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बुधवार, 4 अक्तूबर 2023
गीता प्रबोधनी पहला अध्याय (पोस्ट.०४)
मंगलवार, 3 अक्तूबर 2023
गीता प्रबोधनी पहला अध्याय (पोस्ट.०३)
मानस में नाम-वन्दना (पोस्ट.. 03)
|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||
जब
लग गज अपनो बल बरत्यो नेक सरयो नहीं काम ।
निरबल
ह्वै बलराम पुकार्यो
आयो आधे नाम ॥
जैसे,
गजराजने
पूरा नाम भी उच्चारण नहीं किया, उसने केवल ‘हे
ना......(थ)’
आधा
नाम लेकर पुकारा । उतनेमें भगवान्ने आकर रक्षा कर दी । शास्त्रीय विधियोंकी उतनी
आवश्यकता नहीं है, जितनी इस तरह आर्त होकर पुकारनेकी है
। इसलिये आर्त होकर, दुःखी होकर, भगवान्को
अपना मानकर पुकारें और केवल उनका ही भरोसा, उनकी
ही आशा,
उनका
ही विश्वास रखें और सब तरफसे मन हटाकर उनका ही नाम लें और उनको ही पुकारें‒हे
राम ! राम !! राम !!! आर्तका भाव तेज होता है, इससे
भगवान् उसकी तरफ खिंच जाते हैं और उसके सामने प्रकट हो जाते हैं । तभी तो भगवान्
प्रह्लादके लिये खम्भेमेंसे प्रकट हो गये । भीतरका जो आर्तभाव होता है,
वही
मुख्य होता है । ‘राम’ नाम
उच्चारण करनेकी बड़ी भारी महिमा है । उस ‘राम’
नामका
प्रकरण रामचरितमानसमें बड़े विलक्षण ढंगसे आया है ।
नाम-वन्दना
हेतु
कृसानु भानु हिमकर को ॥
…………(मानस,
बालकाण्ड,
दोहा
१९ । १)
नामकी वन्दना
करते हुए श्रीगोस्वामीजी महाराज कहते हैं कि मैं रघुवंशमें श्रेष्ठ श्रीरघुनाथजीके
उस ‘राम’
नामकी
वन्दना करता हूँ, जो कृसानु (अग्नि),
भानु
(सूर्य) और हिमकर (चन्द्रमा) का हेतु अर्थात् बीज है । बीजमें क्या होता है ?बीजमें
सब गुण होते हैं । वृक्षके फलमें जो रस होता है, वह
सब रस बीजमें ही होता है । बीजसे ही सारे वृक्षको तथा फलोंको रस मिलता है ।
अग्निवंशमें परशुरामजी, सूर्यवंशमें
रामजी और चन्द्रवंशमें बलरामजी‒इस प्रकार
तीनों वंशोंमें ही भगवान्ने अवतार लिये । ये तीनों अवतार ‘राम’
नामवाले
हैं,
पर
श्रीरघुनाथजी महाराजका जो ‘राम’
नाम
है,
वह
इन सबका कारण है । मैं रघुनाथजी महाराजके उसी ‘राम’
नामकी
वन्दना करता हूँ, जो अग्निका बीज ‘र’,सूर्यका
बीज ‘आ’
और
चन्द्रमाका बीज ‘म’ है ।
‘राम’
नाममें
‘र’,
‘आ’
और
‘म’‒ये
तीन अवयव हैं । इन अवयवोंका वर्णन करनेके लिये कृसानु, भानु
और हिमकर‒ये
तीन शब्द दिये हैं ।
यहाँ ये
तीनों शब्द बड़े विचित्र एवं विलक्षण रीतिसे दिये गये हैं । कृसानुमें‘ऋ’,
भानुमें
‘आ’
और
हिमकर में ‘म’
है
। ‘कृसानु’
शब्दमेंसे
‘ऋ’
को
निकाल दें तो‘क्सानु’
शब्द
बचेगा,
जिसका
कोई अर्थ नहीं होगा । ‘भानु’
शब्दमेंसे
‘आ’
निकाल
दें तो ‘भ्नु’
का
भी कोई अर्थ नहीं होगा । ऐसे ही ‘हिमकर’
शब्दमेंसे
‘म’
को
निकाल दें तो ‘हिकर’
का
भी कोई अर्थ नहीं निकलेगा; अर्थात्
कृसानु भानु और हिमकर‒ये तीनों मुर्देकी तरह हो जायँगे;
क्योंकि
इनमेंसे ‘राम’
ही
निकल गया । इनके साथ‘राम’ नाम
रहनेसे कृसानुमें ‘कृ’ का
अर्थ करना,
‘सानु’
का
अर्थ शिखर है,
ऐसे
ही‘भानु’
में
‘भा’
नाम
प्रकाशका है,
‘नु’
नाम
निश्चयका है और ‘हिमकर’ में ‘हिम’नाम
बर्फका है और ‘कर’
नाम
हाथका है ।
राम
! राम !! राम !!!
(शेष
आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय
स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में
नाम-वन्दना” पुस्तकसे
गीता प्रबोधनी पहला अध्याय (पोस्ट.०२)
॥ ॐ
श्रीपरमात्मने नम:॥
सञ्जय
उवाच
दृष्ट्वा
तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।
आचार्यमुपसङ्गम्य
राजा वचनमब्रवीत्॥ २॥
पश्यैतां
पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्।
व्यूढां
द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता॥ ३॥
अत्र
शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि।
युयुधानो
विराटश्च द्रुपदश्च महारथ:॥ ४॥
धृष्टकेतुश्चेकितान:
काशिराजश्च वीर्यवान्।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च
शैब्यश्च नरपुङ्गव:॥ ५॥
युधामन्युश्च
विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्।
सौभद्रो
द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथा:॥ ६॥
अस्माकं
तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम।
नायका
मम सैन्यस्य सञ्ज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते॥ ७॥
भवान्भीष्मश्च
कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जय:।
अश्वत्थामा
विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च॥ ८॥
अन्ये
च बहव: शूरा मदर्थे त्यक्तजीविता:।
नानाशस्त्रप्रहरणा:
सर्वे युद्धविशारदा:॥ ९॥
ॐ
तत्सत् !
शेष
आगामी पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी”
(कोड १५६२ से)
सोमवार, 2 अक्तूबर 2023
मानस में नाम-वन्दना (पोस्ट.. 02)
||
ॐ
श्री परमात्मने नम: ||
गिरा और बीचि‒ये दोनों स्त्रीलिंग पद हैं, अरथ और जल‒ये दोनों पुँल्लिंग पद हैं । ये दोनों दृष्टान्त सीता और रामकी परस्पर अभिन्नता बतानेके लिये दिये गये हैं । इनका उलट-पुलट करके प्रयोग किया है । पहले ‘गिरा’ स्त्रीलिंग पद कहकर ‘अरथ’ पुँल्लिंग पद कहा, यह तो ठीक है; क्योंकि पहले सीता और उसके बाद राम हैं, पर दूसरे उदाहरणमें उलट दिया अर्थात् ‘जल’[*] पुँल्लिंग पद पहले रखा और उसके साथ ‘बीचि’ स्त्रीलिंग पद बादमें रखा । इसका तात्पर्य ‘रामसीता’हुआ । इस प्रकार कहनेसे दोनोंकी अभिन्नता सिद्ध होती है । ‘सीताराम’ सब लोग कहते हैं, पर ‘रामसीता’ ऐसा नहीं कहते हैं । जब भगवान्के प्रति विशेष प्रेम बढ़ता है, उस समय सीता और राम भिन्न-भिन्न नहीं दीखते । इस कारण किसको पहले कहें, किसको पीछे कहें‒यह विचार नहीं रहता, तब ऐसा होता है । श्रीभरतजी महाराज जब चित्रकूट जा रहे हैं तो प्रयागमें प्रवेश करते समय कहते हैं‒
भरत तीसरे
पहर कहँ कीन्ह
प्रबेसु प्रयाग ।
कहत
राम सिय राम सिय उमगि उमगि अनुराग ॥
………….(मानस,
अयोध्याकाण्ड,
दोहा
२०३)
प्रेममें
उमँग-उमँगकर रामसिय-रामसिय कहने लगते हैं । उस समय प्रेमकी अधिकताके कारण दोनोंकी
एकताका अनुभव होता है । इसलिये चाहे श्रीसीताराम कहो‒चाहे
रामसीता कहो,
ये
दोनों अभिन्न हैं । ऐसे श्रीसीतारामजीकी वन्दना करते हैं । अब इससे आगे नाम
महाराजकी वन्दना करके नौ दोहोंमें नाममहिमाका वर्णन करते हैं ।
एक नाम-जप
होता है और एक मन्त्र-जप होता है । ‘राम’
नाम
मन्त्र भी है और नाम भी है । नाममें सम्बोधन होता है तथा मन्त्रमें नमन और स्वाहा
होता है । जैसे ‘रामाय नमः’ यह
मन्त्र है । इसका विधिसहित अनुष्ठान होता है और राम ! राम !! राम !!! ऐसे नाम लेकर
केवल पुकार करते हैं । ‘राम’
नामकी
पुकार विधिरहित होती है । इस प्रकार भगवान्को सम्बोधन करनेका तात्पर्य यह है कि
हम भगवान्को पुकारें, जिससे भगवान्की दृष्टि हमारी तरफ
खिंच जाय ।
कैसा
ही क्यों न जन नींद सोता ।
वो
नाम लेते ही सुबोध
होता ॥
जैसे,
सोये
हुए किसी व्यक्तिको पुकारें तो वह अपना नाम सुनते ही नींदसे जग जाता है,
ऐसे
ही राम ! राम !! राम !!! करनेसे रामजी हमारी तरफ खिंच जाते हैं । जैसे,
एक
बच्चा माँ-माँ पुकारता है तो माताओंका चित्त उस बच्चेकी तरफ आकृष्ट हो जाता है ।
जिनके छोटे बालक हैं, उन सबका एक बार तो उस बालककी तरफ
चित्त खिंचेगा,
पर
उठकर वही माँ दौड़ेगी, जिसको वह बच्चा अपनी माँ मानता है ।
माँ नाम तो उन सबका ही है, जिनके बालक
हैं । फिर वे सब क्यों नहीं दौड़तीं ? सब कैसे
दौड़ें ! वह बालक तो अपनी माँ को ही पुकारता है । दूसरी माताओंके कितने ही सुन्दर
गहने हों,
सुन्दर
कपड़े हों,
कितना
ही अच्छा स्वभाव हो, पर उनको वह अपनी माँ नहीं मानता । वह
तो अपनी माँको ही चाहता है,इसलिये उस
बालककी माँ ही उसकी तरफ खिंचती है । ऐसे ही ‘राम-राम’
हम
आर्त होकर पुकारें और भगवान्को ही अपना मानें तो भगवान् हमारी तरफ खिंच जायेंगे ।
______________________________________
[*] ‘जल’
शब्द
संस्कृत भाषाके अनुसार नपुंसकलिंग है, पर हिन्दी में
‘जल’
शब्द
पुँल्लिंग माना गया है । हिन्दी में नपुंसक लिंग होता ही नहीं ।
राम
! राम !! राम !!!
(शेष
आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय
स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में
नाम-वन्दना” पुस्तकसे
भगवद्भक्त का महत्त्व
श्री परमात्मने नम:
श्रीभगवान् कहते हैं— मुझ में भक्ति
रखनेवाला मानव मेरे गुणों से सम्पन्न होकर मुक्त हो जाता है । उसकी वृत्ति गुण का
अनुसरण करने लगती है । वह सदा मेरी कथा – वार्ता में लगता है । मेरा गुणानुवाद
सुनने मात्र से वह आनन्द में तन्मय हो उठता है । उसका शरीर पुलकित हो जाता है और
वाणी गद्गद हो जाती है। उसकी आँखों में आँसू भर आते और वह अपनी सुधि-बुधि खो बैठता
है । मेरी पवित्र सेवा में नित्य नियुक्त रहने के कारण सुख,
चार प्रकार की सालोक्यादि मुक्ति,
ब्रह्मा का पद अथवा अमरत्व कुछ भी पाने की अभिलाषा वह नहीं करता । ब्रह्मा,
इन्द्र एवं मनु की उपाधि तथा स्वर्ग के राज्य का सुख - ये सभी परम
दुर्लभ है; किंतु मेरा भक्त स्वप्न में भी इनकी इच्छा नहीं
करता ।
मद्भक्तियुक्तो
मर्त्यश्च स मुक्तो मद्गुणान्वितः ।
मद्गुणाधीनवृत्तिर्यः
कथाविष्टश्च संततम् ॥
मगुणश्रुतिमात्रेण
सानन्दः पुलकान्वितः ।
सगद्गदः
साश्रुनेत्रः स्वात्मविस्मृत एव च ॥
न
वाञ्छति सुखं मुक्तिं सालोक्यादिचतुष्टयम् ।
ब्रह्मत्वममरत्वं
वा तद्वाञ्छा मम सेवने ॥
इन्द्रत्वं
च मनुत्वं च ब्रह्मत्वं च सुदुर्लभम् ।
स्वर्गराज्यादिभोगं
च स्वप्नेऽपि च न वाञ्छति ॥
………..(देवीभागवत, नवम स्कन्ध )
......गीता
प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “परलोक और पुनर्जन्मांक” पुस्तक से (कोड 572)
गीता प्रबोधनी पहला अध्याय (पोस्ट.०१)
रविवार, 1 अक्तूबर 2023
मानस में नाम-वन्दना (पोस्ट.. 01)
गीता प्रबोधनी ---------प्राक्कथन
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
श्रीमद्भगवद्गीता विश्व का अद्वितीय ग्रन्थ है | इस पर अब तक न जाने कितनी टीकाएँ लिखी जा चुकी हैं, लिखी जा रही हैं और भविष्य में लिखी जायँगी, पर इसके गूढ़ भावों का अन्त न आया है, न आयेगा | कारण कि यह अनन्त भगवान् के मुख से निकली हुई दिव्य वाणी (परम वचन) है | इस दिव्य वाणी पर जो कुछ भी कहता या लिखता है, वह वास्तव में अपनी बुद्धि का ही परिचय देता है | गीता के भावों को कोई इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि से नहीं पकड़ सकता | हाँ, इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसहित अपने आपको भगवान् के समर्पित करके अपना कल्याण कर सकता है | जो अपने-आपको भगवान् के समर्पित कर देता है, उनके शरणागत हो जाता है , उस पर गीता-ज्ञान का प्रवाह स्वतः आ जाता है | तात्पर्य है कि गीता को समझने के लिए शरणागत होना आवश्यक है | अर्जुन भी जब भगवान् के शरणागत हुए , तभी भगवान् के मुख से गीता का प्राकट्य हुआ , जिससे अर्जुन का मोह नष्ट हुआ और उन्हें स्मृति प्राप्त हुई--'नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा ' (गीता १८ | ७३) |
गीता प्रबोधनी ......ध्यान
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
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