# श्रीहरि:
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श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
पहला
अध्याय (पोस्ट 01)
शौनक
- गर्ग-संवाद; राजा बहुलाश्व के
पूछने पर नारदजी के द्वारा अवतार-भेद का निरूपण
ॐ
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥१॥
शरद्विकचपङ्कजश्रियमतीवविद्वेषकं
मिलिन्दमुनिसेवितं कुलिशकंजचिह्नावृतम् ।
स्फुरत्कनकनूपुरं दलितभक्ततापत्रयं
चलद्द्युतिपदद्वयं हृदि दधामि राधापतेः ॥२॥
वदनकमलनिर्यद्यस्य पीयूषमाद्यं
पिबति जनवरो यं पातु सोऽयं गिरं मे ।
बदरवनविहारः सत्यवत्याः कुमारः
प्रणतदुरितहारः शाङ्र्गधन्वावतारः ॥३॥
कदाचिन्नैमिषारण्ये श्रीगर्गो ज्ञानिनां वरः ।
आययौ शौनकं द्रष्टुं तेजस्वी योगभास्करः ॥४॥
तं दृष्ट्वा सहसोत्थाय शौनको मुनिभिः सह ।
पूजयामास पाद्याद्यैरुपचारैर्विधानतः ॥५॥
श्रीशौनक उवाच -
सतां पर्यटनं धन्यं गृहिणां शान्तये स्मृतम् ।
नृणामन्तस्तमोहारी साधुरेव न भास्करः ॥६॥
तस्मान्मे हृदि सम्भूतं संदेहं नाशय प्रभो ।
कतिधा श्रीहरेर्विष्णोरवतारो भवत्यलम् ॥७॥
श्रीगर्ग उवाच -
साधु पृष्टं त्वया ब्रह्मन् भगवद्गुणवर्णनम् ।
शृण्वतां गदतां यद्वै पृच्छतां वितनोति शम् ॥८॥
अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
यस्य श्रवणमात्रेण महादोषः प्रशाम्यति ॥९॥
मिथिलानगरे पूर्वं बहुलाश्वः प्रतापवान् ।
श्रीकृष्णभक्तः शान्तात्मा बभूव निरहङ्कृतिः ॥१०॥
अम्बरादागतं दृष्ट्वा नारदं मुनिसत्तमम् ।
सम्पूज्य चासने स्थाप्य कृताञ्जलिरभाषत ॥११॥
श्री-बहुलाश्व उवाच -
योऽनादिरात्मा पुरुषो भगवान्प्रकृतेः परः ।
कस्मात्तनुं समाधत्ते तन्मे ब्रूहि महामते ॥१२॥
श्रीनारद उवाच -
गोसाधुदेवताविप्रदेवानां रक्षणाय वै ।
तनुं धत्ते हरिः साक्षाद्भगवानात्मलीलया ॥१३॥
यथा नटः स्वलीलायां मोहितो न परस्तथा ।
अन्ये दृष्ट्वा च तन्मायां मुमुहुस्ते न संशयः ॥१४॥
श्रीबहुलाश्व उवाच -
कतिधा श्रीहरेर्विष्णोरवतारो भवत्यलम् ।
साधूनां रक्षणार्थं हि कृपया वद मां प्रभो ॥१५॥
'भगवान नारायण, नरश्रेष्ठ नर, देवी
सरस्वती तथा महर्षि व्यास को नमस्कार करने के पश्चात् जय (श्रीहरि - की विजय गाथा से
पूर्ण इतिहास-पुराण) का उच्चारण करना चाहिये। मैं भगवान् श्रीराधाकान्त के उन
युगल- चरणकमलों को अपने हृदय में धारण करता हूँ, जो शरदऋतु के
प्रफुल्लित कमलों की शोभाको अत्यन्त नीचा दिखानेवाले हैं, मुनिरूपी
भ्रमरों के द्वारा जिनका निरन्तर सेवन होता रहता है, जो वज्र
और कमल आदिके चिह्नोंसे विभूषित हैं, जिनमें सोनेके नूपुर
चमक रहे हैं और जिन्होंने भक्तोंके त्रिविध तापका सदा ही नाश किया तथा जिनसे दिव्य
ज्योति छिटक रही है। जिनके मुख-कमलसे निकली हुई आदि-कथारूपी सुधाका बड़भागी मनुष्य
सदा पान करता रहता है, वे बदरीवनमें विहार करनेवाले, प्रणतजनों का ताप हरने में समर्थ, भगवान् विष्णुके
अवतार सत्यवती- कुमार श्रीव्यासजी मेरी वाणीकी रक्षा करें—उसे दोषमुक्त करें'
॥ १-३ ॥
एक
समयकी बात है, ज्ञानिशिरोमणि परमतेजस्वी मुनिवर
गर्गजी, जो योगशास्त्रके सूर्य हैं, शौनकजीसे
मिलनेके लिये नैमिषारण्यमें आये। उन्हें आया देख मुनियोंसहित शौनकजी सहसा उठकर
खड़े हो गये और उन्होंने पाद्य आदि उपचारोंसे विधिवत् उनकी पूजा की ।। ४-५ ॥
शौनकजी
ने कहा- साधुपुरुषोंका सब ओर विचरण धन्य है; क्योंकि
वह गृहस्थ-जनोंको शान्ति प्रदान करनेका हेतु कहा गया है। मनुष्योंके भीतरी
अन्धकारका नाश महात्मा ही करते हैं, न कि सूर्य । भगवन्!
मेरे मनमें यह जिज्ञासा उत्पन्न हुई है कि भगवान् के अवतार कितने प्रकारके हैं। आप
कृपया इसका निवारण कीजिये ॥ ६-७ ॥
श्रीगर्गजी
कहते हैं— ब्रह्मन् ! भगवान् के गुणानुवादसे सम्बन्ध रखनेवाला आपका यह प्रश्न बहुत
ही उत्तम है। यह कहने, सुनने और पूछने- वाले
- तीनोंके कल्याणका विस्तार करनेवाला है। इसी प्रसङ्गमें एक प्राचीन इतिहासका कथन
किया जाता है, जिसके श्रवणमात्र से बड़े-बड़े पाप नष्ट हो
जाते हैं। पहलेकी बात है, मिथिलापुरीमें बहुलाश्व नामसे
विख्यात एक प्रतापी राजा राज्य करते थे । वे भगवान् श्रीकृष्ण के परम भक्त,
शान्तचित्त एवं अहंकारसे रहित थे। एक दिन मुनिवर नारदजी आकाशमार्ग से
उतरकर उनके यहाँ पधारे। उन्हें उपस्थित देखकर राजाने आसन पर बिठाया और भलीभाँति
उनकी पूजा करके हाथ जोड़कर उनसे इस प्रकार पूछा ।। ८-११॥
श्रीबहुलाश्वजी
बोले- महामते ! जो भगवान् अनादि, प्रकृतिसे परे
और सबके अन्तर्यामी ही नहीं, आत्मा हैं, वे शरीर कैसे धारण करते हैं ? (जो सर्वत्र व्यापक है,
वह शरीरसे परिच्छिन्न कैसे हो सकता है ?) यह
मुझे बतानेकी कृपा करें ॥ १२ ॥
नारदजीने
कहा- गौ,
साधु, देवता, ब्राह्मण
और वेदों की रक्षाके लिये साक्षात् भगवान् श्रीहरि अपनी लीलासे शरीर धारण करते
हैं। [अपनी अचिन्त्य लीलाशक्तिसे ही वे देहधारी होकर भी व्यापक बने रहते हैं। उनका
वह शरीर प्राकृत नहीं, चिन्मय है।] जैसे नट अपनी मायासे
मोहित नहीं होता और दूसरे लोग मोहमें पड़ जाते हैं, वैसे ही
अन्य प्राणी भगवान्की माया देखकर मोहित हो जाते हैं, किंतु
परमात्मा मोहसे परे रहते हैं- इसमें लेशमात्र भी संशय नहीं है ।। १३-१४ ।।
श्रीबहुलाश्वजी
ने पूछा- मुनिवर ! संतोंकी रक्षाके लिये भगवान् विष्णु के कितने प्रकार के अवतार
होते हैं ? यह मुझे बताने की कृपा करें ।। १५ ।।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से