मंगलवार, 7 मई 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०९)

विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और 
गान्धारीका वनमें जाना

विज्ञानात्मनि संयोज्य क्षेत्रज्ञे प्रविलाप्य तम् ।
ब्रह्मण्यात्मानमाधारे घटाम्बरमिवाम्बरे ॥ ५४ ॥
ध्वस्तमायागुणोदर्को निरुद्धकरणाशयः ।
निवर्तिताखिलाहार आस्ते स्थाणुरिवाचलः ।
तस्यान्तरायो मैवाभूः सन्न्यस्ताखिलकर्मणः ॥ ५५ ॥
स वा अद्यतनाद् राजन् परतः पञ्चमेऽहनि ।
कलेवरं हास्यति स्वं तच्च भस्मीभविष्यति ॥ ५६ ॥
दह्यमानेऽग्निभिर्देहे पत्युः पत्‍नी सहोटजे ।
बहिः स्थिता पतिं साध्वी तमग्निमनु वेक्ष्यति ॥ ५७ ॥
विदुरस्तु तदाश्चर्यं निशाम्य कुरुनन्दन ।
हर्षशोकयुतस्तस्माद् गन्ता तीर्थनिषेवकः ॥ ५८ ॥
इत्युक्त्वाथारुहत् स्वर्गं नारदः सहतुम्बुरुः ।
युधिष्ठिरो वचस्तस्य हृदि कृत्वाजहाच्छुचः ॥ ५९ ॥

(देवर्षि नारद युधिष्ठिर से कहरहे  हैं कि)  उन्होंने (दोनों चाचाओं और गांधारी ने) अहंकार को बुद्धि के साथ जोडक़र और उसे क्षेत्रज्ञ आत्मा में लीन करके उसे भी महाकाश में घटाकाश के समान सर्वाधिष्ठान ब्रह्ममें एक कर दिया है। उन्होंने अपनी समस्त इन्द्रियों और मनको रोककर समस्त विषयोंको बाहरसे ही लौटा दिया है और माया के गुणों से होनेवाले परिणामों को सर्वथा मिटा दिया है। समस्त कर्मों का संन्यास करके वे इस समय ठूँठ की तरह स्थिर होकर बैठे हुए हैं, अत: तुम उनके मार्गमें विघ्नरूप मत बनना [*] ॥ ५४-५५ ॥ धर्मराज ! आज से पाँचवें दिन वे अपने शरीर का परित्याग कर देंगे और वह जलकर भस्म हो जायगा ॥ ५६ ॥ गाहर्पत्यादि अग्नियों के द्वारा पर्णकुटी के साथ अपने पति के मृतदेह को जलते देखकर बाहर खड़ी हुई साध्वी गान्धारी भी पति का अनुगमन करती हुई उसी आगमें प्रवेश कर जायँगी ॥ ५७ ॥ धर्मराज ! विदुरजी अपने भाईका आश्चर्यमय मोक्ष देखकर हर्षित और वियोग देखकर दुखित होते हुए वहाँसे तीर्थ-सेवनके लिये चले जायँगे ॥ ५८ ॥ देवर्षि नारद यों कहकर तुम्बुरुके साथ स्वर्गको चले गये। धर्मराज युधिष्ठिरने उनके उपदेशोंको हृदयमें धारण करके शोकको त्याग दिया ॥५९॥
...............................................................
 [*] देवर्षि नारदजी त्रिकालदर्शी हैं। वे धृतराष्ट्र के भविष्य जीवन को वर्तमान की भाँति प्रत्यक्ष देखते हुए उसी रूपमें वर्णन कर रहे हैं। धृतराष्ट्र पिछली रातको ही हस्तिनापुर से गये हैं, अत: यह वर्णन भविष्यका ही समझना चाहिये ।

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे नैमिषीयोपाख्याने त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


सोमवार, 6 मई 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०८)

विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और 
गान्धारीका वनमें जाना

सोऽयमद्य महाराज भगवान् भूतभावनः ।
कालरूपोऽवतीर्णोऽस्यां अभावाय सुरद्विषाम् ॥ ४८ ॥
निष्पादितं देवकृत्यं अवशेषं प्रतीक्षते ।
तावद् यूयं अवेक्षध्वं भवेद् यावदिहेश्वरः ॥ ४९ ॥
धृतराष्ट्रः सह भ्रात्रा गान्धार्या च स्वभार्यया ।
दक्षिणेन हिमवत ऋषीणां आश्रमं गतः ॥ ५० ॥
स्रोतोभिः सप्तभिर्या वै स्वर्धुनी सप्तधा व्यधात् ।
सप्तानां प्रीतये नाना सप्तस्रोतः प्रचक्षते ॥ ५१ ॥
स्नात्वानुसवनं तस्मिन् हुत्वा चाग्नीन्यथाविधि ।
अब्भक्ष उपशान्तात्मा स आस्ते विगतैषणः ॥ ५२ ॥
जितासनो जितश्वासः प्रत्याहृतषडिन्द्रियः ।
हरिभावनया ध्वस्तः अजःसत्त्वतमोमलः ॥ ५३ ॥

(देवर्षि नारद युधिष्ठिर से कहरहे  हैं)  महाराज ! समस्त प्राणियोंको जीवनदान देनेवाले वे ही भगवान्‌ इस समय इस पृथ्वीतल पर देवद्रोहियों का नाश करने के लिये कालरूप से अवतीर्ण हुए हैं ॥ ४८ ॥ अब वे देवताओंका कार्य पूरा कर चुके हैं। थोड़ा-सा काम और शेष है, उसीके लिये वे रुके हुए हैं। जब तक वे प्रभु यहाँ हैं, तब तक तुमलोग भी उनकी प्रतीक्षा करते रहो ॥ ४९ ॥
धर्मराज ! हिमालयके दक्षिण भागमें, जहाँ सप्तर्षियों की प्रसन्नता के लिये गङ्गाजीने अलग- अलग सात धाराओंके रूपमें अपनेको सात भागोंमें विभक्त कर दिया है, जिसे ‘सप्तस्रोत’ कहते हैं, वहीं ऋषियोंके आश्रमपर धृतराष्ट्र अपनी पत्नी गान्धारी और विदुरके साथ गये हैं ॥ ५०-५१ ॥ वहाँ वे त्रिकाल स्नान और विधिपूर्वक अग्रिहोत्र करते हैं। अब उनके चित्तमें किसी प्रकारकी कामना नहीं है, वे केवल जल पीकर शान्तचित्तसे निवास करते हैं ॥ ५२ ॥ आसन जीतकर प्राणोंको वशमें करके उन्होंने अपनी छहों इन्द्रियोंको विषयोंसे लौटा लिया है। भगवान्‌ की धारणासे उनके तमोगुण, रजोगुण और सत्त्वगुणके मल नष्ट हो चुके हैं ॥ ५३ ॥ 

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रविवार, 5 मई 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०७)

विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और 
गान्धारीका वनमें जाना

यथा गावो नसि प्रोताः तन्त्यां बद्धाः स्वदामभिः ।
वाक्तन्त्यां नामभिर्बद्धा वहन्ति बलिमीशितुः ॥ ४१ ॥
यथा क्रीडोपस्कराणां संयोगविगमाविह ।
इच्छया क्रीडितुः स्यातां तथैवेशेच्छया नृणाम् ॥ ४२ ॥
यन्मन्यसे ध्रुवं लोकं अध्रुवं वा न चोभयम् ।
सर्वथा न हि शोच्यास्ते स्नेहात् अन्यत्र मोहजात् ॥ ४३ ॥
तस्माज्जह्यङ्‌ग वैक्लव्यं अज्ञानकृतमात्मनः ।
कथं त्वनाथाः कृपणा वर्तेरंस्ते च मां विना ॥ ४४ ॥
कालकर्म गुणाधीनो देहोऽयं पाञ्चभौतिकः ।
कथमन्यांस्तु गोपायेत् सर्पग्रस्तो यथा परम् ॥ ४५ ॥
अहस्तानि सहस्तानां अपदानि चतुष्पदाम् ।
फल्गूनि तत्र महतां जीवो जीवस्य जीवनम् ॥ ४६ ॥
तदिदं भगवान् राजन् एक आत्मात्मनां स्वदृक् ।
अन्तरोऽनन्तरो भाति पश्य तं माययोरुधा ॥ ४७ ॥

(देवर्षि नारद युधिष्ठिर से कहते हैं)  जैसे बैल बड़ी रस्सी में बँधे और छोटी रस्सी से नथे रहकर अपने स्वामीका भार ढोते हैं, उसी प्रकार मनुष्य भी वर्णाश्रमादि अनेक प्रकारके नामोंसे वेदरूप रस्सीमें बँधकर ईश्वरकी ही आज्ञाका अनुसरण करते हैं ॥ ४१ ॥ जैसे संसारमें खिलाड़ीकी इच्छासे ही खिलौनोंका संयोग और वियोग होता है, वैसे ही भगवान्‌की इच्छासे ही मनुष्योंका मिलना-बिछुडऩा होता है ॥ ४२ ॥ तुम लोगोंको जीवरूपसे नित्य मानो या देहरूपसे अनित्य अथवा जडरूपसे अनित्य और चेतन-रूपसे नित्य अथवा शुद्धब्रह्मरूपमें नित्य- अनित्य कुछ भी न मानो—किसी भी अवस्थामें मोहजन्य आसक्तिके अतिरिक्त वे शोक करने योग्य नहीं हैं ॥ ४३ ॥ इसलिये धर्मराज ! वे दीन-दुखी चाचा-चाची असहाय अवस्थामें मेरे बिना कैसे रहेंगे, इस अज्ञानजन्य मनकी विकलताको छोड़ दो ॥ ४४ ॥ यह पाञ्चभौतिक शरीर काल, कर्म और गुणोंके वशमें है। अजगरके मुँहमें पड़े हुए पुरुषके समान यह पराधीन शरीर दूसरोंकी रक्षा ही क्या कर सकता है ॥ ४५ ॥ हाथवालोंके बिना हाथवाले, चार पैरवाले पशुओंके बिना पैरवाले (तृणादि) और उनमें भी बड़े जीवोंके छोटे जीव आहार हैं। इस प्रकार एक जीव दूसरे जीव के जीवन का कारण हो रहा है ॥ ४६ ॥ इन समस्त रूपों में जीवों के बाहर और भीतर वही एक स्वयंप्रकाश भगवान्‌, जो सम्पूर्ण आत्माओंके आत्मा हैं, मायाके द्वारा अनेकों प्रकारसे प्रकट हो रहे हैं। तुम केवल उन्हींको देखो ॥ ४७ ॥ 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


शनिवार, 4 मई 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०६)

विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और 
गान्धारीका वनमें जाना

सूत उवाच ।
कृपया स्नेहवैक्लव्यात् सूतो विरहकर्शितः ।
आत्मेश्वरमचक्षाणो न प्रत्याहातिपीडितः ॥ ३४ ॥
विमृज्याश्रूणि पाणिभ्यां विष्टभ्यात्मानमात्मना ।
अजातशत्रुं प्रत्यूचे प्रभोः पादावनुस्मरन् ॥ ३५ ॥

सञ्जय उवाच ।
नाहं वेद व्यवसितं पित्रोर्वः कुलनन्दन ।
गान्धार्या वा महाबाहो मुषितोऽस्मि महात्मभिः ॥ ३६ ॥
अथाजगाम भगवान् नारदः सहतुम्बुरुः ।
प्रत्युत्थायाभिवाद्याह सानुजोऽभ्यर्चयन् मुनिम् ॥ ३७ ॥

युधिष्ठिर उवाच ।
नाहं वेद गतिं पित्रोः भगवन् क्व गतावितः ।
अम्बा वा हतपुत्रार्ता क्व गता च तपस्विनी ॥ ३८ ॥
कर्णधार इवापारे भगवान् पारदर्शकः ।
अथाबभाषे भगवान् नारदो मुनिसत्तमः ॥ ३९ ॥

नारद उवाच ।
मा कञ्चन शुचो राजन् यदीश्वरवशं जगत् ।
लोकाः सपाला यस्येमे वहन्ति बलिमीशितुः ।
स संयुनक्ति भूतानि स एव वियुनक्ति च ॥ ४० ॥

सूतजी कहते हैं—सञ्जय अपने स्वामी धृतराष्ट्र को न पाकर कृपा और स्नेह की विकलतासे अत्यन्त पीडि़त और विरहातुर हो रहे थे। वे युधिष्ठिरको कुछ उत्तर न दे सके ॥ ३४ ॥ फिर धीरे-धीरे बुद्धिके द्वारा उन्होंने अपने चित्तको स्थिर किया, हाथों से आँखों के आँसू पोंछे और अपने स्वामी धृतराष्ट्रके चरणोंका स्मरण करते हुए युधिष्ठिरसे कहा ॥ ३५ ॥
सञ्जय बोले—कुलनन्दन ! मुझे आपके दोनों चाचा और गान्धारीके सङ्कल्पका कुछ भी पता नहीं है। महाबाहो ! मुझे तो उन महात्माओंने ठग लिया ॥ ३६ ॥ सञ्जय इस प्रकार कह ही रहे थे कि तुम्बुरु के साथ देवर्षि नारदजी वहाँ आ पहुँचे। महाराज युधिष्ठिरने भाइयोंसहित उठकर उन्हें प्रणाम किया और उनका सम्मान करते हुए बोले— ॥ ३७ ॥
युधिष्ठिरने कहा—‘भगवन् ! मुझे अपने दोनों चाचाओं का पता नहीं लग रहा है; न जाने वे दोनों और पुत्र-शोकसे व्याकुल तपस्विनी माता गान्धारी यहाँसे कहाँ चले गये ॥ ३८ ॥ भगवन् ! अपार समुद्रमें कर्णधार के समान आप ही हमारे पारदर्शक हैं।’ तब भगवान्‌के परमभक्त भगवन्मय देवर्षि नारदने कहा— ॥ ३९ ॥ ‘धर्मराज ! तुम किसीके लिये शोक मत करो क्योंकि यह सारा जगत् ईश्वरके वशमें है। सारे लोक और लोकपाल विवश होकर ईश्वरकी ही आज्ञाका पालन कर रहे हैं। वही एक प्राणीको दूसरेसे मिलाता है और वही उन्हें अलग करता है ॥ ४० ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


शुक्रवार, 3 मई 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 05)


# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 05)

 

शकटभञ्जन; उत्कच और तृणावर्त का उद्धार; दोनों के पूर्वजन्मों का वर्णन

 

ब्राह्मणा ऊचुः -
दामोदरः पातु पादौ जानुनी विष्टरश्रवाः ।
ऊरू पातु हरिर्नाभिः परिपूर्णतमः स्वयम् ॥५४॥
कटिं राधापतिः पातु पीतवासास्तवोदरम् ।
हृदयं पद्मनाभश्च भुजौ गोवर्द्धनोद्धरः ॥५५॥
मुखं च मथुरानाथो द्वारकेशः शिरोऽवतु ।
पृष्ठं पात्वसुरध्वंसी सर्वतो भगवान्स्वयम् ॥५६॥
श्लोकत्रयमिदं स्तोत्रं यः पठेन्मानवः सदा ।
महासौख्यं भवेत्तस्य न भयं विद्यते क्वचित् ॥५७॥


श्रीनारद उवाच -
नंदस्तेभ्यो गवां लक्षं सुवर्णं दशलक्षकम् ।
सहस्रं नवरत्‍नानां वस्त्रलक्षं ददौ परम् ॥५८॥
गतेषु द्विजमुख्येषु नंदो गोपान्नियम्य च ।
भोजयामास संपूज्य वस्त्रैभूषैर्मनोहरैः ॥५९॥


श्रीबहुलाश्व उवाच -
तृणावर्तः पूर्वकाले कोऽयं सुकृतकृन्नरः ।
परिपूर्णतमे साक्षाच्छ्रीकृष्णे लीनतां गतः ॥६०॥
श्रीनारद उवाच - पाण्डुदेशोद्‌भवो राजा सहस्राक्षः प्रतापवान् ।
हरिभक्तो धर्मनिष्ठो यज्ञकृद्दानतत्परः ॥६१॥
रेवातटे महादिव्ये लतावेत्रसमाकुले ।
नारीणां च सहस्रेण रममाणो चचार ह ॥६२॥
दुर्वाससं मुनिं साक्षादागतं न ननाम ह ।
तदा मुनिर्ददौ शापं राक्षसो भव दुर्मते ॥६३॥
पुनस्तदंघ्र्योः पतितं नृपं प्रादाद्‌वरं मुनिः ।
श्रीकृष्णविग्रहस्पर्शात्परं मोक्षमवाप ह ॥६५॥

इति श्रीगर्गसंहितायां गोलोकखण्डे नारदबहुलाश्वसंवादे शकटासुरतृणावर्तमोक्षो नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥१४॥

ब्राह्मणों ने कहा- भगवान् दामोदर तुम्हारे चरणों की रक्षा करें। विष्टरश्रवा घुटनों की, श्रीविष्णु जाँघों की और स्वयं परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण तुम्हारी नाभि की रक्षा करें। भगवान् राधावल्लभ तुम्हारे कटि- भाग की तथा पीताम्बरधारी तुम्हारे उदर की रक्षा करें। भगवान् पद्मनाभ हृदयेश की, गोवर्धनधारी बाँहों की, मथुराधीश्वर मुखकी एवं द्वारकानाथ सिरकी रक्षा करें। असुरों का संहार करनेवाले भगवान् पीठ की रक्षा करें और साक्षात् भगवान् गोविन्द सब ओर से तुम्हारी रक्षा करें। तीन श्लोक वाले इस स्तोत्र का जो मनुष्य निरन्तर पाठ करेगा, उसे परम सुख की प्राप्ति होगी और उसे कहीं भी भय का सामना नहीं करना पड़ेगा  ॥ ५४—५७ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं-तदनन्तर नन्दजीने उन ब्राह्मणोंको एक लाख गायें, दस लाख स्वर्णमुद्राएँ, एक हजार नूतन रत्न और एक लाख बढ़िया वस्त्र दिये। उन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके चले जानेपर नन्दजीने गोपोंको बुला-बुलाकर भोजन कराया और मनोहर वस्त्रा- भूषणोंसे उन सबका सत्कार किया ।। ५८-५९ ॥

श्रीबहुलाश्वने पूछा- मुने ! यह तृणावर्त पहले जन्ममें कौन-सा पुण्यकर्मा मनुष्य था, जो साक्षात् परि- महाभाग ब्राह्मण बोले- व्रजपति नन्दजी तथा पूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णमें लीन हो गया ? ।। ६० ।।

श्रीनारदजी बोले - राजन् ! पाण्डुदेशमें 'सहस्राक्ष' नामसे विख्यात एक राजा थे। उनकी कीर्ति सर्वत्र व्याप्त थी। भगवान् विष्णुमें उनकी अपार श्रद्धा थी। वे धर्ममें रुचि रखते थे । यज्ञ और दानमें उनकी बड़ी लगन थी। एक दिन वे रेवा (नर्मदा नदीके दिव्य तटपर गये। लताएँ और बेंत उस तट की शोभा बढ़ा रहे थे। वहाँ सहस्रों स्त्रियों के साथ आनन्द का अनुभव करते हुए वे विचरने लगे। उसी समय स्वयं दुर्वासा मुनि ने वहाँ पदार्पण किया। राजा ने उनकी वन्दना नहीं की, तब मुनि ने शाप दे दिया- 'दुर्बुद्धे ! तू राक्षस हो जा।' फिर तो राजा सहस्राक्ष दुर्वासाजीके चरणोंमें पड़ गये। तब मुनिने उन्हें वर दिया- 'राजन् ! भगवान् श्रीकृष्णके विग्रहका स्पर्श होनेसे तुम्हारी मुक्ति हो जायगी' ॥ ६१–६४ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं-राजन् ! वे ही राजा सहस्त्राक्ष दुर्वासाजीके शापसे भूमण्डलपर 'तृणावर्त' नामक दैत्य हुए थे। भगवान् श्रीकृष्णके दिव्य श्रीविग्रहका स्पर्श होनेसे उनको सर्वोत्तम मोक्ष (गोलोकधाम) प्राप्त हो गया ॥ ६५ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'शकटासुर और तृणावर्तका मोक्ष' नामक चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १४ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

  



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५)

विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और 
गान्धारीका वनमें जाना

एवं राजा विदुरेणानुजेन
     प्रज्ञाचक्षुर्बोधित आजमीढः ।
छित्त्वा स्वेषु स्नेहपाशान्द्रढिम्नो
     निश्चक्राम भ्रातृसन्दर्शिताध्वा ॥ २८ ॥
पतिं प्रयान्तं सुबलस्य पुत्री
     पतिव्रता चानुजगाम साध्वी ।
हिमालयं न्यस्तदण्डप्रहर्षं
     मनस्विनामिव सत्सम्प्रहारः ॥ २९ ॥
अजातशत्रुः कृतमैत्रो हुताग्निः
     विप्रान् नत्वा तिलगोभूमिरुक्मैः ।
गृहं प्रविष्टो गुरुवन्दनाय
     न चापश्यत् पितरौ सौबलीं च ॥ ३० ॥
तत्र सञ्जयमासीनं पप्रच्छोद्विग्नमानसः ।
गावल्गणे क्व नस्तातो वृद्धो हीनश्च नेत्रयोः ॥ ३१ ॥
अम्बा च हतपुत्राऽऽर्ता पितृव्यः क्व गतः सुहृत् ।
अपि मय्यकृतप्रज्ञे हतबन्धुः स भार्यया ।
आशंसमानः शमलं गङ्‌गायां दुःखितोऽपतत् ॥ ३२ ॥
पितर्युपरते पाण्डौ सर्वान्नः सुहृदः शिशून् ।
अरक्षतां व्यसनतः पितृव्यौ क्व गतावितः ॥ ३३ ॥

जब छोटे भाई विदुर ने अंधे राजा धृतराष्ट्रको  इस प्रकार समझाया, तब उनकी प्रज्ञा के नेत्र खुल गये; वे भाई-बन्धुओंके सुदृढ़ स्नेह-पाशोंको काटकर अपने छोटे भाई विदुर के दिखलाये हुए मार्गसे निकल पड़े ॥ २८ ॥ जब परम पतिव्रता सुबलनन्दिनी गान्धारी ने देखा कि मेरे पतिदेव तो उस हिमालयकी यात्रा कर रहे हैं, जो संन्यासियों को वैसा ही सुख देता है, जैसा वीर पुरुषोंको लड़ाईके मैदानमें अपने शत्रुके द्वारा किये हुए न्यायोचित प्रहारसे होता है, तब वे भी उनके पीछे-पीछे चल पड़ीं ॥ २९ ॥ अजातशत्रु युधिष्ठिर ने प्रात:काल सन्ध्यावन्दन तथा अग्रिहोत्र करके ब्राह्मणों को नमस्कार किया और उन्हें तिल, गौ, भूमि और सुवर्णका दान दिया। इसके बाद जब वे गुरुजनों की चरणवन्दना के लिये राजमहल में गये, तब उन्हें धृतराष्ट्र, विदुर तथा गान्धारीके दर्शन नहीं हुए ॥ ३० ॥ युधिष्ठिरने उद्विग्रचित्त होकर वहीं बैठे हुए सञ्जयसे पूछा—‘सञ्जय ! मेरे वे वृद्ध और नेत्रहीन पिता धृतराष्ट्र कहाँ हैं ? ॥ ३१ ॥ पुत्रशोकसे पीडि़त दुखिया माता गान्धारी और मेरे परम हितैषी चाचा विदुरजी कहाँ चले गये ? ताऊजी अपने पुत्रों और बन्धु-बान्धवोंके मारे जानेसे दुखी थे। मैं बड़ा मन्दबुद्धि हूँ— कहीं मुझसे किसी अपराधकी आशङ्का करके वे माता गान्धारीसहित गङ्गाजीमें तो नहीं कूद पड़े ॥ ३२ ॥ जब हमारे पिता पाण्डुकी मृत्यु हो गयी थी और हमलोग नन्हे- नन्हे बच्चे थे, तब इन्हीं दोनों चाचाओंने बड़े-बड़े दु:खोंसे हमें बचाया था। वे हमपर बड़ा ही प्रेम रखते थे। हाय ! वे यहाँसे कहाँ चले गये ?’ ॥ ३३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


गुरुवार, 2 मई 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 04)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 04)

 

शकटभञ्जन; उत्कच और तृणावर्त का उद्धार; दोनों के पूर्वजन्मों का वर्णन

 

श्रीयशोदोवाच -
न जानामि कथं बालो भारभूतो गिरींद्रवत् ।
तस्मान्मया कृतो भूमौ चक्रवाते महाभये ॥४०॥


गोप्य ऊचुः -
मा मृषा वद कल्याणि हे यशोदे गतव्यथे ।
अयं दुग्धमुखो बालो लघुं कुसुमतूलवत् ॥४१॥


श्रीनारद उवाच -
तदा गोप्योऽथ गोपाश्च नंदाद्या आगते शिशौ ।
अतीव मोदं संप्रापुर्वदन्तः कुशलं जनैः ॥४२॥
यशोदा बालकं नीत्वा पाययित्वा स्तनं मुहुः ।
आघ्रायोरसि वस्त्रेण रोहिणीं प्राह मोहिता ॥४३॥


श्रीयशोदोवाच -
एको दैवेन दत्तोऽयं न पुत्रा बहवश्च मे ।
तस्यापि बहवोऽरिष्टा आगच्छन्ति क्षणेन वै ॥४४॥
अद्य मृत्युमुखान्मुक्तो भविष्यत्किमतः परम् ।
किं करोमि क्व गच्छामि कुत्र वासो भवेदतः ॥४५॥
वज्रसाराश्च ये दैत्या निर्दया घोरदर्शनाः ।
वैरं कुर्वन्ति मे बाले दैव दैव कुतः सुखम् ॥४६॥
धनं देहो गृहं सौधो रत्‍नानि विविधानि च ।
सर्वेषां तु ह्यवशं वै भूयान्मे कुशली शिशुः ॥४७॥
हरेरर्चां दानमिष्टं पूर्तं देवालयं शतम् ।
करिष्यामि तदा बालोऽरिष्टेभ्यो विजयी यदा ॥४८॥
एकबालेन मे सौख्यमन्धयष्टिरिव प्रिये ।
बालं नीत्वा गमिष्यामि देशे रोहिणि निर्भये ॥४९॥


श्रीनारद उवाच -
तदैव विप्रा विद्वांस आगता नंदमंदिरम् ।
यशोदया च नंदेन पूजिता आसनस्थिताः ॥५०॥


ब्राह्मणा ऊचुः -
मा शोचं कुरु हे नंद हे यशोदे व्रजेश्वरी ।
करिष्यामः शिशो रक्षां चिरंजीवी भवेदयम् ॥५१॥


श्रीनारद उवाच -
इत्युक्त्वा द्विजमुख्यास्ते कुशाग्रैर्नवपल्लवैः ।
पवित्रकलशैस्तोयैर्ऋग्यजुःसामजैः स्तवैः ॥५२॥
परैः स्वस्त्ययनैर्यज्ञं कारयित्वा विधानतः ।
अग्निं सम्पूज्यविधिवद्‌रक्षां विदधिरे शिशोः ॥५३॥

यशोदाजीने कहा- बहिनो ! समझमें नहीं आता कि उस समय मेरा लाला क्यों गिरिराजके समान भारी लगने लगा था, इसीलिये उस महा- भयंकर बवंडरमें भी मैंने इसे गोदीसे उतारकर भूमिपर रख दिया ॥ ४० ॥

गोपियाँ कहने लगीं-यशोदाजी ! रहने दो, झूठ न बोलो। कल्याणी ! तुम्हारे दिलमें जरा भी दया- माया नहीं है । यह दुधमुँहा बच्चा तो फूल और रूई के समान हलका है ॥ ४१ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— बालक श्रीकृष्णके घर आ जानेपर नन्द आदि गोप और गोपियाँ – सभीको बड़ा हर्ष हुआ। वे सब लोगोंके साथ उसकी कुशल- वार्ता कहने लगे । यशोदाजी बालक श्रीकृष्णको उठा ले गयीं और बार-बार स्तन्य पिलाकर, मस्तक सूँघकर और आँचलसे छातीमें छिपाकर छोह-मोहके वशीभूत हो, रोहिणीसे कहने लगीं ॥। ४२-४३ ॥

श्रीयशोदाजी बोलीं- बहिन ! मुझे दैवने यह एक ही पुत्र दिया है, मेरे बहुत-से पुत्र नहीं हैं; इस एक पुत्रपर भी क्षणभरमें अनेक प्रकारके अरिष्ट आते रहते हैं। आज यह मौतके मुँहसे बचा है। इससे अधिक उत्पात और क्या होगा ? अतः अब मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ तथा अब और कहाँ रहनेकी व्यवस्था करूँ ? धन, शरीर, मकान, अटारी और विविध प्रकारके रत्न – इन सबसे बढ़कर मेरे लिये यह एक ही बात है कि मेरा यह बालक कुशलसे रहे ।। ४४-४७ ।।

यदि मेरा यह बच्चा अरिष्टोंपर विजयी हो जाय तो मैं भगवान् श्रीहरिकी पूजा, दान एवं यज्ञ करूँगी; तड़ागवापी आदिका निर्माण करूँगी और सैकड़ों मन्दिर बनवा दूँगी। प्रिय रोहिणी ! जैसे अंधेके लिये लाठी ही सहारा है, उसी प्रकार मेरा सारा सुख इस बालकसे ही है। अतः बहिन ! अब मैं अपने लालाको उस स्थानपर ले जाऊँगी, जहाँ कोई भय न हो ॥ ४८-४९ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! उसी समय नन्दमन्दिरमें बहुत-से विद्वान् ब्राह्मण पधारे और उत्तम आसनपर बैठे । नन्द और यशोदाजीने उन सबका विधिवत् पूजन किया ॥ ५० ॥

 

ब्राह्मण बोले—[व्रजपति]  नन्दजी  तथा व्रजेश्वरी यशोदे ! तुम चिन्ता मत करो। हम इस बालक की [कवच आदि से] रक्षा करेंगे, जिससे यह दीर्घजीवी हो जाय ॥ ५१ ॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! उन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने कुशाग्रों, नूतन पल्लवों, पवित्र कलशों, शुद्ध जल तथा ऋक्, यजु एवं सामवेदके स्तोत्रों और उत्तम स्वस्तिवाचन आदिके द्वारा विधि-विधान से यज्ञ करवाकर अग्निकी पूजा करायी । तब उन्होंने बालक श्रीकृष्णकी विधिवत् रक्षा की ( रक्षार्थ निम्नाङ्कित कवच पढ़ा) । ५२-५३ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०४)

विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और 
गान्धारीका वनमें जाना

येन चैवाभिपन्नोऽयं प्राणैः प्रियतमैरपि ।
जनः सद्यो वियुज्येत किमुतान्यैः धनादिभिः ॥ २० ॥
पितृभ्रातृसुहृत्पुत्रा हतास्ते विगतं वयः ।
आत्मा च जरया ग्रस्तः परगेहमुपाससे ॥ २१ ॥
अहो महीयसी जन्तोः जीविताशा यया भवान् ।
भीमापवर्जितं पिण्डं आदत्ते गृहपालवत् ॥ २२ ॥
अग्निर्निसृष्टो दत्तश्च गरो दाराश्च दूषिताः ।
हृतं क्षेत्रं धनं येषां तद्दत्तैरसुभिः कियत् ॥ २३ ॥
तस्यापि तव देहोऽयं कृपणस्य जिजीविषोः ।
परैत्यनिच्छतो जीर्णो जरया वाससी इव ॥ २४ ॥
गतस्वार्थमिमं देहं विरक्तो मुक्तबन्धनः ।
अविज्ञातगतिः जह्यात् स वै धीर उदाहृतः ॥ २५ ॥
यः स्वकात्परतो वेह जातनिर्वेद आत्मवान् ।
हृदि कृत्वा हरिं गेहात् प्रव्रजेत् स नरोत्तमः ॥ २६ ॥
अथोदीचीं दिशं यातु स्वैरज्ञात गतिर्भवान् ।
इतोऽर्वाक् प्रायशः कालः पुंसां गुणविकर्षणः ॥ २७ ॥

(विदुरजी धृतराष्ट्र से कहते हैं)  काल के वशीभूत होकर जीव का अपने प्रियतम प्राणों से भी बात-की-बात में वियोग हो जाता है; फिर धन, जन आदि दूसरी वस्तुओं की तो बात ही क्या है ॥ २० ॥ आपके चाचा, ताऊ, भाई, सगे- सम्बन्धी और पुत्र—सभी मारे गये, आपकी उम्र भी ढल चुकी, शरीर बुढ़ापेका शिकार हो गया, आप पराये घरमें पड़े हुए हैं ॥ २१ ॥ ओह ! इस प्राणी को जीवित रहने की कितनी प्रबल इच्छा होती है ! इसीके कारण तो आप भीमका दिया हुआ टुकड़ा खाकर कुत्तेका-सा जीवन बिता रहे हैं ॥ २२ ॥ जिनको आपने आगमें जलानेकी चेष्टाकी, विष देकर मार डालना चाहा, भरी सभामें जिनकी विवाहिता पत्नीको अपमानित किया, जिनकी भूमि और धन छीन लिये, उन्हीं के अन्नसे पले हुए प्राणोंको रखनेमें क्या गौरव है ॥ २३ ॥ आपके अज्ञानकी हद हो गयी कि अब भी आप जीना चाहते हैं ! परन्तु आपके चाहनेसे क्या होगा; पुराने वस्त्रकी तरह बुढ़ापेसे गला हुआ आपका शरीर आपके न चाहनेपर भी क्षीण हुआ जा रहा है ॥ २४ ॥ अब इस शरीरसे आपका कोई स्वार्थ सधने वाला नहीं है; इसमें फँसिये मत, इसकी ममता का बन्धन काट डालिये। जो संसार के सम्बन्धियों से अलग रहकर उनके अनजान में अपने शरीर का त्याग करता है, वही धीर कहा गया है ॥ २५ ॥ चाहे अपनी समझ से हो या दूसरेके समझानेसे—जो इस संसारको दु:खरूप समझकर इससे विरक्त हो जाता है और अपने अन्त:करण को वश में करके हृदय में भगवान्‌ को धारण कर संन्यास के लिये घर से निकल पड़ता है, वही उत्तम मनुष्य है ॥ २६ ॥ इसके आगे जो समय आनेवाला है, वह प्राय: मनुष्यों के गुणों को घटानेवाला होगा; इसलिये आप अपने कुटुम्बियों से छिपकर उत्तराखण्ड में चले जाइये’ ॥ २७ ॥

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बुधवार, 1 मई 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 03)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 03)

 

शकटभञ्जन; उत्कच और तृणावर्त का उद्धार; दोनों के पूर्वजन्मों का वर्णन

 

श्रीनारद उवाच -
तस्मादुत्कदैत्यस्तु मुक्तो लोमशतेजसा ।
सद्‌भ्यो नमोऽस्तु ये नूनं समर्था वरशापयोः ॥२४॥
उत्संगे क्रीडितं बालं लालयंत्येकदा नृप ।
गिरिभारं न सेहे सा वोढुं श्रीनंदगेहिनी ॥२५॥
अहो गिरिसमो बालः कथं स्यादिति विस्मिता ।
भूमौ निधाय तं सद्यो नेदं कस्मै जगाद ह ॥२६॥
कंसप्रणोदितो दैत्यस्तृणावर्तो महाबलः ।
जहार बालं क्रीडन्तं वातावर्तेन सुंदरम् ॥२७॥
रजोऽन्धकारोऽभूत्तत्र घोरशब्दश्च गोकुले ।
रजस्वलानि चक्षूंषि बभूवुर्घटिकाद्वयम् ॥२८॥
ततो यशोदा नापश्यत्पुत्रं तं मंदिराजिरे ।
मोहिता रुदती घोरान् पश्यंती गृहशेखरान् ॥२९॥
अदृष्टे च यदा पुत्रे पतिता भुवि मूर्छिता ।
उच्चै रुरोद करुणं मृतवत्सा यथा हि गौः ॥३०॥
रुरुदुश्च तदा गोप्यः प्रेमस्नेहसमाकुलाः ।
अश्रुमुख्यो नंदसूनुं पश्यंत्यस्ता इतस्ततः ॥३१॥
तृणावर्तो नभः प्राप्त ऊर्ध्वं वै लक्षयोजनम् ।
स्कंधे सुमेरुवद्‌बालं मन्यमानः प्रपीडितः ॥३२॥
अथ कृष्णं पातयितुं दैत्यस्तत्र समुद्यतः ।
गलं जग्राह तस्यापि परिपूर्णतमः स्वयम् ॥३३॥
मुंच मुंचेति गदिते दैत्ये कृष्णोऽद्‌भुतोऽर्भकः ।
गलग्राहेण महता व्यसुं दैत्यं चकार ह ॥३४॥
तज्ज्योतिः श्रीघनश्यामे लीनं सौदामिनी यथा ।
दैत्योऽम्बरान्निपतितः शिलायां शिशुना सह ॥३५॥
विशीर्णावयवस्यापि पतितस्य स्वनेन वै ।
विनेदुश्च दिशः सर्वाः कंपितं भूमिमंडलम् ॥३६॥
तत्पृष्ठस्थं शिशुं तूष्णीं रुदंत्यो गोपिकास्ततः ।
ददृशुर्युगपत्सर्वा नीत्वा मात्रे ददुर्जगुः ॥३७॥


गोप्य ऊचुः -
न योग्यासि यशोदे त्वं बालं लालयितुं मनाक् ।
न घृणा ते क्वचिद्‌दृष्टा क्रुद्धासि कथितेन वै ॥३८॥
प्राप्तेऽन्धकारे स्वारोहात्कोऽपि बालं जहाति हि ।
त्वया निर्घृणया भूमौ धृतो बालो महाभये ॥३९॥

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! उक्त वरद शापके कारण लोमशजीके प्रतापसे दानव उत्कच भी भगवान्‌ के परम धामका अधिकारी हो गया। जो वर और शाप देने में पूर्ण स्वतन्त्र हैं, उन श्रेष्ठ संतोंके लिये मेरा नमस्कार है ॥ २४ ॥

राजन् ! एक दिन नन्दरानी यशोदाजीकी गोदमें बालक श्रीकृष्ण खेल रहे थे और नन्दरानी उन्हें लाड़ लड़ा रही थीं। थोड़ी ही देरमें बालक पर्वतके समान भारी प्रतीत होने लगा। वे उसे गोदमें उठाये रखने में असमर्थ हो गयीं और मन-ही-मन सोचने लगीं— 'अहो ! इस बालकमें पहाड़-सा भारीपन कहाँसे आ गया ?' फिर उन्होंने बालगोपालको भूमिपर रख दिया, किंतु यह रहस्य किसी को बतलाया नहीं । उसी समय कंस का भेजा हुआ महाबली दैत्य 'तृणावर्त' वहाँ आकर आँगन में खेलते हुए सुन्दर बालक श्रीकृष्ण को बवंडररूप से उठा ले गया ।।२५-२७।।

तब गोकुलमें ऐसी धूल उठी, जिसके कारण अँधेरा छा गया और भयंकर शब्द होने लगा। दो घड़ीतक सबकी आँखोंमें धूल भरी रही। उस समय यशोदाजी नन्द-मन्दिरके आँगनमें अपने लालाको न देखकर घबरा गयीं। रोती हुई महलके शिखरोंकी ओर देखने लगीं। वे बड़े भयंकर दीखते थे ।। ३८-३९ ।।

जब कहीं भी अपना लाला नहीं दिखायी दिया, तब वे मूर्च्छित होकर पृथ्वीपर गिर

पड़ीं और होश में आनेपर उच्चस्वर से इस प्रकार करुण-विलाप करने लगीं, मानो बछड़े के मर जानेपर गौ क्रन्दन कर रही हो । प्रेम और स्नेहसे व्याकुल हुई गोपियाँ भी रो रहीं थीं। उन सबके मुखपर आँसुओं की धारा बह रहीं थी । वे इधर-उधर देखती हुई नन्द- नन्दन की खोज में लग गयीं ।। ३०-३१ ।।

उधर तृणावर्त आकाश में दस योजन ऊपर जा पहुँचा। बालक श्रीकृष्ण उसके कंधे पर थे। उनका शरीर उसे सुमेरु पर्वत की भाँति भारी प्रतीत होने लगा। उसे अत्यन्त पीड़ा होने लगी । तब वह दानव श्रीकृष्ण को वहाँ नीचे पटकनेकी चेष्टामें लग गया। यह जानकर परिपूर्णतम भगवान् ने स्वयं उसका गला पकड़ लिया ।। ३२-३३ ।।

निशाचर के 'छोड़ दे, छोड़ दे ।' कहने पर अद्भुत बालक श्रीकृष्ण ने बड़े जोरसे उसका गला दबाया, इससे उसके प्राण-पखेरू उड़ गये। उसकी देहसे ज्योति निकली और घनश्याम में उसी प्रकार विलीन हो गयी, जैसे बादल में बिजली । तब आकाश से दैत्य का शरीर बालक के साथ ही एक शिला पर गिर पड़ा। गिरते ही उसकी बोटी-बोटी छितरा गयी। गिरनेके  धमाके से सम्पूर्ण दिशाएँ प्रतिध्वनित हो उठीं, भूमण्डल काँपने लगा । उस समय रोती हुई सब गोपियोंने राक्षसकी पीठपर चुपचाप बैठे बालक श्रीकृष्णको एक साथ ही देखा और दौड़कर उन्हें उठा लिया। फिर माता यशोदाको देकर वे कहने लगीं-- ॥। ३४–३७ ॥

गोपियाँ बोलीं- यशोदे ! तुममें बालकके लालनपालनकी रत्तीभर भी योग्यता नहीं है। कहने से तो तुम बुरा मान जाती हो; किंतु सच बात यह है कि कहीं, कभी तुमसे दया देखी नहीं गयी। भला कहो तो, इस प्रकार अन्धकार आ जानेपर कोई भी अपने बच्चेको गोदसे अलग करता है ! तू ऐसी निर्दय है कि ऐसे महान् भय के अवसरपर भी बालक को जमीन पर रख दिया ? ॥ ३८-३९ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०३)

विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और 
गान्धारीका वनमें जाना

कञ्चित् कालमथावात्सीत् सत्कृतो देववत्सुखम् ।
भ्रातुर्ज्येष्ठस्य श्रेयस्कृत् सर्वेषां सुखमावहन् ॥ १४ ॥
अबिभ्रदर्यमा दण्डं यथावत् अघकारिषु ।
यावद् दधार शूद्रत्वं शापात् वर्षशतं यमः ॥ १५ ॥
युधिष्ठिरो लब्धराज्यो दृष्ट्वा पौत्रं कुलन्धरम् ।
भ्रातृभिर्लोकपालाभैः मुमुदे परया श्रिया ॥ १६ ॥
एवं गृहेषु सक्तानां प्रमत्तानां तदीहया ।
अत्यक्रामत् अविज्ञातः कालः परमदुस्तरः ॥ १७ ॥
विदुरस्तत् अभिप्रेत्य धृतराष्ट्रं अभाषत ।
राजन् निर्गम्यतां शीघ्रं पश्येदं भयमागतम् ॥ १८ ॥
प्रतिक्रिया न यस्येह कुतश्चित् कर्हिचित् प्रभो ।
स एष भगवान् कालः सर्वेषां नः समागतः ॥ १९ ॥

पाण्डव विदुरजी का देवता के समान सेवा-सत्कार करते थे। वे कुछ दिनों तक अपने बड़े भाई धृतराष्ट्र की कल्याण-कामना से सब लोगोंको प्रसन्न करते हुए सुखपूर्वक हस्तिनापुरमें ही रहे ॥ १४ ॥ विदुरजी तो साक्षात् धर्मराज थे, माण्डव्य ऋषिके शापसे ये सौ वर्षके लिये शूद्र बन गये थे [*]। इतने दिनों तक यमराज के पदपर अर्यमा थे और वही पापियों को उचित दण्ड देते थे ॥ १५ ॥ राज्य प्राप्त हो जानेपर अपने लोकपालों-सरीखे भाइयोंके साथ राजा युधिष्ठिर वंशधर परीक्षित्‌ को देखकर अपनी अतुल सम्पत्तिसे आनन्दित रहने लगे ॥ १६ ॥ इस प्रकार पाण्डव गृहस्थके काम-धंधोंमें रम गये और उन्हींके पीछे एक प्रकारसे यह बात भूल गये कि अनजानमें ही हमारा जीवन मृत्युकी ओर जा रहा है; अब देखते-देखते उनके सामने वह समय आ पहुँचा जिसे कोई टाल नहीं सकता ॥ १७ ॥
परन्तु विदुरजीने कालकी गति जानकर अपने बड़े भाई धृतराष्ट्रसे कहा—‘महाराज ! देखिये, अब बड़ा भयंकर समय आ गया है, झटपट यहाँसे निकल चलिये ॥ १८ ॥ हम सब लोगोंके सिरपर वह सर्वसमर्थ काल मँडराने लगा है, जिसके टालनेका कहीं भी कोई उपाय नहीं है ॥ १९ ॥ 
........................................................
[*] एक समय किसी राजा के अनुचरों ने कुछ चोरों को माण्डव्य ऋषि के आश्रम पर पकड़ा। उन्होंने समझा कि ऋषि भी चोरी में शामिल होंगे। अत: वे भी पकड़ लिये गये और राजाज्ञासे सबके साथ उनको भी सूलीपर चढ़ा दिया गया। राजाको यह पता लगते ही कि ये महात्मा हैं—ऋषिको सूलीसे उतरवा दिया और हाथ जोडक़र उनसे अपना अपराध क्षमा कराया। माण्डव्यजीने यमराजके पास जाकर पूछा—‘मुझे किस पापके फलस्वरूप यह दण्ड मिला ?’ यमराजने बताया कि ‘आपने लडक़पनमें एक टिड्डीको कुशकी नोकसे छेद दिया था, इसीलिये ऐसा हुआ।’ इसपर मुनिने कहा—‘मैंने अज्ञानवश ऐसा किया होगा, उस छोटेसे अपराधके लिये तुमने मुझे बड़ा कठोर दण्ड दिया। इसलिये तुम सौ वर्षतक शूद्रयोनिमें रहोगे।’ माण्डव्यजी के इस शाप से ही यमराज ने विदुर के रूप में अवतार लिया था।

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१२) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन तत्...