# श्रीहरि:
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श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
ब्रह्मादि
देवों द्वारा गोलोकधाम का दर्शन
श्रीनारद
उवाच -
उपहास्यं गता देवा इत्थं तूष्णीं स्थिताः पुनः ।
चकितानिव तान् दृष्ट्वा विष्णुर्वचनमब्रवीत् ॥२९॥
श्रीविष्णुरुवाच -
यस्मिन्नण्डे पृश्निगर्भोऽवतारोऽभूत्सनातन ।
त्रिविक्रमनखोद्भिन्ने तस्मिन्नण्डे स्थिता वयम् ॥३०॥
श्रीनारद उवाच -
तच्छ्रुत्वा तं च संश्लाघ्य शीघ्रमन्तःपुरं गता
पुनरागत्य देवेभ्योऽप्याज्ञां दत्त्वा गताः पुरम् ॥३१॥
अथ देवगणाः सर्वे गोलोकं ददृशुः परम् ।
तत्र गोवर्धनो नाम गिरिराजो विराजते ॥३२॥
वसन्तमानिनीभिश्च गोपीभिर्गोगणैर्वृतः ।
कल्पवृक्षलतासङ्घै रासमण्डलमण्डितः ॥३३॥
यत्र कृष्णानदी श्यामा तोलिकाकोटिमण्डिता ।
वैदूर्यकृत सोपाना स्वच्छन्दगतिरुत्तमा ॥३४॥
वृन्दावनं भ्राजमानं दिव्यद्रुमलताकुलम् ।
चित्रपक्षिमधुव्रतैर्वंशीवटविराजितम् ॥३५॥
पुलिने शीतले वायुर्मन्दगामी वहत्यलम् ।
सहस्रदलपद्मानां रजो विक्षेपयन्मुहुः ॥३६॥
मध्ये निजनिकुञ्जोऽस्ति द्वात्रिंशद्वनसंयुतः ।
प्राकारपरिखायुक्तोऽरुणाक्षयवटाजिरः ॥३७॥
सप्तधा पद्मरागाग्राजिरकुड्यविभूषितः ।
कोटीन्दुमण्डलाकारैर्वितानैर्गुलिकाद्युतिः ॥३८॥
पतत्पताकैर्दिव्याभैः पुष्पमन्दिरवर्त्मभिः ।
जातभ्रमरसङ्गीतो मत्तबर्हिपिकस्वनः ॥३९॥
बालार्ककुण्डलधराः शतचन्द्रप्रभाः स्त्रियः ।
स्वच्छन्दगतयो रत्नैः पश्यन्त्यः सुन्दरं मुखम् ॥४०॥
रत्नाजिरेषु धावंत्यो हारकेयूरभूषिताः ।
क्वणन्नूपुरकिङ्किण्यश्चूडामणिविराजिताः ॥४१॥
कोटिशः कोटिशो गावो द्वारि द्वारि मनोहराः ।
श्वेतपर्वतसङ्काशा दिव्यभूषणभूषिताः ॥४२॥
पयस्विन्यस्तरुण्यश्च शीलरूपगुणैर्युताः ।
सवत्साः पीतपुच्छाश्च व्रजंत्यो भव्यमूर्तिकाः ॥४३॥
घण्टामंजीरसंरावाः किंकिणीजालमण्डिताः ।
हेमशृङ्ग्यो हेमतुल्यहारमालास्फुरत्प्रभाः ॥४४॥
पाटला हरितास्ताम्राः पीताः श्यामा विचित्रिताः ।
धूम्राः कोकिलवर्णाश्च यत्र गावस्त्वनेकधा ॥४५॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार उपहासके पात्र बने हुए सब देवता चुपचाप खड़े रहे,
कुछ बोल न सके। उन्हें चकित-से देखकर भगवान् विष्णुने कहा ।। २९ ।
श्रीविष्णु
बोले- जिस ब्रह्माण्ड में भगवान् पृश्निगर्भका सनातन अवतार हुआ है तथा त्रिविक्रम
(विराट् - रूपधारी वामन) के नखसे जिस ब्रह्माण्डमें विवर बन गया है,
वहीं हम निवास करते हैं ॥ ३० ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- भगवान् विष्णुकी यह बात सुनकर शतचन्द्राननाने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की
और स्वयं भीतर चली गयी। फिर शीघ्र ही आयी और सबको अन्तःपुरमें पधारनेकी आज्ञा देकर
वापस चली गयी । तदनन्तर सम्पूर्ण देवताओंने परमसुन्दर धाम गोलोकका दर्शन किया।
वहाँ 'गोवर्धन' नामक गिरिराज शोभा पा रहे थे। गिरिराजका वह
प्रदेश उस समय वसन्तका उत्सव मनानेवाली गोपियों और गौओंके समूहसे घिरा था, कल्पवृक्षों तथा कल्पलताओंके समुदायसे सुशोभित था और रास- मण्डल उसे
मण्डित ( अलंकृत) कर रहा था। वहाँ श्यामवर्णवाली उत्तम यमुना नदी स्वच्छन्द गतिसे
बह रही है। तटपर बने हुए करोड़ों प्रासाद उसकी शोभा बढ़ाते हैं तथा उस नदीमें
उतरनेके लिये वैदूर्यमणिकी सुन्दर सीढ़ियाँ बनी हैं। वहाँ दिव्य वृक्षों और
लताओंसे भरा हुआ 'वृन्दावन' अत्यन्त
शोभा पा रहा है; भाँति-भाँतिके विचित्र पक्षियों, भ्रमरों तथा वंशीवटके कारण वहाँकी सुषमा और बढ़ रही है | वहाँ सहस्रदल
कमलोंके सुगन्धित परागको चारों ओर पुनः पुनः बिखेरती हुई शीतल वायु मन्द गतिसे बह
रही है ॥ ३१-३६ ॥
वृन्दावन
के मध्यभाग में बत्तीस वनोंसे युक्त एक 'निज
निकुञ्ज' है। चहारदीवारियाँ और खाइयाँ उसे सुशोभित कर रही
हैं। उसके आँगनका भाग लाल वर्णवाले अक्षयवटोंसे अलंकृत है। पद्मरागादि सात
प्रकारकी मणियोंसे बनी दीवारें तथा आँगनके फर्श बड़ी शोभा पाते हैं। करोड़ों
चन्द्रमाओंके मण्डलकी छवि धारण करनेवाले चंदोवे उसे अलंकृत कर रहे हैं तथा उनमें
चमकीले गोले लटक रहे हैं। फहराती हुई दिव्य पताकाएँ एवं खिले हुए फूल मन्दिरों एवं
मार्गोंकी शोभा बढ़ाते हैं। वहाँ भ्रमरोंके गुञ्जारव संगीतकी सृष्टि करते हैं। तथा
मत्त मयूरों और कोकिलोंके कलरव सदा श्रवणगोचर होते हैं ॥ ३७-३९ ॥
वहाँ
बालसूर्य के सदृश कान्तिमान् अरुण पीत कुण्डल धारण करनेवाली ललनाएँ शत-शत
चन्द्रमाओंके समान गौरवर्णसे उद्भासित होती हैं। स्वच्छन्द गतिसे चलनेवाली वे
सुन्दरियाँ मणिरत्नमय भित्तियोंमें अपना मनोहर मुख देखती हुई वहाँके रत्नजटित
आँगनोंमें भागती फिरती हैं। उनके गलेमें हार और बाँहोंमें केयूर शोभा देते हैं।
नूपूरों तथा करधनीकी मधुर झनकार वहाँ गूँजती रहती है। वे गोपाङ्गनाएँ मस्तकपर
चूड़ामणि धारण किये रहती हैं ॥ ४०-४१ ॥
वहाँ
द्वार-द्वारपर कोटि-कोटि मनोहर गौओंके दर्शन होते हैं। वे गौएँ दिव्य आभूषणोंसे
विभूषित हैं और श्वेत पर्वतके समान प्रतीत होती हैं। सब की सब दूध देनेवाली तथा
नयी अवस्थाकी हैं। सुशीला, सुरुचा तथा सद्गुणवती
हैं। सभी सवत्सा और पीली पूँछकी हैं। ऐसी भव्यरूपवाली गौएँ वहाँ सब ओर विचर रही
हैं ॥ ४२-४३ ॥
उनके
घंटों तथा मञ्जीरों से मधुर ध्वनि होती रहती है। उसीपर भगवान् किङ्किणीजालों से
विभूषित उन गौओंके सींगों में सोना मढ़ा गया है। वे सुवर्ण-तुल्य हार एवं मालाएँ
धारण करती हैं। उनके अङ्गों से प्रभा छिटकती रहती है। सभी गौएँ भिन्न-भिन्न
रंगवाली हैं— कोई उजली, कोई काली, कोई पीली, कोई लाल, कोई हरी,
कोई ताँबेके रंगकी और कोई चितकबरे रंगकी हैं। किन्हीं - किन्हींका
वर्ण धुए-जैसा है। बहुत-सी कोयलके समान रंगबाली हैं ॥ ४४-४५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से