि० कल्याण  (पृ०१०५२ )


# श्री राम जय राम जय जय राम #

कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई। जब तव सुमिरन भजन न होई ॥ 

अर्थ- श्रीहनुमान् जी कहते हैं- 'हे प्रभो! विपत्ति वही है कि जब आपका भजन-स्मरण नहीं होता !

श्रीहनुमान् जी विपत्ति की परिभाषा बतलाते हैं। जिस समय सुमिरन-भजन न हो उसी समयका नाम विपत्ति है। सुमिरन-भजन न होने का मतलब संसार की ओर उन्मुख होना है। दूसरे शब्दोंमें यह कहा जा सकता है कि मनका बहिर्मुख होना ही विपत्ति है। शङ्कर भगवान् कहते हैं कि 'सत हरि भजन जगत सब सपना।' 'सपना' का भाव यह है कि सब जगत् क्षणभङ्गुर है। क्षणभङ्गुर का नाश ही होगा, अत: उसमें मन लगाने वाले को पदे-पदे विपत्ति है। 

जो आपका नाम-स्मरण करनेवाले हैं उनके स्मरणमें बाधा पड़ती है तो उनको विपत्ति वही है और उनके लिये दूसरी कोई विपत्ति नहीं है। पुनः जो आपकी सेवा करनेवाले भक्त हैं। आपकी सेवामें जब बाधा पड़ती है, उनसे आपकी सेवा नहीं होती तो उनकी विपत्ति वही है और दूसरी विपत्ति उनके लिये नहीं है। ....(मानस पीयूष ६/३२-३)


शनिवार, 23 सितंबर 2023

मनन करने योग्य

रघुनाथाय नाथाय सीताया: पतये नम:


1- ‘पुत्र, स्त्री और धनसे सच्ची तृप्ति नहीं हो सकती । यदि होती तो अब तक किसी न किसी योनि में हो ही जाती । सच्ची तृप्तिका विषय है, केवल परमात्मा।  जिसके मिल जाने पर जीव सदा के लिये तृप्त हो जाता है।’

2-‘दुःख मनुष्यत्व के विकास का साधन है । सच्चे मनुष्य का जीवन दुःख में ही खिल उठता है।  सोने का रङ्ग तपाने पर ही चमकता है।’

3-‘नित्य हँसमुख रहो, मुखको मलीन कभी न करो, यह निश्चय कर लो कि चिन्ता ने तुम्हारे लिये जगत्‌ में जन्म ही नहीं लिया, आनन्दस्वरूप में सिवा हँसने के चिन्ता को स्थान ही कहां है।’

4-‘सर्वत्र परमात्मा की मधुर मूर्ति देखकर आनन्द में मग्न रहो, जिसको उसकी मूर्ति सब जगह दीखती है वह तो स्वयं आनन्दस्वरूप ही है।’

5-‘शान्ति तो तुम्हारे अन्दर है।  कामनारूप डाकिनी का आवेश उतरा कि शान्ति के दर्शन हुए।  वैराग्य के महामन्त्र से कामना को भगा दो, फिर देखो सर्वत्र शान्ति की शान्त मूरति।’

6-‘जहां सम्पत्ति है वहीं सुख है, परन्तु सम्पत्ति के भेदसे ही सुख का भी भेद है ।  दैवी सम्पत्तिवालों को परमात्मसुख है और आसुरीवालोंको आसुरीसुख, नरक के कीड़ों को नरक सुख।’

7-‘किसी भी अवस्थामें मनको व्यथित मत होने दो, याद रक्खो परमात्मा के यहाँ कभी भूल नहीं होती और न उसका कोई विधान दयासे रहित ही होता है।’

8-‘परमात्मा पर विश्वास रखकर अपनी जीवन डोर उसके चरणों में बांध दो, फिर निर्भयता तो तुम्हारे चरणों की दासी बन जायगी ।’

9-‘बीते हुए की चिन्ता न करो, जो अब करना है उसे विचारो और विचारो यही कि बाकी का सारा जीवन केवल उस परमात्माके ही काम में आवे ।’

10-‘धन्य वही है, जिसके जीवन का एक एक क्षण अपने प्रियतम प्यारे के मन की अनुकूलता में बीतता है ।  चाहे वह अनुकूलता संयोग में हो  या वियोग में, स्वर्गमें हो या नरक में, मान में हो या अपमान में, मुक्ति में हो या बन्धन में ।’

11-‘सदा अपने हृदयको देखते रहो, कहीं उसमें काम, क्रोध, वैर, ईर्षा, घृणा, मान और मदरूपी शत्रु घर न कर लें ।  इनमेंसे जिस किसीको भी देखो, तुरन्त मारकर भगा दो।  पर देखना बड़ी बारीक नजरसे सचेत होकर, ये चुपके से अन्दर आकर छिप जाते हैं और मौका देखकर अपना विकरालरूप दिखलाते हैं।  

12-‘किसी के भी ऊपर के आचरणों को देखकर उसे पापी मत मानो ।  हो सकता है उस पर मिथ्या ही दोषारोपण किया जाता हो और वह उससे अपने को निर्दोष सिद्ध करने की परिस्थिति में न हो।  अथवा यह भी सम्भव है कि उसने किसी परिस्थिति में पड़कर अनिच्छा से कोई बुरा कर्म कर लिया हो, परन्तु उसका अन्तःकरण तुमसे अधिक पवित्र हो।’
            
…....००२. ०६. पौष सं० १९८४वि०.कल्याण( पृ० ३०२ )


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...