॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--चौथा अध्याय..(पोस्ट ०४)
महर्षि व्यासका असन्तोष
सूत उवाच
द्वापरे समनुप्राप्ते तृतीये युगपर्यये ।
जातः पराशराद् योगी वासव्यां कलया हरेः ॥ १४ ॥
स कदाचित् सरस्वत्या उपस्पृश्य जलं शुचिः ।
विविक्तदेश आसीन उदिते रविमण्डले ॥ १५ ॥
परावरज्ञः स ऋषिः कालेनाव्यक्तरंहसा ।
युगधर्मव्यतिकरं प्राप्तं भुवि युगे युगे ॥ १६ ॥
भौतिकानां च भावानां शक्तिह्रासं च तत्कृतम् ।
अश्रद्दधानान्निःसत्त्वान् दुर्मेधान् ह्रसितायुषः ॥ १७ ॥
दुर्भगांश्च जनान् वीक्ष्य मुनिर्दिव्येन चक्षुषा ।
सर्ववर्णाश्रमाणां यद् दध्यौ हितममोघदृक् ॥ १८ ॥
चातुर्होत्रं कर्म शुद्धं प्रजानां वीक्ष्य वैदिकम् ।
व्यदधाद् यज्ञसन्तत्यै वेदमेकं चतुर्विधम् ॥ १९ ॥
सूतजीने कहा—इस वर्तमान चतुर्युगीके तीसरे युग द्वापरमें महर्षि पराशरके द्वारा वसु-कन्या सत्यवतीके गर्भसे भगवान् के कलावतार योगिराज व्यासजीका जन्म हुआ ॥ १४ ॥ एक दिन वे सूर्योदयके समय सरस्वतीके पवित्र जलमें स्नानादि करके एकान्त पवित्र स्थानपर बैठे हुए थे ॥ १५ ॥ महर्षि भूत और भविष्यको जानते थे। उनकी दृष्टि अचूक थी। उन्होंने देखा कि जिसको लोग जान नहीं पाते, ऐसे समयके फेरसे प्रत्येक युगमें धर्मसङ्करता और उसके प्रभावसे भौतिक वस्तुओंकी भी शक्तिका ह्रास होता रहता है। संसारके लोग श्रद्धाहीन और शक्तिरहित हो जाते हैं। उनकी बुद्धि कर्तव्यका ठीक-ठीक निर्णय नहीं कर पाती और आयु भी कम हो जाती है। लोगोंकी इस भाग्यहीनताको देखकर उन मुनीश्वरने अपनी दिव्यदृष्टिसे समस्त वर्णों और आश्रमों का हित कैसे हो, इसपर विचार किया ॥ १६—१८ ॥ उन्होंने सोचा कि वेदोक्त चातुर्होत्र [*] कर्म लोगोंका हृदय शुद्ध करनेवाला है। इस दृष्टिसे यज्ञोंका विस्तार करनेके लिये उन्होंने एक ही वेदके चार विभाग कर दिये ॥ १९ ॥
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[*] होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा—ये चार होता हैं। इनके द्वारा सम्पादित होनेवाले अग्रिष्टोमादि यज्ञको चातुर्होत्र कहते हैं।
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से