इस ब्लॉग का ध्येय, सनातन धर्म एवं भारतीय संस्कृति का प्रसार करना तथा सन्तों के दुर्लभ प्रवचनों को जन-जन तक पहुंचाने का है | हम केवल धार्मिक और आध्यात्मिक विषयों पर प्रामाणिक जानकारियों को ही प्रकाशित करते हैं। आत्मकल्याण तथा दुर्लभ-सत्संग हेतु हमसे जुड़ें और अपने सभी परिवारजनों और मित्रों को इसके लाभ की बात बताकर सबको जोड़ने का प्रयास करें | भगवान् में लगना और दूसरों को लगाना ‘परम-सेवा’ है | अतः इसका लाभ उठाना चाहिए |
लेबल
- आसुरि
- गीता
- परलोक और पुनर्जन्म
- पुरुषसूक्त
- प्रश्नोत्तरी ‘मणिरत्नमाला’
- मानस में नाम-वन्दना
- विविध
- विवेक चूडामणि
- वैदिक सूक्त
- श्रीगर्ग-संहिता
- श्रीदुर्गासप्तशती
- श्रीमद्भगवद्गीता
- श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध 7 से 12
- श्रीमद्भागवतमहापुराण स्कंध 1 से 6
- श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
- श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम् (स्कन्दपुराणान्तर्गत)
- स्तोत्र
शनिवार, 18 मई 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध पंद्रहवां अध्याय..(पोस्ट..०३)
शुक्रवार, 17 मई 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) पंद्रहवाँ अध्याय (पोस्ट 04)
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
पंद्रहवाँ
अध्याय (पोस्ट 04)
यशोदाद्वारा
श्रीकृष्णके मुखमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका दर्शन;
नन्द और यशोदाके पूर्व- पुण्य का परिचय; गर्गाचार्यका
नन्द भवनमें जाकर बलराम और श्रीकृष्णके नामकरण - संस्कार करना तथा वृषभानुके यहाँ
जाकर उन्हें श्रीराधा-कृष्णके नित्य-सम्बन्ध एवं माहात्म्यका ज्ञान कराना
श्रीवृषभानुरुवाच
-
सतां पर्यटनं शांतं गृहिणां शांतये स्मृतम् ।
नृणामंतस्तमोहारी साधुरेव न भास्करः ॥४६॥
तीर्थीभूता वयं गोपा जातास्त्वद्दर्शनात्प्रभो ।
तीर्थानि तीर्थीकुर्वंति त्वादृशाः साधवः क्षितौ ॥४७॥
हे मुने राधिकानाम कन्या मे मंगलायना ।
कस्मै वराय दातव्या वद त्वं मे सुनिश्चितम् ॥४८॥
त्वं पर्यटन्नर्क इव त्रिलोकीं दिव्यदर्शनः ।
वरोऽनया समो यो वै तस्मै दास्यामि कन्यकाम् ॥४९॥
श्रीनारद उवाच -
हस्तं गृहीत्वा श्रीगर्गो वृषभानोर्महामुनिः ।
जगाम यमुनातीरं निर्जनं सुंदरस्थलम् ॥५०॥
कालिन्दीजलकल्लोककोलाहलसमाकुलम् ।
तत्रोपवेश्य गोपेशं मुनींद्रः प्राह धर्मवित् ॥५१॥
श्रीगर्ग उवाच -
हे गोप गुप्तमाख्यानं कथनीयं न च त्वया ।
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान्स्वयम् ॥५२॥
असंख्यब्रह्मांडपतिर्गोलोकेशः परात्परः ।
तस्मात्परो वरो नास्ति जातो नंदगृहे पतिः ॥५३॥
श्रीवृषभानुरुवाच -
अहोभाग्यमहोभाग्यं नंदस्यापि महामुने ।
श्रीकृष्णस्यावतारस्य सर्वं त्वं वद कारणम् ॥५४॥
श्रीगर्ग उवाच -
भुवो भारावताराय कंसादीनां वधाय च ।
ब्रह्मणा प्राथितः कृष्णो बभूव जगतीतले ॥५५॥
श्रीकृष्णपट्टराज्ञी या गोलोके राधिकाभिधा ।
त्वद्गृहे सापि संजाता त्वं न जानासि तां पराम् ॥५६॥
श्रीनारद उवाच -
तदा प्रहर्षितो गोपो वृषभानुः सुविस्मितः ।
कलावतीं समाहूय तया सार्द्धं विचार्य च ॥५७॥
राधाकृष्णानुभावं च ज्ञात्वा गोपवरः परः ।
आनंदाश्रुकलां मुंचन्पुनराह महामुनिम् ॥५८॥
श्रीवृषभानुरुवाच -
तस्मै दास्यामि हे ब्रह्मन् कन्यां कमललोचनाम् ।
त्वया पंथा दर्शितो मे त्वया कार्योऽयमुद्वहः ॥५९॥
श्रीवृषभानु
ने कहा- संत पुरुषों का विचरण शान्तिमय है; क्योंकि
वह गृहस्थजनों को परम शान्ति प्रदान करनेवाला है। मनुष्यों के भीतरी अन्धकार का
नाश महात्माजन ही करते हैं, सूर्यदेव नहीं। भगवन् ! आपका
दर्शन पाकर हम सभी गोप पवित्र हो गये। भूमण्डल पर आप जैसे साधु-महात्मा पुरुष
तीर्थों को भी पावन बनानेवाले होते हैं। मुने! मेरे यहाँ एक कन्या हुई है, जो मङ्गल की धाम है और जिसका 'राधिका' नाम है। आप भली-भाँति विचारकर यह बताने की कृपा कीजिये कि इसका शुभ विवाह
किसके साथ किया जाय। सूर्य की भाँति आप तीनों लोकों में विचरण करते हैं। आप
दिव्यदर्शन हैं, जो इसके अनुरूप सुयोग्य वर होगा, उसीके हाथ में इस कल्याणमयी कन्या को दूँगा । ४६ – ४९ ।।
श्रीनारदजी
कहते हैं— राजन् ! तदनन्तर मुनिवर गर्गजी वृषभानुजीका हाथ पकड़े यमुनाके तटपर गये।
वहाँ एक निर्जन और अत्यन्त सुन्दर स्थान था, जहाँ
कालिन्दीजलकी कल्लोलमालाओंकी कल-कल ध्वनि सदा गूँजती रहती थी। वहीं गोपेश्वर
वृषभानुको बैठाकर धर्मज्ञ मुनीन्द्र गर्ग इस प्रकार कहने लगे । ५०-५१ ॥
श्रीगर्गजी
बोले- वृषभानुजी ! एक गुप्त बात है, यह
तुम्हें किसीसे नहीं कहनी चाहिये। जो असंख्य ब्रह्माण्डोंके अधिपति, गोलोकधामके स्वामी, परात्पर तथा साक्षात् परिपूर्णतम
हैं; जिनसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है; स्वयं
वे ही भगवान् श्रीकृष्ण नन्दके घरमें प्रकट हुए हैं ।। ५२-५३ ।।
श्रीवृषभानुने
कहा- महामुने ! नन्दजीका भी भाग्य अद्भुत है, धन्य
एवं अवर्णनीय है। अब आप भगवान् श्रीकृष्ण के अवतार का सम्पूर्ण कारण मुझे बताइये ॥
५४ ॥
श्रीगर्ग
जी बोले- पृथ्वी का भार उतारने और कंस आदि दुष्टों का विनाश करने के लिये
ब्रह्माजी के प्रार्थना करने पर भगवान् श्रीकृष्ण पृथ्वीपर अवतीर्ण हुए हैं।
उन्हीं परम प्रभु श्रीकृष्णकी पटरानी, जो
प्रिया श्रीराधिकाजी गोलोकधाममें विराजती हैं, वे ही
तुम्हारे
घर
पुत्रीरूप से प्रकट हुई हैं। तुम उन पराशक्ति राधिकाको नहीं जानते ।। ५५-५६ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं - राजन् ! उस समय गोप वृषभानुके मनमें आनन्दकी बाढ़ आ गयी और वे अत्यन्त
विस्मित हो गये। उन्होंने कलावती (कीर्ति) को बुलाकर उनके साथ विचार किया। पुनः
श्रीराधा- कृष्णके प्रभावको जानकर गोपवर वृषभानु आनन्दके आँसू बहाते हुए पुनः
महामुनि गर्गसे कहने लगे ।। ५७-५८ ॥
श्रीवृषभानुने
कहा – द्विजवर ! उन्हीं भगवान् श्रीकृष्णको मैं अपनी यह कमलनयनी कन्या समर्पण
करूँगा। आपने ही मुझे यह सन्मार्ग दिखलाया है; अतः
आपके द्वारा ही इसका शुभ विवाह-संस्कार सम्पन्न होना चाहिये ।। ५९ ।।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध पंद्रहवां अध्याय..(पोस्ट..०२)
गुरुवार, 16 मई 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) पंद्रहवाँ अध्याय (पोस्ट 03)
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
पंद्रहवाँ
अध्याय (पोस्ट 03)
यशोदाद्वारा
श्रीकृष्णके मुखमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका दर्शन;
नन्द और यशोदाके पूर्व- पुण्य का परिचय; गर्गाचार्यका
नन्द भवनमें जाकर बलराम और श्रीकृष्णके नामकरण - संस्कार करना तथा वृषभानुके यहाँ
जाकर उन्हें श्रीराधा-कृष्णके नित्य-सम्बन्ध एवं माहात्म्यका ज्ञान कराना
वसवश्चेंद्रियाणीति
तद्देवश्चित्तमेव हि ।
तस्मिन्यश्चेष्टते सोऽपि वासुदेव इति स्मृतः ॥३३॥
वृषभानुसुता राधा या जाता कीर्तिमंदिरे ।
तस्याः पतिरयं साक्षात्तेन राधापतिः स्मृतः ॥३४॥
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान्स्वयम् ।
असंख्यब्रह्माण्डपतिः गोलोके धाम्नि राजते ॥३५॥
सोऽयं तव शिशुर्जातो भारावतरणाय च ।
कंसादीनां वधार्थाय भक्तानां रक्षणाय च ॥३६॥
अनंतान्यस्य नामानि वेदगुह्यानि भारत ।
लीलाभिश्च भविष्यंति तत्कर्मसु न विस्मयः ॥३७॥
अहोभाग्यं तु ते नंद साक्षाच्छ्रीपुरुषोत्तमः ।
त्वद्गृहे वर्तमानोऽयं शिशुरूपः परात्परः ॥३८॥
इत्युक्त्वाथ गते गर्गे स्वात्मानं पूर्णमाशिषाम् ।
मेने प्रमुदितः पत्न्या नंदराजो महामतिः ॥३९॥
अर्थ गर्गो ज्ञानिवरो ज्ञानदो मुनिसत्तमः ।
कालिंदीतीरशोभाढ्यां वृषभानुपुरं गतः ॥४०॥
छत्रेण शोभितं विप्रं द्वितीयमिव वासवम् ।
दंडेन राजितं साक्षाद्धर्मराजमिव स्थितम् ॥४१॥
तेजसा द्योतितदिशं साक्षात्सूर्यमिवापरम् ।
पुस्तकीमेखलायुक्तं द्वितीयमिव पद्मजम् ॥४२॥
शोभितं शुक्लवासोभिर्देवं विष्णुमिव स्थितम् ।
तं दृष्ट्वा मुनिशार्दूलं सहसोत्थाय सादरम् ॥४३॥
प्रणम्य शिरसा सद्यः संमुखोऽभूत् कृतांजलिः ।
मुनिं च पीठके स्थाप्य पाद्याद्यैरुपचारवित् ॥४४॥
पूजयामास विधिवच्छ्रीगर्गं ज्ञानिनां वरम् ।
ततः प्रदक्षिणीकृत्य वृषभानुवरो महान् ॥४५॥
इनका
एक नाम 'वासुदेव' भी है। इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार है- 'वसु' नाम है इन्द्रियोंका । इनका देवता है— चित्त ।
उस चित्त में स्थित रहकर जो चेष्टाशील हैं, उन अन्तर्यामी
भगवान् को 'वासुदेव' कहते हैं।
वृषभानुकी पुत्री राधा जो कीर्तिके भवनमें प्रकट हुई हैं, उनके
ये साक्षात् प्राणनाथ बनेंगे; अतः इनका एक नाम 'राधापति' भी है ॥ ३३-३४ ॥
जो
साक्षात् परिपूर्णतम स्वयं भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र हैं,
असंख्य ब्रह्माण्ड जिनके अधीन हैं और जो गोलोकधाम में विराजते हैं,
वे ही परम प्रभु तुम्हारे यहाँ बालकरूपसे प्रकट हुए हैं। पृथ्वीका
भार उतारना, कंस आदि दुष्टोंका संहार करना और भक्तोंकी रक्षा
करना — ये ही इनके अवतार के उद्देश्य हैं ।। ३५-३६ ।।
भरतवंशोद्भव
नन्द ! इनके नामोंका अन्त नहीं है । वे सब नाम वेदोंमें गूढ़रूपसे कहे गये हैं ।
इनकी लीलाओंके कारण भी उन-उन कर्मों के अनुसार इनके नाम विख्यात होंगे। इनके
अद्भुत कर्मोंको लेकर आश्चर्य नहीं करना चाहिये। तुम्हारा अहोभाग्य है;
क्योंकि जो साक्षात् परिपूर्णतम परात्पर श्रीपुरुषोत्तम प्रभु हैं,
वे तुम्हारे घर पुत्रके रूपमें शोभा पा रहे हैं ।। ३७-३८ ।।
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! यों कहकर श्रीगर्गजी जब चले गये, तब प्रमुदित हुए महामति नन्दरायने यशोदा-सहित अपनेको पूर्णकाम एवं
कृतकृत्य माना ॥ तदनन्तर ज्ञानिशिरोमणि ज्ञानदाता मुनिश्रेष्ठ श्रीगर्गजी
यमुनातटपर सुशोभित वृषभानुजीकी पुरी में पधारे। छत्र धारण करनेसे वे दूसरे
इन्द्रकी तथा दण्ड धारण करने से साक्षात् धर्मराज की भाँति सुशोभित होते थे ॥ ३९-४१
॥
साक्षात्
दूसरे सूर्य की भाँति वे अपने तेजसे सम्पूर्ण दिशाओंको प्रकाशित कर रहे थे। पुस्तक
तथा मेखलासे युक्त विप्रवर गर्ग दूसरे ब्रह्माकी भाँति प्रतीत होते थे। शुक्ल
वस्त्रोंसे सुशोभित होनेके कारण वे भगवान् विष्णुकी-सी शोभा पाते थे । उन
मुनिश्रेष्ठको देखकर वृषभानुजीने तुरंत उठकर अत्यन्त आदरके साथ सिर झुकाकर उन्हें
प्रणाम किया और हाथ जोड़कर वे उनके सामने खड़े हो गये। पूजनोपचारके ज्ञाता
वृषभानुने मुनिको एक मङ्गलमय आसनपर बिठाकर पाद्य आदिके द्वारा उन ज्ञानिशिरोमणि
गर्गका विधिवत् पूजन किया। फिर उनकी परिक्रमा करके महान् 'वृषभानुवर' इस प्रकार बोले ।। ४२–४५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध पंद्रहवां अध्याय..(पोस्ट..०१)
बुधवार, 15 मई 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) पंद्रहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
पंद्रहवाँ
अध्याय (पोस्ट 02)
यशोदाद्वारा
श्रीकृष्णके मुखमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका दर्शन;
नन्द और यशोदाके पूर्व- पुण्य का परिचय; गर्गाचार्यका
नन्द भवनमें जाकर बलराम और श्रीकृष्णके नामकरण - संस्कार करना तथा वृषभानुके यहाँ
जाकर उन्हें श्रीराधा-कृष्णके नित्य-सम्बन्ध एवं माहात्म्यका ज्ञान कराना
श्रीबहुलाश्व उवाच -
नंदगेहे हरिः साक्षाच्छिशुरूपः सनातनः ।
किं चकार बलेनापि तन्मे ब्रूहि महामुने ॥१७॥
श्रीनारद उवाच -
एकदा शिष्यसहोतो गर्गाचार्यो महामुनिः ।
शौरिणा नोदितः साक्षादाययौ नंदमंदिरम् ॥१८॥
नंदः संपूज्य विधिवत्पाद्याद्यैर्मुनिसत्तमम् ।
ततः प्रदक्षिणीकृत्य साष्टांगं प्रणनाम ह ॥१९॥
श्रीनन्द उवाच -
अद्य नः पितरो देवाः संतुष्टा अग्नयश्च नः ।
पवित्रं मंदिरं जातं युष्मच्चरणरेणुभिः ॥२०॥
मत्पुत्रनामकरणं कुरु द्विज महामुने ।
पुण्यैस्तीर्थैश्च दुष्प्राप्यं भवदागमनं प्रभो ॥२१॥
श्रीगर्ग उवाच -
ते पुत्रनामकरणं करिष्यामि न संशयः ।
पूर्ववार्तां गदिष्यामि गच्छ नंद रहःस्थलम् ॥२२॥
श्रीनारद उवाच -
उत्थाप्य गर्गो नन्देन बालाभ्यां च यशोदया ।
एकांते गोव्रजे गत्वा तयोर्नाम चकार ह ।
संपूज्य गणनाथादीन् ग्रहान्संशोध्य यत्नतः ।
नंदं प्राह प्रसन्नांगो गर्गाचार्यो महामुनिः ॥२४॥
रोहिणीनंदनस्यास्य नामोच्चारं शृणुष्व च ।
रमन्ते योगिनो ह्यस्मिन्सर्वत्र रमतीति वा ॥२५॥
गुणैश्च रमयन् भक्ताण्स्तेन रामं विदुः परे ।
गर्भसंकर्षणादस्य संकर्षण इति स्मृतः ॥२६॥
सर्वावशेषाद्यं शेषं बलाधिक्याद्बलं विदुः ।
स्वपुत्रस्यापि नामानि शृणु नंद ह्यतन्द्रितः ॥२७॥
सद्यः प्राणिपवित्राणि जगतां मंगलानि च ।
ककारः कमलाकांत ऋकारो राम इत्यपि ॥२८॥
षकारः षड्गुणपतिः श्वेतद्वीपनिवासकृत् ।
णकारो नारसिंहोऽयमकारो ह्यक्षरोऽग्निभुक् ॥२९॥
विसर्गौ च तथा ह्येतौ नरनारायणावृषी ।
संप्रलीनाश्च षट् पूर्णा यस्मिञ्छुद्धे महात्मनि ॥३०॥
परिपूर्णतमे साक्षात्तेन कृष्णः प्रकीर्तितः ।
शुक्लो रक्तस्तथा पीतो वर्णोऽस्यानुयुगं धृतः ॥३१॥
द्वापरान्ते कलेरादौ बालोऽयं कृष्णतां गतः ।
तस्मात्कृष्ण इति ख्यातो नाम्नायं नंदनंदनः ॥३२॥
श्रीबहुलाश्वने
पूछा- महामुने ! शिशुरूपधारी उन सनातन पुरुष भगवान् श्रीहरिने बलरामजीके साथ
कौन-कौन-सी लीलाएँ कीं, यह मुझे बताइये ॥ १७
॥
श्रीनारदजीने
कहा- राजन् ! एक दिन वसुदेव- जीके भेजे हुए महामुनि गर्गाचार्य अपने शिष्योंके साथ
नन्दभवनमें पधारे। नन्दजीने पाद्य आदि उत्तम उपचारों- द्वारा मुनिश्रेष्ठ गर्गकी
विधिवत् पूजा की और प्रदक्षिणा करके उन्हें साष्टाङ्ग प्रणाम किया ॥ १८-१९ ॥
नन्दजी
बोले - आज हमारे पितर देवता और अग्नि- सभी संतुष्ट हो गये। आपके चरणोंकी धूलि
पड़नेसे हमारा घर परम पवित्र हो गया। महामुने ! आप मेरे बालकका नामकरण कीजिये ।
विप्रवर प्रभो ! अनेक पुण्यों और तीर्थोंका सेवन करनेपर भी आपका शुभागमन सुलभ नहीं
होता ।। २०-२१ ॥
श्रीगर्गजीने
कहा –नन्दरायजी ! मैं तुम्हारे पुत्रका नामकरण करूँगा,
इसमें संशय नहीं है; किंतु कुछ पूर्वकालकी बात
बताऊँगा, अतः एकान्त स्थानमें चलो ॥ २२ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर गर्गजी नन्द-यशोदा तथा दोनों बालक- श्रीकृष्ण एवं
बलरामको साथ लेकर गोशालामें, जहाँ दूसरा कोई
नहीं था, चले गये। वहाँ उन्होंने उन बालकोंका नामकरण संस्कार
किया । सर्वप्रथम उन्होंने गणेश आदि देवताओंका पूजन किया, फिर
यत्नपूर्वक ग्रहोंका शोधन (विचार) करके हर्षसे पुलकित हुए महामुनि गर्गाचार्य
नन्दसे बोले ॥ २३-२४ ॥
गर्गजीने
कहा- ये जो रोहिणीके पुत्र हैं, इनका नाम बताता
हूँ — सुनो । इनमें योगीजन रमण करते हैं अथवा ये सब में रमते हैं या अपने गुणों द्वारा
भक्तजनों के मन को रमाया करते हैं, इन कारणोंसे उत्कृष्ट
ज्ञानीजन इन्हें 'राम' नामसे जानते
हैं। योगमायाद्वारा गर्भका संकर्षण होनेसे इनका प्रादुर्भाव हुआ है, अतः ये 'संकर्षण' नामसे
प्रसिद्ध होंगे। अशेष जगत् का संहार होनेपर भी ये शेष रह जाते हैं, अतः इन्हें लोग 'शेष' नामसे
जानते हैं। सबसे अधिक बलवान् होनेसे ये 'बल' नामसे भी विख्यात होंगे ॥२५-२६॥
नन्द
! अब अपने पुत्रके नाम सावधानीके साथ सुनो- ये सभी नाम तत्काल प्राणिमात्रको पावन
करनेवाले तथा चराचर समस्त जगत् के लिये परम कल्याणकारी हैं। 'क' का अर्थ है— कमलाकान्त; 'ऋ'कारका अर्थ है— राम; 'ष' अक्षर
षड्विध ऐश्वर्यके स्वामी श्वेतद्वीपनिवासी भगवान् विष्णुका - वाचक है। 'ण' नरसिंहका प्रतीक है और 'अकार'
अक्षर अग्निभुक् (अग्निरूप से हविष्य के भोक्ता अथवा अग्निदेव के
रक्षक) का वाचक है तथा दोनों विसर्गरूप बिंदु (:) नर-नारायण के बोधक हैं। ये छहों
पूर्ण तत्त्व जिस महामन्त्ररूप परिपूर्णतम शब्दमें लीन हैं, वह
इसी व्युत्पत्तिके कारण 'कृष्ण' कहा
गया है। अतः इस बालकका एक नाम 'कृष्ण' है।
सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग —
इन युगोंमें इन्होंने शुक्ल, रक्त, पीत
तथा कृष्ण कान्ति ग्रहण की है। द्वापरके अन्त और कलिके आदिमें यह बालक 'कृष्ण' अङ्गकान्तिको प्राप्त हुआ है, इस कारणसे भी यह नन्दनन्दन 'कृष्ण' नामसे विख्यात होगा ॥ २७-३२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध--चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५)
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५)
अपशकुन देखकर महाराज युधिष्ठिर का शंका करना और अर्जुन का द्वारका से लौटना
कच्चित्तेऽनामयं तात भ्रष्टतेजा विभासि मे ।
अलब्धमानोऽवज्ञातः किं वा तात चिरोषितः ॥ ३९ ॥
कच्चित् नाभिहतोऽभावैः शब्दादिभिरमङ्गलैः ।
न दत्तमुक्तमर्थिभ्य आशया यत्प्रतिश्रुतम् ॥ ४० ॥
कच्चित्त्वं ब्राह्मणं बालं गां वृद्धं रोगिणं स्त्रियम् ।
शरणोपसृतं सत्त्वं नात्याक्षीः शरणप्रदः ॥ ४१ ॥
कच्चित्त्वं नागमोऽगम्यां गम्यां वासत्कृतां स्त्रियम् ।
पराजितो वाथ भवान् नोत्तमैर्नासमैः पथि ॥ ४२ ॥
अपि स्वित्पर्यभुङ्क्थास्त्वं सम्भोज्यान् वृद्धबालकान् ।
जुगुप्सितं कर्म किञ्चित् कृतवान्न यदक्षमम् ॥ ४३ ॥
कच्चित्प्रेष्ठतमेनाथ हृदयेनात्मबन्धुना ।
शून्योऽस्मि रहितो नित्यं मन्यसे तेऽन्यथा न रुक् ॥ ४४ ॥
(युधिष्ठिर कहते हैं) भाई अर्जुन ! यह भी बताओ कि तुम स्वयं तो कुशलसे हो न ? मुझे तुम श्रीहीन-से दीख रहे हो; वहाँ बहुत दिनोंतक रहे, कहीं तुम्हारे सम्मानमें तो किसी प्रकारकी कमी नहीं हुई ? किसीने तुम्हारा अपमान तो नहीं कर दिया ? ॥ ३९ ॥ कहीं किसीने दुर्भावपूर्ण अमङ्गल शब्द आदिके द्वारा तुम्हारा चित्त तो नहीं दुखाया ? अथवा किसी आशासे तुम्हारे पास आये हुए याचकोंको उनकी माँगी हुई वस्तु अथवा अपनी ओरसे कुछ देनेकी प्रतिज्ञा करके भी तुम नहीं दे सके ? ॥ ४० ॥ तुम सदा शरणागतोंकी रक्षा करते आये हो; कहीं किसी भी ब्राह्मण, बालक, गौ, बूढ़े, रोगी, अबला अथवा अन्य किसी प्राणीका, जो तुम्हारी शरणमें आया हो, तुमने त्याग तो नहीं कर दिया ? ॥ ४१ ॥ कहीं तुमने अगम्या स्त्रीसे समागम तो नहीं किया ? अथवा गमन करनेयोग्य स्त्रीके साथ असत्कारपूर्वक समागम तो नहीं किया ? कहीं मार्गमें अपनेसे छोटे अथवा बराबरीवालोंसे हार तो नहीं गये ? ॥ ४२ ॥ अथवा भोजन करानेयोग्य बालक और बूढ़ोंको छोडक़र तुमने अकेले ही तो भोजन नहीं कर लिया ? मेरा विश्वास है कि तुमने ऐसा कोई निन्दित काम तो नहीं किया होगा, जो तुम्हारे योग्य न हो ॥ ४३ ॥ हो-न-हो अपने परम प्रियतम अभिन्नहृदय परम सुहृद् भगवान् श्रीकृष्णसे तुम रहित हो गये हो। इसीसे अपनेको शून्य मान रहे हो । इसके सिवा दूसरा कोई कारण नहीं हो सकता, जिससे तुमको इतनी मानसिक पीड़ा हो’ ॥ ४४ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे युधिष्टिरवितर्को नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
मंगलवार, 14 मई 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) पंद्रहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
पंद्रहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
यशोदाद्वारा
श्रीकृष्णके मुखमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका दर्शन; नन्द और यशोदाके
पूर्व- पुण्य का परिचय; गर्गाचार्यका नन्द भवनमें जाकर बलराम
और श्रीकृष्णके नामकरण - संस्कार करना तथा वृषभानुके यहाँ जाकर उन्हें
श्रीराधा-कृष्णके नित्य-सम्बन्ध एवं माहात्म्यका ज्ञान कराना
श्री
नारद उवाच
प्रेङ्खे हरिं कनकरत्नमये शयानं
श्यामं शिशुं जनमनोहरमन्दहासम् ।
दृष्ट्यार्तिहारि मषिबिंदुधरं यशोदा
स्वांके चकार धृतकज्जलपद्मनेत्रम् ॥१॥
पादं पिबंतमतिचंचलमद्भुतांगं
वक्त्रैर्विनीलनवकोमलकेशबंधैः ।
श्रीमन्नृकेशरिनखस्फुरदरर्द्धचन्द्रं
तं लालयन्त्यतिघृणा मुदमाप गोपी ॥२॥
बालस्य पीतपयसो नृप जृम्भितस्य
तत्त्वानि चास्य वदने सकलेऽविराजन् ।
माता सुराधिपमुखैः प्रयुतं च सर्वं
दृष्ट्वा परं भयमवाप निमीलिताक्षी ॥३॥
राजन्परस्य परिपूर्णतमस्य साक्षा-
त्कृष्णस्य विश्वमखिलं कपटेन सा हि ।
नष्टस्मृतिः पुनरभूत्स्वसुते घृणार्ता
किं वर्णयामि सुतपो बहु नंदपत्न्याः ॥४॥
श्रीबहुलाश्व उवाच -
नंदो यशोदया सार्द्धं किं चकार तपो महत् ।
येन श्रीकृष्णचन्द्रोऽपि पुत्रीभूतो बभूव ह ॥५॥
श्रीनारद उवाच -
अष्टानां वै वसूनां च द्रोणो मुख्यो धरापतिः ।
अनपत्यो विष्णुभक्तो देवराज्यं चकार ह ॥६॥
एकदा पुत्रकांक्षी च ब्रह्मणा नोदितो नृप ।
मंदराद्रिं गतस्तप्तुं धरया भार्यया सह ॥७॥
कंदमूलफलाहारौ ततः पर्णाशनौ ततः ।
जलभक्षौ ततस्तौ तु निर्जलौ निर्जने स्थितौ ॥८॥
वर्षाणामर्बुदे याते तपस्तत्तपतोर्द्वयोः ।
ब्रह्मा प्रसन्नस्तावेत्य वरं ब्रूहीत्युवाच ह ॥९॥
वल्मीकान्निर्गतो द्रोणो धरया भर्यया सह ।
नत्वा विधिं च संपूज्य हर्षितः प्राह तं प्रभुम् ॥१०॥
श्रीद्रोण उवाच -
परिपूर्णतमे कृष्णे पुत्रीभूते जनार्दने ।
भक्तिः स्यादावयोर्ब्रह्मन्सततं प्रेमलक्षणा ॥११॥
ययाञ्जसा तरंतीह दुस्तरं भवसागरम् ।
नान्यं वरं वांछितं स्यादावयोस्तपतोर्विधे ॥१२॥
श्रीब्रह्मोवाच -
युवाभ्यं याचितं यन्मे दुर्घटं दुर्लभं वरम् ।
तथापि भूयात्सफलं युवयोरन्यजन्मनि ॥१३॥
श्रीनारद उवाच -
द्रोणो नंदोऽभवद्भूमौ यशोदा सा धरा स्मृता ।
कृष्णो ब्रह्मवचः कर्तुं प्राप्तो घोषे पितुः पुरात् ॥१४॥
सुधाखंडात्परं मिष्टं श्रीकृष्णचरितं शुभम् ।
गंधमादनशृङ्गे वै नारायणमुखाच्छ्रुतम् ॥१५॥
कृपया च कृतार्थोऽहं नरनारायणस्य च ।
मया तुभ्यं च कथितं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥१६॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! एक दिन साँवले - सलोने बालक श्रीकृष्ण सोनेके रत्नजटित पालनेपर
सोये हुए थे। उनके मुखपर लोगोंके मनको मोहनेवाले मन्दहास्यकी छटा छा रही थी ।
दृष्टिजनित पीड़ाके निवारण के लिये नन्दनन्दन के ललाटपर काजलका डिठौना शोभा पा रहा
था। कमलके समान सुन्दर नेत्रोंमें काजल लगा था । अपने उस सुन्दर लालाको मैया
यशोदाने गोदमें ले लिया। वे बाल-मुकुन्द पैरका अंगूठा चूस रहे थे । उनका स्वभाव
चपल था । नील, नूतन, कोमल
एवं घुँघराले केशबन्धोंसे उनकी अङ्गच्छटा अद्भुत जान पड़ती थी । वक्षःस्थलपर
श्रीवत्सचिह्न, बघनखा तथा चमकीला अर्धचन्द्र (नामक आभूषण)
शोभा दे रहे थे। अपार दयामयी गोपी श्रीयशोदा अपने उस लालाको लाड़ लड़ाती हुई बड़े
आनन्दका अनुभव कर रही थी । राजन् ! बालक श्रीकृष्ण दूध पी चुके थे। उन्हें जँभाई आ
रही थी। माताकी दृष्टि उधर पड़ी तो उनके मुखमें पृथिव्यादि पाँच तत्त्वोंसहित
सम्पूर्ण विराट् (ब्रह्माण्ड ) तथा इन्द्रप्रभृति श्रेष्ठ देवता दृष्टिगोचर हुए।
तब श्रीयशोदाके मनमें त्रास छा गया। अतः उन्होंने अपनी आँखे मूंद लीं ॥ १-३ ॥
महाराज
! परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण सर्वश्रेष्ठ हैं। उनकी ही मायासे सम्पूर्ण संसार
सत्तावान् बना है । उसी मायाके प्रभावसे यशोदाजीकी स्मृति टिक न सकी। फिर अपने
बालक श्रीकृष्णपर उनका वात्सल्यपूर्ण दयाभाव उत्पन्न हो गया। अहो ! श्रीनन्दरानीके
तपका वर्णन कहाँतक करूँ ! ॥ ४ ॥
श्री
बहुलाश्वने पूछा- मुनिवर ! नन्दजीने यशोदाके साथ कौन सा महान् तप किया था,
जिसके प्रभावसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र उनके यहाँ पुत्ररूपमें प्रकट
हुये ॥ ५ ॥
श्रीनारदजीने
कहा - आठ वसुओंमें प्रधान जो 'द्रोण' नामक वसु हैं, उनकी स्त्रीका नाम 'धरा' है। इन्हें संतान नहीं थी। वे भगवान्
श्रीविष्णुके परम भक्त थे । देवताओंके राज्यका भी पालन करते थे। राजन् ! एक समय
पुत्रकी अभिलाषा होनेपर ब्रह्माजीके आदेशसे वे अपनी सहधर्मिणी धराके साथ तप करनेके
लिये मन्दराचल पर्वतपर गये । वहाँ दोनों दम्पति कंद, मूल एवं
फल खाकर अथवा सूखे पत्ते चबाकर तपस्या करते थे। बादमें जलके आधारपर उनका जीवन चलने
लगा । तदनन्तर उन्होंने जल पीना भी बंद कर दिया। इस प्रकार जनशून्य देशमें उनकी
तपस्या चलने लगी । उन्हें तप करते जब दस करोड़ वर्ष बीत गये, तब ब्रह्माजी प्रसन्न होकर आये और बोले- ' वर माँगो'
॥ ६–९ ॥
उस
समय उनके ऊपर दीमकें चढ़ गयी थीं। अतः उन्हें हटाकर द्रोण अपनी पत्नीके साथ बाहर
निकले । उन्होंने ब्रह्माजीको प्रणाम किया और विधिवत् उनकी पूजा की। उनका मन
आनन्दसे उल्लसित हो उठा। वे उन प्रभुसे बोले - ॥ १० ॥
श्रीद्रोण
ने कहा- ब्रह्मन् ! विधे ! परिपूर्णतम जनार्दन भगवान् श्रीकृष्ण मेरे पुत्र हो
जायँ और उनमें हम दोनोंकी प्रेमलक्षणा भक्ति सदा बनी रहे,
जिसके प्रभावसे मनुष्य दुर्लङ्घय भवसागरको सहज ही पार कर जाता है।
हम दोनों तपस्वीजनोंको दूसरा कोई वर अभिलषित नहीं है | ११-१२
॥
श्रीब्रह्माजी
बोले- तुमलोगोंने मुझसे जो वर माँगा है, वह
कठिनाईसे पूर्ण होनेवाला और अत्यन्त दुर्लभ है। फिर भी दूसरे जन्ममें तुमलोगोंकी
अभिलाषा पूरी होगी ॥ १३ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं— राजन् ! वे 'द्रोण' ही इस पृथ्वीपर 'नन्द' हुए और 'धरा' ही 'यशोदा' नामसे विख्यात हुई ।
ब्रह्माजीकी
वाणी सत्य करनेके लिये भगवान् श्रीकृष्ण पिता वसुदेवजीकी पुरी मथुरासे व्रजमें
पधारे थे । भगवान् श्रीकृष्णका शुभ चरित्र सुधा - निर्मित खाँड़ से भी अधिक मीठा
है। गन्धमादन पर्वत के शिखरपर भगवान् नर-नारायण के श्रीमुखसे मैंने इसे सुना है।
उनकी कृपासे मैं कृतार्थ हो गया ।
वही
कथा मैंने तुमसे कही है; अब और क्या सुनना
चाहते हो ? ।। १४–१६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध--चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०४)
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०४)
अपशकुन
देखकर महाराज युधिष्ठिर का शंका करना
और
अर्जुन का द्वारका से लौटना
युधिष्ठिर
उवाच ।
कच्चिदानर्तपुर्यां
नः स्वजनाः सुखमासते ।
मधुभोजदशार्हार्ह
सात्वतान्धकवृष्णयः ॥ २५ ॥
शूरो मातामहः
कच्चित् स्वस्त्यास्ते वाथ मारिषः ।
मातुलः
सानुजः कच्चित् कुशल्यानकदुन्दुभिः ॥ २६ ॥
सप्त
स्वसारस्तत्पत्न्यो मातुलान्यः सहात्मजाः ।
आसते
सस्नुषाः क्षेमं देवकीप्रमुखाः स्वयम् ॥ २७ ॥
कच्चित्
राजाऽऽहुको जीवति असत्पुत्रोऽस्य चानुजः ।
हृदीकः
ससुतोऽक्रूरो जयन्तगदसारणाः ॥ २८ ॥
आसते कुशलं
कच्चित् ये च शत्रुजिदादयः ।
कच्चिदास्ते
सुखं रामो भगवान् सात्वतां प्रभुः ॥ २९ ॥
प्रद्युम्नः
सर्ववृष्णीनां सुखमास्ते महारथः ।
गम्भीररयोऽनिरुद्धो
वर्धते भगवानुत ॥ ३० ॥
सुषेणश्चारुदेष्णश्च
साम्बो जाम्बवतीसुतः ।
अन्ये च
कार्ष्णिप्रवराः सपुत्रा ऋषभादयः ॥ ३१ ॥
तथैवानुचराः
शौरेः श्रुतदेवोद्धवादयः ।
सुनन्दनन्दशीर्षण्या
ये चान्ये सात्वतर्षभाः ॥ ३२ ॥
अपि
स्वस्त्यासते सर्वे रामकृष्ण भुजाश्रयाः ।
अपि स्मरन्ति
कुशलं अस्माकं बद्धसौहृदाः ॥ ३३ ॥
भगवानपि
गोविन्दो ब्रह्मण्यो भक्तवत्सलः ।
कच्चित्पुरे
सुधर्मायां सुखमास्ते सुहृद्वृतः ॥ ३४ ॥
मङ्गलाय च लोकानां
क्षेमाय च भवाय च ।
आस्ते
यदुकुलाम्भोधौ आद्योऽनन्तसखः पुमान् ॥ ३५ ॥
यद्बाहुदण्डगुप्तायां
स्वपुर्यां यदवोऽर्चिताः ।
क्रीडन्ति
परमानन्दं महापौरुषिका इव ॥ ३६ ॥
यत्
पादशुश्रूषणमुख्य कर्मणा
सत्यादयो द्व्यष्टसहस्रयोषितः ।
निर्जित्य
सङ्ख्ये त्रिदशांस्तदाशिषो
हरन्ति वज्रायुधवल्लभोचिताः ॥ ३७ ॥
यद्बाहुदण्डाभ्युदयानुजीविनो
यदुप्रवीरा ह्यकुतोभया मुहुः ।
अधिक्रमन्त्यङ्घ्रिभिराहृतां
बलात्
सभां सुधर्मां सुरसत्तमोचिताम् ॥ ३८ ॥
युधिष्ठिरने (अर्जुन
से) कहा—‘भाई
! द्वारकापुरी में हमारे स्वजन-सम्बन्धी मधु, भोज,
दशार्ह,
आर्ह,
सात्वत,
अन्धक
और वृष्णिवंशी यादव कुशलसे तो हैं ? ॥ २५ ॥ हमारे
माननीय नाना शूरसेन जी प्रसन्न हैं ? अपने छोटे
भाईसहित मामा वसुदेव जी तो कुशलपूर्वक हैं ? ॥ २६
॥ उनकी पत्नियाँ हमारी मामी देवकी आदि सातों बहिनें अपने पुत्रों और बहुओंके साथ
आनन्दसे तो हैं ? ॥ २७ ॥ जिनका पुत्र कंस बड़ा ही दुष्ट
था,
वे
राजा उग्रसेन अपने छोटे भाई देवकके साथ जीवित तो हैं न ? हृदीक,
उनके
पुत्र कृतवर्मा,
अक्रूर,
जयन्त,
गद,
सारण
तथा शत्रुजित् आदि यादव वीर सकुशल हैं न ? यादवोंके
प्रभु बलरामजी तो आनन्दसे हैं ? ॥ २८-२९ ॥
वृष्णिवंशके सर्वश्रेष्ठ महारथी प्रद्युम्र सुखसे तो हैं ? युद्धमें
बड़ी फुर्ती दिखलानेवाले भगवान् अनिरुद्ध आनन्दसे हैं न ? ॥ ३०
॥ सुषेण,
चारुदेष्ण,
जाम्बवतीनन्दन
साम्ब और अपने पुत्रोंके सहित ऋषभ आदि भगवान् श्रीकृष्णके अन्य सब पुत्र भी
प्रसन्न हैं न ?
॥
३१ ॥ भगवान् श्रीकृष्णके सेवक श्रुतदेव, उद्धव आदि और
दूसरे सुनन्द-नन्द आदि प्रधान यदुवंशी, जो भगवान्
श्रीकृष्ण और बलरामके बाहुबलसे सुरक्षित हैं, सब-के-सब
सकुशल हैं न ?
हमसे
अत्यन्त प्रेम करनेवाले वे लोग कभी हमारा कुशल-मङ्गल भी पूछते हैं ?
॥
३२-३३ ॥ भक्तवत्सल ब्राह्मणभक्त भगवान् श्रीकृष्ण अपने स्वजनोंके साथ द्वारकाकी
सुधर्मा-सभामें सुखपूर्वक विराजते हैं न ? ॥ ३४
॥ वे आदिपुरुष बलरामजीके साथ संसारके परम मङ्गल, परम
कल्याण और उन्नतिके लिये यदुवंशरूप क्षीरसागरमें विराजमान हैं। उन्हींके बाहुबलसे
सुरक्षित द्वारकापुरीमें यदुवंशीलोग सारे संसारके द्वारा सम्मानित होकर बड़े
आनन्दसे विष्णुभगवान्के पार्षदोंके समान विहार कर रहे हैं ॥ ३५-३६ ॥ सत्यभामा आदि
सोलह हजार रानियाँ प्रधानरूपसे उनके चरणकमलोंकी सेवामें ही रत रहकर उनके द्वारा
युद्धमें इन्द्रादि देवताओंको भी हराकर इन्द्राणीके भोगयोग्य तथा उन्हींकी अभीष्ट
पारिजातादि वस्तुओंका उपभोग करती हैं ॥ ३७ ॥ यदुवंशी वीर श्रीकृष्णके बाहुदण्डके
प्रभावसे सुरक्षित रहकर निर्भय रहते हैं और बलपूर्वक लायी हुई बड़े-बड़े देवताओंके
बैठने योग्य सुधर्मा सभाको अपने चरणोंसे आक्रान्त करते हैं ॥ ३८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट
संस्करण) पुस्तक कोड 1535
से
श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०१)
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०१) विराट् शरीर की उत्पत्ति ऋषिरुवाच - इति तासां स्वशक्तीना...
-
सच्चिदानन्द रूपाय विश्वोत्पत्यादि हेतवे | तापत्रय विनाशाय श्री कृष्णाय वयं नुमः श्रीमद्भागवत अत्यन्त गोपनीय — रहस्यात्मक पुरा...
-
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०२) भक्तिहीन पुरुषों की गति और भगवान् की पूजाविधि ...
-
हम लोगों को भगवान की चर्चा व संकीर्तन अधिक से अधिक करना चाहिए क्योंकि भगवान् वहीं निवास करते हैं जहाँ उनका संकीर्तन होता है | स्वयं भगवान...
-
||ॐश्रीपरमात्मने नम:|| प्रश्नोत्तरी (स्वामी श्रीशंकराचार्यरचित ‘मणिरत्नमाला’) वक्तव्य श्रीस्वामी शंकराचार्य जी ...
-
|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय || “ सदा सेव्या सदा सेव्या श्रीमद्भागवती कथा | यस्या: श्रवणमात्रेण हरिश्चित्तं समाश्रयेत् ||” श्रीमद्भाग...
-
निगमकल्पतरोर्गलितं फलं , शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम् | पिबत भागवतं रसमालयं , मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः || महामुनि व्यासदेव के द्वारा न...
-
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२) समुद्रसे अमृतका प्रकट होना और भगवान्...
-
☼ श्रीदुर्गादेव्यै नम: ☼ क्षमा-प्रार्थना अपराध सहस्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया । दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वरी ।। 1...
-
शिवसंकल्पसूक्त ( कल्याणसूक्त ) [ मनुष्यशरीर में प्रत्येक इन्द्रियका अपना विशिष्ट महत्त्व है , परंतु मनका महत्त्व सर्वोपरि है ; क्यो...
-
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम्- पहला अध्याय परीक्षित् और वज्रनाभ का समागम , शाण्डिल...