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मंगलवार, 28 मई 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध सोलहवां अध्याय..(पोस्ट..०३)
सोमवार, 27 मई 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) सत्रहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
सत्रहवाँ
अध्याय (पोस्ट 02)
श्रीकृष्ण
की बाल लीला में दधि-चोरी का वर्णन
श्रीनारद उवाच -
तदा यशोदारोहिण्यौ सुतकल्याणहेतवे ।
वस्त्ररत्ननवान्नानां दानं नित्यं च चक्रतुः ॥ १३ ॥
अथ व्रजे रामकृष्णौ बालसिंहावलोकनौ ।
पद्भ्यां चलंतौ घोषेषु वर्धमानौ बभूवतुः ॥ १४ ॥
श्रीदामसुबलाद्यैश्च वयस्यैर्व्रजबालकैः ।
यमुनासिकते शुभ्रे लुठंतौ सकुतूहलौ ॥ १५ ॥
कालिंद्युपवने श्यामैस्तमालैः सघनैर्वृते ।
कदंबकुंजशोभाढ्ये चेरतू रामकेशवौ ॥ १६ ॥
जनयन् गोपगोपीनामानन्दं बाललीलया ।
वयस्यैश्चोरयामास नवनीतं घृतं हरिः ॥ १७ ॥
एकदा ह्युपनंदस्य पत्नी नाम्ना प्रभावती ।
श्रीनन्दमन्दिरं प्राप्ता यशोदां प्राह गोपिका ॥ १८ ॥
प्रभावत्युवाच -
नवनीतं घृतं दुग्धं दधि तक्रं यशोमति ।
आवयोर्भेदरहितः त्वत्प्रसादाच्च मेऽभवत् ॥ १९ ॥
नाहं वदामि चानेन स्तेयं कुत्रापि शिक्षितम् ।
शिक्षां करोषि न सुते नवनीतमुषि स्वतः ॥ २० ॥
यदा मया कृता शिक्षा तदा धृष्टस्तवांगजः ।
गालिप्रदानं दत्त्वायं द्रवति प्रांगणान्मम ॥ २१ ॥
व्रजाधीशस्य पुत्रोऽयं भूत्वा स्तेयं समाचरेत् ।
न मया कथितं किंचिद्यशोदे तव गौरवात् ॥ २२ ॥
श्रीनारद उवाच -
श्रुत्वा प्रभावतीवाक्यं यशोदा नंदगेहिनी ।
बालं निर्भर्त्स्य तामाह साम्ना प्रेमपरायणा ॥ २३ ॥
श्रीयशोदा उवाच -
गवां कोटिर्गृहे मेऽस्ति गोरसैरार्द्रिताचला ।
न जाने दधिमुड् बालो नात्ति सोऽत्र कदाचन ॥ २४ ॥
अनेन मुषितं गव्यं तत्समं त्वं गृहाण मे ।
ते शिशौ मे शिशौ भेदो नास्ति किंचित्प्रभावति ॥ २५ ॥
नवनीतमुखं चैनमत्र त्वं ह्यानयिष्यसि ।
तदा शिक्षां करिष्यामि भर्त्सनं बंधनं तथा ॥ २६ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! तबसे यशोदा और रोहिणीजी पुत्रोंकी कल्याण-कामनासे प्रतिदिन
वस्त्र,
रत्न तथा नूतन अन्नका दान करने लगीं। कुछ दिनों बाद सिंह - शावककी
भाँति दीखनेवाले राम और कृष्ण- दोनों बालक कुछ बड़े होकर गोष्ठोंमें अपने पैरोंके
बलसे चलने लगे ।। १३-१४ ॥
श्रीदामा
और सुबल आदि व्रज-बालक सखाओं के साथ यमुनाजीके शुभ्र वालुकामय तटपर कौतूहलपूर्वक
लोटते हुए राम और श्याम नील-सघन तमालोंसे घिरे और कदम्ब कुञ्जकी शोभासे विलसित
कालिन्दी-तटवर्ती उपवनमें विचरने लगे । १५ – १६ ॥
श्रीहरि
अपनी बाललीलासे गोप-गोपियोंको आनन्द प्रदान करते हुए सखाओंके साथ घरोंमें जा-जाकर
माखन और घृतकी चोरी करने लगे। एक दिन उपनन्दपत्नी गोपी प्रभावती श्रीनन्द – मन्दिर
में आकर यशोदाजीसे बोलीं ।। १७-१८ ।।
प्रभावती
ने कहा- यशोमति ! हमारे और तुम्हारे घरों में जो माखन,
घी, दूध, दही और तक्र है
उसमें ऐसा कोई बिलगाव नहीं है कि यह हमारा है और वह तुम्हारा। मेरे यहाँ तो
तुम्हारे कृपाप्रसादसे ही सब कुछ हुआ है। मैं यह नहीं कहना चाहती कि तुम्हारे इस
लाला ने कहीं चोरी सीखी है। माखन तो यह स्वयं ही चुराता फिरता है, परंतु तुम इसे ऐसा न करने के लिये कभी शिक्षा नहीं देती। एक दिन जब मैंने
शिक्षा दी तो तुम्हारा यह ढीठ बालक मुझे गाली देकर मेरे आँगनसे भाग निकला। यशोदाजी
! व्रजराज का बेटा होकर यह चोरी करे, यह उचित नहीं है;
किंतु मैंने तुम्हारे गौरव का खयाल करके इसे कभी कुछ नहीं कहा है ॥ २१–२२
॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! प्रभावतीकी बात सुनकर नन्द - गेहिनी यशोदाने बालकको डाँट बतायी
और बड़े प्रेमसे सान्त्वनापूर्वक प्रभावतीसे कहा ॥ २३ ॥
श्रीयशोदा
बोलीं- बहिन ! मेरे घर में करोड़ों गौएँ हैं, इस
घरकी धरती सदा गोरससे भीगी रहती है। पता नहीं, यह बालक क्यों
तुम्हारे घरमें दही चुराता है। यहाँ तो कभी ये सब चीजें चावसे खाता ही नहीं।
प्रभावती ! इसने जितना भी दही या माखन चुराया हो, वह सब तुम
मुझसे ले लो। तुम्हारे पुत्र और मेरे लाला- में किंचिन्मात्र भी कोई भेद नहीं है।
यदि तुम इसे माखन चुराकर खाते और मुखमें माखन लपेटे हुए पकड़कर मेरे पास ले आओगी
तो मैं इसे अवश्य ताड़ना दूँगी, डाँदूँगी और घर में बाँध
रखूँगी || २४ - २६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध सोलहवां अध्याय..(पोस्ट..०२)
रविवार, 26 मई 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) सत्रहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
सत्रहवाँ अध्याय (पोस्ट
01)
श्रीकृष्ण की बाल
लीला में दधि-चोरी का वर्णन
श्रीनारद उवाच -
अथ बालौ कृष्णरामौ गौरश्यामौ मनोहरौ ।
लीलया चक्रतुरलं सुंदरं नंदमंदिरम् ॥ १ ॥
रिंगमाणौ च जानुभ्यां पाणिभ्यां सह मैथिल ।
व्रजताल्पेन कालेन ब्रुवंतौ मधुरं व्रजे ॥ २ ॥
यशोदया च रोहिण्या लालितौ पोषितौ शिशू ।
कदा विनिर्गतावङ्कात्क्वचिदङ्कं समास्थितौ ॥ ३ ॥
मंजीरकिंकिणीरावं कुर्वंतौ तावितस्ततः ।
त्रिलोकीं मोहयंतौ द्वौ मायाबालकविग्रहौ ॥ ४ ॥
क्रीडन्तमादाय शिशुं यशोदा-
जिरे लुठंतं व्रजबालकैश्च ।
तद्धूलिलेपावृतधूसरांगं
चक्रे ह्यलं प्रोक्षणमादरेण ॥ ५ ॥
जानुद्वयाभ्यां च समं कराभ्यां
पुनर्व्रजन्प्रांगणमेत्य कृष्णः ।
मात्रंकदेशे पुनराव्रजन्सन्
बभौ व्रजे केसरिबाललीलः ।
तं सर्वतो हैमनचित्रयुक्तं
पीतांबरं कंचुकमादधानम् ।
स्फुरत्प्रभं रत्नमयं च मौलिं
दृष्ट्वा सुतं प्राप मुदं यशोदा ॥ ७
॥
बालं मुकुंदमतिसुंदरबालकेलिं
दृष्ट्वा परं मुदमवापुरतीव गोप्यः ।
श्रीनंदराजव्रजमेत्य गृहं विहाय
सर्वास्तु विस्मृतगृहाः
सुखविग्रहास्ताः ॥ ८ ॥
श्रीनंदराजगृहकृत्रिमसिंहरूपं
दृष्ट्वा व्रजन्प्रतिरवन्नृप
भीरुवद्यः ।
नीत्वा च तं निजसुतं गृहमाव्रजंतीं
गोप्यो व्रजे सघृणया ह्यवदन् यशोदाम्
॥ ९ ॥
गोप्य ऊचुः -
क्रीडार्थं चपलं ह्येनं मा बहिः कारयांगणात् ।
बालकेलिं दुग्धमुखं काकपक्षधरं शुभे ॥ १० ॥
ऊर्ध्वदंतद्वयं जातं पूर्वं मातुलदोषदम् ।
अस्यापि मातुलो नास्ति ते सुतस्य यशोमति ॥ ११ ॥
तस्माद्दानं तु कर्तव्यं विघ्नानां नाशहेतवे ।
गोविप्रसुरसाधूनां छंदसां पूजनं तथा ॥ १२ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं— राजन् ! तदनन्तर बलराम और श्रीकृष्ण — दोनों गौरश्याम मनोहर बालक विविध
लीलाओंसे नन्दभवनको अत्यन्त सुन्दर एवं आकर्षक बनाने लगे। मिथिलेश्वर ! वे दोनों
हाथों और घुटनोंके बलसे चलते हुए और मीठी - तोतली बोली बोलते हुए थोड़े ही समय में
व्रज में इधर-उधर डोलने लगे । माता यशोदा और रोहिणी के द्वारा लालित-पालित वे
दोनों शिशु, कभी माताओं की गोद से निकल जाते
और कभी पुनः उनके अङ्क में आ बैठते थे ।
मायासे
बालरूप धारण करके त्रिभुवन को मोहित करनेवाले वे दोनों भाई,
राम और श्याम, इधर-उधर मञ्जीर और करधनी की
झंकार फैलाते फिरते थे। माता यशोदा व्रज- बालकोंके साथ आँगनमें खेलते-लोटते तथा
धूल लग जानेसे धूसर अङ्गवाले अपने लालाकी गोदमें लेकर बड़े आदरसे झाड़ती- पोंछती
थीं ।। १-५ ॥
श्रीकृष्ण
दोनों हाथों और घुटनोंके बल चलते हुए पुनः आँगनमें चले जाते और वहाँसे फिर माताकी
गोदमें आ जाते थे। इस तरह वे व्रजमें सिंह शावक की भाँति लीला कर रहे थे। माता
यशोदा उन्हें सोनेके तार जड़े पीताम्बर और पीली झगुली पहनाती तथा मस्तक- पर
दीप्तिमान् रत्नमय मुकुट धारण कराती और इस प्रकार अत्यन्त शोभाशाली भव्यरूपमें
उन्हें देखकर अत्यन्त आनन्दका अनुभव करती थीं। अत्यन्त सुन्दर बालोचित क्रीड़ामें
तत्पर बालमुकुन्दका दर्शन करके गोपियाँ बड़ा सुख पाती थीं। वे सुखस्वरूपा
गोपाङ्गनाएँ अपना घर छोड़कर नन्दराजके गोष्ठमें आ जातीं और वहाँ आकर वे सब की सब
अपने घरोंकी सुध-बुध भूल जाती थीं ।। ६-८ ॥
राजन्
! नन्दरायजीके गृह-द्वारपर कृत्रिम सिंहकी मूर्ति देखकर भयभीतकी तरह जब
श्रीकृष्ण
पीछे लौट पड़ते, तब यशोदाजी अपने लालाको गोदमें
उठाकर घरके भीतर चली जाती थीं । उस समय गोपियाँ व्रजमें दयासे द्रवित हृदय हो
यशोदाजीसे इस प्रकार कहती थीं ॥ ९ ॥
श्रीगोपाङ्गनाएँ
कहने लगीं- शुभे ! तुम्हारा लाला खेलनेके लिये बड़ी चपलता दिखाता है। इसकी बालकेलि
अत्यन्त मनोहर है। ऐसा न हो कि इसे किसीकी नजर लग जाय । अतः तुम इस काक- पक्षधारी
दुधमुँहे बालकको आँगनसे बाहर मत निकलने दिया करो। देखो न,
इसके ऊपरके दो दाँत ही पहले निकले हैं, जो
मामाके लिये दोषकारक हैं। यशोदाजी ! तुम्हारे इस बालकके भी कोई मामा नहीं है,
इसलिये विघ्ननिवारण के हेतु तुम्हें दान करना चाहिये। गौ, ब्राह्मण, देवता, साधु,
महात्मा तथा वेदों की पूजा करनी चाहिये । १० - १२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध सोलहवां अध्याय..(पोस्ट..०१)
शनिवार, 25 मई 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध पंद्रहवां अध्याय..(पोस्ट..१०)
शुक्रवार, 24 मई 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) सोलहवाँ अध्याय (पोस्ट 06)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
सोलहवाँ
अध्याय (पोस्ट 06)
भाण्डीर-वनमें
नन्दजीके द्वारा श्रीराधाजीकी स्तुति; श्रीराधा
और श्रीकृष्णका ब्रह्माजीके द्वारा विवाह; ब्रह्माजीके
द्वारा श्रीकृष्णका स्तवन तथा नव-दम्पति की मधुर लीलाएँ
श्रीरासरंगे
जनवर्जिते परे
रेमे हरी रासरसेन राधया ।
वृंदावने भृङ्गमयूरकूज-
ल्लते चरत्येव रतीश्वरः परः ॥४४॥
श्रीराधया कृष्णहरिः परात्मा
ननर्त गोवर्द्धनकंदरासु ।
मत्तालिषु प्रस्रवणैः सरोभि-
र्विराजितासु द्युतिमल्लतासु ॥४५॥
चकार कृष्णो यमुनां समेत्य
वरं विहारं वृषभानुपुत्र्या ।
राधाकराल्लक्षदलं सपद्मं
धावन्गृहीत्वा यमुनाजलेषु ॥४६॥
राधा हरेः पीतपटं च वंशीं
वेत्रं गृहीत्वा सहसा हसंती ।
देहीति वंशीं वदतो हरेश्च
जगाद राधा कमलं नु देहि ॥४७॥
तस्यै ददौ देववरोऽथ पद्मं
राधा ददौ पीततटं च वंशीम् ।
वेत्रं च तस्मै हरये तयोः पुन-
र्बभूव लीला यमुनातटेषु ॥४८॥
ततश्च भांडीरवने प्रियाया-
श्चकार शृङ्गारमलं मनोज्ञम् ।
पत्रावलीयावककज्जलाद्यैः
पुष्पैः सुरत्नैर्व्रजगोपरत्नः ॥४९॥
हरेश्च शृङ्गारमलं प्रकर्तुं
समुद्यता तत्र यदा हि राधा ।
तदैव कृष्णस्तु बभूव बालो
विहाय कैशोरवपुः स्वयं हि ॥५०॥
नंदेन दत्तं शिशुमेव यादृशं
भूमौ लुठंतं प्ररुदंतमाययौ ।
हरिं विलोक्याशु रुरोद राधिका
तनोषि मायां नु कथं हरे मयि ॥५१॥
इत्थं रुदंतीं सहसा विषण्णा-
माकाशवागाह तदैव राधाम् ।
शोचं नु राधे इह मा कुरु त्वं
मनोरथस्ते भविया हि पश्चात् ॥५२॥
श्रुत्वाथ राधा हि हरिं गृहीत्वा
गताऽऽशु गेहे व्रजराजपत्न्याः ।
दत्त्वा च बालं किल नंदपत्न्या
उवाच दत्तः पथि ते च भर्त्रा ॥५३॥
उवाच राधां नृप नंदगेहिनी
धन्याऽसि राधे वृषभानुकन्यके ।
त्वया शिशुर्मे परिरक्षितो भया-
न्मेघावृते व्योम्नि भयातुरो वने ॥५४॥
संपूजिता श्लाघितसद्गुणा सा
सुनंदिता श्रीवृषभानुपुत्री ।
तदा ह्यनुज्ञाप्य यशोमतीं सा
शनैः स्वगेहं हि जगाम राधा ॥५५॥
इत्थं हरेर्गुप्तकथा च वर्णिता
राधाविवाहस्य सुमंगलावृता ।
श्रुत्वा च यैर्वा पठिता च पाठिता
तान्पापवृन्दा न कदा स्पृशंति ॥५६॥
रास-रङ्गस्थलीके
निर्जन प्रदेशमें पहुँचकर श्रीहरिने श्रीराधाके साथ रासका रस लेते हुए लीला-रमण
किया । भ्रमरों और मयूरोंके कल-कूजनसे मुखरित लताओंवाले वृन्दावनमें वे दूसरे
कामदेवकी भाँति विचर रहे थे। परमात्मा श्रीकृष्ण हरि ने,
जहाँ मतवाले भ्रमर गुञ्जारव करते थे, बहुत-से
झरने तथा सरोवर जिनकी शोभा बढ़ाते थे और जिनमें दीप्तिमती लता वल्लरियाँ प्रकाश
फैलाती थीं, गोवर्धन की उन कन्दराओं में श्रीराधा के साथ
नृत्य किया ॥ ४४-४५ ।।
तत्पश्चात्
श्रीकृष्णने यमुना में प्रवेश करके वृषभानु- नन्दिनी के साथ विहार किया। वे
यमुनाजल में खिले हुए लक्षदल कमल को राधाके हाथ से छीनकर भाग चले । तब श्रीराधाने
भी हँसते-हँसते उनका पीछा किया और उनका पीताम्बर, वंशी तथा बेंतकी छड़ी अपने अधिकारमें कर लीं। श्रीहरि कहने लगे- 'मेरी बाँसुरी दे दो ।' तब राधाने उत्तर दिया- 'मेरा कमल लौटा दो ।' तब देवेश्वर श्रीकृष्णने उन्हें
कमल दे दिया। फिर राधाने भी पीताम्बर, वंशी और बेंत
श्रीहरिके हाथमें लौटा दिये। इसके बाद फिर यमुनाके किनारे उनकी मनोहर लीलाएँ होने
लगीं ॥। ४६ – ४८ ॥
तदनन्तर
भाण्डीर वनमें जाकर व्रज - गोप - रत्न श्रीनन्दनन्दनने अपने हाथोंसे प्रियाका
मनोहर शृङ्गार किया— उनके मुखपर पत्र - रचना की, दोनों पैरोंमें महावर लगाया, नेत्रों में काजलकी
पतली रेखा खींच दी तथा उत्तमोत्तम रत्नों और फूलोंसे भी उनका शृङ्गार किया। इसके
बाद जब श्रीराधा भी श्रीहरिको शृङ्गार धारण करानेके लिये उद्यत हुईं, उसी समय श्रीकृष्ण अपने किशोररूपको त्यागकर छोटे-से बालक बन गये । नन्दने
जिस शिशुको जिस रूपमें राधाके हाथोंमें दिया था, उसी रूपमें
वे धरतीपर लोटने और भयसे रोने लगे। श्रीहरिको इस रूपमें देखकर श्रीराधिका भी
तत्काल विलाप करने लगीं और बोलीं- 'हरे ! मुझपर माया क्यों
फैलाते हो ?' इस प्रकार विषादग्रस्त होकर रोती हुई
श्रीराधासे सहसा आकाशवाणीने कहा— 'राधे ! इस समय सोच न करो।
तुम्हारा मनोरथ कुछ कालके पश्चात् पूर्ण होगा' ।। ४९ - ५२ ॥
यह
सुनकर श्रीराधा शिशुरूपधारी श्रीकृष्णको लेकर तुरंत व्रजराजकी धर्मपत्नी यशोदाजीके
घर गयीं और उनके हाथमें बालकको देकर बोलीं- 'आपके
पतिदेवने मार्गमें इस बालकको मुझे दे दिया था ।' उस समय
नन्द- गृहिणीने श्रीराधासे कहा – 'वृषभानु- नन्दिनि राधे !
तुम धन्य हो; क्योंकि तुमने इस समय, जब
कि आकाश मेघोंकी घटासे आच्छन्न है, वनके भीतर भयभीत हुए मेरे
नन्हे-से लालाकी पूर्णतया रक्षा की है।' यों कहकर नन्दरानीने
श्रीराधाका भलीभाँति सत्कार किया और उनके सद्गुणोंकी प्रशंसा की। इससे
वृषभानुनन्दिनी श्रीराधाको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे यशोदाजीकी आज्ञा ले धीरे-धीरे
अपने घर चली गयीं ॥ ५३ गयीं ॥। ५३ – ५५ ॥
राजन
इस प्रकार श्रीराधाके विवाहकी परम मङ्गल- मयी गुप्त कथाका यहाँ वर्णन किया गया। जो
लोग इसे सुनते-पढ़ते अथवा सुनाते हैं, उन्हें
कभी पापोंका स्पर्श नहीं प्राप्त होता ।। ५६ ।।
इस
प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत श्रीनारद-बहुलाश्व-संवादमें 'श्रीराधिकाके विवाहका वर्णन' नामक सोलहवाँ अध्याय
पूरा हुआ ॥ १६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध पंद्रहवां अध्याय..(पोस्ट..०९)
गुरुवार, 23 मई 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) सोलहवाँ अध्याय (पोस्ट 05)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
सोलहवाँ
अध्याय (पोस्ट 05)
भाण्डीर-वनमें
नन्दजीके द्वारा श्रीराधाजीकी स्तुति; श्रीराधा
और श्रीकृष्णका ब्रह्माजीके द्वारा विवाह; ब्रह्माजीके
द्वारा श्रीकृष्णका स्तवन तथा नव-दम्पति की मधुर लीलाएँ
पुष्पाणि
देवा ववृषुस्तदा नृप
विद्याधरीभिर्ननृतुः सुरांगनाः ।
गंधर्वविद्याधरचारणाः कलं
सकिन्नराः कृष्णसुमंगलं जगुः ॥३५॥
मृदंगवीणामुरुयष्टिवेणवः
शंखानका दुंदुभयः सतालकाः ।
नेदुर्मुहुर्देववरैर्दिवि स्थितै-
र्जयेत्यभून्मङ्गलशब्दमुच्चकैः ॥३६॥
उवाच तत्रैव विधिं हरिः स्वयं
यथेप्सितं त्वं वद विप्र दक्षिणाम् ।
तदा हरिं प्राह विधिः प्रभो मे
देहि त्वदंघ्र्योर्निजभक्तिदक्षिणाम् ॥३७॥
तथास्तु वाक्यं वदतो विधिर्हरेः
श्रीराधिकायाश्च पदद्वयं शुभम् ।
नत्वा कराभ्यां शिरसा पुनः पुन-
र्जगाम गेहं प्रणतः प्रहर्षितः ॥३८॥
ततो निकुंजेषु चतुर्विधान्नं
दिव्यं मनोज्ञं प्रियया प्रदत्तम् ।
जघास कृष्णः प्रहसन्परात्मा
कृष्णेन दत्तं क्रमुकं च राधा ॥३९॥
ततः करेणापि करं प्रियाया
हरिर्गृहीत्वा प्रचचाल कुंजे ।
जगाम जल्पन्मधुरं प्रपश्यन्
वृंदावनं श्रीयमुनां लताश्च ॥४०॥
श्रीमल्लताकुंजनिकुंजमध्ये
निलीयमानं प्रहसंतमेव ।
विलोक्य शाखांतरितं च राधा
जग्राह पीतांबरमाव्रजंती ॥४१॥
दुद्राव राधा हरिहस्तपद्मा
झंकारमंघ्र्योः प्रतिकुर्वती कौ ।
निलीयमाना यमुनानिकुंजे
पुनर्व्रजंती हरिहस्तमात्रात् ॥४२॥
यथा तमालः कलधौतवल्ल्या
घनो यथा चंचलया चकास्ति ।
नीलोऽद्रिराजो निकषाश्मखन्या
श्रीराधयाऽऽद्यस्तु तया रमण्या ॥४३॥
राजन्
! उस समय देवताओंने फूल बरसाये और विद्याधरियोंके साथ देवाङ्गनाओंने नृत्य किया।
गन्धर्वों, विद्याधरों, चारणों और किंनरोंने मधुर स्वरसे श्रीकृष्णके लिये सुमङ्गल-गान किया ॥ ३५
॥
मृदङ्ग,
वीणा, मुरचंग, वेणु,
शङ्ख, नगारे, दुन्दुभि
तथा करताल आदि बाजे बजने लगे तथा आकाशमें खड़े हुए श्रेष्ठ देवताओंने मङ्गल -
शब्दका उच्चस्वरसे उच्चारण करते हुए बारंबार जय-जयकार किया ॥ ३६ ॥
उस
अवसरपर श्रीहरिने विधातासे कहा- 'ब्रह्मन् ! आप
अपनी इच्छाके अनुसार दक्षिणा बताइये ।' तब ब्रह्माजीने
श्रीहरिसे इस प्रकार कहा - 'प्रभो! मुझे अपने युगलचरणोंकी
भक्ति ही दक्षिणाके रूपमें प्रदान कीजिये ।' ॥ ३७ ॥
श्रीहरिने
'तथास्तु' कहकर उन्हें अभीष्ट वरदान दे दिया। तब
ब्रह्माजीने श्रीराधिकाके मङ्गलमय युगल चरणारविन्दोंको दोनों हाथों और मस्तकसे
बारंबार प्रणाम करके अपने धामको प्रस्थान किया। उस समय प्रणाम करके जाते हुए
ब्रह्माजीके मनमें अत्यन्त हर्षोल्लास छा रहा था ।। ३८ ॥
तदनन्तर
निकुञ्जभवनमें प्रियतमाद्वारा अर्पित दिव्य मनोरम चतुर्विध अन्न परमात्मा
श्रीहरिने हँसते-हँसते ग्रहण किया और श्रीराधाने भी श्रीकृष्णके हाथोंसे चतुर्विध
अन्न ग्रहण करके उनकी दी हुई पान-सुपारी भी खायी। इसके बाद श्रीहरि अपने हाथसे
प्रियाका हाथ पकड़कर कुञ्जकी ओर चले। वे दोनों मधुर आलाप करते तथा वृन्दावन,
यमुना तथा वनकी लताओंको देखते हुए आगे बढ़ने लगे । सुन्दर लता-
कुञ्जों और निकुञ्जों में हँसते और छिपते हुए श्रीकृष्णको शाखाकी ओटमें देखकर
पीछेसे आती हुई श्रीराधाने उनके पीताम्बरका छोर पकड़ लिया ॥ ३९-४१ ॥
फिर
श्रीराधा भी माधवके कमलोपम हाथोंसे छूटकर भागीं और युगल- चरणोंके नूपुरोंकी झनकार
प्रकट करती हुई यमुना- निकुञ्ज में छिप गयीं। जब श्रीहरिसे एक हाथकी दूरीपर रह
गयीं,
तब पुनः उठकर भाग चलीं। जैसे तमाल सुनहरी लतासे और मेघ चपलासे
सुशोभित होता है तथा जैसे नीलमका महान् पर्वत स्वर्णाङ्कित कसौटीसे शोभा पाता है,
उसी प्रकार रमणी श्रीराधासे नन्दनन्दन श्रीकृष्ण सुशोभित हो रहे थे ॥
४२-४३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध पंद्रहवां अध्याय..(पोस्ट..०८)
श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट०३)
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०३) ध्रुवका वन-गमन मैत्रेय उवाच - मातुः सपत्न्याःा स दुर...
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सच्चिदानन्द रूपाय विश्वोत्पत्यादि हेतवे | तापत्रय विनाशाय श्री कृष्णाय वयं नुमः श्रीमद्भागवत अत्यन्त गोपनीय — रहस्यात्मक पुरा...
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हम लोगों को भगवान की चर्चा व संकीर्तन अधिक से अधिक करना चाहिए क्योंकि भगवान् वहीं निवास करते हैं जहाँ उनका संकीर्तन होता है | स्वयं भगवान...
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०२) भक्तिहीन पुरुषों की गति और भगवान् की पूजाविधि ...
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||ॐश्रीपरमात्मने नम:|| प्रश्नोत्तरी (स्वामी श्रीशंकराचार्यरचित ‘मणिरत्नमाला’) वक्तव्य श्रीस्वामी शंकराचार्य जी ...
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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय || “ सदा सेव्या सदा सेव्या श्रीमद्भागवती कथा | यस्या: श्रवणमात्रेण हरिश्चित्तं समाश्रयेत् ||” श्रीमद्भाग...
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निगमकल्पतरोर्गलितं फलं , शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम् | पिबत भागवतं रसमालयं , मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः || महामुनि व्यासदेव के द्वारा न...
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५) श्रीकृष्ण के विरह में गोपियो...
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२) समुद्रसे अमृतका प्रकट होना और भगवान्...
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☼ श्रीदुर्गादेव्यै नम: ☼ क्षमा-प्रार्थना अपराध सहस्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया । दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वरी ।। 1...
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शिवसंकल्पसूक्त ( कल्याणसूक्त ) [ मनुष्यशरीर में प्रत्येक इन्द्रियका अपना विशिष्ट महत्त्व है , परंतु मनका महत्त्व सर्वोपरि है ; क्यो...