श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
सोलहवाँ अध्याय (पोस्ट
03)
भाण्डीर-वनमें
नन्दजीके द्वारा श्रीराधाजीकी स्तुति; श्रीराधा
और श्रीकृष्णका ब्रह्माजीके द्वारा विवाह; ब्रह्माजीके
द्वारा श्रीकृष्णका स्तवन तथा नव-दम्पतिकी मधुर लीलाएँ
तदैव
साक्षात्पुरुषोत्तमोत्तमो
बभूव कैशोरवपुर्घनप्रभः ।
पीतांबरः कौस्तुभरत्नभूषणो
वंशीधरो मन्मथराशिमोहनः ॥१७॥
भुजेन संगृह्य हसन्प्रियां हरि-
र्जगाम मध्ये सुविवाहमंडपम् ।
विवाहसंभारयुतः समेखलं
सदर्भमृद्वारिघटादिमंडितम् ॥१८॥
तत्रैव सिंहासन उद्गते वरे
परस्परं संमिलितौ विरेजतुः ।
परं ब्रुवंतौ मधुरं च दंपती
स्फुरत्प्रभौ खे च तडिद्घनाविव ॥१९॥
तदांबराद्देववरो विधिः प्रभुः
समागतस्तस्य परस्य संमुखे ।
नत्वा तदंघ्री ह्युशती गिराभिः
कृताञ्जलिश्चारु चतुर्मुखो जगौ ॥२०॥
श्रीब्रह्मोवाच -
अनादिमाद्यं पुरुषोत्तमोत्तमं
श्रीकृष्णचन्द्रं निजभक्तवत्सलम् ।
स्वयं त्वसंख्यांडपतिं परात्परं
राधापतिं त्वां शरणं व्रजाम्यहम् ॥२१॥
गोलोकनाथस्त्वमतीव लीलो
लीलावतीयं निजलोकलीला ।
वैकुंठनाथोऽसि यदा त्वमेव
लक्ष्मीस्तदेयं वृषभानुजा हि ॥२२॥
त्वं रामचंद्रो जनकात्मजेयं
भूमौ हरिस्त्वं कमलालयेयम् ।
यज्ञावतारोऽसि यदा तदेयं
श्रीदक्षिणा स्त्री प्रतिपत्निमुख्या ॥२३॥
त्वं नारसिंहोऽसि रमा तदेयं
नारायणस्त्वं च नरेण युक्तः ।
तदा त्वियं शांतिरतीव साक्षा-
च्छायेव याता च तवानुरूपा ॥२४॥
दिव्यधामकी
शोभाका अवतरण होते ही साक्षात् पुरुषोत्तमोत्तम घनश्याम भगवान् श्रीकृष्ण
किशोरावस्थाके अनुरूप दिव्य देह धारण करके श्रीराधाके सम्मुख खड़े हो गये । उनके
श्रीअङ्गोंपर पीताम्बर शोभा पा रहा था। । कौस्तुभमणिसे विभूषित हो,
हाथमें वंशी धारण किये वे नन्दनन्दन राशि राशि मन्मथों (कामदेवों)
को मोहित करने लगे। उन्होंने हँसते हुए प्रियतमाका हाथ अपने हाथमें थाम लिया और
उनके साथ विवाह मण्डपमें प्रविष्ट हुए। उस मण्डपमें विवाहकी सब सामग्री संग्रह
करके रखी गयी थी। मेखला, कुशा, सप्तमृत्तिका
और जलसे भरे कलश आदि उस मण्डपकी शोभा बढ़ा रहे थे ॥ १७-१८ ॥
वहीं
एक श्रेष्ठ सिंहासन प्रकट हुआ, जिसपर वे दोनों
प्रिया- प्रियतम एक-दूसरेसे सटकर विराजित हो गये और अपनी दिव्य शोभाका प्रसार करने
लगे। वे दोनों एक-दूसरेसे मीठी-मीठी बातें करते हुए मेघ और विद्युत् की भाँति
अपनी प्रभासे उद्दीप्त हो रहे थे। उसी समय देवताओंमें श्रेष्ठ विधाता – भगवान्
ब्रह्मा आकाशसे उतरकर परमात्मा श्रीकृष्णके सम्मुख आये और उन दोनोंके चरणोंमें
प्रणाम करके, हाथ जोड़, कमनीय
वाणीद्वारा चारों मुखोंसे मनोहर स्तुति करने लगे ।। १९ - २० ॥
श्रीब्रह्माजी
बोले- प्रभो ! आप सबके आदिकारण हैं, किंतु
आपका कोई आदि-अन्त नहीं । आप समस्त पुरुषोत्तमोंमें उत्तम हैं। अपने भक्तोंपर सदा
वात्सल्यभाव रखनेवाले और 'श्रीकृष्ण' नामसे
विख्यात हैं। अगणित ब्रह्माण्डोंके पालक-पति हैं। ऐसे आप परात्पर प्रभु
राधा-प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण- चन्द्र की मैं शरण लेता हूँ ॥२१॥
आप
गोलोकधामके अधिनाथ हैं, आपकी लीलाओंका कहीं
अन्त नहीं है। आपके साथ ये लीलावती श्रीराधा अपने लोक (नित्यधाम) में ललित लीलाएँ
किया करती हैं । जब आप ही 'वैकुण्ठनाथ' के रूपमें विराजमान होते हैं, तब ये वृषभानुनन्दिनी
ही 'लक्ष्मी' रूपसे आपके साथ सुशोभित
होती हैं। जब आप 'श्रीरामचन्द्र' के
रूपमें भूतलपर अवतीर्ण होते हैं, तब ये जनकनन्दिनी 'सीता' के रूपमें आपका सेवन करती हैं। आप 'श्रीविष्णु' हैं और ये कमलवनवासिनी 'कमला' हैं; जब आप 'यज्ञ- पुरुष' का अवतार धारण करते हैं, तब ये श्रीजी आपके साथ 'दक्षिणा' रूप में निवास करती हैं। आप पतिशिरोमणि हैं तो ये पत्नियोंमें प्रधान हैं ॥
२२-२३ ॥
आप
'नृसिंह' हैं तो ये आपके हृदयमें 'रमा' रूपसे निवास करती हैं। आप ही 'नर-नारायण' रूपसे रहकर तपस्या करते हैं, उस समय आपके साथ ये 'परम शान्ति' के रूपमें विराजमान होती हैं। आप जहाँ जिस रूपमें रहते हैं, वहाँ तदनुरूप देह धारण करके ये छायाकी भाँति आपके साथ रहती हैं ॥ २४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से