सोमवार, 17 जून 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध अठारहवां अध्याय..(पोस्ट..०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध- अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०८)

राजा परीक्षत् को शृङ्गी ऋषिका शाप

ततोऽभ्येत्याश्रमं बालो गले सर्पकलेवरम् ।
पितरं वीक्ष्य दुःखार्तो मुक्तकण्ठो रुरोद ह ॥ ३८ ॥
स वा आङ्‌गिरसो ब्रह्मन् श्रुत्वा सुतविलापनम् ।
उन्मील्य शनकैर्नेत्रे दृष्ट्वा चांसे मृतोरगम् ॥ ३९ ॥
विसृज्य तं च पप्रच्छ वत्स कस्माद्धि रोदिषि ।
केन वा तेऽपकृतं इत्युक्तः स न्यवेदयत् ॥ ४० ॥
निशम्य शप्तमतदर्हं नरेन्द्रं
    स ब्राह्मणो नात्मजमभ्यनन्दत् ।
अहो बतांहो महदद्य ते कृतं
    अल्पीयसि द्रोह उरुर्दमो धृतः ॥ ४१ ॥
न वै नृभिर्नरदेवं पराख्यं
    सम्मातुमर्हस्यविपक्वबुद्धे ।
यत्तेजसा दुर्विषहेण गुप्ता
    विन्दन्ति भद्राण्यकुतोभयाः प्रजाः ॥ ४२ ॥
अलक्ष्यमाणे नरदेवनाम्नि
    रथाङ्गपाणावयमङ्ग लोकः ।
तदा हि चौरप्रचुरो विनङ्क्ष्यति
    अरक्ष्यमाणोऽविव रूथवत् क्षणात् ॥ ४३ ॥
तदद्य नः पापमुपैत्यनन्वयं
    यन्नष्टनाथस्य वसोर्विलुम्पकात् ।
परस्परं घ्नन्ति शपन्ति वृञ्जते
    पशून् स्त्रियोऽर्थाम् पुरुदस्यवो जनाः ॥ ४४ ॥
तदाऽऽर्यधर्मः प्रविलीयते नृणां
    वर्णाश्रमाचारयुतस्त्रयीमयः ।
ततोऽर्थकामाभिनिवेशितात्मनां
    शुनां कपीनामिव वर्णसङ्करः ॥ ४५ ॥

इसके बाद वह बालक (शमीक मुनिका पुत्र) अपने आश्रमपर आया और अपने पिताके गलेमें साँप देखकर उसे बड़ा दु:ख हुआ तथा वह ढाड़ मारकर रोने लगा ॥ ३८ ॥ विप्रवर शौनकजी ! शमीक मुनिने अपने पुत्रका रोना-चिल्लाना सुनकर धीरे-धीरे अपनी आँखें खोलीं और देखा कि उनके गलेमें एक मरा साँप पड़ा है ॥ ३९ ॥ उसे फेंककर उन्होंने अपने पुत्रसे पूछा—‘बेटा ! तुम क्यों रो रहे हो ? किसने तुम्हारा अपकार किया है ?’ उनके इस प्रकार पूछनेपर बालकने सारा हाल कह दिया ॥ ४० ॥ ब्रह्मर्षि शमीक ने राजा के शाप की बात सुनकर अपने पुत्रका अभिनन्दन नहीं किया। उनकी दृष्टिमें परीक्षित्‌ शापके योग्य नहीं थे। उन्होंने कहा—‘ओह, मूर्ख बालक ! तूने बड़ा पाप किया ! खेद है कि उनकी थोड़ी-सी गलतीके लिये तूने उनको इतना बड़ा दण्ड दिया ॥ ४१ ॥ तेरी बुद्धि अभी कच्ची है। तुझे भगवत्स्वरूप राजाको साधारण मनुष्योंके समान नहीं समझना चाहिये; क्योंकि राजाके दुस्सह तेजसे सुरक्षित और निर्भय रहकर ही प्रजा अपना कल्याण सम्पादन करती है ॥ ४२ ॥ जिस समय राजाका रूप धारण करके भगवान्‌ पृथ्वीपर नहीं दिखायी देंगे, उस समय चोर बढ़ जायँगे और अरक्षित भेड़ोंके समान एक क्षणमें ही लोगोंका नाश हो जायगा ॥ ४३ ॥ राजाके नष्ट हो जानेपर धन आदि चुरानेवाले चोर जो पाप करेंगे, उसके साथ हमारा कोई सम्बन्ध न होनेपर भी वह हमपर भी लागू होगा। क्योंकि राजाके न रहनेपर लुटेरे बढ़ जाते हैं और वे आपसमें मार-पीट, गाली-गलौज करते हैं, साथ ही पशु, स्त्री और धन-सम्पत्ति भी लूट लेते हैं ॥ ४४ ॥ उस समय मनुष्योंका वर्णाश्रमाचार- युक्त वैदिक आर्यधर्म लुप्त हो जाता है, अर्थ-लोभ और काम-वासनाके विवश होकर लोग कुत्तों और बंदरोंके समान वर्णसङ्कर हो जाते हैं ॥ ४५ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


रविवार, 16 जून 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) तीसरा अध्याय ( पोस्ट 03 )


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

तीसरा अध्याय ( पोस्ट 03 )

 

श्रीयमुनाजी का गोलोक से अवतरण और पुनः गोलोकधाम में प्रवेश

 

गंगोवाच -
हे कृष्णे त्वं तु धन्याऽसि सर्वब्रह्माण्डपावनी ।
कृष्णवामांससंभूता परमानन्दरूपिणी ॥ २५ ॥
परिपूर्णतमा साक्षात्सर्वलोकैकवन्दिता ।
परिपूर्णतमस्यापि श्रीकृष्णस्य महात्मनः ॥ २६ ॥
पट्टराज्ञीं परां कृष्णे कृष्णां त्वां प्रणमाम्यहम् ।
तीर्थैर्देवैर्दुर्लभा त्वं गोलोकेऽपि च दुर्घटा ॥ २७ ॥
अहं यास्यामि पातालं श्रीकृष्णस्याज्ञया शुभे ।
त्वद्वियोगातुराऽहं वै पानं कर्तुं न च क्षमा ॥ २८ ॥
यूथीभूत्वा भविष्यामि श्रीव्रजे रासमंडले ।
यत्किंचिन्मे प्रकथितं तत्क्षमस्व हरिप्रिये ॥ २९ ॥
इत्थं परस्परं नत्वा द्वे नद्यौ ययतुर्द्रुतम् ।
लोकान् पवित्रीकुर्वन्ती पाताले स्वःसरिद्‌गता ॥ ३० ॥
सापि भोगवतीनाम्ना बभौ भोगवतीवने ।
यज्जलं सत्रिनयनः शेषो मूर्ध्ना बिभर्ति हि ॥ ३१ ॥
अथ कृष्णा सवेगेन भित्त्वा सप्ताधिमंडलम् ।
सप्तद्वीपमहीपृष्ठे लुठन्ती वेगवत्तरा ॥ ३२ ॥
गत्वा स्वर्णमयीं भूमिं लोकालोकाचलं गता ।
तत्सानुगण्डशैलानां तटं भित्त्वा कलिन्दजा ॥ ३३ ॥
तन्मूर्ध्नि चोत्पपाताशु स्फारवज्जलधारया ।
उद्‌गच्छन्ती तदूर्ध्वं सा ययौ स्वर्गं तु नाकिनाम् ॥ ३४ ॥
आब्रह्मलोकं लोकांस्तानभिव्याप्य हरेः पदम् ।
ब्रह्माडरंध्रं श्रीब्रह्म द्रवयुक्तं समेत्य सा ॥ ३५ ॥
पुष्पवर्षं प्रवर्षत्सु देवेषु प्रणतेषु च ।
पुनः श्रीकृष्णगोलोकमारुरोह सरिद्वरा ॥ ३६ ॥
कलिन्दगिरिनन्दिनीनवचरित्रमेतत् शुभं
     श्रुतं च यदि पाठितं भुवि तनोति सन्मंगलम् ।
जनोऽपि यदि धारयेत्किल पठेच्च यो नित्यशः
     स याति परमं पदं निजनिकुंजलीलावृतम् ॥ ३७ ॥

 

गङ्गा बोलीं- कृष्णे ! सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को पावन बनानेवाली तो तुम हो, अतः तुम्हीं धन्य हो । श्रीकृष्ण- के वामाङ्ग से तुम्हारा प्रादुर्भाव हुआ है। तुम परमानन्द- स्वरूपिणी हो । साक्षात् परिपूर्णतमा हो । समस्त लोकों के द्वारा एकमात्र वन्दनीया हो । परिपूर्णतम परमात्मा श्रीकृष्णकी भी पटरानी हो । अतः कृष्णे ! तुम सब प्रकारसे उत्कृष्ट हो। तुम कृष्णा को मैं प्रणाम करती हूँ। तुम समस्त तीर्थों और देवताओं के लिये भी दुर्लभ हो । गोलोक में  भी तुम्हारा दर्शन दुष्कर है ।। २५-२७ ॥

 

हे शुभे ! मैं तो भगवान् श्रीकृष्णकी ही आज्ञासे मङ्गलमय पाताललोकमें जाऊँगी। यद्यपि तुम्हारे वियोगके भयसे मैं बहुत व्याकुल हूँ, तो भी इस समय तुम्हारे साथ चलनेमें असमर्थ हूँ। व्रजके रासमण्डलमें मैं भी तुम्हारे यूथमें सम्मिलित होकर रहूँगी। हरिप्रिये ! मैंने भी यदि कोई अप्रिय बात कह दी हो तो उसके लिये मुझे क्षमा कर देना ॥ २८–२९ ॥

 

सन्नन्दजी कहते हैं— इस प्रकार एक-दूसरेको प्रणाम करके दोनों नदियाँ तुरंत अपने-अपने गन्तव्य पथपर चली गयीं । सुरधुनी गङ्गाजी अनेक लोकोंको पवित्र करती हुई पातालमें चली गयीं और वहाँ भोगवती वनमें जाकर 'भोगवती गङ्गा'के नामसे प्रसिद्ध हुईं। उन्हींका जल भगवान् शंकर और शेषनाग अपने मस्तक पर धारण करते हैं । ३०-३१ ॥

 

इधर कृष्णा अपने वेगसे सप्तसागर-मण्डलका भेदन करके सातों द्वीपोंके भूभागपर लोटती हुई और भी प्रखर वेगसे आगे बढ़ी। सुवर्णमयी भूमिपर पहुँचकर लोकालोक पर्वतपर गयीं। उसके शिखरों तथा गण्डशैलों (टूटी चट्टानों) के तटका भेदन करके कालिन्दी फुहारेकी-सी जलधाराके साथ उछलकर लोकालोक पर्वतके शिखरपर जा पहुँचीं। फिर वहाँसे ऊर्ध्वगमन करती हुई स्वर्गवासियोंके स्वर्गलोकतक जा पहुँचीं ।। ३२-३४ ॥

 

फिर ब्रह्मलोकतकके समस्त लोकोंको लाँघकर श्रीहरिके पदचिह्नसे लाञ्छित श्रीब्रह्मद्रवसे युक्त ब्रह्माण्डविवरसे होती हुई आगे बढ़ गयीं। उस समय समस्त देवता प्रणाम करते हुए उनके ऊपर फूलोंकी वर्षा कर रहे थे। इस तरह सरिताओंमें श्रेष्ठ यमुना पुनः श्रीकृष्णके गोलोकधाममें आरूढ़ हो गयीं। कलिन्दगिरिनन्दिनी यमुनाके इस मङ्गलमय नूतन चरित्रका भूतलपर यदि श्रवण या पठन किया जाय तो वह उत्तम मङ्गलका विस्तार करता है। यदि कोई भी मनुष्य इस चरित्रको मनमें धारण करे और प्रतिदिन पढ़े तो वह भगवान्‌की निकुञ्जलीला के द्वारा वरण किये गये उनके परमपद — गोलोकधाममें पहुँच जाता है ।। ३५ - ३७ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीवृन्दावनखण्डके अन्तर्गत नन्द-सन्नन्द-संवाद में 'कालिन्दीके आगमनका वर्णन' नामक तीसरा अध्याय पूरा हुआ ॥ ३ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध अठारहवां अध्याय..(पोस्ट..०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध- अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०७)

राजा परीक्षत् को शृङ्गी ऋषिका शाप

तस्य पुत्रोऽतितेजस्वी विहरन् बालकोऽर्भकैः ।
राज्ञाघं प्रापितं तातं श्रुत्वा तत्रेदमब्रवीत् ॥ ३२ ॥
अहो अधर्मः पालानां पीव्नां बलिभुजामिव ।
स्वामिन्यघं यद् दासानां द्वारपानां शुनामिव ॥ ३३ ॥
ब्राह्मणैः क्षत्रबन्धुर्हि गृहपालो निरूपितः ।
स कथं तद्‍गृहे द्वाःस्थः सभाण्डं भोक्तुमर्हति ॥ ३४ ॥
कृष्णे गते भगवति शास्तर्युत्पथगामिनाम् ।
तद् भिन्नसेतूनद्याहं शास्मि पश्यत मे बलम् ॥ ३५ ॥
इत्युक्त्वा रोषताम्राक्षो वयस्यान् ऋषिबालकः ।
कौशिक्याप उपस्पृश्य वाग्वज्रं विससर्ज ह ॥ ३६ ॥
इति लङ्‌घितमर्यादं तक्षकः सप्तमेऽहनि ।
दङ्क्ष्यति स्म कुलाङ्गारं चोदितो मे ततद्रुहम् ॥ ३७ ॥

उन शमीक मुनिका पुत्र बड़ा तेजस्वी था। वह दूसरे ऋषिकुमारों के साथ पास ही खेल रहा था। जब उस बालकने सुना कि राजाने मेरे पिता के साथ दुर्व्यवहार किया है, तब वह इस प्रकार कहने लगा— ॥ ३२ ॥ ‘ये नरपति कहलानेवाले लोग उच्छिष्टभोजी कौओं के समान संड-मुसंड होकर कितना अन्याय करने लगे हैं ! ब्राह्मणोंके दास होकर भी ये दरवाजेपर पहरा देनेवाले कुत्ते के समान अपने स्वामी का ही तिरस्कार करते हैं ॥ ३३ ॥ ब्राह्मणों ने क्षत्रियों को अपना द्वारपाल बनाया है। उन्हें द्वारपर रहकर रक्षा करनी चाहिये, घरमें घुसकर स्वामी के बर्तनों में खाने का उसे अधिकार नहीं है ॥ ३४ ॥ अतएव उन्मार्गगामियों के शासक भगवान्‌ श्रीकृष्णके परमधाम पधार जानेपर इन मर्यादा तोडऩेवालों को आज मैं दण्ड देता हूँ। मेरा तपोबल देखो’ ॥ ३५ ॥ अपने साथी बालकों से इस प्रकार कहकर क्रोधसे लाल-लाल आँखोंवाले उस ऋषिकुमार ने कौशिकी नदीके जलसे आचमन करके अपने वाणीरूपी वज्रका प्रयोग किया ॥ ३६ ॥ ‘कुलाङ्गार परीक्षित्‌ ने मेरे पिताका अपमान करके मर्यादाका उल्लङ्घन किया है, इसलिये मेरी प्रेरणासे आजके सातवें दिन उसे तक्षक सर्प डस लेगा’ ॥ ३७ ॥

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शनिवार, 15 जून 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) तीसरा अध्याय ( पोस्ट 02 )

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

तीसरा अध्याय ( पोस्ट 02 )

 

श्रीयमुनाजी का गोलोक से अवतरण और पुनः गोलोकधाम में प्रवेश

 

परिपूर्णतमं साक्षाच्छ्रीकृष्णं वरमिच्छती ।
धृत्वा वपुः परं दिव्यं तपस्तेपे कलिन्दजा ॥ १४ ॥
पित्रा विनिर्मिते गेहे जलेऽद्यापि समाश्रिता ।
ततो वेगेन कालिन्दी प्राप्ताभूद्‌व्रजमंडले ॥ १५ ॥
वृन्दावनसमीपे च मथुरानिकटे शुभे ।
श्रीमहावनपार्श्वे च सैकते रमणस्थले ॥ १६ ॥
श्रीगोकुले च यमुना यूथीभूत्वातिसुंदरी ।
श्रीकृष्णचंद्ररासार्थं निजवासं चकार ह ॥ १७ ॥
अथो व्रजाद्‌व्रजंती सा व्रजविक्षेपविह्वला ।
प्रेमानन्दाश्रुसंयुक्ता भूत्वा पश्चिमवाहिनी ॥ १८ ॥
ततस्त्रिवारं वेगेन नत्वाथो व्रजमंडले ।
देशान् पुनन्ती प्रययौ प्रयागं तीर्थसत्तमम् ॥ १९ ॥
पुनः श्रीगंगया सार्धं क्षीराब्धिं सा जगाम ह ।
देवाः सुवर्षं पुष्पाणां चक्रुर्दिवि जयध्वनिम् ॥ २० ॥
कृष्णा श्रीयमुना साक्षात् कालिन्दी सरितां वरा ।
समुद्रमेत्य श्रीगंगां प्राह गद्‌गदया गिरा ॥ २१ ॥


यमुनोवाच -
हे गंगे त्वं तु धन्याऽसि सर्वब्रह्माण्डपावनी ।
कृष्णपादाब्जसंभूता सर्वलोकैकवन्दिता ॥ २२ ॥
ऊर्ध्वं यामि हरेर्लोकं गच्छ त्वमपि हे शुभे ।
त्वत्समानं हि दिव्यं च न भूतं न भविष्यति ॥ २३ ॥

सर्वतीर्थमयी गंगा तस्मात्त्वां प्रणमाम्यहम् ।
यत्किंचिद्वा प्रकथितं तत्क्षमस्व सुमंगले ॥ २४ ॥

यमुनाजी साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण को अपना पति बनाना चाहती थीं, इसलिये वे परम दिव्य देह धारण करके खाण्डववन में तपस्या करने लगीं। यमुना के पिता भगवान् सूर्य ने जल के भीतर ही एक दिव्य गेह का निर्माण कर दिया था, जिसमें आज भी वे रहा करती हैं। खाण्डववन से वेगपूर्वक चलकर कालिन्दी व्रजमण्डल में श्रीवृन्दावन और मथुराके  निकट आ पहुँचीं। महावनके पास सिकतामय रमण- स्थलमें भी प्रवाहित हुईं ।। १४-१६ ॥

 

श्रीगोकुलमें आनेपर परम सुन्दरी यमुना ने (विशाखा सखी के नाम से) अपने नेतृत्व में गोप-किशोरियों का एक यूथ बनाया और श्रीकृष्णचन्द्रके रासमें सम्मिलित होनेके लिये उन्होंने वहीं अपना निवासस्थान निश्चित कर लिया । तदनन्तर वे जब व्रज से आगे जाने लगीं, तब व्रजभूमिके वियोगसे विह्वल हो, प्रेमानन्दके आँसू बहाती हुई पश्चिम दिशाकी ओर प्रवाहित हुईं ।। तदनन्तर व्रजमण्डलकी भूमिको अपने वारि-वेगसे तीन बार प्रणाम करके यमुना अनेक देशोंको पवित्र करती हुई उत्तम तीर्थ प्रयाग में जा पहुँचीं ।। १७ - १९ ॥

 

वहाँ गङ्गाजी के साथ उनका संगम हुआ और वे उन्हें साथ लेकर क्षीरसागर की ओर गयीं। उस समय देवताओं ने उनके ऊपर फूलों की वर्षा की और दिग्विजयसूचक जयघोष किया । नदीशिरोमणि कलिन्दनन्दिनी कृष्णवर्णा श्रीयमुना ने समुद्रतक पहुँचकर गद्गद वाणी में श्रीगङ्गा से कहा ॥ २० – २१ ॥

 

यमुनाने कहा – समस्त ब्रह्माण्डको पवित्र करनेवाली गङ्गे ! तुम धन्य हो । साक्षात् श्रीकृष्णके चरणारविन्दोंसे तुम्हारा प्रादुर्भाव हुआ हैं, अतः तुम समस्त लोकोंके लिये एकमात्र वन्दनीया हो । शुभे ! अब मैं यहाँसे ऊपर उठकर श्रीहरिके लोकमें जा रही हूँ । तुम्हारी इच्छा हो तो तुम भी मेरे साथ चलो ! तुम्हारे समान दिव्य तीर्थ न तो हुआ है और न आगे होगा ही । गङ्गा (आप) सर्वतीर्थमयी हैं, अतः सुमङ्गले गङ्गे ! मैं तुम्हें प्रणाम करती हूँ । यदि मैंने कभी कोई अनुचित बात कही हो तो उसके लिये मुझे क्षमा कर देना ।। २२-२४ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध अठारहवां अध्याय..(पोस्ट..०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध- अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०६)

राजा परीक्षत् को शृङ्गी ऋषिका शाप

एकदा धनुरुद्यम्य विचरन्मृगयां वने ।
मृगाननुगतः श्रान्तः क्षुधितस्तृषितो भृशम् ॥ २४ ॥
जलाशयमचक्षाणः प्रविवेश तमाश्रमम् ।
ददर्श मुनिमासीनं शान्तं मीलितलोचनम् ॥ २५ ॥
प्रतिरुद्धेन्द्रियप्राण मनोबुद्धिमुपारतम् ।
स्थानत्रयात्परं प्राप्तं ब्रह्मभूतमविक्रियम् ॥ २६ ॥
विप्रकीर्णजटाच्छन्नं रौरवेणाजिनेन च ।
विशुष्यत्तालुरुदकं तथाभूतमयाचत ॥ २७ ॥
अलब्धतृणभूम्यादिः असम्प्राप्तार्घ्यसूनृतः ।
अवज्ञातं इवात्मानं मन्यमानश्चुकोप ह ॥ २८ ॥
अभूतपूर्वः सहसा क्षुत्तृड्भ्यामर्दितात्मनः ।
ब्राह्मणं प्रत्यभूद्‍ब्रह्मन् मत्सरो मन्युरेव च ॥ २९ ॥
स तु ब्रह्मऋषेरंसे गतासुमुरगं रुषा ।
विनिर्गच्छन् धनुष्कोट्या निधाय पुरमागत् ॥ ३० ॥
एष किं निभृताशेष करणो मीलितेक्षणः ।
मृषा समाधिराहोस्वित् किं नु स्यात् क्षत्रबन्धुभिः ॥ ३१ ॥

एक दिन राजा परीक्षित्‌ धनुष लेकर वनमें शिकार खेलने गये हुए थे। हरिणोंके पीछे दौड़ते- दौड़ते वे थक गये और उन्हें बड़े जोरकी भूख और प्यास लगी ॥ २४ ॥ जब कहीं उन्हें कोई जलाशय नहीं मिला, तब वे पास के ही एक ऋषि के आश्रम में घुस गये। उन्होंने देखा कि वहाँ आँखें बंद करके शान्तभावसे एक मुनि आसनपर बैठे हुए हैं ॥ २५ ॥ इन्द्रिय, प्राण, मन और बुद्धिके निरुद्ध हो जानेसे वे संसारसे ऊपर उठ गये थे। जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति—तीनों अवस्थाओंसे रहित निर्विकार ब्रह्मरूप तुरीय पद में वे स्थित थे ॥ २६ ॥ उनका शरीर बिखरी हुई जटाओंसे और कृष्ण मृगचर्मसे ढका हुआ था। राजा परीक्षित्‌ने ऐसी ही अवस्थामें उनसे जल माँगा, क्योंकि प्याससे उनका गला सूखा जा रहा था ॥ २७ ॥ जब राजाको वहाँ बैठनेके लिये तिनकेका आसन भी न मिला, किसीने उन्हें भूमिपर भी बैठनेको न कहा—अर्घ्य और आदरभरी मीठी बातें तो कहाँ से मिलतीं— तब अपने को अपमानित-सा मानकर वे क्रोध के वश हो गये ॥ २८ ॥ 
शौनक जी ! वे (राजा परीक्षित्) भूख-प्यास से छटपटा रहे थे, इसलिये एकाएक उन्हें ब्राह्मण के प्रति ईर्ष्या और क्रोध हो आया। उनके जीवन में इस प्रकार का यह पहला ही अवसर था ॥ २९ ॥ वहाँ से लौटते समय उन्होंने क्रोधवश धनुष की नोक से एक मरा साँप उठाकर ऋषि के गले में डाल दिया और अपनी राजधानी में चले आये ॥ ३० ॥ उनके मनमें यह बात आयी कि इन्होंने जो अपने नेत्र बंद कर रखे हैं, सो क्या वास्तवमें इन्होंने अपनी सारी इन्द्रियवृत्तियोंका निरोध कर लिया है अथवा इन राजाओं से हमारा क्या प्रयोजन है, यों सोचकर इन्होंने झूठ-मूठ समाधि का ढोंग रच रखा है ॥ ३१ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
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शुक्रवार, 14 जून 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) तीसरा अध्याय ( पोस्ट 01 )


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

तीसरा अध्याय ( पोस्ट 01 )

 

श्रीयमुनाजी का गोलोक से अवतरण और पुनः गोलोकधाम में प्रवेश

 

सन्नन्द उवाच -
गोलोके हरिणाऽऽज्ञप्ता कालिन्दी सरितां वरा ।
कृष्णं प्रदक्षिणीकृत्य गन्तुमभ्युद्यताभवत् ॥ १ ॥
तदैव विरजा साक्षाद्‌गङ्गा ब्रह्मद्रवोद्‌भवा ।
द्वे नद्यौ यमुनायां तु संप्रलीने बभूवतुः ॥ २ ॥
परिपूर्णतमां कृष्णां तस्मात् कृष्णस्य नन्दराट् ।
परिपूर्णतमस्यापि पट्टराज्ञीं विदुर्जनाः ॥ ३ ॥
ततो वेगेन महता कालिन्दी सरितां वरा ।
बिभेद विरजावेगं निकुंजद्वारनिर्गता ॥ ४ ॥
असंख्यब्रह्मांडचयं स्पृष्ट्वा ब्रह्मद्रवं गता ।
भिन्दन्ती तज्जलं दीर्घं स्ववेगेन महानदी ॥ ५ ॥
वामपादांगुष्ठनखभिन्नब्रह्मांडमस्तके ।
श्रीवामनस्य विवरे ब्रह्मद्रवसमाकुले ॥ ६ ॥
तस्मिन् श्रीगंगया सार्धं प्रविष्टाऽभूत्सरिद्वरा ।
वैकुंठं चाजितपदं संप्राप्य ध्रुवमंडले ॥ ७ ॥
ब्रह्मलोकमभिव्याप्य पतन्ती ब्रह्ममंडलात् ।
ततः सुराणां शतशो लोकाल्लोकं जगाम ह ॥ ८ ॥
ततः पपात वेगेन सुमेरुगिरिमूर्धनि ।
गिरिकूटानतिक्रम्य भित्त्वा गंडशिलातटान् ॥ ९ ॥
सुमेरोर्दक्षिणदिशं गन्तुमभ्युदिताभवत् ।
ततः श्रीयमुना साक्षाच्छ्रीगंगायां विनिर्गता ॥ १० ॥
गंगा तु प्रययौ शैलं हिमवन्तं महानदी ।
कृष्णा तु प्रययौ शैलं कलिन्दं प्राप्य सा तदा ॥ ११ ॥
कालिंदीति समाख्याता कालिंदप्रभवा यदा ।
कलिंदगिरिसानूनां गंडशैलतटान् दृढान् ॥ १२ ॥
भित्त्वा लुठन्ती भूखंडे कृष्णा वेगवती सती ।
देशान्पुनन्ती कालिन्दी प्राप्तवान् खांडवे वने ॥ १३ ॥

सन्नन्दजी कहते हैं- नन्दराज ! गोलोकमें श्रीहरिने जब यमुनाजीको भूतलपर जानेकी आज्ञा दी और सरिताओंमें श्रेष्ठ यमुना जब श्रीकृष्णकी परिक्रमा करके जानेको उद्यत हुईं, उसी समय विरजा तथा ब्रह्मद्रवसे उत्पन्न साक्षात् गङ्गा—ये दोनों नदियाँ आकर यमुनाजीमें लीन हो गयीं। इसीलिये परिपूर्णतमा कृष्णा (यमुना) को परिपूर्णतम श्रीकृष्णकी पटरानीके रूपमें लोग जानते हैं। तदनन्तर सरिताओंमें श्रेष्ठ कालिन्दी अपने महान् वेगसे विरजाके वेगका भेदन करके निकुञ्ज-द्वार से निकलीं और असंख्य ब्रह्माण्ड- समूहों का स्पर्श करती हुई ब्रह्मद्रव में गयीं ।। १-४ ॥

 

फिर उसकी दीर्घ जलराशिका अपने महान् वेगसे भेदन करती हुई वे महानदी श्रीवामनके बायें चरणके अंगूठेके नखसे विदीर्ण हुए ब्रह्माण्डके शिरोभागमें विद्यमान ब्रह्मद्रवयुक्त विवरमें श्रीगङ्गा के साथ ही प्रविष्ट हुईं और वहाँसे वे सरिद्वरा यमुना ध्रुवमण्डल में स्थित भगवान् अजित विष्णुके धाम वैकुण्ठलोक में होती हुई ब्रह्मलोकको लाँघकर जब ब्रह्ममण्डलसे नीचे गिरीं, तब देवताओंके सैकड़ों लोकोंमें एक-से दूसरेके क्रमसे विचरती हुई आगे बढ़ीं ।। ५-८ ॥

 

तदनन्तर वे सुमेरुगिरि के शिखरपर बड़े वेग से गिरी और अनेक शैल-शृङ्गों को लाँघकर बड़ी-बड़ी चट्टानों के तटों का भेदन करती हुई जब मेरुपर्वत से दक्षिण दिशा की ओर जाने को उद्यत हुईं, तब यमुनाजी गङ्गा से अलग हो गयीं । महानदी गङ्गा तो हिमवान् पर्वतपर चली गयीं, किंतु कृष्णा (श्यामसलिला यमुना ) कलिन्द-शिखर- पर जा पहुँचीं। वहाँ जाकर उस पर्वतसे प्रकट होनेके कारण उनका नाम 'कालिन्दी' हो गया ।। ९-११ ॥

 

कलिन्दगिरि के शिखरों से टूटकर जो बड़ी-बड़ी चट्टानें पड़ी थीं, उनके सुदृढ़ तटों को तोड़ती-फोड़ती और भूखण्डपर लोटती हुई वेगवती कृष्णा कालिन्दी अनेक देशों को पवित्र करती हुई खाण्डववन में (इन्द्रप्रस्थ या दिल्ली के पास) जा पहुँचीं ।। १२-१३ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध अठारहवां अध्याय..(पोस्ट..०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध- अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५)

राजा परीक्षत् को शृङ्गी ऋषिका शाप

अथापि यत्पादनखावसृष्टं
जगद्विरिञ्चोपहृतार्हणाम्भः ।
सेशं पुनात्यन्यतमो मुकुन्दात्
को नाम लोके भगवत्पदार्थः ॥ २१ ॥
यत्रानुरक्ताः सहसैव धीरा
व्यपोह्य देहादिषु सङ्गमूढम् ।
व्रजन्ति तत्पारमहंस्यमन्त्यं
यस्मिन्नहिंसोपशमः स्वधर्मः ॥ २२ ॥
अहं हि पृष्टोऽर्यमणो भवद्‌भिः
आचक्ष आत्मावगमोऽत्र यावान् ।
नभः पतन्त्यात्मसमं पतत्त्रिणः
तथा समं विष्णुगतिं विपश्चितः ॥ २३ ॥

ब्रह्माजीने भगवान्‌ के चरणों का प्रक्षालन करनेके लिये जो जल समर्पित किया था, वही उनके चरणनखों से निकलकर गङ्गाजी के रूप में प्रवाहित हुआ। यह जल महादेवजीसहित सारे जगत् को पवित्र करता है। ऐसी अवस्थामें त्रिभुवन में श्रीकृष्णके अतिरिक्त ‘भगवान्‌’ शब्द का दूसरा और क्या अर्थ हो सकता है ॥ २१ ॥ जिनके प्रेमको प्राप्त करके धीर पुरुष बिना किसी हिचक के देह-गेह आदिकी दृढ़ आसक्तिको छोड़ देते हैं और उस अन्तिम परमहंस-आश्रम को स्वीकार करते हैं, जिसमें किसीको कष्ट न पहुँचाना और सब ओरसे उपशान्त हो जाना ही स्वधर्म होता है ॥ २२ ॥ सूर्यके समान प्रकाशमान महात्माओ ! आपलोगों ने मुझसे जो कुछ पूछा है, वह मैं अपनी समझके अनुसार सुनाता हूँ। जैसे पक्षी अपनी शक्तिके अनुसार आकाशमें उड़ते हैं, वैसे ही विद्वान् लोग भी अपनी- अपनी बुद्धिके अनुसार ही श्रीकृष्णकी लीलाका वर्णन करते हैं ॥ २३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से


गुरुवार, 13 जून 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) दूसरा अध्याय (पोस्ट 04)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

दूसरा अध्याय (पोस्ट 04)

 

गिरिराज गोवर्धन की उत्पत्ति तथा उसका व्रजमण्डल में आगमन

 

जातिस्मरो गिरिस्तत्र प्राहेदं पथि चिंतयन् ।
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान् स्वयम् ॥ ३६ ॥
अखंडब्रह्माण्डपतिर्व्रजेऽत्रावतरिष्यति ।
बाललीलां च कैशोरीं चेष्टां गोपालबालकैः ॥ ३७ ॥
दानलीलां मानलीलां हरिरत्र करिष्यति ।
तस्मान्मया न गन्तव्यं भूमिश्चेयं कलिन्दजा ॥ ३८ ॥
गोलोकाद्‌राधया सार्धं श्रीकृष्णोऽत्रागमिष्यति ।
कृतकृत्यो भविष्यामि कृत्वा तद्दर्शनं परम् ॥ ३९ ॥
एवं विचार्य मनसा भूरि भारं ददौ करे ।
तदा मुनिश्च श्रांतोऽभूद्‌भूतपूर्वं गतस्मृतिः ॥ ४० ॥
करादुत्तार्य तं शैलं निधाय व्रजमंडले ।
लघुशंकाजयार्थं हि गतोऽभूद्‌भारपीडितः ॥ ४१ ॥
कृत्वा शौचं जले स्नात्वा पुलस्त्यो मुनिसत्तमः ।
उत्तिष्ठेति मुनिः प्राह गिरिं गोवर्धनं परम् ॥ ४२ ॥
नोत्थितं भूरिभाराढ्यं कराभ्यां तं महामुनिः ।
स्वतेजसा बलेनापि गृहीतुमुपचक्रमे ॥ ४३ ॥
मुनिना संगृहीतोऽपि गिरिराजो गिराऽऽर्द्रया ।
न चलालांगुलिं किंचित् तदपि द्रोणनन्दनः ॥ ४४ ॥
सन्नन्द उवाच -
गच्छ गच्छ गिरिश्रेष्ठ भारं मा कुरु मा कुरु ।
मया ज्ञातोऽसि रुष्टस्त्वमभिप्रायं वदाशु मे ॥ ४५ ॥


गोवर्धन उवाच -
मुनेऽत्र मे न दोषोऽस्ति त्वया मे स्थापना कृता ।
करिष्यामि न चोत्थानं पूर्वं मे शपथः कृतः ॥ ४६ ॥


सन्नन्द उवाच -
पुलस्त्यो मुनिशार्दूलः क्रोधात् प्रचलितेन्द्रियः ।
स्फुरदोष्ठो द्रोणपुत्रं शशाप विगतोद्यमः ॥ ४७ ॥

सन्नन्द उवाच -
गिरे त्वयातिधृष्टेन न कृतो मे मनोरथः ।
तस्मात्तु तिलमात्रं हि नित्यं त्वं क्षीणतां व्रज ॥ ४८ ॥


सन्नन्द उवाच -
काशीं गते पुलस्त्यर्षावयं गोवर्धनो गिरिः ।
नित्यं संक्षीयते नन्द तिलमात्रं दिने दिने ॥ ४९ ॥
यावद्‌भागीरथी गंगा यावद्‌गोवर्धनो गिरिः ।
तावत्कलेः प्रभावस्तु भविष्यति न कर्हिचित् ॥ ५० ॥

गोवर्धनस्य प्रकटं चरित्रं
     नृणां महापापहरं पवित्रम् ।
मया तवाग्रे कथितं विचित्रं
     सुमुक्तिदं कौ रुचिरं न चित्रम् ॥ ५१ ॥

 

गोवर्धनपर्वत को अपने पूर्व- जन्म की बातों का स्मरण था । व्रज में आनेपर उसने मार्ग में मन ही मन सोचा -- 'यहाँ व्रज में असंख्य ब्रह्माण्डनायक साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण अवतार लेंगे और ग्वालबालों के साथ बाललीला तथा कैशोर लीला करेंगे। इतना ही नहीं, वे श्रीहरि यहाँ दानलीला और मानलीला भी करेंगे। अतः मुझे यहाँसे अन्यत्र नहीं जाना चाहिये। यह व्रजभूमि और यह यमुना नदी गोलोकसे यहाँ आयी है। श्रीराधाके साथ भगवान् श्रीकृष्णका भी यहाँ शुभागमन होगा। उनका उत्तम दर्शन पाकर मैं कृतकृत्य हो जाऊँगा ।' मन-ही- मन ऐसा विचार करके गोवर्धनने मुनिकी हथेलीपर अपने शरीरका भार बहुत अधिक बढ़ा लिया। उस समय मुनि अत्यन्त थक गये। उन्हें पहलेकी कही हुई बातकी याद नहीं रही। उन्होंने पर्वतको हाथसे उतारकर व्रजमण्डलमें रख दिया। भारसे पीड़ित तो वे थे ही, लघुशङ्का से निवृत्त होनेके लिये चले गये ॥ ३६-४१ ॥

 

शौच क्रिया करके जल में स्नान करने के पश्चात् मुनिवर पुलस्त्य ने उत्तम पर्वत गोवर्धन से कहा – 'अब उठो ।' अधिक भारसे सम्पन्न होनेके कारण जब वह दोनों हाथोंसे नहीं उठा, तब महामुनि पुलस्त्य ने उसे अपने तेज और बल से उठा लेनेका उपक्रम किया। मुनिने स्नेहसे भीगी वाणीद्वारा द्रोणनन्दन गिरिराजको ग्रहण करनेका सम्पूर्ण शक्तिसे प्रयास किया, किंतु वह एक अंगुल भी टस से मस न हुआ ।। ४२-४४ ॥

 

तब पुलस्त्यजी बोले- गिरिश्रेष्ठ! चलो, चलो ! भार अधिक न बढ़ाओ, न बढ़ाओ। मैं जान गया, तुम रूठे हुए हो। शीघ्र बताओ, तुम्हारा क्या अभिप्राय है ? || ४५ ॥

 

गोवर्धन बोला- मुने ! इसमें मेरा दोष नहीं है । आपने ही मुझे यहाँ स्थापित किया है। अब मैं यहाँसे नहीं उठूँगा । अपनी यह प्रतिज्ञा मैंने पहले ही प्रकट कर दी थी ॥ ४६ ॥

 

सन्नन्दजी कहते हैं - यह उत्तर सुनकर मुनिश्रेष्ठ पुलस्त्य की सारी इन्द्रियाँ क्रोध से चञ्चल हो उठीं। उनके ओष्ठ फड़कने लगे। अपना सारा उद्यम व्यर्थ हो जाने- के कारण उन्होंने द्रोणपुत्र को शाप दे दिया ॥ ४७ ॥

 

पुलस्त्यजी बोले- पर्वत ! तू बड़ा ढीठ है। तूने मेरा मनोरथ पूर्ण नहीं किया । इसलिये तू प्रतिदिन तिल-तिलभर क्षीण होता चला जा ॥ ४८ ॥

 

सन्नन्दजी कहते हैं--नन्द ! यों कहकर पुलस्त्य मुनि काशी चले गये। उसी दिन से यह गोवर्धन पर्वत प्रतिदिन तिल-तिल करके क्षीण होता चला जा रहा है । जबतक भागीरथी गङ्गा और गोवर्धन पर्वत इस भूतल पर विद्यमान हैं, तबतक कलि का प्रभाव कदापि नहीं बढ़ेगा। गोवर्धनका यह प्रकट चरित्र परम पवित्र और मनुष्योंके बड़े-बड़े पापोंका नाश करनेवाला है । यह प्रसङ्ग मैंने तुम्हारे सामने कहा है, जो भूमण्डल में रुचिर और अद्भुत है। यह उत्तम मोक्ष प्रदान करनेवाला है, इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं है ।। ४९–५१ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीवृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'गिरिराजकी उत्पत्तिका वर्णन'

नामक दूसरा अध्याय पूरा हुआ ॥ २ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध अठारहवां अध्याय..(पोस्ट..०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध- अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०४)

राजा परीक्षत् को शृङ्गी ऋषिका शाप

सूत उवाच ।

अहो वयं जन्मभृतोऽद्य हास्म
    वृद्धानुवृत्त्यापि विलोमजाताः ।
दौष्कुल्यमाधिं विधुनोति शीघ्रं
    महत्तमानामभिधानयोगः ॥ १८ ॥
कुतः पुनर्गृणतो नाम तस्य
    महत्तमैकान्त परायणस्य ।
योऽनन्तशक्तिः भगवाननन्तो
    महद्‍गुणत्वाद् यमनन्तमाहुः ॥ १९ ॥
एतावतालं ननु सूचितेन
    गुणैरसाम्यानतिशायनस्य ।
हित्वेतरान् प्रार्थयतो विभूतिः
    यस्याङ्‌घ्रिरेणुं जुषतेऽनभीप्सोः ॥ २० ॥

सूतजी कहते हैं—अहो ! विलोम [*] जाति में उत्पन्न होनेपर भी महात्माओंकी सेवा करनेके कारण आज हमारा जन्म सफल हो गया। क्योंकि महापुरुषोंके साथ बातचीत करनेमात्रसे ही नीच कुलमें उत्पन्न होनेकी मनोव्यथा शीघ्र ही मिट जाती है ॥ १८ ॥ फिर उन लोगोंकी तो बात ही क्या है, जो सत्पुरुषोंके एकमात्र आश्रय भगवान्‌का नाम लेते हैं ! भगवान्‌ की शक्ति अनन्त है, वे स्वयं अनन्त हैं। वास्तवमें उनके गुणोंकी अनन्तता के कारण ही उन्हें अनन्त कहा गया है ॥ १९ ॥ भगवान्‌ के गुणोंकी समता भी जब कोई नहीं कर सकता, तब उनसे बढक़र तो कोई हो ही कैसे सकता है। उनके गुणोंकी यह विशेषता समझानेके लिये इतना कह देना ही पर्याप्त है कि लक्ष्मीजी अपनेको प्राप्त करनेकी इच्छासे प्रार्थना करनेवाले ब्रह्मादि देवताओंको छोडक़र भगवान्‌ के न चाहनेपर भी उनके चरणकमलोंकी रजका ही सेवन करती हैं ॥ २० ॥ 

..............................................................
[*] उच्च वर्णकी माता और निम्न वर्णके पितासे उत्पन्न संतानको ‘विलोमज’ कहते हैं। सूत जातिकी उत्पत्ति इसी प्रकार ब्राह्मणी माता और क्षत्रिय पिताके द्वारा होनेसे उसे शास्त्रोंमें विलोम जाति माना गया है।

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बुधवार, 12 जून 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) दूसरा अध्याय (पोस्ट 03)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

दूसरा अध्याय (पोस्ट 03)

 

गिरिराज गोवर्धन की उत्पत्ति तथा उसका व्रजमण्डल में आगमन

 

विश्वेश्वरस्य देवस्य काशीनाम्ना महापुरी ।
यत्र पापी मृतः सद्यः परं मोक्षं प्रयाति हि ॥ २४ ॥
यत्र गंगाऽऽगता साक्षाद्‌विश्वनाथोऽपि यत्र वै ।
तत्रैव स्थापयिष्यामि जातोऽयं मे मनोरथः ॥ २६ ॥


सन्नन्द उवाच -
पुलस्त्यवचनं श्रुत्वा स्वसुतस्नेहविह्वलः ।
अश्रुपूर्णो द्रोणगिरिस्तं मुनिं वाक्यमब्रवीत् ॥ २७ ॥


द्रोण उवाच -
पुत्रस्नेहाकुलोऽहं वै पुत्रो मेऽयमतिप्रियः ।
ते शापभयभीतोऽहं वदाम्येनं महामुने ॥ २८ ॥
हे पुत्र गच्छ मुनिना भारते कर्मके शुभे ।
त्रैवर्ग्यं लभ्यते यत्र नृभिर्मोक्षमपि क्षणात् ॥ २९ ॥


गोवर्धन उवाच -
मुने कथं मां नयसि लंबितं योजनाष्टकम् ।
योजनद्वयमुच्चांगं पंचयोजनविस्तृतम् ॥ ३० ॥


पुलस्त्य उवाच -
उपविश्य करे मे त्वं गच्छ पुत्र यथासुखम् ।
वाहयामि करे त्वां वै यावत्काशीं समागतः ॥ ३१ ॥


गोवर्धन उवाच -
मुने यत्र स्थले भूम्यां स्थापनां मे करिष्यसि ।
करिष्यामि न चोत्थानं तद्‌भूम्याः शपथो मम ॥ ३२ ॥


पुलस्त्य उवाच -
अहमाशाल्मलिद्वीपान् मर्यादीकृत्य कौसलम् ।
न स्थापनां करिष्यामि शपथस्तेऽपि मे पथि ॥ ३३ ॥


सन्नन्द उवाच -
मुनेः करतले तस्मिन्नारुरोह महाचलः ।
प्रणम्य पितरं द्रोणमश्रुपूर्णाकुलेक्षणः ॥ ३४ ॥
मुनिस्तं दक्षिणकरे धृत्वा गच्छन् शनैः शनैः ।
स्वतेजो दर्शयन् नॄणां प्राप्तोऽभूद्‌व्रजमंडले ॥ ३५ ॥

 

भगवान् विश्वेश्वर की महानगरी 'काशी' नामसे प्रसिद्ध है, जहाँ मरणको प्राप्त हुआ पापी पुरुष भी तत्काल परम मोक्ष प्राप्त कर लेता है, जहाँ गङ्गा नदी प्राप्त होती हैं और जहाँ साक्षात् विश्वनाथ भी विराजमान हैं। मैं वहीं तुम्हारे पुत्र को स्थापित करूँगा, जहाँ दूसरा कोई पर्वत नहीं है । लता-बेलों और वृक्षों से व्याप्त जो तुम्हारा पुत्र गोवर्धन है, उसके ऊपर रहकर मैं तपस्या करूँगा – ऐसी अभिलाषा मेरे मन में जाग्रत् हुई है । २४ - २६॥

 

सन्नन्दजी कहते हैं- पुलस्त्यजीकी यह बात सुनकर पुत्र - स्नेहसे विह्वल हुए द्रोणाचलके नेत्रोंमें आँसू भर आये। उसने पुलस्त्य मुनिसे कहा ॥ २७ ॥

 

द्रोणाचल बोला- महामुने ! मैं पुत्र स्नेहसे आकुल हूँ। यह पुत्र मुझे अत्यन्त प्रिय है, तथापि आपके शापके भयसे भीत होकर मैं इसे आपके हाथोंमें देता हूँ। (फिर वह पुत्रसे बोला - ) बेटा! तुम मुनिके साथ कल्याणमय कर्मक्षेत्र भारतवर्षमें जाओ । वहाँ मनुष्य सत्कर्मोंद्वारा धर्म, अर्थ और काम — त्रिवर्ग सुख प्राप्त करते हैं तथा (निष्काम कर्म एवं ज्ञानयोगद्वारा) क्षणभरमें मोक्ष भी पा लेते हैं ।। २८-२९ ॥

 

गोवर्धनने कहा- मुने! मेरा शरीर आठ योजन लंबा, दो योजन ऊँचा और पाँच योजन चौड़ा है। ऐसी दशामें आप किस प्रकार मुझे ले चलेंगे ॥ ३० ॥

 

पुलस्त्यजी बोले- बेटा ! तुम मेरे हाथपर बैठकर सुखपूर्वक चलेचलो। जबतक काशी नहीं आ जाती, तबतक मैं तुम्हें हाथपर ही ढोये चलूँगा ॥ ३१ ॥

 

गोवर्धनने कहा- मुने ! मेरी एक प्रतिज्ञा है। आप जहाँ-कहीं भी भूमिपर मुझे एक बार रख देंगे, वहाँकी भूमिसे मैं पुनः उत्थान नहीं करूँगा ॥ ३२ ॥

 

पुलस्त्यजी बोले- मैं इस शाल्मलीद्वीपसे लेकर भारतवर्षके कोसलदेशतक तुम्हें कहीं भी रास्तेमें नहीं रखूँगा, यह मेरी प्रतिज्ञा है ॥ ३३ ॥

 

सन्नन्दजी कहते हैं-नन्दराज ! तदनन्तर वह महान् पर्वत पिताको प्रणाम करके मुनिकी हथेलीपर आरूढ़ हुआ। उस समय उसके नेत्रोंमें आँसू भर आये । उसे दाहिने हाथपर रखकर पुलस्त्य मुनि लोगोंको अपना तेज दिखाते हुए धीरे-धीरे चले और व्रज-मण्डलमें आ पहुँचे ॥ ३४-३५ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१२) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन तत्...