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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
आठवाँ
अध्याय (पोस्ट 02)
सुचन्द्र
और कलावती के पूर्व-पुण्य का वर्णन, उन
दोनों का वृषभानु तथा कीर्ति के रूप में अवतरण
श्रीबहुलाश्व उवाच -
वृषभानोरहो भाग्यं यस्य राधा सुताभवत् ।
कलावत्या सुचन्द्रेण किं कृतं पूर्वजन्मनि ॥१३॥
श्रीनारद उवाच -
नृगपुत्रो महाभाग सुचन्द्रो नृपतीश्वरः ।
चक्रवर्ती हरेरंशो बभूवातीव सुन्दरः ॥१४॥
पितॄणां मानसी कन्यास्तिस्रोऽभूवन्मनोहराः ।
कलावती रत्नमाला मेनका नाम नामतः ॥१५॥
कलावतीं सुचन्द्राय हरेरंशाय धीमते ।
वैदेहाय रत्नमालां मेनकां च हिमाद्रये ।
पारिबर्हेण विधिना स्वेच्छाभिः पितरो ददुः ॥१६॥
सीताभूद्रत्नमालायां मेनकायां च पार्वती ।
द्वयोश्चरित्रं विदितं पुराणेषु महामते ॥१७॥
सुचन्द्रोऽथ कलावत्या गोमतीतीरजे वने ।
दिव्यैर्द्वादशभिर्वर्षैस्तताप ब्रह्मणस्तपः ॥१८॥
अथ विधिस्तमागत्य वरं ब्रूहीत्युवाच ह ।
श्रुत्वा वल्मीकदेशाच्च निर्ययौ दिव्यरूपधृक् ॥१९॥
तं नत्वोवाच मे भूयाद्दिव्यं मोक्षं परात्परम् ।
तच्छ्रुत्वा दुःखिता साध्वी विधिं प्राह कलावती ॥२०॥
पतिरेव हि नारीणां दैवतं परमं स्मृतम् ।
यदि मोक्षमसौ याति तदा मे का गतिर्भवेत् ॥२१॥
एनं विना न जीवामि यदि मोक्षं प्रदास्यसि ।
तुभ्यं शापं प्रदास्यामि पतिविक्षेपविह्वला ॥२२॥
श्रीब्रह्मोवाच -
त्वच्छापाद्भयभीतोऽहं मे वरोऽपि मृषा न हि ।
तस्मात्त्वं प्राणपतिना सार्धं गच्छ त्रिविष्टपम् ॥२३॥
भुक्त्वा सुखानि कालेन युवां भूमौ भविष्यथः ।
गंगायमुनयोर्मध्ये द्वापरान्ते च भारते ॥२४॥
युवयो राधिका साक्षात्परिपूर्णतमप्रिया ।
भविष्यति यदा पुत्री तदा मोक्षं गमिष्यथः ॥२५॥
श्रीनारद उवाच -
इत्थं ब्रह्मवरेणाथ दिव्येनामोघरूपिणा ।
कलावतीसुचन्द्रौ च भूमौ तौ द्वौ बभूवतुः ॥२६॥
कलावती कान्यकुब्जे भलन्दननृपस्य च ।
जातिस्मरा ह्यभूद्दिव्या यज्ञकुण्डसमुद्भवा ॥२७॥
सुचन्द्रो वृषभान्वाख्यः सुरभानुगृहेऽभवत् ।
जातिस्मरो गोपवरः कामदेव इवापरः ॥२८॥
सम्बन्धं योजयामास नन्दराजो महामतिः ।
तयोश्च जातिस्मरयोरिच्छतोरिच्छया द्वयोः ॥२९॥
वृषभानोः कलावत्या आख्यानं शृणुते नरः ।
सर्वपापविनिर्मुक्तः कृष्णसायुज्यमाप्नुयात् ॥३०॥
राजा
बहुलाश्वने पूछा – मुने ! वृषभानुजी का सौभाग्य अद्भुत है,
अवर्णनीय है; क्योंकि उनके यहाँ श्रीराधिकाजी
स्वयं पुत्रीरूप से अवतीर्ण हुईं। कलावती और सुचन्द्र ने पूर्वजन्म में कौन-सा
पुण्यकर्म किया था, जिसके फलस्वरूप इन्हें यह सौभाग्य
प्राप्त हुआ ? ॥ १३ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! राजराजेश्वर महाभाग सुचन्द्र राजा नृग के पुत्र थे । परम सुन्दर
सुचन्द्र चक्रवर्ती नरेश थे। उन्हें साक्षात् भगवान् का अंश माना जाता है।
पूर्वकालमें (अर्यमा - प्रभृति) पितरों के
यहाँ तीन मानसी कन्याएँ उत्पन्न हुई थीं। वे सभी परम सुन्दरी थीं। उनके नाम थे—
कलावती,
रत्नमाला और मेनका ॥ १४-१५ ॥
पितरों
ने स्वेच्छा से ही कलावती का हाथ श्रीहरि के अंशभूत बुद्धिमान् सुचन्द्र के हाथ में
दे दिया। रत्नमाला को विदेहराज के हाथ में और मेनका को हिमालय के हाथ में अर्पित
कर दिया। साथ ही विधि पूर्वक दहेज की वस्तुएँ भी दीं । महामते ! रत्नमाला से
सीताजी और मेनका के गर्भ से पार्वतीजी प्रकट हुईं। इन दोनों देवियों की कथाएँ
पुराणोंमें प्रसिद्ध हैं ॥ १६-१७ ॥
तदनन्तर
कलावती को साथ लेकर महाभाग सुचन्द्र गोमती के तटपर 'नैमिष' नामक वन में गये। उन्होंने ब्रह्माजी की
प्रसन्नता के लिये तपस्या आरम्भ की। वह तप देवताओं के कालमान से बारह वर्षों तक
चलता रहा । तदनन्तर ब्रह्माजी वहाँ पधारे और बोले—'वर माँगो।'
राजा के शरीर पर दीमकें चढ़ गयी थीं । ब्रह्मवाणी सुनकर वे दिव्य
रूप धारण करके बाँबी से बाहर निकले। उन्होंने सर्वप्रथम ब्रह्माजी को प्रणाम किया
और कहा - 'मुझे दिव्य परात्पर मोक्ष प्राप्त हो ।' राजा की बात सुनकर साध्वी रानी कलावती का मन दुःखी हो गया ॥ १८-२० ॥
अतः
उन्होंने ब्रह्माजी से कहा - 'पितामह ! पति ही
नारियों के लिये सर्वोत्कृष्ट देवता माना गया है। यदि ये मेरे पतिदेवता मुक्ति
प्राप्त कर रहे हैं तो मेरी क्या गति होगी ? इनके बिना मैं
जीवित नहीं रहूँगी। यदि आप इन्हें मोक्ष देंगे तो मैं पतिसाहचर्य में विक्षेप
पड़ने के कारण विह्वल हो आपको शाप दे दूँगी ।। २१–२२ ॥
ब्रह्माजीने
कहा-देवि ! मैं तुम्हारे शापके भयसे अवश्य डरता हूँ; किंतु मेरा दिया हुआ वर कभी विफल नहीं हो सकता । इसलिये तुम अपने
प्राणपतिके साथ स्वर्गमें जाओ। वहाँ स्वर्गसुख भोगकर कालान्तरमें फिर पृथ्वीपर
जन्म लोगी। द्वापरके अन्तमें भारतवर्ष में, गङ्गा और यमुनाके
बीच, तुम्हारा जन्म होगा। तुम दोनोंसे जब परिपूर्णतम भगवान्
की प्रिया साक्षात् श्रीराधिका जी पुत्री रूप में प्रकट होंगी, तब तुम दोनों साथ ही मुक्त हो जाओगे ।। २३-२५ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं - इस प्रकार ब्रह्माजीके दिव्य एवं अमोघ वर से कलावती और सुचन्द्र- दोनों
की भूतल पर उत्पत्ति हुई। वे ही 'कीर्ति' तथा 'श्रीवृषभानु' हुए हैं।
कलावती कान्यकुब्ज देश (कन्नौज) में राजा भलन्दन के यज्ञकुण्ड से प्रकट हुईं। उस
दिव्य कन्या को अपने पूर्वजन्मकी सारी बातें स्मरण थीं ।। २६-२७ ॥
सुरभानु
के घर सुचन्द्र का जन्म हुआ। उस समय वे 'श्रीवृषभानु' नाम से विख्यात हुए। उन्हें भी
पूर्वजन्म की स्मृति बनी रही। वे गोपों में श्रेष्ठ होने के साथ ही दूसरे कामदेव के
समान परम सुन्दर थे। परम बुद्धिमान् नन्दराज जी ने इन दोनों का विवाह सम्बन्ध
जोड़ा था । उन दोनों को पूर्वजन्म की स्मृति थी ही, अतः वह
एक-दूसरे को चाहते भी थे और दोनों की इच्छा से ही यह सम्बन्ध हुआ । जो मनुष्य
वृषभानु और कलावती के इस उपाख्यानको श्रवण करता है, वह
सम्पूर्ण पापोंसे छूट जाता है और अन्तमें भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके सायुज्यको
प्राप्त कर लेता है ।। २८-३० ॥
इस
प्रकार श्रीगर्गसंहिता में गोलोकखण्ड के अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवाद में 'श्रीराधिका के पूर्वजन्म का वर्णन नामक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ८ ॥
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा
प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260
से