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रविवार, 16 जून 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध अठारहवां अध्याय..(पोस्ट..०७)
शनिवार, 15 जून 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) तीसरा अध्याय ( पोस्ट 02 )
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
तीसरा
अध्याय ( पोस्ट 02 )
श्रीयमुनाजी
का गोलोक से अवतरण और पुनः गोलोकधाम में प्रवेश
परिपूर्णतमं
साक्षाच्छ्रीकृष्णं वरमिच्छती ।
धृत्वा वपुः परं दिव्यं तपस्तेपे कलिन्दजा ॥ १४ ॥
पित्रा विनिर्मिते गेहे जलेऽद्यापि समाश्रिता ।
ततो वेगेन कालिन्दी प्राप्ताभूद्व्रजमंडले ॥ १५ ॥
वृन्दावनसमीपे च मथुरानिकटे शुभे ।
श्रीमहावनपार्श्वे च सैकते रमणस्थले ॥ १६ ॥
श्रीगोकुले च यमुना यूथीभूत्वातिसुंदरी ।
श्रीकृष्णचंद्ररासार्थं निजवासं चकार ह ॥ १७ ॥
अथो व्रजाद्व्रजंती सा व्रजविक्षेपविह्वला ।
प्रेमानन्दाश्रुसंयुक्ता भूत्वा पश्चिमवाहिनी ॥ १८ ॥
ततस्त्रिवारं वेगेन नत्वाथो व्रजमंडले ।
देशान् पुनन्ती प्रययौ प्रयागं तीर्थसत्तमम् ॥ १९ ॥
पुनः श्रीगंगया सार्धं क्षीराब्धिं सा जगाम ह ।
देवाः सुवर्षं पुष्पाणां चक्रुर्दिवि जयध्वनिम् ॥ २० ॥
कृष्णा श्रीयमुना साक्षात् कालिन्दी सरितां वरा ।
समुद्रमेत्य श्रीगंगां प्राह गद्गदया गिरा ॥ २१ ॥
यमुनोवाच -
हे गंगे त्वं तु धन्याऽसि सर्वब्रह्माण्डपावनी ।
कृष्णपादाब्जसंभूता सर्वलोकैकवन्दिता ॥ २२ ॥
ऊर्ध्वं यामि हरेर्लोकं गच्छ त्वमपि हे शुभे ।
त्वत्समानं हि दिव्यं च न भूतं न भविष्यति ॥ २३ ॥
सर्वतीर्थमयी
गंगा तस्मात्त्वां प्रणमाम्यहम् ।
यत्किंचिद्वा प्रकथितं तत्क्षमस्व सुमंगले ॥ २४ ॥
यमुनाजी
साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण को अपना पति बनाना चाहती थीं,
इसलिये वे परम दिव्य देह धारण करके खाण्डववन में तपस्या करने लगीं।
यमुना के पिता भगवान् सूर्य ने जल के भीतर ही एक दिव्य गेह का निर्माण कर दिया था,
जिसमें आज भी वे रहा करती हैं। खाण्डववन से वेगपूर्वक चलकर कालिन्दी
व्रजमण्डल में श्रीवृन्दावन और मथुराके निकट आ पहुँचीं। महावनके पास सिकतामय रमण-
स्थलमें भी प्रवाहित हुईं ।। १४-१६ ॥
श्रीगोकुलमें
आनेपर परम सुन्दरी यमुना ने (विशाखा सखी के नाम से) अपने नेतृत्व में
गोप-किशोरियों का एक यूथ बनाया और श्रीकृष्णचन्द्रके रासमें सम्मिलित होनेके लिये
उन्होंने वहीं अपना निवासस्थान निश्चित कर लिया । तदनन्तर वे जब व्रज से आगे जाने
लगीं,
तब व्रजभूमिके वियोगसे विह्वल हो, प्रेमानन्दके
आँसू बहाती हुई पश्चिम दिशाकी ओर प्रवाहित हुईं ।। तदनन्तर व्रजमण्डलकी भूमिको
अपने वारि-वेगसे तीन बार प्रणाम करके यमुना अनेक देशोंको पवित्र करती हुई उत्तम
तीर्थ प्रयाग में जा पहुँचीं ।। १७ - १९ ॥
वहाँ
गङ्गाजी के साथ उनका संगम हुआ और वे उन्हें साथ लेकर क्षीरसागर की ओर गयीं। उस समय
देवताओं ने उनके ऊपर फूलों की वर्षा की और दिग्विजयसूचक जयघोष किया । नदीशिरोमणि
कलिन्दनन्दिनी कृष्णवर्णा श्रीयमुना ने समुद्रतक पहुँचकर गद्गद वाणी में श्रीगङ्गा
से कहा ॥ २० – २१ ॥
यमुनाने
कहा – समस्त ब्रह्माण्डको पवित्र करनेवाली गङ्गे ! तुम धन्य हो । साक्षात्
श्रीकृष्णके चरणारविन्दोंसे तुम्हारा प्रादुर्भाव हुआ हैं,
अतः तुम समस्त लोकोंके लिये एकमात्र वन्दनीया हो । शुभे ! अब मैं
यहाँसे ऊपर उठकर श्रीहरिके लोकमें जा रही हूँ । तुम्हारी इच्छा हो तो तुम भी मेरे
साथ चलो ! तुम्हारे समान दिव्य तीर्थ न तो हुआ है और न आगे होगा ही । गङ्गा (आप)
सर्वतीर्थमयी हैं, अतः सुमङ्गले गङ्गे ! मैं तुम्हें प्रणाम
करती हूँ । यदि मैंने कभी कोई अनुचित बात कही हो तो उसके लिये मुझे क्षमा कर देना
।। २२-२४ ॥
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा
प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260
से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध अठारहवां अध्याय..(पोस्ट..०६)
शुक्रवार, 14 जून 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) तीसरा अध्याय ( पोस्ट 01 )
श्रीगर्ग-संहिता
( श्रीवृन्दावनखण्ड
)
तीसरा अध्याय ( पोस्ट
01 )
श्रीयमुनाजी का
गोलोक से अवतरण और पुनः गोलोकधाम में प्रवेश
सन्नन्द
उवाच -
गोलोके हरिणाऽऽज्ञप्ता कालिन्दी सरितां वरा ।
कृष्णं प्रदक्षिणीकृत्य गन्तुमभ्युद्यताभवत् ॥ १ ॥
तदैव विरजा साक्षाद्गङ्गा ब्रह्मद्रवोद्भवा ।
द्वे नद्यौ यमुनायां तु संप्रलीने बभूवतुः ॥ २ ॥
परिपूर्णतमां कृष्णां तस्मात् कृष्णस्य नन्दराट् ।
परिपूर्णतमस्यापि पट्टराज्ञीं विदुर्जनाः ॥ ३ ॥
ततो वेगेन महता कालिन्दी सरितां वरा ।
बिभेद विरजावेगं निकुंजद्वारनिर्गता ॥ ४ ॥
असंख्यब्रह्मांडचयं स्पृष्ट्वा ब्रह्मद्रवं गता ।
भिन्दन्ती तज्जलं दीर्घं स्ववेगेन महानदी ॥ ५ ॥
वामपादांगुष्ठनखभिन्नब्रह्मांडमस्तके ।
श्रीवामनस्य विवरे ब्रह्मद्रवसमाकुले ॥ ६ ॥
तस्मिन् श्रीगंगया सार्धं प्रविष्टाऽभूत्सरिद्वरा ।
वैकुंठं चाजितपदं संप्राप्य ध्रुवमंडले ॥ ७ ॥
ब्रह्मलोकमभिव्याप्य पतन्ती ब्रह्ममंडलात् ।
ततः सुराणां शतशो लोकाल्लोकं जगाम ह ॥ ८ ॥
ततः पपात वेगेन सुमेरुगिरिमूर्धनि ।
गिरिकूटानतिक्रम्य भित्त्वा गंडशिलातटान् ॥ ९ ॥
सुमेरोर्दक्षिणदिशं गन्तुमभ्युदिताभवत् ।
ततः श्रीयमुना साक्षाच्छ्रीगंगायां विनिर्गता ॥ १० ॥
गंगा तु प्रययौ शैलं हिमवन्तं महानदी ।
कृष्णा तु प्रययौ शैलं कलिन्दं प्राप्य सा तदा ॥ ११ ॥
कालिंदीति समाख्याता कालिंदप्रभवा यदा ।
कलिंदगिरिसानूनां गंडशैलतटान् दृढान् ॥ १२ ॥
भित्त्वा लुठन्ती भूखंडे कृष्णा वेगवती सती ।
देशान्पुनन्ती कालिन्दी प्राप्तवान् खांडवे वने ॥ १३ ॥
सन्नन्दजी
कहते हैं- नन्दराज ! गोलोकमें श्रीहरिने जब यमुनाजीको भूतलपर जानेकी आज्ञा दी और
सरिताओंमें श्रेष्ठ यमुना जब श्रीकृष्णकी परिक्रमा करके जानेको उद्यत हुईं,
उसी समय विरजा तथा ब्रह्मद्रवसे उत्पन्न साक्षात् गङ्गा—ये दोनों
नदियाँ आकर यमुनाजीमें लीन हो गयीं। इसीलिये परिपूर्णतमा कृष्णा (यमुना) को
परिपूर्णतम श्रीकृष्णकी पटरानीके रूपमें लोग जानते हैं। तदनन्तर सरिताओंमें
श्रेष्ठ कालिन्दी अपने महान् वेगसे विरजाके वेगका भेदन करके निकुञ्ज-द्वार से
निकलीं और असंख्य ब्रह्माण्ड- समूहों का स्पर्श करती हुई ब्रह्मद्रव में गयीं ।। १-४ ॥
फिर
उसकी दीर्घ जलराशिका अपने महान् वेगसे भेदन करती हुई वे महानदी श्रीवामनके बायें
चरणके अंगूठेके नखसे विदीर्ण हुए ब्रह्माण्डके शिरोभागमें विद्यमान
ब्रह्मद्रवयुक्त विवरमें श्रीगङ्गा के साथ ही प्रविष्ट हुईं और वहाँसे वे सरिद्वरा
यमुना ध्रुवमण्डल में स्थित भगवान् अजित विष्णुके धाम वैकुण्ठलोक में होती हुई
ब्रह्मलोकको लाँघकर जब ब्रह्ममण्डलसे नीचे गिरीं, तब देवताओंके सैकड़ों लोकोंमें एक-से दूसरेके क्रमसे विचरती हुई आगे बढ़ीं
।। ५-८ ॥
तदनन्तर
वे सुमेरुगिरि के शिखरपर बड़े वेग से गिरी और अनेक शैल-शृङ्गों को लाँघकर
बड़ी-बड़ी चट्टानों के तटों का भेदन करती हुई जब मेरुपर्वत से दक्षिण दिशा की ओर
जाने को उद्यत हुईं, तब यमुनाजी गङ्गा से
अलग हो गयीं । महानदी गङ्गा तो हिमवान् पर्वतपर चली गयीं, किंतु
कृष्णा (श्यामसलिला यमुना ) कलिन्द-शिखर- पर जा पहुँचीं। वहाँ जाकर उस पर्वतसे
प्रकट होनेके कारण उनका नाम 'कालिन्दी' हो गया ।। ९-११ ॥
कलिन्दगिरि
के शिखरों से टूटकर जो बड़ी-बड़ी चट्टानें पड़ी थीं, उनके सुदृढ़ तटों को तोड़ती-फोड़ती और भूखण्डपर लोटती हुई वेगवती कृष्णा
कालिन्दी अनेक देशों को पवित्र करती हुई खाण्डववन में (इन्द्रप्रस्थ या दिल्ली के
पास) जा पहुँचीं ।। १२-१३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध अठारहवां अध्याय..(पोस्ट..०५)
गुरुवार, 13 जून 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) दूसरा अध्याय (पोस्ट 04)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
दूसरा
अध्याय (पोस्ट 04)
गिरिराज
गोवर्धन की उत्पत्ति तथा उसका व्रजमण्डल में आगमन
जातिस्मरो
गिरिस्तत्र प्राहेदं पथि चिंतयन् ।
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान् स्वयम् ॥ ३६ ॥
अखंडब्रह्माण्डपतिर्व्रजेऽत्रावतरिष्यति ।
बाललीलां च कैशोरीं चेष्टां गोपालबालकैः ॥ ३७ ॥
दानलीलां मानलीलां हरिरत्र करिष्यति ।
तस्मान्मया न गन्तव्यं भूमिश्चेयं कलिन्दजा ॥ ३८ ॥
गोलोकाद्राधया सार्धं श्रीकृष्णोऽत्रागमिष्यति ।
कृतकृत्यो भविष्यामि कृत्वा तद्दर्शनं परम् ॥ ३९ ॥
एवं विचार्य मनसा भूरि भारं ददौ करे ।
तदा मुनिश्च श्रांतोऽभूद्भूतपूर्वं गतस्मृतिः ॥ ४० ॥
करादुत्तार्य तं शैलं निधाय व्रजमंडले ।
लघुशंकाजयार्थं हि गतोऽभूद्भारपीडितः ॥ ४१ ॥
कृत्वा शौचं जले स्नात्वा पुलस्त्यो मुनिसत्तमः ।
उत्तिष्ठेति मुनिः प्राह गिरिं गोवर्धनं परम् ॥ ४२ ॥
नोत्थितं भूरिभाराढ्यं कराभ्यां तं महामुनिः ।
स्वतेजसा बलेनापि गृहीतुमुपचक्रमे ॥ ४३ ॥
मुनिना संगृहीतोऽपि गिरिराजो गिराऽऽर्द्रया ।
न चलालांगुलिं किंचित् तदपि द्रोणनन्दनः ॥ ४४ ॥
सन्नन्द उवाच -
गच्छ गच्छ गिरिश्रेष्ठ भारं मा कुरु मा कुरु ।
मया ज्ञातोऽसि रुष्टस्त्वमभिप्रायं वदाशु मे ॥ ४५ ॥
गोवर्धन उवाच -
मुनेऽत्र मे न दोषोऽस्ति त्वया मे स्थापना कृता ।
करिष्यामि न चोत्थानं पूर्वं मे शपथः कृतः ॥ ४६ ॥
सन्नन्द उवाच -
पुलस्त्यो मुनिशार्दूलः क्रोधात् प्रचलितेन्द्रियः ।
स्फुरदोष्ठो द्रोणपुत्रं शशाप विगतोद्यमः ॥ ४७ ॥
सन्नन्द उवाच -
गिरे त्वयातिधृष्टेन न कृतो मे मनोरथः ।
तस्मात्तु तिलमात्रं हि नित्यं त्वं क्षीणतां व्रज ॥ ४८ ॥
सन्नन्द उवाच -
काशीं गते पुलस्त्यर्षावयं गोवर्धनो गिरिः ।
नित्यं संक्षीयते नन्द तिलमात्रं दिने दिने ॥ ४९ ॥
यावद्भागीरथी गंगा यावद्गोवर्धनो गिरिः ।
तावत्कलेः प्रभावस्तु भविष्यति न कर्हिचित् ॥ ५० ॥
गोवर्धनस्य
प्रकटं चरित्रं
नृणां महापापहरं पवित्रम् ।
मया तवाग्रे कथितं विचित्रं
सुमुक्तिदं कौ रुचिरं न चित्रम् ॥ ५१ ॥
गोवर्धनपर्वत
को अपने पूर्व- जन्म की बातों का स्मरण था । व्रज में आनेपर उसने मार्ग में मन ही
मन सोचा -- 'यहाँ व्रज में असंख्य
ब्रह्माण्डनायक साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण अवतार लेंगे और ग्वालबालों के
साथ बाललीला तथा कैशोर लीला करेंगे। इतना ही नहीं, वे
श्रीहरि यहाँ दानलीला और मानलीला भी करेंगे। अतः मुझे यहाँसे अन्यत्र नहीं जाना
चाहिये। यह व्रजभूमि और यह यमुना नदी गोलोकसे यहाँ आयी है। श्रीराधाके साथ भगवान्
श्रीकृष्णका भी यहाँ शुभागमन होगा। उनका उत्तम दर्शन पाकर मैं कृतकृत्य हो जाऊँगा
।' मन-ही- मन ऐसा विचार करके गोवर्धनने मुनिकी हथेलीपर अपने
शरीरका भार बहुत अधिक बढ़ा लिया। उस समय मुनि अत्यन्त थक गये। उन्हें पहलेकी कही
हुई बातकी याद नहीं रही। उन्होंने पर्वतको हाथसे उतारकर व्रजमण्डलमें रख दिया।
भारसे पीड़ित तो वे थे ही, लघुशङ्का से निवृत्त होनेके लिये
चले गये ॥ ३६-४१ ॥
शौच
क्रिया करके जल में स्नान करने के पश्चात् मुनिवर पुलस्त्य ने उत्तम पर्वत गोवर्धन
से कहा – 'अब उठो ।' अधिक
भारसे सम्पन्न होनेके कारण जब वह दोनों हाथोंसे नहीं उठा, तब
महामुनि पुलस्त्य ने उसे अपने तेज और बल से उठा लेनेका उपक्रम किया। मुनिने
स्नेहसे भीगी वाणीद्वारा द्रोणनन्दन गिरिराजको ग्रहण करनेका सम्पूर्ण शक्तिसे
प्रयास किया, किंतु वह एक अंगुल भी टस से मस न हुआ ।। ४२-४४
॥
तब
पुलस्त्यजी बोले- गिरिश्रेष्ठ! चलो, चलो
! भार अधिक न बढ़ाओ, न बढ़ाओ। मैं जान गया, तुम रूठे हुए हो। शीघ्र बताओ, तुम्हारा क्या
अभिप्राय है ? || ४५ ॥
गोवर्धन
बोला- मुने ! इसमें मेरा दोष नहीं है । आपने ही मुझे यहाँ स्थापित किया है। अब मैं
यहाँसे नहीं उठूँगा । अपनी यह प्रतिज्ञा मैंने पहले ही प्रकट कर दी थी ॥ ४६ ॥
सन्नन्दजी
कहते हैं - यह उत्तर सुनकर मुनिश्रेष्ठ पुलस्त्य की सारी इन्द्रियाँ क्रोध से
चञ्चल हो उठीं। उनके ओष्ठ फड़कने लगे। अपना सारा उद्यम व्यर्थ हो जाने- के कारण
उन्होंने द्रोणपुत्र को शाप दे दिया ॥ ४७ ॥
पुलस्त्यजी
बोले- पर्वत ! तू बड़ा ढीठ है। तूने मेरा मनोरथ पूर्ण नहीं किया । इसलिये तू
प्रतिदिन तिल-तिलभर क्षीण होता चला जा ॥ ४८ ॥
सन्नन्दजी
कहते हैं--नन्द ! यों कहकर पुलस्त्य मुनि काशी चले गये। उसी दिन से यह गोवर्धन
पर्वत प्रतिदिन तिल-तिल करके क्षीण होता चला जा रहा है । जबतक भागीरथी गङ्गा और
गोवर्धन पर्वत इस भूतल पर विद्यमान हैं, तबतक
कलि का प्रभाव कदापि नहीं बढ़ेगा। गोवर्धनका यह प्रकट चरित्र परम पवित्र और
मनुष्योंके बड़े-बड़े पापोंका नाश करनेवाला है । यह प्रसङ्ग मैंने तुम्हारे सामने
कहा है, जो भूमण्डल में रुचिर और अद्भुत है। यह उत्तम मोक्ष
प्रदान करनेवाला है, इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं है ।।
४९–५१ ॥
इस
प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीवृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'गिरिराजकी उत्पत्तिका वर्णन'
नामक
दूसरा अध्याय पूरा हुआ ॥ २ ॥
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा
प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260
से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध अठारहवां अध्याय..(पोस्ट..०४)
बुधवार, 12 जून 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) दूसरा अध्याय (पोस्ट 03)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
दूसरा
अध्याय (पोस्ट 03)
गिरिराज
गोवर्धन की उत्पत्ति तथा उसका व्रजमण्डल में आगमन
विश्वेश्वरस्य देवस्य काशीनाम्ना महापुरी ।
यत्र पापी मृतः सद्यः परं मोक्षं प्रयाति हि ॥ २४ ॥
यत्र गंगाऽऽगता साक्षाद्विश्वनाथोऽपि यत्र वै ।
तत्रैव स्थापयिष्यामि जातोऽयं मे मनोरथः ॥ २६ ॥
सन्नन्द उवाच -
पुलस्त्यवचनं श्रुत्वा स्वसुतस्नेहविह्वलः ।
अश्रुपूर्णो द्रोणगिरिस्तं मुनिं वाक्यमब्रवीत् ॥ २७ ॥
द्रोण उवाच -
पुत्रस्नेहाकुलोऽहं वै पुत्रो मेऽयमतिप्रियः ।
ते शापभयभीतोऽहं वदाम्येनं महामुने ॥ २८ ॥
हे पुत्र गच्छ मुनिना भारते कर्मके शुभे ।
त्रैवर्ग्यं लभ्यते यत्र नृभिर्मोक्षमपि क्षणात् ॥ २९ ॥
गोवर्धन उवाच -
मुने कथं मां नयसि लंबितं योजनाष्टकम् ।
योजनद्वयमुच्चांगं पंचयोजनविस्तृतम् ॥ ३० ॥
पुलस्त्य उवाच -
उपविश्य करे मे त्वं गच्छ पुत्र यथासुखम् ।
वाहयामि करे त्वां वै यावत्काशीं समागतः ॥ ३१ ॥
गोवर्धन उवाच -
मुने यत्र स्थले भूम्यां स्थापनां मे करिष्यसि ।
करिष्यामि न चोत्थानं तद्भूम्याः शपथो मम ॥ ३२ ॥
पुलस्त्य उवाच -
अहमाशाल्मलिद्वीपान् मर्यादीकृत्य कौसलम् ।
न स्थापनां करिष्यामि शपथस्तेऽपि मे पथि ॥ ३३ ॥
सन्नन्द उवाच -
मुनेः करतले तस्मिन्नारुरोह महाचलः ।
प्रणम्य पितरं द्रोणमश्रुपूर्णाकुलेक्षणः ॥ ३४ ॥
मुनिस्तं दक्षिणकरे धृत्वा गच्छन् शनैः शनैः ।
स्वतेजो दर्शयन् नॄणां प्राप्तोऽभूद्व्रजमंडले ॥ ३५ ॥
भगवान्
विश्वेश्वर की महानगरी 'काशी' नामसे प्रसिद्ध है, जहाँ मरणको प्राप्त हुआ पापी
पुरुष भी तत्काल परम मोक्ष प्राप्त कर लेता है, जहाँ गङ्गा
नदी प्राप्त होती हैं और जहाँ साक्षात् विश्वनाथ भी विराजमान हैं। मैं वहीं
तुम्हारे पुत्र को स्थापित करूँगा, जहाँ दूसरा कोई पर्वत
नहीं है । लता-बेलों और वृक्षों से व्याप्त जो तुम्हारा पुत्र गोवर्धन है, उसके ऊपर रहकर मैं तपस्या करूँगा – ऐसी अभिलाषा मेरे मन में जाग्रत् हुई
है । २४ - २६॥
सन्नन्दजी
कहते हैं- पुलस्त्यजीकी यह बात सुनकर पुत्र - स्नेहसे विह्वल हुए द्रोणाचलके
नेत्रोंमें आँसू भर आये। उसने पुलस्त्य मुनिसे कहा ॥ २७ ॥
द्रोणाचल
बोला- महामुने ! मैं पुत्र स्नेहसे आकुल हूँ। यह पुत्र मुझे अत्यन्त प्रिय है,
तथापि आपके शापके भयसे भीत होकर मैं इसे आपके हाथोंमें देता हूँ।
(फिर वह पुत्रसे बोला - ) बेटा! तुम मुनिके साथ कल्याणमय कर्मक्षेत्र भारतवर्षमें
जाओ । वहाँ मनुष्य सत्कर्मोंद्वारा धर्म, अर्थ और काम —
त्रिवर्ग सुख प्राप्त करते हैं तथा (निष्काम कर्म एवं ज्ञानयोगद्वारा) क्षणभरमें
मोक्ष भी पा लेते हैं ।। २८-२९ ॥
गोवर्धनने
कहा- मुने! मेरा शरीर आठ योजन लंबा, दो
योजन ऊँचा और पाँच योजन चौड़ा है। ऐसी दशामें आप किस प्रकार मुझे ले चलेंगे ॥ ३० ॥
पुलस्त्यजी
बोले- बेटा ! तुम मेरे हाथपर बैठकर सुखपूर्वक चलेचलो। जबतक काशी नहीं आ जाती,
तबतक मैं तुम्हें हाथपर ही ढोये चलूँगा ॥ ३१ ॥
गोवर्धनने
कहा- मुने ! मेरी एक प्रतिज्ञा है। आप जहाँ-कहीं भी भूमिपर मुझे एक बार रख देंगे,
वहाँकी भूमिसे मैं पुनः उत्थान नहीं करूँगा ॥ ३२ ॥
पुलस्त्यजी
बोले- मैं इस शाल्मलीद्वीपसे लेकर भारतवर्षके कोसलदेशतक तुम्हें कहीं भी रास्तेमें
नहीं रखूँगा, यह मेरी प्रतिज्ञा है ॥ ३३ ॥
सन्नन्दजी
कहते हैं-नन्दराज ! तदनन्तर वह महान् पर्वत पिताको प्रणाम करके मुनिकी हथेलीपर
आरूढ़ हुआ। उस समय उसके नेत्रोंमें आँसू भर आये । उसे दाहिने हाथपर रखकर पुलस्त्य
मुनि लोगोंको अपना तेज दिखाते हुए धीरे-धीरे चले और व्रज-मण्डलमें आ पहुँचे ॥ ३४-३५
॥
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा
प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260
से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध अठारहवां अध्याय..(पोस्ट..०३)
मंगलवार, 11 जून 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) दूसरा अध्याय (पोस्ट 02)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
दूसरा
अध्याय (पोस्ट 02)
गिरिराज
गोवर्धन की उत्पत्ति तथा उसका व्रजमण्डल में आगमन
शैला ऊचुः -
त्वं साक्षात्कृष्णचंद्रस्य परिपूर्णतमस्य च ।
गोलोके गोगणैर्युक्ते गोपीगोपालसंयुते ॥ १३ ॥
त्वं हि गोवर्धनो नाम वृंदारण्ये विराजसे ।
त्वन्नो गिरीणां सर्वेषां गिरिराजोऽसि सांप्रतम् ॥ १४ ॥
नमो वृंदावनाङ्काय तुभ्यं गोलोकमौलिने ।
पूर्णब्रह्मातपत्राय नमो गोवर्धनाय च ॥ १५ ॥
सन्नन्द उवाच -
इति स्तुत्वाथ गिरयो जग्मुः स्वं स्वं गृहं ततः ।
शैलो गिरिवरः साक्षाद्गिरिराज इति स्मृतः ॥ १६ ॥
एकदा तीर्थयायी च पुलस्त्यो मुनिसत्तमः ।
द्रोणाचलसुतं श्यामं गिरिं गोवर्धनं वरम् ॥ १७ ॥
माधवीलतिकापुष्पं पलभारसमन्वितम् ।
निर्झरैर्नादितं शान्तं कंदरामंगलायनम् ॥ १८ ॥
तपोयोग्यं रत्नमयं शतशृङ्गं मनोहरम् ।
चित्रधातुविचित्रांगं सटंकं पक्षिसंकुलम् ॥ १९ ॥
मृगैः शाखामृगैर्व्याप्तं मयूरध्वनिमंडितम् ।
मुक्तिप्रदं मुमुक्षूणां तं ददर्श महामुनिः ॥ २० ॥
तल्लिप्सुर्मुनिशार्दूलो द्रोणपार्श्वं समागतः ।
पूजितो द्रोणगिरिणा पुलस्त्यः प्राह तं गिरिम् ॥ २१ ॥
पुलस्त्य उवाच -
हे द्रोण त्वं गिरिन्द्रोऽसि सर्वदेवैश्च पूजितः ।
दिव्यौषधिसमायुक्तः सदा जीवनदो नृणाम् ॥ २२ ॥
अर्थी तवांतिके प्राप्तः काशीस्थोऽहं महामुनिः ।
गोवर्धनं सुतं देहि नान्यैर्मेऽत्र प्रयोजनम् ॥ २३ ॥
पर्वत
बोले- तुम साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके गोलोकधाममें,
जहाँ दिव्य गौओंका समुदाय निवास करता है तथा गोपाल एवं गोप-
सुन्दरियाँ शोभा पाती हैं, सुशोभित होते हो। तुम्हीं 'गोवर्धन' नामसे वृन्दावनमें विराजते हो, इस समय तुम्हीं हम समस्त पर्वतोंमें 'गिरिराज'
हो। तुम वृन्दावनकी गोद में समोद निवास करनेवाले, गोलोकके मुकुटमणि हो तथा पूर्णब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्णके हाथोंमें किसी
विशिष्ट अवसरपर छत्रके समान शोभा पाते हो। तुम गोवर्धनको हमारा सादर नमस्कार है ॥
१३- .१५ ॥
सन्नन्दजी
कहते हैं- नन्दराज ! जब इस प्रकार स्तुति करके सब पर्वत अपने-अपने स्थानपर चले गये,
तभीसे यह गिरिश्रेष्ठ गोवर्धन साक्षात् 'गिरिराज'
कहलाने लगा है। एक समय मुनिश्रेष्ठ पुलस्त्यजी तीर्थयात्राके लिये
भूतलपर भ्रमण करने लगे। उन महामुनिने द्रोणाचलके पुत्र श्यामवर्णवाले श्रेष्ठ
पर्वत गोवर्धनको देखा, जिसके ऊपर माधवी लताके सुमन सुशोभित
हो रहे थे । वहाँके वृक्ष फलोंके भारसे लदे हुए थे । निर्झरोंके झर-झर शब्द वहाँ
गूँज रहे थे। उस पर्वतपर बड़ी शान्ति विराज रही थी। अपनी कन्दराओंके कारण वह
मङ्गलका धाम जान पड़ता था। सैकड़ों शिखरोंसे सुशोभित वह रत्नमय मनोहर शैल तपस्या
करनेके लिये उपयुक्त स्थान था । विविध रंगकी चित्र-विचित्र धातुएँ उस पर्वतके
अवयवोंमें विचित्र शोभाका आधान करती थीं। उसकी भूमि ढालू (चढ़ाव उतारसे युक्त) थी
और वहाँ नाना प्रकारके पक्षी सब ओर व्याप्त थे। मृग और बंदर आदि पशु चारों ओर फैले
हुए थे। मयूरों की केकाध्वनि से मण्डित गोवर्धन पर्वत मुमुक्षुओं के लिये
मोक्षप्रद प्रतीत होता था ॥ १६-२० ॥
मुनिवर
पुलस्त्य के मन में उस पर्वत को प्राप्त करने की इच्छा हुई। इसके लिये वे द्रोणाचल
के समीप गये । द्रोणगिरि ने उनका पूजन - स्वागत-सत्कार किया । इसके बाद पुलस्त्य जी
उस पर्वत से बोले-- ॥ २१ ॥
पुलस्त्यने
कहा- द्रोण ! तुम पर्वतोंके स्वामी हो । समस्त देवता तुम्हारा समादर करते हैं। तुम
दिव्य ओषधियोंसे सम्पन्न और मनुष्योंको सदा जीवन देनेवाले हो। मैं काशीका निवासी
मुनि हूँ और तुम्हारे निकट याचक होकर आया हूँ। तुम अपने पुत्र गोवर्धनको मुझे दे
दो। यहाँ अन्य वस्तुओंसे मेरा कोई प्रयोजन नहीं है ॥ २२-२३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
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