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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
चौथा
अध्याय ( पोस्ट 02 )
श्रीबलराम
और श्रीकृष्णके द्वारा बछड़ों का चराया जाना तथा वत्सासु रका उद्धार
एकदा वत्सवृन्देषु प्राप्तं वत्सासुरं
नृप ।
कंसप्रणोदितं ज्ञात्वा शनैस्तत्र जगाम ह ॥ १८ ॥
धावन् गोपेषु सर्वत्र लांगूलं चालयन्मुहुः ।
दैत्यः पश्चिमपादाभ्यां हरिमंसे तताड ह ॥ १९ ॥
पलायितेषु बालेषु कृष्णस्तं पादयोर्द्वयोः ।
गृहीत्वा भ्रामयित्वाश्च पातयामास भूतले ॥ २० ॥
पुनर्नीत्वा कराभ्यां तं कपित्थे प्राहिणोद् हरिः ।
तदा मृत्युं गते दैत्ये कपित्थोऽपि महाद्रुमः ॥ २१ ॥
कपित्थान् पातयामास तदद्भुतमिवाभवत् ।
विस्मितेषु च बालेषु साधु साध्विति वादिषु ॥ २२ ॥
दिवि देवा जयारावैः पुष्पवर्षं प्रचक्रिरे ।
तद्दैत्यस्य महज्ज्योतिः कृष्णे लीनं बभूव ह ॥ २३ ॥
श्रीबहुलाश्व उवाच -
अहो पूर्वं सुकृतकृत्कोऽयं वत्सासुरो मुने ।
श्रीकृष्णे लीनतां प्राप्तः श्रीप्रपूर्णे परात्परे ॥ २४ ॥
श्रीनारद उवाच -
मुरुपुत्रो महादैत्यः प्रमीलो नाम देवजित् ।
वसिष्ठस्याश्रमे प्राप्तो नन्दिनीं गां ददर्श ह ॥ २५ ॥
तल्लिप्सुर्ब्राह्मणो भूत्वा ययाचे गां मनोहराम् ।
तूष्णीं स्थिते गौरुवाच वसिष्ठे दिव्यदर्शने ॥ २६ ॥
नन्दिनी उवाच -
मुनीनां गां समाहर्तुं भूत्वा विप्रः समागतः ।
दैत्योऽसि मुरुजस्तस्माद्गोवत्सो भव दुर्मते ॥ २७ ॥
श्रीनारद उवाच -
तदैव वत्सरूपोऽभून्मुरुपुत्रो महासुरः ।
वसिष्ठं गां परिक्रम्य नत्वा त्राहीत्युवाच ह ॥ २८ ॥
गौरुवाच -
द्वापरान्ते महादैत्य वृंदारण्ये यदा तव ।
गोवत्सेषु गतस्यापि तदा मुक्तिर्भविष्यति ॥ २९ ॥
श्रीनारद उवाच -
परिपूर्णतमे साक्षाच्छ्रीकृष्णे पतितपावने ।
तस्मात् वत्सासुरो दैत्यो लीनोऽभूत् न हि विस्मयः ॥ ३० ॥
नरेश्वर
! एक दिन उनके बछड़ों के झुंड में कंस का भेजा हुआ वत्सासुर आकर मिल गया।
श्रीकृष्ण को यह बात विदित हो गयी और वे उसके पास गये। वह दैत्य गोप-बालकों के
बीचमें सब ओर पूँछ उठाकर बार-बार दौड़ता
हुआ दिखायी देता था । उसने अचानक आकर अपने पिछले पैरोंसे श्रीकृष्णके कंधोंपर
प्रहार किया । अन्य गोप-बालक तो भाग चले, किंतु
श्रीकृष्ण ने उसके दोनों पैर पकड़ लिये और उसे घुमाकर धरती पर पटक दिया ।। १८-२० ॥
इसके
बाद श्रीहरि- ने फिर उसे हाथोंसे उठाकर कपित्थ वृक्षपर दे मारा। फिर तो वह दैत्य
तत्काल मर गया। उसके धक्केसे महान् कपित्थ वृक्षने स्वयं गिरकर दूसरे दूसरे
वृक्षोंको भी धराशायी कर दिया । यह एक अद्भुत-सी बात हुई । समस्त ग्वालबाल
आश्चर्यसे चकित हो कन्हैया- को वहाँ साधुवाद देने लगे। देवतालोग आकाश में खड़े हो
जय-जयकार करते हुए फूल बरसाने लगे । उस दैत्य की विशाल ज्योति श्रीकृष्णमें लीन हो
गयी ।। २१ - २३ ॥
बहुलाश्वने
पूछा- मुने ! यह तो बड़े आश्चर्यकी बात है। बताइये तो,
इस वत्सासुरके रूपमें पहले का कौन-सा पुण्यात्मा पुरुष प्रकट हो गया
था, जो परि-पूर्णतम परमात्मा श्रीकृष्णमें विलीन हुआ ?
॥ २४ ॥
श्रीनारदजी
बोले - राजन् ! मुर के एक पुत्र था, जो
महादैत्य 'प्रमील' के नाम से विख्यात
था। उसने देवताओंको भी युद्धमें जीत लिया था। एक दिन वह वसिष्ठ मुनिके आश्रमपर
गया। वहाँ उसने मुनि की होमधेनु नन्दिनी को देखा। उसे पाने की इच्छा से वह
ब्राह्मण का रूप धारण करके मुनि के पास गया और उस मनोहर गौ के लिये याचना करने
लगा। महर्षि दिव्य दर्शी थे; अतः सब कुछ जानकर भी चुप रह गये,
कुछ बोले नहीं। तब गौ ने स्वयं कहा ।।२५-२६॥
श्रीनन्दिनी
बोली- दुर्मते ! तू मुरका पुत्र दैत्य है, तो
भी मुनियोंकी गौका अपहरण करनेके लिये ब्राह्मण बनकर आया है; अतः
गाय का बछड़ा हो जा ॥ २७ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं— राजन् ! नन्दिनीके इतना कहते ही वह मुरपुत्र महान् गोवत्स बन गया । तब
उसने मुनिवर वसिष्ठ तथा उस गौकी परिक्रमा एवं प्रणाम करके कहा- 'मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये ॥ २८ ॥
गौ
बोली- महादैत्य ! द्वापरके अन्तमें जब तू श्रीकृष्णके बछड़ोंमें घुस जायगा,
उस समय तेरी मुक्ति होगी ॥ २९ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- उसी शाप और वरदानके कारण परिपूर्णतम पतितपावन साक्षात् भगवान्
श्रीकृष्णमें दैत्य वत्सासुर विलीन हुआ। इसमें विस्मयकी कोई बात नहीं है ॥ ३० ॥
इस
प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीवृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'वत्सासुरका मोक्ष' नामक चौथा अध्याय पूरा हुआ ॥ ४ ॥
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा
प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260
से