सोमवार, 26 फ़रवरी 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - चौथा अध्याय..(पोस्ट..०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--चौथा अध्याय..(पोस्ट ०४)

महर्षि व्यासका असन्तोष

सूत उवाच

द्वापरे समनुप्राप्ते तृतीये युगपर्यये ।
जातः पराशराद् योगी वासव्यां कलया हरेः ॥ १४ ॥
स कदाचित् सरस्वत्या उपस्पृश्य जलं शुचिः ।
विविक्तदेश आसीन उदिते रविमण्डले ॥ १५ ॥
परावरज्ञः स ऋषिः कालेनाव्यक्तरंहसा ।
युगधर्मव्यतिकरं प्राप्तं भुवि युगे युगे ॥ १६ ॥
भौतिकानां च भावानां शक्तिह्रासं च तत्कृतम् ।
अश्रद्दधानान्निःसत्त्वान् दुर्मेधान् ह्रसितायुषः ॥ १७ ॥
दुर्भगांश्च जनान् वीक्ष्य मुनिर्दिव्येन चक्षुषा ।
सर्ववर्णाश्रमाणां यद् दध्यौ हितममोघदृक् ॥ १८ ॥
चातुर्होत्रं कर्म शुद्धं प्रजानां वीक्ष्य वैदिकम् ।
व्यदधाद् यज्ञसन्तत्यै वेदमेकं चतुर्विधम् ॥ १९ ॥

सूतजीने कहा—इस वर्तमान चतुर्युगीके तीसरे युग द्वापरमें महर्षि पराशरके द्वारा वसु-कन्या सत्यवतीके गर्भसे भगवान्‌ के कलावतार योगिराज व्यासजीका जन्म हुआ ॥ १४ ॥ एक दिन वे सूर्योदयके समय सरस्वतीके पवित्र जलमें स्नानादि करके एकान्त पवित्र स्थानपर बैठे हुए थे ॥ १५ ॥ महर्षि भूत और भविष्यको जानते थे। उनकी दृष्टि अचूक थी। उन्होंने देखा कि जिसको लोग जान नहीं पाते, ऐसे समयके फेरसे प्रत्येक युगमें धर्मसङ्करता और उसके प्रभावसे भौतिक वस्तुओंकी भी शक्तिका ह्रास होता रहता है। संसारके लोग श्रद्धाहीन और शक्तिरहित हो जाते हैं। उनकी बुद्धि कर्तव्यका ठीक-ठीक निर्णय नहीं कर पाती और आयु भी कम हो जाती है। लोगोंकी इस भाग्यहीनताको देखकर उन मुनीश्वरने अपनी दिव्यदृष्टिसे समस्त वर्णों और आश्रमों का हित कैसे हो, इसपर विचार किया ॥ १६—१८ ॥ उन्होंने सोचा कि वेदोक्त चातुर्होत्र [*]  कर्म लोगोंका हृदय शुद्ध करनेवाला है। इस दृष्टिसे यज्ञोंका विस्तार करनेके लिये उन्होंने एक ही वेदके चार विभाग कर दिये ॥ १९ ॥ 

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[*] होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा—ये चार होता हैं। इनके द्वारा सम्पादित होनेवाले अग्रिष्टोमादि यज्ञको चातुर्होत्र कहते हैं।

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - चौथा अध्याय..(पोस्ट..०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--चौथा अध्याय..(पोस्ट ०३)

महर्षि व्यासका असन्तोष

अभिमन्युसुतं सूत प्राहुर्भागवतोत्तमम् ।
तस्य जन्म महाश्चर्यं कर्माणि च गृणीहि नः ॥ ९ ॥
स सम्राट् कस्य वा हेतोः पाण्डूनां मानवर्धनः ।
प्रायोपविष्टो गङ्गायां अनादृत्य अधिराट् श्रियम् ॥ १० ॥
नमन्ति यत्पादनिकेतमात्मनः
     शिवाय हानीय धनानि शत्रवः ।
कथं स वीरः श्रियमङ्ग दुस्त्यजां
     युवैषतोत् स्रष्टुमहो सहासुभिः ॥ ११ ॥
शिवाय लोकस्य भवाय भूतये
     य उत्तमश्लोकपरायणा जनाः ।
जीवन्ति नात्मार्थमसौ पराश्रयं
     मुमोच निर्विद्य कुतः कलेवरम् ॥ १२ ॥
तत्सर्वं नः समाचक्ष्व पृष्टो यदिह किञ्चन ।
मन्ये त्वां विषये वाचां स्नातमन्यत्र छान्दसात् ॥ १३ ॥

सूतजी ! हमने सुना है कि अभिमन्युनन्दन परीक्षित्‌ भगवान्‌ के बड़े प्रेमी भक्त थे। उनके अत्यन्त आश्चर्यमय जन्म और कर्मोंका भी वर्णन कीजिये ॥ ९ ॥ वे तो पाण्डववंश के गौरव बढ़ानेवाले सम्राट् थे। वे भला, किस कारणसे साम्राज्यलक्ष्मी का परित्याग करके गङ्गातटपर मृत्यु-पर्यन्त अनशनका व्रत लेकर बैठे थे ? ॥ १० ॥ शत्रुगण अपने भलेके लिये बहुत-सा धन लाकर उनके चरण रखनेकी चौकीको नमस्कार करते थे। वे एक वीर युवक थे। उन्होंने उस दुस्त्यज लक्ष्मीको, अपने प्राणोंके साथ भला, क्यों त्याग देनेकी इच्छा की ॥ ११ ॥ जिन लोगोंका जीवन भगवान्‌के आश्रित है, वे तो संसारके परम कल्याण, अभ्युदय और समृद्धिके लिये ही जीवन धारण करते हैं। उसमें उनका अपना कोई स्वार्थ नहीं होता। उनका शरीर तो दूसरोंके हितके लिये था, उन्होंने विरक्त होकर उसका परित्याग क्यों किया ॥ १२ ॥ वेदवाणीको छोड क़र अन्य समस्त शास्त्रों के आप पारदर्शी विद्वान् हैं। सूतजी ! इसलिये इस समय जो कुछ हमने आपसे पूछा  है, वह सब कृपा करके हमें कहिये ॥१३॥

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रविवार, 25 फ़रवरी 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - चौथा अध्याय..(पोस्ट..०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--चौथा अध्याय..(पोस्ट ०२)

महर्षि व्यासका असन्तोष

दृष्ट्वानुयान्तमृषिमात्मजमप्यनग्नं
देव्यो ह्रिया परिदधुर्न सुतस्य चित्रम् ।
तद्‌वीक्ष्य पृच्छति मुनौ जगदुस्तवास्ति
स्त्रीपुम्भिदा न तु सुतस्य विविक्तदृष्टेः ॥ ५ ॥
कथमालक्षितः पौरैः संप्राप्तः कुरुजाङ्गलान् ।
उन्मत्तमूकजडवद् विचरन् गजसाह्वये ॥ ६ ॥
कथं वा पाण्डवेयस्य राजर्षेर्मुनिना सह ।
संवादः समभूत् तात यत्रैषा सात्वती श्रुतिः ॥ ७ ॥
स गोदोहनमात्रं हि गृहेषु गृहमेधिनाम् ।
अवेक्षते महाभागः तीर्थीकुर्वन् तदाश्रमम् ॥ ८ ॥

व्यासजी जब संन्यासके लिये वनकी ओर जाते हुए अपने पुत्रका पीछा कर रहे थे, उस समय जलमें स्नान करनेवाली स्त्रियोंने नंगे शुकदेव को देखकर तो वस्त्र धारण नहीं किया, परन्तु वस्त्र पहने हुए व्यासजीको देखकर लज्जासे कपड़े पहन लिये थे। इस आश्चर्यको देखकर जब व्यासजीने उन स्त्रियोंसे इसका कारण पूछा, तब उन्होंने उत्तर दिया कि ‘आपकी दृष्टिमें तो अभी स्त्री-पुरुष का भेद बना हुआ है, परन्तु आपके पुत्रकी शुद्ध दृष्टिमें यह भेद नहीं है’ ॥ ५ ॥ कुरुजाङ्गल देशमें पहुँचकर हस्तिनापुरमें वे पागल, गूँगे तथा जडके समान विचरते होंगे। नगरवासियों ने उन्हें कैसे पहचाना ? ॥ ६ ॥ पाण्डवनन्दन राजर्षि परीक्षित्‌ का इन मौनी शुकदेवजी के साथ संवाद कैसे हुआ, जिसमें यह भागवतसंहिता कही गयी ? ॥ ७ ॥ महाभाग श्रीशुकदेव जी तो गृहस्थों के घरों को तीर्थस्वरूप बना देने के लिये उतनी ही देर उनके दरवाजे पर रहते हैं, जितनी देर में एक गाय दुही जाती है ॥ ८ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - चौथा अध्याय..(पोस्ट..०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--चौथा अध्याय..(पोस्ट ०१)

महर्षि व्यासका असन्तोष

व्यास उवाच ।

इति ब्रुवाणं संस्तूय मुनीनां दीर्घसत्रिणाम् ।
वृद्धः कुलपतिः सूतं बह्‌वृचः शौनकोऽब्रवीत् ॥ १ ॥

शौनक उवाच ।

सूत सूत महाभाग वद नो वदतां वर ।
कथां भागवतीं पुण्यां यदाह भगवान् शुकः ॥ २ ॥
कस्मिन् युगे प्रवृत्तेयं स्थाने वा केन हेतुना ।
कुतः सञ्चोदितः कृष्णः कृतवान् संहितां मुनिः ॥ ३ ॥
तस्य पुत्रो महायोगी समदृङ् निर्विकल्पकः ।
एकान्तमतिः उन्निद्रो गूढो मूढ इवेयते ॥ ४ ॥

व्यासजी कहते हैं—उस दीर्घकालीन सत्र में सम्मिलित हुए मुनियों में विद्या-वयोवृद्ध कुलपति ऋग्वेदी शौनकजी ने सूतजीकी पूर्वोक्त बात सुनकर उनकी प्रशंसा की और कहा ॥ १ ॥
शौनकजी बोले—सूतजी ! आप वक्ताओं में श्रेष्ठ हैं तथा बड़े भाग्यशाली हैं। जो कथा भगवान्‌ श्रीशुकदेवजी ने कही थी, वही भगवान्‌ की पुण्यमयी कथा कृपा करके आप हमें सुनाइये ॥ २ ॥ वह कथा किस युगमें, किस स्थानपर और किस कारणसे हुई थी ? मुनिवर श्रीकृष्णद्वैपायनने किसकी प्रेरणा से इस परमहंसों की संहिताका निर्माण किया था ? ॥ ३ ॥ उनके पुत्र शुकदेवजी बड़े योगी, समदर्शी, भेदभाव-रहित, संसार-निद्रा से जगे एवं निरन्तर एकमात्र परमात्मामें ही स्थित रहते हैं। वे छिपे रहनेके कारण मूढ़-से प्रतीत होते हैं ॥ ४ ॥ 

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शनिवार, 24 फ़रवरी 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - तीसरा अध्याय..(पोस्ट..१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--तीसरा अध्याय..(पोस्ट १२)

भगवान्‌ के अवतारों का वर्णन

इदं भागवतं नाम पुराणं ब्रह्मसम्मितम् ।
उत्तमश्लोकचरितं चकार भगवान् ऋषिः ॥ ४० ॥
निःश्रेयसाय लोकस्य धन्यं स्वस्त्ययनं महत् ।
तदिदं ग्राहयामास सुतं आत्मवतां वरम् ॥ ४१ ॥
सर्ववेदेतिहासानां सारं सारं समुद्धृतम् ।
स तु संश्रावयामास महाराजं परीक्षितम् ॥ ४२ ॥
प्रायोपविष्टं गङ्गायां परीतं परमर्षिभिः ।
कृष्णे स्वधामोपगते धर्मज्ञानादिभिः सह ॥ ४३ ॥
कलौ नष्टदृशामेष पुराणार्कोऽधुनोदितः ।
तत्र कीर्तयतो विप्रा विप्रर्षेर्भूरितेजसः ॥ ४४ ॥
अहं चाध्यगमं तत्र निविष्टस्तद् अनुग्रहात् ।
सोऽहं वः श्रावयिष्यामि यथाधीतं यथामति ॥ ४५ ॥

भगवान्‌ वेदव्यास ने यह वेदों के समान भगवच्चरित्र से परिपूर्ण भागवत नामका पुराण बनाया है ॥ ४० ॥ उन्होंने इस श्लाघनीय, कल्याणकारी और महान् पुराण को लोगोंके परम कल्याणके लिये अपने आत्मज्ञानिशिरोमणि पुत्रको ग्रहण कराया ॥ ४१ ॥ इसमें सारे वेद और इतिहासों का सार-सार संग्रह किया गया है। शुकदेवजीने राजा परीक्षित्‌ को यह सुनाया ॥ ४२ ॥ उस समय वे परमर्षियों से घिरे हुए आमरण अनशन का व्रत लेकर गङ्गातट पर बैठे हुए थे। भगवान्‌ श्रीकृष्ण जब धर्म, ज्ञान आदिके साथ अपने परमधाम को पधार गये, तब इस कलियुगमें जो लोग अज्ञानरूपी अन्धकारसे अंधे हो रहे हैं, उनके लिये यह पुराणरूपी सूर्य इस समय प्रकट हुआ है। शौनकादि ऋषियो ! जब महा- तेजस्वी श्रीशुकदेवजी महाराज वहाँ इस पुराणकी कथा कह रहे थे, तब मैं भी वहाँ बैठा था। वहीं मैंने उनकी कृपापूर्ण अनुमतिसे इसका अध्ययन किया। मेरा जैसा अध्ययन है और मेरी बुद्धिने जितना जिस प्रकार इसको ग्रहण किया है, उसीके अनुसार इसे मैं आपलोगों को सुनाऊँगा ॥ ४३—४५ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे नैमिषीयोपाख्याने तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - तीसरा अध्याय..(पोस्ट..११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--तीसरा अध्याय..(पोस्ट ११)

भगवान्‌ के अवतारों का वर्णन
स वेद धातुः पदवीं परस्य
     दुरन्तवीर्यस्य रथाङ्गपाणेः ।
योऽमायया सन्ततयानुवृत्त्या
     भजेत तत्पादसरोजगन्धम् ॥ ३८ ॥
अथेह धन्या भगवन्त इत्थं
     यद्‌वासुदेवेऽखिललोकनाथे ।
कुर्वन्ति सर्वात्मकमात्मभावं
     न यत्र भूयः परिवर्त उग्रः ॥ ३९ ॥

चक्रपाणि भगवान्‌ की शक्ति और पराक्रम अनन्त हैं—उनकी कोई थाह नहीं पा सकता। वे सारे जगत् के  निर्माता होनेपर भी उससे सर्वथा परे हैं। उनके स्वरूप को अथवा उनकी लीलाके रहस्य को वही जान सकता है, जो नित्य-निरन्तर निष्कपट भाव से उनके चरणकमलोंकी दिव्य गन्धका सेवन करता है—सेवा-भाव से उनके चरणों का चिन्तन करता रहता है ॥ ३८ ॥ शौनकादि ऋषियो ! आप लोग बड़े ही सौभाग्यशाली तथा धन्य हैं जो इस जीवन में और विघ्न-बाधाओं से भरे इस संसार में समस्त लोकों के स्वामी भगवान्‌ श्रीकृष्ण से वह सर्वात्मक आत्मभाव, वह अनिर्वचनीय अनन्य प्रेम करते हैं, जिससे फिर इस जन्म-मरणरूप संसार के भयंकर चक्र में नहीं पडऩा होता ॥ ३९ ॥

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शुक्रवार, 23 फ़रवरी 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - तीसरा अध्याय..(पोस्ट १०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--तीसरा अध्याय..(पोस्ट १०)

भगवान्‌ के अवतारों का वर्णन

यद्येषोपरता देवी माया वैशारदी मतिः ।
संपन्न एवेति विदुः महिम्नि स्वे महीयते ॥ ३४ ॥
एवं जन्मानि कर्माणि ह्यकर्तुरजनस्य च ।
वर्णयन्ति स्म कवयो वेदगुह्यानि हृत्पतेः ॥ ३५ ॥
स वा इदं विश्वममोघलीलः
     सृजत्यवत्यत्ति न सज्जतेऽस्मिन् ।
भूतेषु चान्तर्हित आत्मतंत्रः
     षाड्वर्गिकं जिघ्रति षड्गुणेशः ॥ ३६ ॥
न चास्य कश्चिन्निपुणेन धातुः
     अवैति जन्तुः कुमनीष ऊतीः ।
नामानि रूपाणि मनोवचोभिः
     सन्तन्वतो नटचर्यामिवाज्ञः ॥ ३७ ॥

तत्त्वज्ञानी लोग जानते हैं कि जिस समय यह बुद्धिरूपा परमेश्वरकी माया निवृत्त हो जाती है, उस समय जीव परमानन्दमय हो जाता है और अपनी स्वरूप-महिमामें प्रतिष्ठित होता है ॥ ३४ ॥ वास्तवमें जिनके जन्म नहीं हैं और कर्म भी नहीं हैं, उन हृदयेश्वर भगवान्‌ के अप्राकृत जन्म और कर्मोंका तत्त्वज्ञानी लोग इसी प्रकार वर्णन करते हैं; क्योंकि उनके जन्म और कर्म वेदोंके अत्यन्त गोपनीय रहस्य हैं ॥ ३५ ॥
भगवान्‌ की लीला अमोघ है। वे लीला से ही इस संसार का सृजन, पालन और संहार करते हैं, किंतु इसमें आसक्त नहीं होते। प्राणियोंके अन्त:करणमें छिपे रहकर ज्ञानेन्द्रिय और मनके नियन्ताके रूपमें उनके विषयोंको ग्रहण भी करते हैं, परंतु उनसे अलग रहते हैं, वे परम स्वतन्त्र हैं—ये विषय कभी उन्हें लिप्त नहीं कर सकते ॥ ३६ ॥ जैसे अनजान मनुष्य जादूगर अथवा नट के संकल्प और वचनोंसे की हुई करामात को नहीं समझ पाता, वैसे ही अपने संकल्प और वेदवाणीके द्वारा भगवान्‌ के प्रकट किये हुए इन नाना नाम और रूपों को तथा उनकी लीलाओं को कुबुद्धि जीव बहुत- सी तर्क युक्तियोंके द्वारा नहीं पहचान सकता ॥ ३७ ॥ 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - तीसरा अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--तीसरा अध्याय..(पोस्ट०९)

भगवान्‌ के अवतारों का वर्णन

एतद् रूपं भगवतो ह्यरूपस्य चिदात्मनः ।
मायागुणैर्विरचितं महदादिभिरात्मनि ॥ ३० ॥
यथा नभसि मेघौघो रेणुर्वा पार्थिवोऽनिले ।
एवं द्रष्टरि दृश्यत्वं आरोपितं अबुद्धिभिः ॥ ३१ ॥
अतः परं यदव्यक्तं अव्यूढगुणबृंहितम् ।
अदृष्टाश्रुतवस्तुत्वात् स जीवो यत् पुनर्भवः ॥ ३२ ॥
यत्रेमे सदसद् रूपे प्रतिषिद्धे स्वसंविदा ।
अविद्ययाऽऽत्मनि कृते इति तद्ब्रह्मदर्शनम् ॥ ३३ ॥

प्राकृत स्वरूपरहित चिन्मय भगवान्‌ का जो यह स्थूल जगदाकार रूप है, यह उनकी मायाके महत्तत्त्वादि गुणोंसे भगवान्‌ में ही कल्पित है ॥ ३० ॥ जैसे बादल वायुके आश्रय रहते हैं और धूसर- पना धूल में होता है, परन्तु अल्पबुद्धि मनुष्य बादलों का आकाश में और धूसरपने का वायु में आरोप करते हैं—वैसे ही अविवेकी पुरुष सबके साक्षी आत्मामें स्थूल दृश्यरूप जगत् का आरोप करते हैं ॥ ३१ ॥ इस स्थूल रूपसे परे भगवान्‌ का एक सूक्ष्म अव्यक्त रूप है—जो न तो स्थूलकी तरह आकारादि गुणोंवाला है और न देखने, सुनने में ही आ सकता है; वही सूक्ष्म-शरीर है। आत्मा का आरोप या प्रवेश होनेसे यही जीव कहलाता है और इसीका बार-बार जन्म होता है ॥ ३२ ॥ उपर्युक्त सूक्ष्म और स्थूल शरीर अविद्या से ही आत्मा में आरोपित है। जिस अवस्था में आत्मस्वरूप के ज्ञानसे यह आरोप दूर हो जाता है, उसी समय ब्रह्म का साक्षात्कार होता है ॥ ३३ ॥ 

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गुरुवार, 22 फ़रवरी 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - तीसरा अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--तीसरा अध्याय..(पोस्ट०८)

भगवान्‌ के अवतारों का वर्णन

अवतारा ह्यसङ्ख्येया हरेः सत्त्वनिधेर्द्विजाः ।
यथाविदासिनः कुल्याः सरसः स्युः सहस्रशः ॥ २६ ॥
ऋषयो मनवो देवा मनुपुत्रा महौजसः ।
कलाः सर्वे हरेरेव सप्रजापतयः तथा ॥ २७ ॥
एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् ।
इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे ॥ २८ ॥
जन्म गुह्यं भगवतो य एतत्प्रयतो नरः ।
सायं प्रातर्गृणन् भक्त्या दुःखग्रामाद् विमुच्यते ॥ २९ ॥

शौनकादि ऋषियो ! जैसे अगाध सरोवर से हजारों छोटे-छोटे नाले निकलते हैं, वैसे ही सत्त्वनिधि भगवान्‌ श्रीहरि के असंख्य अवतार हुआ करते हैं ॥ २६ ॥ ऋषि, मनु, देवता, प्रजापति, मनुपुत्र और जितने भी महान् शक्तिशाली हैं, वे सब-के-सब भगवान्‌ के ही अंश हैं ॥ २७ ॥ ये सब अवतार तो भगवान्‌के अंशावतार अथवा कलावतार हैं, परन्तु भगवान्‌ श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान्‌ (अवतारी) ही हैं। जब लोग दैत्योंके अत्याचारसे व्याकुल हो उठते हैं, तब युग-युगमें अनेक रूप धारण करके भगवान्‌ उनकी रक्षा करते हैं ॥ २८ ॥ भगवान्‌के दिव्य जन्मोंकी यह कथा अत्यन्त गोपनीय—रहस्यमयी है; जो मनुष्य एकाग्र चित्तसे नियमपूर्वक सायंकाल और प्रात:काल प्रेमसे इसका पाठ करता है, वह सब दु:खोंसे छूट जाता है ॥ २९ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - तीसरा अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--तीसरा अध्याय..(पोस्ट०७)

भगवान्‌ के अवतारों का वर्णन

एकोनविंशे विंशतिमे वृष्णिषु प्राप्य जन्मनी ।
रामकृष्णाविति भुवो भगवान् अहरद् भरम् ॥ २३ ॥
ततः कलौ संप्रवृत्ते सम्मोहाय सुरद्विषाम् ।
बुद्धो नाम्नांजनसुतः कीकटेषु भविष्यति ॥ २४ ॥
अथासौ युगसंध्यायां दस्युप्रायेषु राजसु ।
जनिता विष्णुयशसो नाम्ना कल्किर्जगत्पतिः ॥ २५ ॥

उन्नीसवें और बीसवें अवतारोंमें उन्होंने यदुवंशमें बलराम और श्रीकृष्णके नामसे प्रकट होकर पृथ्वीका भार उतारा ॥ २३ ॥ उसके बाद कलियुग आ जानेपर मगधदेश (बिहार) में देवताओंके द्वेषी दैत्योंको मोहित करनेके लिये अजनके पुत्ररूप में आपका बुद्धावतार होगा ॥ २४ ॥ इसके भी बहुत पीछे जब कलियुग का अन्त समीप होगा और राजा लोग प्राय: लुटेरे हो जायँगे, तब जगत् के रक्षक भगवान्‌ विष्णुयश नामक ब्राह्मण के घर कल्किरूप में अवतीर्ण होंगे  [*] ॥ २५ ॥

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[*] यहाँ बाईस अवतारोंकी गणना की गयी है, परंतु भगवान्‌ के चौबीस अवतार प्रसिद्ध हैं। कुछ विद्वान् चौबीस की संख्या यों पूर्ण करते हैं—राम-कृष्ण के अतिरिक्त बीस अवतार तो उपर्युक्त हैं ही; शेष चार अवतार श्रीकृष्ण के ही अंश हैं। स्वयं श्रीकृष्ण तो पूर्ण परमेश्वर हैं; वे अवतार नहीं, अवतारी हैं। अत: श्रीकृष्णको अवतारों की गणनामें नहीं गिनते। उनके चार अंश ये हैं—एक तो केशका अवतार, दूसरा सुतपा तथा पृश्नि पर कृपा करनेवाला अवतार, तीसरा संकर्षण-बलराम और चौथा परब्रह्म । इस प्रकार इन चार अवतारों से विशिष्ट पाँचवें साक्षात् भगवान्‌ वासुदेव हैं। दूसरे विद्वान् ऐसा मानते हैं कि बाईस अवतार तो उपर्युक्त हैं ही; इनके अतिरिक्त दो और हैं—हंस और हयग्रीव।

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१२) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन तत्...