श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
भगवान् का
वसुदेव-देवकीमें आवेश;
देवताओंद्वारा उनका स्तवन; आविर्भावकाल;
अवतार-विग्रहकी झाँकी; वसुदेव-देवकीकृत
भगवत्-स्तवन; भगवान द्वारा उनके पूर्वजन्मके
वृत्तान्तवर्णनपूर्वक अपनेको नन्दभवनमें पहुँचानेका आदेश; कंसद्वारा
नन्दकन्या योगमायासे कृष्णके प्राकट्यकी बात जानकर पश्चात्ताप पूर्वक वसुदेव-
देवकीको बन्धनमुक्त करना, क्षमा माँगना और दैत्योंको बाल-वध का
आदेश देना
श्रीनारद उवाच -
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान् स्वयम् ।
विवेश वसुदेवस्य मनः पूर्वं परात्परः ॥१॥
सूर्येन्दुवह्निसंकाशो वसुदेवो महामनाः ।
बभूवात्यन्तमहसा साक्षाद्यज्ञ इवापरः ॥२॥
देवक्यामागते कृष्णे सर्वेषामभयंकरे ।
रराज तेन सा गेहे घने सौदामिनी यथा ॥३॥
तेजोवतीं च तां वीक्ष्य कंसः प्राह भयातुरः ।
प्राप्तोऽयं प्राणहन्ता मे पूर्वमेषा न चेदृशी ॥४॥
जातमात्रं हनिष्यामीत्युक्त्वाऽऽस्ते भयविह्वलः ।
पश्यन्सर्वत्र च हरिं पूर्वशत्रुं विचिन्तयन् ॥५॥
अहो वैरानुबन्धेन साक्षात्कृष्णोऽपि दृश्यते ।
तस्माद्वैरं प्रकुर्वन्ति कृष्णप्राप्त्यर्थमासुराः ॥६॥
अथ ब्रह्मादयो देवा मुनीन्द्रैरस्मदादिभिः ।
शौरिगेहोपरि प्राप्ताः स्तवं चक्रुः प्रणम्य तम् ॥७॥
देवा ऊचुः -
यज्जागरादिषु भवेषु परं ह्यहेतु-
र्हेतुः स्विदस्य विचरन्ति गुणाश्रयेण ।
नैतद्विशन्ति महदिन्द्रियदेवसंघा-
स्तस्मै नमोऽग्निमिव विस्तृतविस्फुलिंगाः ॥८॥
नैवेशितुं प्रभुरयं बलिनां बलीयान्
माया न शब्द उत नो विषयीकरोति ।
तद्ब्रह्म पूर्णममृतं परमं प्रशान्तं
शुद्धं परात्परतरं शरणं गताः स्मः ॥९॥
अंशांशकांशककलाद्यवतारवृन्दै-
रावेशपूर्णसहितैश्च परस्य यस्य ।
सर्गादयः किल भवन्ति तमेव कृष्णं
पूर्णात्परं तु परिपूर्णतमं नताः स्मः ॥१०॥
मन्वन्तरेषु च युगेषु गतागतेषु
कल्पेषु चांशकलया स्ववपुर्बिभर्षि ।
अद्यैव धाम परिपूर्णतमं तनोषि
धर्मं विधाय भुवि मंगलमातनोषि ॥११॥
यद्दुर्लभं विशदयोगिभिरप्यगम्यं
गम्यं द्रवद्भिरमलाशयभक्तियोगैः ।
आनंदकंद चरतस्तव मन्दयानं
पादारविन्दमकरन्दरजो दधामः ॥१२॥
पूर्वं तथात्र कमनीयवपुष्मयं त्वां
कंदर्पकोटिशतमोहनमद्भुतं च ।
गोलोकधामधिषणद्युतिमादधानं
राधापतिं धरणिधुर्यधनं दधामः ॥१३॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- मिथिलेश्वर ! तदनन्तर परात्पर एवं परिपूर्णतम साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण
पहले वसुदेवजीके मनमें आविष्ट हुए। भगवान्का आवेश होते ही महामना वसुदेव सूर्य,
चन्द्रमा और अग्निके समान महान् तेजसे उद्भासित हो उठे, मानो उनके रूपमें दूसरे यज्ञनारायण ही प्रकट हो गये हों। फिर सबको अभय
देनेवाले श्रीकृष्ण देवी देवकीके गर्भमें आविष्ट हुए। इससे उस कारागृहमें देवकी
उसी तरह दिव्य दीप्तिसे दमक उठीं, जैसे घनमाला में चपला चमक
उठती है। देवकीके उस तेजस्वी रूपको देखकर कंस मन-ही-मन भयसे व्याकुल होकर बोला- 'यह मेरा प्राणहन्ता आ गया; क्योंकि इसके पहले यह ऐसी
तेजस्विनी नहीं थी। इस शिशु को जन्म लेते ही मैं अवश्य मार डालूँगा ।' यों कहकर वह भयसे विह्वल हो उस बालकके जन्मकी प्रतीक्षा करने लगा। भयके
कारण अपने पूर्वशत्रु भगवान् विष्णुका चिन्तन करते हुए वह सर्वत्र उन्हींको देखने
लगा। अहो ! दृढ़तापूर्वक वैर बँध जाने से भगवान् कृष्णका भी प्रत्यक्षकी भाँति
दर्शन होने लगता है। इसलिये असुर श्रीकृष्णकी प्राप्तिके उद्देश्यसे ही उनके साथ
वैर करते हैं। जब भगवान् गर्भमें आविष्ट हुए, तब ब्रह्मादि
देवता तथा अस्मदादि (नारद-प्रभृति) मुनीश्वर वसुदेवके गृह के ऊपर आकाशमें स्थित हो,
भगवान् को प्रणाम करके उनकी स्तुति करने लगे ॥ १-७ ॥
देवता
बोले- जाग्रत्, स्वप्न आदि अवस्थाओं- में प्रतीत
होनेवाले विश्वके जो एकमात्र हेतु होते हुए भी अहेतु हैं, जिनके
गुणोंका आश्रय लेकर ही ये प्राणिसमुदाय सब ओर विचरते हैं तथा जैसे अग्निसे निकलकर
सब ओर फैले हुए विस्फुलिङ्ग (चिनगारियाँ) पुनः उसमें प्रवेश नहीं करते, उसी प्रकार महत्तत्त्व, इन्द्रियवर्ग तथा उनके
अधिष्ठाता देव-समुदाय जिनसे प्रकट हो पुनः उनमें प्रवेश नहीं पाते, उन परमात्मा आप भगवान् श्रीकृष्णको हमारा सादर नमस्कार है ॥ ८ ॥
बलवानों
में भी सबसे अधिक बलिष्ठ यह काल भी जिनपर शासन करनेमें समर्थ नहीं है,
माया भी जिनपर कोई प्रभाव नहीं डाल सकती तथा नित्यशब्द (वेद) जिनको
अपना विषय नहीं बना पाता, उन परम अमृत, प्रशान्त, शुद्ध, परात्पर
पूर्ण ब्रह्मस्वरूप आप भगवान्की हम शरणमें आये हैं। जिन परमेश्वरके अंशावतार,
अंशांशावतार, कलावतार, आवेशावतार
तथा पूर्णावतारसहित विभिन्न अवतारों द्वारा इस विश्वके सृष्टिपालन आदि कार्य
सम्पादित होते हैं, उन्हीं पूर्णसे भी परे परिपूर्णतम भगवान्
श्रीकृष्णको हम प्रणाम करते हैं। प्रभो! अतीत, वर्तमान और
अनागत (भविष्य) मन्वन्तरों, युगों तथा कल्पोंमें आप अपने अंश
और कलाद्वारा अवतार - विग्रह धारण करते हैं। किंतु आज ही वह सौभाग्यपूर्ण अवसर आया
है, जब कि आप अपने परिपूर्णतम धाम (तेजःपुञ्ज) का यहाँ
विस्तार कर रहे हैं! अब इस परिपूर्णतम अवतारद्वारा भूतलपर धर्मकी स्थापना करके आप
लोकमें मङ्गल (कल्याण) का प्रसार करेंगे ॥ ९-११ ॥
आनन्दकंद
! देवकीनन्दन ! आपकी जो चरणरज विशुद्ध अन्तःकरणवाले योगियोंके लिये भी दुर्लभ और
अगम्य है,
वही उन बड़भागी भक्तोंके लिये परम सुलभ है, जो
अपने निर्मल हृदयमें भक्तियोग धारण करके, सदा प्रीतिरसमें
निमग्न हो, द्रवित-चित्त रहते हैं। शिशुरूपमें मन्द मन्द
विचरनेवाले आपके चरणारविन्दोंके मकरन्द एवं परागको हम सानुराग सिरपर धारण करें,
यही हमारी आन्तरिक अभिलाषा है । आप पहले से ही परम कमनीय कलेवरधारी
हैं और यहाँ इस अवतारमें भी उसी कमनीय रूपसे आप सुशोभित होंगे । आपका रूप कोटिशत
कामदेवोंको भी मोहित करनेवाला और परम अद्भुत है। आप गोलोकधाममें धारित दिव्य
दीप्ति-राशिको यहाँ भी धारण करेंगे। सर्वोत्कृष्ट धर्मधन के धारयिता आप
श्रीराधावल्लभ को हम [ह्रदय में] धारण करते हैं ॥ १२- १३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से