गुरुवार, 20 जून 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध उन्नीसवां अध्याय..(पोस्ट ०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध- उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट ०२)

परीक्षित्‌का अनशनव्रत और शुकदेवजीका आगमन

अथो विहायेमममुं च लोकं
    विमर्शितौ हेयतया पुरस्तात् ।
कृष्णाङ्‌घ्रिसेवामधिमन्यमान
    उपाविशत् प्रायममर्त्यनद्याम् ॥ ५ ॥
या वै लसच्छ्रीतुलसीविमिश्र
    कृष्णाङ्‌घ्रिरेण्वभ्यधिकाम्बुनेत्री ।
पुनाति लोकानुभयत्र सेशान्
    कस्तां न सेवेत मरिष्यमाणः ॥ ६ ॥
इति व्यवच्छिद्य स पाण्डवेयः
    प्रायोपवेशं प्रति विष्णुपद्याम् ।
दधौ मुकुन्दाङ्‌घ्रिमनन्यभावो
    मुनिव्रतो मुक्तसमस्तसङ्गः ॥ ७ ॥
तत्रोपजग्मुर्भुवनं पुनाना
    महानुभावा मुनयः सशिष्याः ।
प्रायेण तीर्थाभिगमापदेशैः
    स्वयं हि तीर्थानि पुनन्ति सन्तः ॥ ८ ॥
अत्रिर्वसिष्ठश्च्यवनः शरद्वान्
    अरिष्टनेमिर्भृगुरङ्‌गिराश्च ।
पराशरो गाधिसुतोऽथ राम
    उतथ्य इन्द्रप्रमदेध्मवाहौ ॥ ९ ॥
मेधातिथिर्देवल आर्ष्टिषेणो
    भारद्वाजो गौतमः पिप्पलादः ।
मैत्रेय और्वः कवषः कुम्भयोनिः
    द्वैपायनो भगवान् नारदश्च ॥ १० ॥
अन्ये च देवर्षिब्रह्मर्षिवर्या
    राजर्षिवर्या अरुणादयश्च ।
नानार्षेयप्रवरान् समेतान्
    अभ्यर्च्य राजा शिरसा ववन्दे ॥ ११ ॥

वे (राजा परीक्षित्‌) इस लोक और परलोक के भोगों को तो पहले से ही तुच्छ और त्याज्य समझते थे। अब उनका स्वरूपत: त्याग करके भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी सेवाको ही सर्वोपरि मानकर आमरण अनशन-व्रत लेकर वे गङ्गातटपर बैठ गये ॥ ५ ॥ गङ्गाजीका जल भगवान्‌ श्रीकृष्ण के चरणकमलोंका वह पराग लेकर प्रवाहित होता है, जो श्रीमती तुलसीकी गन्धसे मिश्रित है। यही कारण है कि वे लोकपालोंके सहित ऊपर-नीचेके समस्त लोकोंको पवित्र करती हैं। कौन ऐसा मरणासन्न पुरुष होगा, जो उनका सेवन न करेगा ? ॥ ६ ॥ इस प्रकार गङ्गाजी के तटपर आमरण अनशन का निश्चय करके उन्होंने समस्त आसक्तियों का परित्याग कर दिया और वे मुनियोंका व्रत स्वीकार करके अनन्यभावसे श्रीकृष्णके चरणकमलोंका ध्यान करने लगे ॥ ७ ॥ उस समय त्रिलोकीको पवित्र करनेवाले बड़े-बड़े महानुभाव ऋषि-मुनि अपने शिष्योंके साथ वहाँ पधारे। संतजन प्राय: तीर्थयात्राके बहाने स्वयं उन तीर्थस्थानोंको ही पवित्र करते हैं ॥ ८ ॥ उस समय वहाँपर अत्रि, वसिष्ठ, च्यवन, शरद्वान्, अरिष्टनेमि, भृगु, अङ्गिरा, पराशर, विश्वामित्र, परशुराम, उतथ्य, इन्द्रप्रमद, इध्मवाह, मेधातिथि, देवल, आॢष्टषेण, भारद्वाज, गौतम, पिप्पलाद, मैत्रेय, और्व, कवष, अगस्त्य, भगवान्‌ व्यास, नारद तथा इनके अतिरिक्त और भी कई श्रेष्ठ देवर्षि, ब्रहमर्षि तथा अरुणादि राजर्षिवर्योंका शुभागमन हुआ। इस प्रकार विभिन्न गोत्रोंके मुख्य-मुख्य ऋषियोंको एकत्र देखकर राजाने सबका यथायोग्य सत्कार किया और उनके चरणोंपर सिर रखकर वन्दना की ॥९-११॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


बुधवार, 19 जून 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) पाँचवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

पाँचवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )

 

वकासुरका उद्धार

 

एकदा चारयन् वत्सान् सरामो बालकैर्हरिः ।
यमुनानिकटे प्राप्तं बकं दैत्यं ददर्श ह ॥ १ ॥
श्वेतपर्वतसंकाशो बृहत्पादो घनध्वनिः ।
पलायितेषु बालेषु वज्रतुंडोऽग्रसद्धरिम् ॥ २ ॥
रुदन्तो बालकाः सर्वे गतप्राणा इवाभवन् ।
हाहाकारं तदा कृत्वा देवाः सर्वे समागताः ॥ ३ ॥
इंद्रो वज्रं तदा नीत्वा तं तताड महाबलम् ।
तेन घातेन पतितो न ममार समुत्थितः ॥ ४ ॥
ब्रह्मापि ब्रह्मदंडेन तं तताड महाबकम् ।
तेन घातेन पतितो मूर्छितो घटिकाद्वयम् ॥ ५ ॥
विधुन्वन् स्वतनुं वेगातज्जृम्भितः पुनरुत्थितः ।
न ममार तदा दैत्यो जगर्ज घनवद्‌बली ॥ ६ ॥
त्रिलोचनस्त्रिशूलेन तं जघान महासुरम् ।
छिन्नैकपक्षो दैत्योऽपि न मृतोऽतिभयंकरः ॥ ७ ॥
वायव्यास्त्रेण वायुस्तं संजघान बकमतः ।
उच्चचाल बकस्तेन पुनस्तत्र स्थितोऽभवत् ॥ ८ ॥
यमस्तं यमदण्डेन ताडयामास चाग्रतः ।
तेन दण्डेन न मृतो बको वै चण्डविक्रमः ॥ ९ ॥
दण्डोऽपि भग्नतां प्रागात् स क्षतो नाभवद् बकः ।
तदैव चाग्रतः प्राप्तश्चण्डांशुश्चण्डविक्रमः ॥ १० ॥
शतबाणैर्बकं दैत्यं संजघान धनुर्धरः ।
तीक्ष्णैः पक्षगतैर्बाणैर्न ममार बकस्ततः ॥ ११ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- एक दिन बलराम तथा ग्वाल-बालोंके साथ बछड़े चराते हुए श्रीहरिने यमुनाके निकट आये हुए वकासुरको देखा। वह श्वेत पर्वतके समान ऊँचा दिखायी देता था। बड़ी-बड़ी टाँगें और मेघ गर्जनके समान ध्वनि ! उसे देखते ही ग्वाल-बाल डरके मारे भागने लगे। उसकी चोंच वज्रके समान तीखी थी। उसने आते ही श्रीहरिको अपना ग्रास बना लिया। यह देख सब ग्वाल-बाल रोने लगे। रोते-रोते वे निष्प्राण से हो गये । उस समय हाहाकार करते हुए सब देवता वहाँ आ पहुँचे ।। १-५ ॥

 

इन्द्रने तत्काल वज्र चलाकर उस महान् वकपर प्रहार किया । वज्रकी चोटसे वकासुर धरतीपर गिर पड़ा, किंतु मरा नहीं। वह फिर उठकर खड़ा हो गया। तब ब्रह्माजीने भी कुपित होकर उसे ब्रह्मदण्डसे मारा। उस आघातसे गिरकर वह असुर दो घड़ीतक मूर्च्छित पड़ा रहा ।। ४-५ ॥

 

फिर अपने शरीरको कँपाता हुआ जँभाई लेकर वह बड़े वेगसे उठ खड़ा हुआ। उसकी मृत्यु नहीं हुई। वह बलवान् दैत्य मेघके समान गर्जना करने लगा । इसी समय त्रिनेत्रधारी भगवान् शंकरने उस महान् असुरपर त्रिशूलसे प्रहार किया। उस प्रहारसे दैत्यकी एक पाँख कट गयी, तो भी वह महाभंयकर असुर मर न सका । तदनन्तर वायुदेवने वकासुरपर वायव्यास्त्र चलाया; उससे वह कुछ ऊपरकी ओर उठ गया, परंतु पुनः अपने स्थानपर आकर खड़ा हो गया ।। ६-८ ॥

 

इसके बाद यम ने सामने आकर उसपर यमदण्ड से प्रहार किया, परंतु प्रचण्ड पराक्रमी वकासुरकी उस दण्डसे भी मृत्यु नहीं हुई। यमराज का वह दण्ड भी टूट गया, किंतु वकासुर को कोई क्षति नहीं पहुँची। इतनेमें  ही प्रचण्ड किरणोंवाले चण्डपराक्रमी सूर्यदेव उसके सामने आये। उन्होंने धनुष हाथ में लेकर वकासुर को सौ बाण मारे । वे तीखे बाण उसकी पाँख में धँस गये, फिर भी वह मर न सका ।। ९-११ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध उन्नीसवां अध्याय..(पोस्ट ०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध- उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट ०१)

परीक्षित्‌ का अनशनव्रत और शुकदेवजीका आगमन

सूत उवाच ।

महीपतिस्त्वथ तत्कर्म गर्ह्यं
    विचिन्तयन् नात्मकृतं सुदुर्मनाः ।
अहो मया नीचमनार्यवत्कृतं
    निरागसि ब्रह्मणि गूढतेजसि ॥ १ ॥
ध्रुवं ततो मे कृतदेवहेलनाद्
    दुरत्ययं व्यसनं नातिदीर्घात् ।
तदस्तु कामं ह्यघनिष्कृताय मे
    यथा न कुर्यां पुनरेवमद्धा ॥ २ ॥
अद्यैव राज्यं बलमृद्धकोशं
    प्रकोपितब्रह्मकुलानलो मे ।
दहत्वभद्रस्य पुनर्न मेऽभूत्
    पापीयसी धीर्द्विजदेवगोभ्यः ॥ ३ ॥
स चिन्तयन्नित्थमथाशृणोद् यथा
    मुनेः सुतोक्तो निर्ॠतिस्तक्षकाख्यः ।
स साधु मेने न चिरेण तक्षका-
    नलं प्रसक्तस्य विरक्तिकारणम् ॥ ४ ॥

सूतजी कहते हैं—राजधानीमें पहुँचनेपर राजा परीक्षित्‌को अपने उस निन्दनीय कर्मके लिये बड़ा पश्चात्ताप हुआ। वे अत्यन्त उदास हो गये और सोचने लगे—‘मैंने निरपराध एवं अपना तेज छिपाये हुए ब्राह्मणके साथ अनार्य पुरुषोंके समान बड़ा नीच व्यवहार किया। यह बड़े खेदकी बात है ॥ १ ॥ अवश्य ही उन महात्माके अपमानके फलस्वरूप शीघ्र-से-शीघ्र मुझपर कोई घोर विपत्ति आवेगी। मैं भी ऐसा ही चाहता हूँ; क्योंकि उससे मेरे पापका प्रायश्चित्त हो जायगा और फिर कभी मैं ऐसा काम करनेका दु:साहस नहीं करूँगा ॥ २ ॥ ब्राह्मणोंकी क्रोधाग्नि आज ही मेरे राज्य, सेना और भरे-पूरे खजानेको जलाकर खाक कर दे—जिससे फिर कभी मुझ दुष्टकी ब्राह्मण, देवता और गौओंके प्रति ऐसी पापबुद्धि न हो ॥ ३ ॥ वे इस प्रकार चिन्ता कर ही रहे थे कि उन्हें मालूम हुआ—ऋषिकुमार के शाप से तक्षक मुझे डसेगा। उन्हें वह धधकती हुई आगके समान तक्षक का डसना बहुत भला मालूम हुआ। उन्होंने सोचा कि बहुत दिनोंसे मैं संसारमें आसक्त हो रहा था, अब मुझे शीघ्र वैराग्य होनेका कारण प्राप्त हो गया ॥ ४ ॥ 

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मंगलवार, 18 जून 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) चौथा अध्याय ( पोस्ट 02 )

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

चौथा अध्याय ( पोस्ट 02 )

 

श्रीबलराम और श्रीकृष्णके द्वारा बछड़ों का चराया जाना तथा वत्सासु रका उद्धार

 

एकदा वत्सवृन्देषु प्राप्तं वत्सासुरं नृप ।
कंसप्रणोदितं ज्ञात्वा शनैस्तत्र जगाम ह ॥ १८ ॥
धावन् गोपेषु सर्वत्र लांगूलं चालयन्मुहुः ।
दैत्यः पश्चिमपादाभ्यां हरिमंसे तताड ह ॥ १९ ॥
पलायितेषु बालेषु कृष्णस्तं पादयोर्द्वयोः ।
गृहीत्वा भ्रामयित्वाश्च पातयामास भूतले ॥ २० ॥
पुनर्नीत्वा कराभ्यां तं कपित्थे प्राहिणोद् हरिः ।
तदा मृत्युं गते दैत्ये कपित्थोऽपि महाद्रुमः ॥ २१ ॥
कपित्थान् पातयामास तदद्‌भुतमिवाभवत् ।
विस्मितेषु च बालेषु साधु साध्विति वादिषु ॥ २२ ॥
दिवि देवा जयारावैः पुष्पवर्षं प्रचक्रिरे ।
तद्दैत्यस्य महज्ज्योतिः कृष्णे लीनं बभूव ह ॥ २३ ॥


श्रीबहुलाश्व उवाच -
अहो पूर्वं सुकृतकृत्कोऽयं वत्सासुरो मुने ।
श्रीकृष्णे लीनतां प्राप्तः श्रीप्रपूर्णे परात्परे ॥ २४ ॥


श्रीनारद उवाच -
मुरुपुत्रो महादैत्यः प्रमीलो नाम देवजित् ।
वसिष्ठस्याश्रमे प्राप्तो नन्दिनीं गां ददर्श ह ॥ २५ ॥
तल्लिप्सुर्ब्राह्मणो भूत्वा ययाचे गां मनोहराम् ।
तूष्णीं स्थिते गौरुवाच वसिष्ठे दिव्यदर्शने ॥ २६ ॥


नन्दिनी उवाच -
मुनीनां गां समाहर्तुं भूत्वा विप्रः समागतः ।
दैत्योऽसि मुरुजस्तस्माद्‌गोवत्सो भव दुर्मते ॥ २७ ॥


श्रीनारद उवाच -
तदैव वत्सरूपोऽभून्मुरुपुत्रो महासुरः ।
वसिष्ठं गां परिक्रम्य नत्वा त्राहीत्युवाच ह ॥ २८ ॥


गौरुवाच -
द्वापरान्ते महादैत्य वृंदारण्ये यदा तव ।
गोवत्सेषु गतस्यापि तदा मुक्तिर्भविष्यति ॥ २९ ॥


श्रीनारद उवाच -
परिपूर्णतमे साक्षाच्छ्रीकृष्णे पतितपावने ।
तस्मात् वत्सासुरो दैत्यो लीनोऽभूत् न हि विस्मयः ॥ ३० ॥

 

नरेश्वर ! एक दिन उनके बछड़ों के झुंड में कंस का भेजा हुआ वत्सासुर आकर मिल गया। श्रीकृष्ण को यह बात विदित हो गयी और वे उसके पास गये। वह दैत्य गोप-बालकों के बीचमें  सब ओर पूँछ उठाकर बार-बार दौड़ता हुआ दिखायी देता था । उसने अचानक आकर अपने पिछले पैरोंसे श्रीकृष्णके कंधोंपर प्रहार किया । अन्य गोप-बालक तो भाग चले, किंतु श्रीकृष्ण ने उसके दोनों पैर पकड़ लिये और उसे घुमाकर धरती पर पटक दिया ।। १८-२० ॥

 

इसके बाद श्रीहरि- ने फिर उसे हाथोंसे उठाकर कपित्थ वृक्षपर दे मारा। फिर तो वह दैत्य तत्काल मर गया। उसके धक्केसे महान् कपित्थ वृक्षने स्वयं गिरकर दूसरे दूसरे वृक्षोंको भी धराशायी कर दिया । यह एक अद्भुत-सी बात हुई । समस्त ग्वालबाल आश्चर्यसे चकित हो कन्हैया- को वहाँ साधुवाद देने लगे। देवतालोग आकाश में खड़े हो जय-जयकार करते हुए फूल बरसाने लगे । उस दैत्य की विशाल ज्योति श्रीकृष्णमें लीन हो गयी ।। २१ - २३ ॥

 

बहुलाश्वने पूछा- मुने ! यह तो बड़े आश्चर्यकी बात है। बताइये तो, इस वत्सासुरके रूपमें पहले का कौन-सा पुण्यात्मा पुरुष प्रकट हो गया था, जो परि-पूर्णतम परमात्मा श्रीकृष्णमें विलीन हुआ ? ॥ २४ ॥

 

श्रीनारदजी बोले - राजन् ! मुर के एक पुत्र था, जो महादैत्य 'प्रमील' के नाम से विख्यात था। उसने देवताओंको भी युद्धमें जीत लिया था। एक दिन वह वसिष्ठ मुनिके आश्रमपर गया। वहाँ उसने मुनि की होमधेनु नन्दिनी को देखा। उसे पाने की इच्छा से वह ब्राह्मण का रूप धारण करके मुनि के पास गया और उस मनोहर गौ के लिये याचना करने लगा। महर्षि दिव्य दर्शी थे; अतः सब कुछ जानकर भी चुप रह गये, कुछ बोले नहीं। तब गौ ने स्वयं कहा ।।२५-२६॥

 

श्रीनन्दिनी बोली- दुर्मते ! तू मुरका पुत्र दैत्य है, तो भी मुनियोंकी गौका अपहरण करनेके लिये ब्राह्मण बनकर आया है; अतः गाय का बछड़ा हो जा ॥ २७ ॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! नन्दिनीके इतना कहते ही वह मुरपुत्र महान् गोवत्स बन गया । तब उसने मुनिवर वसिष्ठ तथा उस गौकी परिक्रमा एवं प्रणाम करके कहा- 'मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये ॥ २८ ॥

 

गौ बोली- महादैत्य ! द्वापरके अन्तमें जब तू श्रीकृष्णके बछड़ोंमें घुस जायगा, उस समय तेरी मुक्ति होगी ॥ २९ ॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं- उसी शाप और वरदानके कारण परिपूर्णतम पतितपावन साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णमें दैत्य वत्सासुर विलीन हुआ। इसमें विस्मयकी कोई बात नहीं है ॥ ३० ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीवृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'वत्सासुरका मोक्ष' नामक चौथा अध्याय पूरा हुआ ॥ ४ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध अठारहवां अध्याय..(पोस्ट..०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध- अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०९)

राजा परीक्षत् को शृङ्गी ऋषिका शाप

धर्मपालो नरपतिः स तु सम्राड् बृहच्छ्रवाः ।
साक्षान् महाभागवतो राजर्षिर्हयमेधयाट् ॥ ४६ ॥
क्षुत्तृट्श्रमयुतो दीनो नैवास्मच्छापमर्हति ॥ ४६.५ ।
अपापेषु स्वभृत्येषु बालेनापक्वबुद्धिना ।
पापं कृतं तद्‍भगवान् सर्वात्मा क्षन्तुमर्हति ॥ ४७ ॥
तिरस्कृता विप्रलब्धाः शप्ताः क्षिप्ता हता अपि ।
नास्य तत्प्रतिकुर्वन्ति तद्‍भक्ताः प्रभवोऽपि हि ॥ ४८ ॥
इति पुत्रकृताघेन सोऽनुतप्तो महामुनिः ।
स्वयं विप्रकृतो राज्ञा नैवाघं तदचिन्तयत् ॥ ४९ ॥
प्रायशः साधवो लोके परैर्द्वन्द्वेषु योजिताः ।
न व्यथन्ति न हृष्यन्ति यत आत्मागुणाश्रयः ॥ ५० ॥

सम्राट् परीक्षित्‌ तो बड़े ही यशस्वी और धर्मधुरन्धर हैं। उन्होंने बहुत-से अश्वमेध यज्ञ किये हैं और वे भगवान्‌के परम प्यारे भक्त हैं; वे ही राजर्षि भूख-प्याससे व्याकुल होकर हमारे आश्रमपर आये थे, वे शापके योग्य कदापि नहीं हैं ॥ ४६ ॥ इस नासमझ बालकने हमारे निष्पाप सेवक राजाका अपराध किया है, सर्वात्मा भगवान्‌ कृपा करके इसे क्षमा करें ॥ ४७ ॥ भगवान्‌के भक्तोंमें भी बदला लेनेकी शक्ति होती है, परंतु वे दूसरोंके द्वारा किये हुए अपमान, धोखेबाजी, गाली-गलौज, आक्षेप और मार-पीटका कोई बदला नहीं लेते ॥ ४८ ॥ महामुनि शमीकको पुत्रके अपराधपर बड़ा पश्चात्ताप हुआ। राजा परीक्षित्‌ने जो उनका अपमान किया था, उसपर तो उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया ॥ ४९ ॥ महात्माओंका स्वभाव ही ऐसा होता है कि जगत में जब दूसरे लोग उन्हें सुख-दु:खादि द्वन्द्वोंमें डाल देते हैं, तब भी वे प्राय: हर्षित या व्यथित नहीं होते; क्योंकि आत्माका स्वरूप तो गुणोंसे सर्वथा परे है ॥ ५० ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे विप्रशापोपलम्भनं नाम्ना अष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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सोमवार, 17 जून 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) चौथा अध्याय ( पोस्ट 01 )


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

चौथा अध्याय ( पोस्ट 01 )

 

श्रीबलराम और श्रीकृष्णके द्वारा बछड़ों का चराया जाना तथा वत्सासु रका उद्धार

 

सन्नन्दस्य वचः श्रुत्वा गन्तुं नन्दः समुद्यतः ।
सर्वैर्गोपगणैः सार्धं मुदितोऽभून्महामनाः ॥ १ ॥
यशोदया च रोहिण्या सर्वगोपीगणैः सह ।
अश्वै रथैर्वीरजनैर्मण्डितो विप्रमंडलैः ॥ २ ॥
गोभिश्च शकटैर्युक्तो वृद्धैर्बालैस्तथानुगैः ।
गायकैर्गीयमानश्च शंखदुंदुभिनिःस्वनैः ॥ ३ ॥
पुत्राभ्यां रामकृष्णाभ्यां नन्दराजो महामतिः ।
रथमारुह्य हे राजन् वनं वृंदावनं ययौ ॥ ४ ॥
वृषभानुवरो गोपो गजमारुह्य भार्यया ।
अंके नीत्वा सुतां राधां गीयमानश्च गायकैः ॥ ५ ॥
मृदंगतालवीणानां वेणूनां कलनिःस्वनैः ।
गोपालगोगणैः सार्धं वृन्दारण्यं जगाम ह ॥ ६ ॥
उपनन्दास्तथा नन्दाः तथा षड् वृषभानवः ।
सर्वैः परिकरैः सार्धं जग्मुर्वृन्दावनं वनम् ॥ ७ ॥
वृंदावने संप्रविश्य गोपाः सर्वे सहानुगाः ।
घोषान् विधाय वसतीर्वासं चक्रुरितस्ततः ॥ ८ ॥
सभामण्डपसंयुक्तं सदुर्गं परिखायुतम् ।
चतुर्योजनविस्तीर्णं सप्तद्वारसमन्वितम् ॥ ९ ॥
सरोवरैः परिवृतं राजमार्गं मनोहरम् ।
सहस्रकुञ्जं च पुरं वृषभानुरचीकॢपत् ॥ १० ॥
श्रीकृष्णो नन्दनगरे वृषभानुपुरेऽर्भकैः ।
चचार क्रीडनपरो गोपीनां प्रीतिमावहन् ॥ ११ ॥
अथ वृन्दावने राजन् सर्वगोपालसम्मतौ ।
बभूवतुर्वत्सपालौ रामकृष्णौ मनोहरौ ॥ १२ ॥
चारयामासतुर्वत्सान् ग्रामसीम्न्यर्भकैः सह ।
कालिन्दीनिकटे पुण्ये पुलिने रामकेशवौ ॥ १३ ॥
निकुञ्जेषु च कुञ्जेषु सम्प्रलीनावितस्ततः ।
रिङ्‌गमाणौ च कुत्रापि नन्दंतौ चेरतुर्वने ॥ १४ ॥
किंकिणीजालसंयुक्तौ सिञ्चन्मञ्जीरनूपुरौ ।
नीलपीताम्बरधरौ हारकेयूरभूषितौ ॥ १५ ॥
क्षेपणैः क्षिपतौ बालैर्वंशीवादनतत्परौ ।
मुखेन किंकिणीशब्दं कुर्वद्‌भिर्बालकैश्च तौ ॥ १६ ॥
धावन्तौ पक्षिभिश्छायां रेजतू रामकेशवौ ।
मयूरपक्षसंयुक्तौ पुष्पपल्लवभूषितौ ॥ १७ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! सन्नन्दकी बात सुनकर महामना नन्दराज समस्त गोपगणोंके साथ बड़े प्रसन्न हुए और वृन्दावनमें जानेको तैयार हो गये। यशोदा, रोहिणी तथा समस्त गोपाङ्गनाओंके साथ घोड़ों, रथों, वीर पुरुषों तथा विप्रमण्डलीसे मण्डित हो, परम बुद्धिमान् नन्दराज दोनों पुत्र बलराम और श्रीकृष्ण- सहित रथपर आरूढ़ हो वृन्दावनकी ओर चल दिये। उनके साथ गौओंका समुदाय भी था । बूढ़े, बालक और सेवकोंसहित अनेक छकड़े चल रहे थे। यात्राके समय शङ्ख बजे और नगारोंकी ध्वनियाँ हुईं। बहुत-से गायक नन्दराजका यशोगान कर रहे थे । १-४ ॥

 

गोप वृषभानुवर अपनी पत्नीके साथ हाथीपर बैठकर, पुत्री राधाको अङ्कमें लिये, गायकोंसे यशोगान सुनते हुए, मृदङ्ग, ताल, वीणा और वेणुओंकी मधुर ध्वनिके साथ वृन्दावनको गये । उनके साथ भी बहुतसे गोप और गौओंका समुदाय था । नन्द, उपनन्द और छहों वृषभानु भी अपने समस्त परिकरोंके साथ वृन्दावनमें गये । समस्त गोपोंने अपने सेवकोंसहित वृन्दावनमें प्रवेश करके अलग-अलग गोष्ठ बनाये और इधर-उधर निवास आरम्भ किया। वृषभानुने अपने लिये वृषभानुपुर (बरसाना) नामक नगरका निर्माण कराया, जो चार योजन विस्तृत दुर्गके आकार में था। उसके चारों ओर खाइयाँ बनी थीं। उस दुर्गके सात दरवाजे थे। दुर्गके भीतर विशाल सभामण्डप था। अनेक सरोबर उस दुर्गकी शोभा बढ़ा रहे थे। बीच-बीचमें मनोहर राजमार्गका निर्माण कराया गया था । एक सहस्र कुझें उस पुरकी शोभा बढ़ाती थीं ॥ ५ – १० ॥

 

श्रीकृष्ण नन्दनगर ( नन्दगाँव) तथा वृषभानुपुर (बरसाने) में बालकोंके साथ क्रीड़ा करते हुए घूमते और गोपाङ्गनाओंकी प्रीति बढ़ाते थे । राजन्! कुछ दिनों बाद सम्पूर्ण गोपोंके समादर-भाजन मनोहर रूपवाले बलराम और श्रीकृष्ण वृन्दावन में बछड़े चराने लगे। वे दोनों भाई ग्वाल-बालों के साथ गाँव की सीमा तक जाकर बछड़े चराते थे। कालिन्दी के निकट उसके पावन पुलिन पर सुशोभित निकुञ्जों और कुञ्जों में बलराम और श्रीकृष्ण इधर-उधर लुकाछिपी के खेल खेलते और कहीं-कहीं रेंगते हुए चलकर वन में सानन्द विचरते थे ।। ११ - १४ ॥

 

उन दोनों के कटिप्रदेश में करधनीकी लड़ियाँ शोभा देती थीं। खेलते समय उनके पैरोंके मञ्जीर और नूपुर मधुर झंकार फैलाते थे । बलरामके अङ्गोंपर नीलाम्बर शोभा पाता था और श्रीकृष्णके अङ्गोंपर पीतपट । वे दोनों भाई हार और भुजबंदोंसे भूषित थे। कभी बालकोंके साथ क्षेपणों (ढेलवासों) द्वारा ढेले फेंकते और कभी बाँसुरी बजाते थे । कुछ ग्वाल-बाल अपने मुखसे करधनीके घुँघुरुओंकी-सी ध्वनि करते हुए दौड़ते और उनके साथ वे दोनों बन्धु - राम और श्याम भी पक्षियोंकी छायाका अनुसरण करते भागते हुए सुशोभित होते थे। सिरपर मयूरपिच्छ लगाकर फूलों और पल्लवोंके शृङ्गार धारण करते थे । १५ – १७॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध अठारहवां अध्याय..(पोस्ट..०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध- अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०८)

राजा परीक्षत् को शृङ्गी ऋषिका शाप

ततोऽभ्येत्याश्रमं बालो गले सर्पकलेवरम् ।
पितरं वीक्ष्य दुःखार्तो मुक्तकण्ठो रुरोद ह ॥ ३८ ॥
स वा आङ्‌गिरसो ब्रह्मन् श्रुत्वा सुतविलापनम् ।
उन्मील्य शनकैर्नेत्रे दृष्ट्वा चांसे मृतोरगम् ॥ ३९ ॥
विसृज्य तं च पप्रच्छ वत्स कस्माद्धि रोदिषि ।
केन वा तेऽपकृतं इत्युक्तः स न्यवेदयत् ॥ ४० ॥
निशम्य शप्तमतदर्हं नरेन्द्रं
    स ब्राह्मणो नात्मजमभ्यनन्दत् ।
अहो बतांहो महदद्य ते कृतं
    अल्पीयसि द्रोह उरुर्दमो धृतः ॥ ४१ ॥
न वै नृभिर्नरदेवं पराख्यं
    सम्मातुमर्हस्यविपक्वबुद्धे ।
यत्तेजसा दुर्विषहेण गुप्ता
    विन्दन्ति भद्राण्यकुतोभयाः प्रजाः ॥ ४२ ॥
अलक्ष्यमाणे नरदेवनाम्नि
    रथाङ्गपाणावयमङ्ग लोकः ।
तदा हि चौरप्रचुरो विनङ्क्ष्यति
    अरक्ष्यमाणोऽविव रूथवत् क्षणात् ॥ ४३ ॥
तदद्य नः पापमुपैत्यनन्वयं
    यन्नष्टनाथस्य वसोर्विलुम्पकात् ।
परस्परं घ्नन्ति शपन्ति वृञ्जते
    पशून् स्त्रियोऽर्थाम् पुरुदस्यवो जनाः ॥ ४४ ॥
तदाऽऽर्यधर्मः प्रविलीयते नृणां
    वर्णाश्रमाचारयुतस्त्रयीमयः ।
ततोऽर्थकामाभिनिवेशितात्मनां
    शुनां कपीनामिव वर्णसङ्करः ॥ ४५ ॥

इसके बाद वह बालक (शमीक मुनिका पुत्र) अपने आश्रमपर आया और अपने पिताके गलेमें साँप देखकर उसे बड़ा दु:ख हुआ तथा वह ढाड़ मारकर रोने लगा ॥ ३८ ॥ विप्रवर शौनकजी ! शमीक मुनिने अपने पुत्रका रोना-चिल्लाना सुनकर धीरे-धीरे अपनी आँखें खोलीं और देखा कि उनके गलेमें एक मरा साँप पड़ा है ॥ ३९ ॥ उसे फेंककर उन्होंने अपने पुत्रसे पूछा—‘बेटा ! तुम क्यों रो रहे हो ? किसने तुम्हारा अपकार किया है ?’ उनके इस प्रकार पूछनेपर बालकने सारा हाल कह दिया ॥ ४० ॥ ब्रह्मर्षि शमीक ने राजा के शाप की बात सुनकर अपने पुत्रका अभिनन्दन नहीं किया। उनकी दृष्टिमें परीक्षित्‌ शापके योग्य नहीं थे। उन्होंने कहा—‘ओह, मूर्ख बालक ! तूने बड़ा पाप किया ! खेद है कि उनकी थोड़ी-सी गलतीके लिये तूने उनको इतना बड़ा दण्ड दिया ॥ ४१ ॥ तेरी बुद्धि अभी कच्ची है। तुझे भगवत्स्वरूप राजाको साधारण मनुष्योंके समान नहीं समझना चाहिये; क्योंकि राजाके दुस्सह तेजसे सुरक्षित और निर्भय रहकर ही प्रजा अपना कल्याण सम्पादन करती है ॥ ४२ ॥ जिस समय राजाका रूप धारण करके भगवान्‌ पृथ्वीपर नहीं दिखायी देंगे, उस समय चोर बढ़ जायँगे और अरक्षित भेड़ोंके समान एक क्षणमें ही लोगोंका नाश हो जायगा ॥ ४३ ॥ राजाके नष्ट हो जानेपर धन आदि चुरानेवाले चोर जो पाप करेंगे, उसके साथ हमारा कोई सम्बन्ध न होनेपर भी वह हमपर भी लागू होगा। क्योंकि राजाके न रहनेपर लुटेरे बढ़ जाते हैं और वे आपसमें मार-पीट, गाली-गलौज करते हैं, साथ ही पशु, स्त्री और धन-सम्पत्ति भी लूट लेते हैं ॥ ४४ ॥ उस समय मनुष्योंका वर्णाश्रमाचार- युक्त वैदिक आर्यधर्म लुप्त हो जाता है, अर्थ-लोभ और काम-वासनाके विवश होकर लोग कुत्तों और बंदरोंके समान वर्णसङ्कर हो जाते हैं ॥ ४५ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


रविवार, 16 जून 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) तीसरा अध्याय ( पोस्ट 03 )


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

तीसरा अध्याय ( पोस्ट 03 )

 

श्रीयमुनाजी का गोलोक से अवतरण और पुनः गोलोकधाम में प्रवेश

 

गंगोवाच -
हे कृष्णे त्वं तु धन्याऽसि सर्वब्रह्माण्डपावनी ।
कृष्णवामांससंभूता परमानन्दरूपिणी ॥ २५ ॥
परिपूर्णतमा साक्षात्सर्वलोकैकवन्दिता ।
परिपूर्णतमस्यापि श्रीकृष्णस्य महात्मनः ॥ २६ ॥
पट्टराज्ञीं परां कृष्णे कृष्णां त्वां प्रणमाम्यहम् ।
तीर्थैर्देवैर्दुर्लभा त्वं गोलोकेऽपि च दुर्घटा ॥ २७ ॥
अहं यास्यामि पातालं श्रीकृष्णस्याज्ञया शुभे ।
त्वद्वियोगातुराऽहं वै पानं कर्तुं न च क्षमा ॥ २८ ॥
यूथीभूत्वा भविष्यामि श्रीव्रजे रासमंडले ।
यत्किंचिन्मे प्रकथितं तत्क्षमस्व हरिप्रिये ॥ २९ ॥
इत्थं परस्परं नत्वा द्वे नद्यौ ययतुर्द्रुतम् ।
लोकान् पवित्रीकुर्वन्ती पाताले स्वःसरिद्‌गता ॥ ३० ॥
सापि भोगवतीनाम्ना बभौ भोगवतीवने ।
यज्जलं सत्रिनयनः शेषो मूर्ध्ना बिभर्ति हि ॥ ३१ ॥
अथ कृष्णा सवेगेन भित्त्वा सप्ताधिमंडलम् ।
सप्तद्वीपमहीपृष्ठे लुठन्ती वेगवत्तरा ॥ ३२ ॥
गत्वा स्वर्णमयीं भूमिं लोकालोकाचलं गता ।
तत्सानुगण्डशैलानां तटं भित्त्वा कलिन्दजा ॥ ३३ ॥
तन्मूर्ध्नि चोत्पपाताशु स्फारवज्जलधारया ।
उद्‌गच्छन्ती तदूर्ध्वं सा ययौ स्वर्गं तु नाकिनाम् ॥ ३४ ॥
आब्रह्मलोकं लोकांस्तानभिव्याप्य हरेः पदम् ।
ब्रह्माडरंध्रं श्रीब्रह्म द्रवयुक्तं समेत्य सा ॥ ३५ ॥
पुष्पवर्षं प्रवर्षत्सु देवेषु प्रणतेषु च ।
पुनः श्रीकृष्णगोलोकमारुरोह सरिद्वरा ॥ ३६ ॥
कलिन्दगिरिनन्दिनीनवचरित्रमेतत् शुभं
     श्रुतं च यदि पाठितं भुवि तनोति सन्मंगलम् ।
जनोऽपि यदि धारयेत्किल पठेच्च यो नित्यशः
     स याति परमं पदं निजनिकुंजलीलावृतम् ॥ ३७ ॥

 

गङ्गा बोलीं- कृष्णे ! सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को पावन बनानेवाली तो तुम हो, अतः तुम्हीं धन्य हो । श्रीकृष्ण- के वामाङ्ग से तुम्हारा प्रादुर्भाव हुआ है। तुम परमानन्द- स्वरूपिणी हो । साक्षात् परिपूर्णतमा हो । समस्त लोकों के द्वारा एकमात्र वन्दनीया हो । परिपूर्णतम परमात्मा श्रीकृष्णकी भी पटरानी हो । अतः कृष्णे ! तुम सब प्रकारसे उत्कृष्ट हो। तुम कृष्णा को मैं प्रणाम करती हूँ। तुम समस्त तीर्थों और देवताओं के लिये भी दुर्लभ हो । गोलोक में  भी तुम्हारा दर्शन दुष्कर है ।। २५-२७ ॥

 

हे शुभे ! मैं तो भगवान् श्रीकृष्णकी ही आज्ञासे मङ्गलमय पाताललोकमें जाऊँगी। यद्यपि तुम्हारे वियोगके भयसे मैं बहुत व्याकुल हूँ, तो भी इस समय तुम्हारे साथ चलनेमें असमर्थ हूँ। व्रजके रासमण्डलमें मैं भी तुम्हारे यूथमें सम्मिलित होकर रहूँगी। हरिप्रिये ! मैंने भी यदि कोई अप्रिय बात कह दी हो तो उसके लिये मुझे क्षमा कर देना ॥ २८–२९ ॥

 

सन्नन्दजी कहते हैं— इस प्रकार एक-दूसरेको प्रणाम करके दोनों नदियाँ तुरंत अपने-अपने गन्तव्य पथपर चली गयीं । सुरधुनी गङ्गाजी अनेक लोकोंको पवित्र करती हुई पातालमें चली गयीं और वहाँ भोगवती वनमें जाकर 'भोगवती गङ्गा'के नामसे प्रसिद्ध हुईं। उन्हींका जल भगवान् शंकर और शेषनाग अपने मस्तक पर धारण करते हैं । ३०-३१ ॥

 

इधर कृष्णा अपने वेगसे सप्तसागर-मण्डलका भेदन करके सातों द्वीपोंके भूभागपर लोटती हुई और भी प्रखर वेगसे आगे बढ़ी। सुवर्णमयी भूमिपर पहुँचकर लोकालोक पर्वतपर गयीं। उसके शिखरों तथा गण्डशैलों (टूटी चट्टानों) के तटका भेदन करके कालिन्दी फुहारेकी-सी जलधाराके साथ उछलकर लोकालोक पर्वतके शिखरपर जा पहुँचीं। फिर वहाँसे ऊर्ध्वगमन करती हुई स्वर्गवासियोंके स्वर्गलोकतक जा पहुँचीं ।। ३२-३४ ॥

 

फिर ब्रह्मलोकतकके समस्त लोकोंको लाँघकर श्रीहरिके पदचिह्नसे लाञ्छित श्रीब्रह्मद्रवसे युक्त ब्रह्माण्डविवरसे होती हुई आगे बढ़ गयीं। उस समय समस्त देवता प्रणाम करते हुए उनके ऊपर फूलोंकी वर्षा कर रहे थे। इस तरह सरिताओंमें श्रेष्ठ यमुना पुनः श्रीकृष्णके गोलोकधाममें आरूढ़ हो गयीं। कलिन्दगिरिनन्दिनी यमुनाके इस मङ्गलमय नूतन चरित्रका भूतलपर यदि श्रवण या पठन किया जाय तो वह उत्तम मङ्गलका विस्तार करता है। यदि कोई भी मनुष्य इस चरित्रको मनमें धारण करे और प्रतिदिन पढ़े तो वह भगवान्‌की निकुञ्जलीला के द्वारा वरण किये गये उनके परमपद — गोलोकधाममें पहुँच जाता है ।। ३५ - ३७ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीवृन्दावनखण्डके अन्तर्गत नन्द-सन्नन्द-संवाद में 'कालिन्दीके आगमनका वर्णन' नामक तीसरा अध्याय पूरा हुआ ॥ ३ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध अठारहवां अध्याय..(पोस्ट..०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध- अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०७)

राजा परीक्षत् को शृङ्गी ऋषिका शाप

तस्य पुत्रोऽतितेजस्वी विहरन् बालकोऽर्भकैः ।
राज्ञाघं प्रापितं तातं श्रुत्वा तत्रेदमब्रवीत् ॥ ३२ ॥
अहो अधर्मः पालानां पीव्नां बलिभुजामिव ।
स्वामिन्यघं यद् दासानां द्वारपानां शुनामिव ॥ ३३ ॥
ब्राह्मणैः क्षत्रबन्धुर्हि गृहपालो निरूपितः ।
स कथं तद्‍गृहे द्वाःस्थः सभाण्डं भोक्तुमर्हति ॥ ३४ ॥
कृष्णे गते भगवति शास्तर्युत्पथगामिनाम् ।
तद् भिन्नसेतूनद्याहं शास्मि पश्यत मे बलम् ॥ ३५ ॥
इत्युक्त्वा रोषताम्राक्षो वयस्यान् ऋषिबालकः ।
कौशिक्याप उपस्पृश्य वाग्वज्रं विससर्ज ह ॥ ३६ ॥
इति लङ्‌घितमर्यादं तक्षकः सप्तमेऽहनि ।
दङ्क्ष्यति स्म कुलाङ्गारं चोदितो मे ततद्रुहम् ॥ ३७ ॥

उन शमीक मुनिका पुत्र बड़ा तेजस्वी था। वह दूसरे ऋषिकुमारों के साथ पास ही खेल रहा था। जब उस बालकने सुना कि राजाने मेरे पिता के साथ दुर्व्यवहार किया है, तब वह इस प्रकार कहने लगा— ॥ ३२ ॥ ‘ये नरपति कहलानेवाले लोग उच्छिष्टभोजी कौओं के समान संड-मुसंड होकर कितना अन्याय करने लगे हैं ! ब्राह्मणोंके दास होकर भी ये दरवाजेपर पहरा देनेवाले कुत्ते के समान अपने स्वामी का ही तिरस्कार करते हैं ॥ ३३ ॥ ब्राह्मणों ने क्षत्रियों को अपना द्वारपाल बनाया है। उन्हें द्वारपर रहकर रक्षा करनी चाहिये, घरमें घुसकर स्वामी के बर्तनों में खाने का उसे अधिकार नहीं है ॥ ३४ ॥ अतएव उन्मार्गगामियों के शासक भगवान्‌ श्रीकृष्णके परमधाम पधार जानेपर इन मर्यादा तोडऩेवालों को आज मैं दण्ड देता हूँ। मेरा तपोबल देखो’ ॥ ३५ ॥ अपने साथी बालकों से इस प्रकार कहकर क्रोधसे लाल-लाल आँखोंवाले उस ऋषिकुमार ने कौशिकी नदीके जलसे आचमन करके अपने वाणीरूपी वज्रका प्रयोग किया ॥ ३६ ॥ ‘कुलाङ्गार परीक्षित्‌ ने मेरे पिताका अपमान करके मर्यादाका उल्लङ्घन किया है, इसलिये मेरी प्रेरणासे आजके सातवें दिन उसे तक्षक सर्प डस लेगा’ ॥ ३७ ॥

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शनिवार, 15 जून 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) तीसरा अध्याय ( पोस्ट 02 )

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

तीसरा अध्याय ( पोस्ट 02 )

 

श्रीयमुनाजी का गोलोक से अवतरण और पुनः गोलोकधाम में प्रवेश

 

परिपूर्णतमं साक्षाच्छ्रीकृष्णं वरमिच्छती ।
धृत्वा वपुः परं दिव्यं तपस्तेपे कलिन्दजा ॥ १४ ॥
पित्रा विनिर्मिते गेहे जलेऽद्यापि समाश्रिता ।
ततो वेगेन कालिन्दी प्राप्ताभूद्‌व्रजमंडले ॥ १५ ॥
वृन्दावनसमीपे च मथुरानिकटे शुभे ।
श्रीमहावनपार्श्वे च सैकते रमणस्थले ॥ १६ ॥
श्रीगोकुले च यमुना यूथीभूत्वातिसुंदरी ।
श्रीकृष्णचंद्ररासार्थं निजवासं चकार ह ॥ १७ ॥
अथो व्रजाद्‌व्रजंती सा व्रजविक्षेपविह्वला ।
प्रेमानन्दाश्रुसंयुक्ता भूत्वा पश्चिमवाहिनी ॥ १८ ॥
ततस्त्रिवारं वेगेन नत्वाथो व्रजमंडले ।
देशान् पुनन्ती प्रययौ प्रयागं तीर्थसत्तमम् ॥ १९ ॥
पुनः श्रीगंगया सार्धं क्षीराब्धिं सा जगाम ह ।
देवाः सुवर्षं पुष्पाणां चक्रुर्दिवि जयध्वनिम् ॥ २० ॥
कृष्णा श्रीयमुना साक्षात् कालिन्दी सरितां वरा ।
समुद्रमेत्य श्रीगंगां प्राह गद्‌गदया गिरा ॥ २१ ॥


यमुनोवाच -
हे गंगे त्वं तु धन्याऽसि सर्वब्रह्माण्डपावनी ।
कृष्णपादाब्जसंभूता सर्वलोकैकवन्दिता ॥ २२ ॥
ऊर्ध्वं यामि हरेर्लोकं गच्छ त्वमपि हे शुभे ।
त्वत्समानं हि दिव्यं च न भूतं न भविष्यति ॥ २३ ॥

सर्वतीर्थमयी गंगा तस्मात्त्वां प्रणमाम्यहम् ।
यत्किंचिद्वा प्रकथितं तत्क्षमस्व सुमंगले ॥ २४ ॥

यमुनाजी साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण को अपना पति बनाना चाहती थीं, इसलिये वे परम दिव्य देह धारण करके खाण्डववन में तपस्या करने लगीं। यमुना के पिता भगवान् सूर्य ने जल के भीतर ही एक दिव्य गेह का निर्माण कर दिया था, जिसमें आज भी वे रहा करती हैं। खाण्डववन से वेगपूर्वक चलकर कालिन्दी व्रजमण्डल में श्रीवृन्दावन और मथुराके  निकट आ पहुँचीं। महावनके पास सिकतामय रमण- स्थलमें भी प्रवाहित हुईं ।। १४-१६ ॥

 

श्रीगोकुलमें आनेपर परम सुन्दरी यमुना ने (विशाखा सखी के नाम से) अपने नेतृत्व में गोप-किशोरियों का एक यूथ बनाया और श्रीकृष्णचन्द्रके रासमें सम्मिलित होनेके लिये उन्होंने वहीं अपना निवासस्थान निश्चित कर लिया । तदनन्तर वे जब व्रज से आगे जाने लगीं, तब व्रजभूमिके वियोगसे विह्वल हो, प्रेमानन्दके आँसू बहाती हुई पश्चिम दिशाकी ओर प्रवाहित हुईं ।। तदनन्तर व्रजमण्डलकी भूमिको अपने वारि-वेगसे तीन बार प्रणाम करके यमुना अनेक देशोंको पवित्र करती हुई उत्तम तीर्थ प्रयाग में जा पहुँचीं ।। १७ - १९ ॥

 

वहाँ गङ्गाजी के साथ उनका संगम हुआ और वे उन्हें साथ लेकर क्षीरसागर की ओर गयीं। उस समय देवताओं ने उनके ऊपर फूलों की वर्षा की और दिग्विजयसूचक जयघोष किया । नदीशिरोमणि कलिन्दनन्दिनी कृष्णवर्णा श्रीयमुना ने समुद्रतक पहुँचकर गद्गद वाणी में श्रीगङ्गा से कहा ॥ २० – २१ ॥

 

यमुनाने कहा – समस्त ब्रह्माण्डको पवित्र करनेवाली गङ्गे ! तुम धन्य हो । साक्षात् श्रीकृष्णके चरणारविन्दोंसे तुम्हारा प्रादुर्भाव हुआ हैं, अतः तुम समस्त लोकोंके लिये एकमात्र वन्दनीया हो । शुभे ! अब मैं यहाँसे ऊपर उठकर श्रीहरिके लोकमें जा रही हूँ । तुम्हारी इच्छा हो तो तुम भी मेरे साथ चलो ! तुम्हारे समान दिव्य तीर्थ न तो हुआ है और न आगे होगा ही । गङ्गा (आप) सर्वतीर्थमयी हैं, अतः सुमङ्गले गङ्गे ! मैं तुम्हें प्रणाम करती हूँ । यदि मैंने कभी कोई अनुचित बात कही हो तो उसके लिये मुझे क्षमा कर देना ।। २२-२४ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०२) विराट् शरीर की उत्पत्ति हिरण्मयः स पुरुषः सहस्रपरिवत्सर...