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शनिवार, 22 जून 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध उन्नीसवां अध्याय..(पोस्ट ०४)
शुक्रवार, 21 जून 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) पाँचवाँ अध्याय ( पोस्ट 03 )
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
पाँचवाँ
अध्याय ( पोस्ट 03 )
वकासुरका
उद्धार
तदा
मृतस्य दैतस्य ज्योतिः कृष्णे समाविशत् ।
देवता ववृषुः पुष्पैः जयारावैः समन्विताः ॥ २५ ॥
गोपाला विस्मिताः सर्वे कृष्णं संश्लिष्य सर्वतः ।
ऊचुस्त्वं कुशलीभूतो मुक्तो मृत्युमुखात्सखे ॥ २६ ॥
एवं कृष्णो बकं हत्वा सबलो बालकैः सह ।
गोवत्सैर्हर्षितो गायन्नाययौ राजमंदिरे ॥ २७ ॥
परिपूर्णतमस्यास्य श्रीकृष्णस्य महात्मनः ।
जगुर्गृहे गता बालाः श्रुत्वेदं तेऽतिविस्मिताः ॥ २८ ॥
श्रीबहुलाश्व उवाच -
कोऽयं दैत्यः पूर्वकाले कस्मात्केन बकोऽभवत् ।
पूर्णब्रह्मणि सर्वेशे श्रीकृष्णे लीनतां गतः ॥ २९ ॥
श्रीनारद उवाच -
हयग्रीवसुतो दैत्य उत्कलो नाम हे नृप ।
रणेऽमरान् विनिर्जित्य शक्रछत्रं जहार ह ॥ ३० ॥
तथा नृणां नृपाणां च राज्यं हृत्वा महाबलः ।
चकार वर्षाणि शतं राज्यं सर्वविभूतिमत् ॥ ३१ ॥
एकदा विचरन् दैत्यः सिंधुसागरसंगमे ।
जाजलेर्मुनिसिद्धस्य पर्णशालासमीपतः ॥ ३२ ॥
जले निक्षिप्य बडिशं मीनानाकर्षयन् मुहुः ।
निषेधितोऽपि मुनिना नामन्यत स दुर्मतिः ॥ ३३ ॥
तस्मै शापं ददौ सिद्धो जाजलिर्मुनिसत्तमः ।
बकवत्त्वं झषानत्सि त्वं बको भव दुर्मते ॥ ३४ ॥
तत्क्षणाद्बकरूपोऽभूद्भ्रष्टतेजा गतस्मयः ।
पतितः पादयोस्तस्य नत्वा प्राह कृतांजलिः ॥ ३५ ॥
उस
समय मृत्यु को प्राप्त हुए दैत्य की देह से एक ज्योति निकली और श्रीकृष्ण में समा
गयी । फिर तो देवता जय-जयकार करते हुए दिव्य पुष्पों की वर्षा करने लगे । तब समस्त
ग्वाल-बाल आश्चर्यचकित हो, सब ओर से आकर
श्रीकृष्ण से लिपट गये और बोले- 'सखे ! आज तो तुम मौत के मुख
से कुशलपूर्वक निकल आये' ।। २५-२६ ॥
इस
प्रकार वकासुर को मारने के पश्चात् बछड़ों को आगे करके श्रीकृष्ण बलराम और
ग्वाल-बालों के साथ गीत गाते हुए सहर्ष राजभवनमें लौट आये । परिपूर्णतम परमात्मा
श्रीकृष्णके इस पराक्रमपूर्ण चरित्र का घर लौटे हुए ग्वाल-बालोंने विस्तारपूर्वक
वर्णन किया। उसे सुनकर समस्त गोप अत्यन्त विस्मित हुए ।। २७-२८ ।।
बहुलाश्वने
पूछा- देवर्षे ! यह वकासुर पूर्वकालमें कौन था और किस कारणसे उसको बगुलेका शरीर
प्राप्त हुआ था ? वह पूर्णब्रह्म
सर्वेश्वर श्रीकृष्णमें लीन हुआ, यह कितने सौभाग्य- की बात
है ! ॥ २९ ॥
श्रीनारदजीने
कहा- नरेश्वर ! 'हयग्रीव' नामक दैत्यके एक पुत्र था, जो 'उत्कल' नाम से प्रसिद्ध हुआ । उसने समराङ्गण में
देवताओं को परास्त करके देवराज इन्द्र के छत्र को छीन लिया था । उस महाबली दैत्य ने
और भी बहुत-से मनुष्यों तथा नरेशों की राज्य-सम्पत्ति का अपहरण करके सौ वर्षों- तक
सर्ववैभवसम्पन्न राज्य का उपभोग किया ।। ३०-३१ ॥
एक
दिन इधर-उधर विचरता हुआ दैत्य उत्कल गङ्गा- सागरसंगम पर सिद्ध मुनि जाजलिकी
पर्णशालाके समीप गया और पानी में बंसी डालकर बारंबार मछलियों को पकड़ने लगा ।
यद्यपि मुनि ने मना किया, तथापि उस दुर्बुद्धि ने
उनकी बात नहीं मानी। मुनिश्रेष्ठ जाजलि सिद्ध महात्मा थे, उन्होंने
उत्कल को शाप देते हुए कहा- 'दुर्मते ! तू बगुले की भाँति
मछली पकड़ता और खाता है, इसलिये बगुला ही हो जा।' फिर क्या था ? उत्कल उसी क्षण बगुले के रूप में
परिणत हो गया। तेजोभ्रष्ट हो जानेके कारण उसका सारा गर्व गल गया। उसने हाथ जोड़कर
मुनिको प्रणाम किया और उनके दोनों चरणों में पड़कर कहा ॥३२-३५॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध उन्नीसवां अध्याय..(पोस्ट ०३)
गुरुवार, 20 जून 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) पाँचवाँ अध्याय ( पोस्ट 02 )
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
पाँचवाँ
अध्याय ( पोस्ट 02 )
वकासुरका
उद्धार
धनदस्तं
च खड्गेन सुतीक्ष्णेन जघान ह ।
छिन्नद्वितीयपक्षोऽभूतन्न मृतो दैत्यपुंगवः ॥ १२ ॥
नीहारास्त्रेण तं सोमः संजघान महाबकम् ।
शीतार्त्तो मूर्छितो दैत्यो न मृतः पुनरुत्थितः ॥ १३ ॥
आग्नेयास्त्रेण तं ह्यग्निः सन्तताड महाबकम् ।
भस्मरोमाभवद्दैत्यो न ममार महाखलः ॥ १४ ॥
अपां पतिस्तं पाशेन बद्ध्वा कौ विचकर्ष ह ।
कर्षणात्स महापापः छिन्नोऽभूतन्न मृतश्च वै ॥ १५ ॥
तताड गदया तं वै भद्रकाली तरस्विनी ।
मूर्छितस्तत् प्रहारेण परं कश्मलतां ययौ ॥ १६ ॥
क्षतमूर्धा समुत्थाय विधुन्वन् स्वतनुं पुनः ।
जगर्ज घनवद्वीरो बको दैत्यो महाखलः ॥ १७ ॥
तदा शक्तिधरः शक्तिं तस्मै चिक्षेप सत्वरः ।
तयैकपादो भग्नोऽभून्न मृतः पक्षिणां वरः ॥ १८ ॥
तदा क्रोधेन सहसा धावन् दैत्यस्तडित्स्वनः ।
देवान् विद्रावयामास स्वचंच्वा तीक्ष्णतुण्डया ॥ १९ ॥
अग्रे पलायितान् देवानन्वधावद्बकोऽम्बरे ।
पुनस्तत्र गतो दैत्यो नादयन्मंडलं दिशाम् ॥ २० ॥
तदा देवर्षयः सर्वे सर्वे ब्रह्मर्षयो द्विजाः ।
श्रीनन्दनन्दनायाशु सफलां चाशिषं ददुः ॥ २१ ॥
तदैव कृष्णस्तन्मध्ये ततान वपुरुज्ज्वलम् ।
चच्छर्द कृष्णं सहसा क्षतकंठो महाबकः ॥ २२ ॥
पुनः कृष्णं समाहर्तुं तीक्ष्णया तुंडयाऽगतम् ।
पुच्छे गृहीत्वा तं कृष्णः पोथयामास भूतले ॥ २३ ॥
पुनरुत्थाय तुण्डं स्वं प्रसार्य्यावस्थितं बकम् ।
ददार तुंडे हस्ताभ्यां कृष्णः शाखां गजो यथा ॥ २४ ॥
तब
कुबेर ने तीखी तलवार से उसके ऊपर चोट की। इससे उसकी दूसरी पाँख भी कट गयी,
किंतु वह दैत्यपुंगव मृत्युको नहीं प्राप्त हुआ। तदनन्तर सोमदेवता ने
उस महावकपर नीहारास्त्र का प्रयोग किया। उसके प्रहार से शीतपीड़ित हो वकासुर
मूर्च्छित तो हो गया, किंतु मरा नहीं, फिर
उठकर खड़ा हो गया ।। १२-१३ ॥
अब
अग्निदेवता ने उस महावकपर आग्नेयास्त्र- से प्रहार किया;
इससे उसके रोएँ जल गये, परंतु उस महादुष्ट
दैत्यकी मृत्यु नहीं हुई। तत्पश्चात् जलके स्वामी वरुणने उसको पाशसे बाँधकर धरतीपर
घसीटा। घसीटनेसे वह महापापी असुर क्षत-विक्षत हो गया; किंतु
मरा नहीं ॥ १४-१५ ॥
तदनन्तर
वेगशालिनी भद्रकालीने आकर उसपर गदासे प्रहार किया । गदाके प्रहारसे मूर्च्छित हो
वकासुर अत्यन्त वेदनाके कारण सुध-बुध खो बैठा। उसके मस्तकपर चोट पहुँची थी,
तथापि वह अपने शरीरको कँपाता और फड़फड़ाता हुआ फिर उठकर खड़ा हो गया
और वह महादुष्ट दैत्य धीरतापूर्वक समराङ्गणमें स्थित हो मेघोंकी भाँति गर्जना करने
लगा। उस समय शक्तिधारी स्कन्दने बड़ी उतावलीके साथ उसके ऊपर अपनी शक्ति चलायी।
उसके प्रहारसे उस पक्षिप्रवर असुरकी एक टॉंग टूट गयी, किंतु
वह मर न सका । तदनन्तर विद्युत्की गड़गड़ाहटके समान गर्जना करते हुए उस दैत्यने
सहसा क्रोधपूर्वक धावा किया और अपनी तीखी चोंच से मार-मारकर सब देवताओंको खदेड़
दिया। आकाशमें आगे-आगे देवता भाग रहे थे और पीछे से वकासुर उन्हें खदेड़ रहा था ।
इसके बाद वह दैत्य पुनः वहीं लौट आया और समस्त दिङ्मण्डल को अपने सिंहनाद से
निनादित करने लगा ॥ १६-२० ॥
उस
समय समस्त देवर्षियों, ब्रह्मर्षियों तथा
द्विजोंने श्रीनन्दनन्दनको शीघ्र ही सफल आशीर्वाद प्रदान किया। उसी समय
श्रीकृष्णने वकासुरके शरीरके भीतर अपने ज्योतिर्मय दिव्य देह को बढ़ाकर विस्तृत कर
लिया। फिर तो उस महावक का कण्ठ फटने लगा और उसने सहसा श्रीकृष्ण को उगल दिया ।। २१-२२
॥
फिर
तीखी चोंच से श्रीकृष्ण को पकड़नेके लिये जब वह पास आया,
तब श्रीकृष्णने झपटकर उसकी पूँछ पकड़ ली और उसे पृथ्वीपर दे मारा;
किंतु वह पुनः उठकर चोंच फैलाये उनके सामने खड़ा हो गया। तब
श्रीकृष्णने दोनों हाथोंसे उसकी दोनों चोंचें पकड़ लीं और जैसे हाथी किसी वृक्षकी
शाखाको चीर डाले, उसी तरह उसे विदीर्ण कर दिया ॥ २३ - २४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध उन्नीसवां अध्याय..(पोस्ट ०२)
बुधवार, 19 जून 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) पाँचवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
पाँचवाँ
अध्याय ( पोस्ट 01 )
वकासुरका
उद्धार
एकदा
चारयन् वत्सान् सरामो बालकैर्हरिः ।
यमुनानिकटे प्राप्तं बकं दैत्यं ददर्श ह ॥ १ ॥
श्वेतपर्वतसंकाशो बृहत्पादो घनध्वनिः ।
पलायितेषु बालेषु वज्रतुंडोऽग्रसद्धरिम् ॥ २ ॥
रुदन्तो बालकाः सर्वे गतप्राणा इवाभवन् ।
हाहाकारं तदा कृत्वा देवाः सर्वे समागताः ॥ ३ ॥
इंद्रो वज्रं तदा नीत्वा तं तताड महाबलम् ।
तेन घातेन पतितो न ममार समुत्थितः ॥ ४ ॥
ब्रह्मापि ब्रह्मदंडेन तं तताड महाबकम् ।
तेन घातेन पतितो मूर्छितो घटिकाद्वयम् ॥ ५ ॥
विधुन्वन् स्वतनुं वेगातज्जृम्भितः पुनरुत्थितः ।
न ममार तदा दैत्यो जगर्ज घनवद्बली ॥ ६ ॥
त्रिलोचनस्त्रिशूलेन तं जघान महासुरम् ।
छिन्नैकपक्षो दैत्योऽपि न मृतोऽतिभयंकरः ॥ ७ ॥
वायव्यास्त्रेण वायुस्तं संजघान बकमतः ।
उच्चचाल बकस्तेन पुनस्तत्र स्थितोऽभवत् ॥ ८ ॥
यमस्तं यमदण्डेन ताडयामास चाग्रतः ।
तेन दण्डेन न मृतो बको वै चण्डविक्रमः ॥ ९ ॥
दण्डोऽपि भग्नतां प्रागात् स क्षतो नाभवद् बकः ।
तदैव चाग्रतः प्राप्तश्चण्डांशुश्चण्डविक्रमः ॥ १० ॥
शतबाणैर्बकं दैत्यं संजघान धनुर्धरः ।
तीक्ष्णैः पक्षगतैर्बाणैर्न ममार बकस्ततः ॥ ११ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- एक दिन बलराम तथा ग्वाल-बालोंके साथ बछड़े चराते हुए श्रीहरिने यमुनाके
निकट आये हुए वकासुरको देखा। वह श्वेत पर्वतके समान ऊँचा दिखायी देता था।
बड़ी-बड़ी टाँगें और मेघ गर्जनके समान ध्वनि ! उसे देखते ही ग्वाल-बाल डरके मारे
भागने लगे। उसकी चोंच वज्रके समान तीखी थी। उसने आते ही श्रीहरिको अपना ग्रास बना
लिया। यह देख सब ग्वाल-बाल रोने लगे। रोते-रोते वे निष्प्राण से हो गये । उस समय
हाहाकार करते हुए सब देवता वहाँ आ पहुँचे ।। १-५ ॥
इन्द्रने
तत्काल वज्र चलाकर उस महान् वकपर प्रहार किया । वज्रकी चोटसे वकासुर धरतीपर गिर
पड़ा,
किंतु मरा नहीं। वह फिर उठकर खड़ा हो गया। तब ब्रह्माजीने भी कुपित
होकर उसे ब्रह्मदण्डसे मारा। उस आघातसे गिरकर वह असुर दो घड़ीतक मूर्च्छित पड़ा
रहा ।। ४-५ ॥
फिर
अपने शरीरको कँपाता हुआ जँभाई लेकर वह बड़े वेगसे उठ खड़ा हुआ। उसकी मृत्यु नहीं
हुई। वह बलवान् दैत्य मेघके समान गर्जना करने लगा । इसी समय त्रिनेत्रधारी भगवान्
शंकरने उस महान् असुरपर त्रिशूलसे प्रहार किया। उस प्रहारसे दैत्यकी एक पाँख कट
गयी,
तो भी वह महाभंयकर असुर मर न सका । तदनन्तर वायुदेवने वकासुरपर
वायव्यास्त्र चलाया; उससे वह कुछ ऊपरकी ओर उठ गया, परंतु पुनः अपने स्थानपर आकर खड़ा हो गया ।। ६-८ ॥
इसके
बाद यम ने सामने आकर उसपर यमदण्ड से प्रहार किया, परंतु प्रचण्ड पराक्रमी वकासुरकी उस दण्डसे भी मृत्यु नहीं हुई। यमराज का
वह दण्ड भी टूट गया, किंतु वकासुर को कोई क्षति नहीं पहुँची।
इतनेमें ही प्रचण्ड किरणोंवाले
चण्डपराक्रमी सूर्यदेव उसके सामने आये। उन्होंने धनुष हाथ में लेकर वकासुर को सौ
बाण मारे । वे तीखे बाण उसकी पाँख में धँस गये, फिर भी वह मर
न सका ।। ९-११ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध उन्नीसवां अध्याय..(पोस्ट ०१)
मंगलवार, 18 जून 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) चौथा अध्याय ( पोस्ट 02 )
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
चौथा
अध्याय ( पोस्ट 02 )
श्रीबलराम
और श्रीकृष्णके द्वारा बछड़ों का चराया जाना तथा वत्सासु रका उद्धार
एकदा वत्सवृन्देषु प्राप्तं वत्सासुरं
नृप ।
कंसप्रणोदितं ज्ञात्वा शनैस्तत्र जगाम ह ॥ १८ ॥
धावन् गोपेषु सर्वत्र लांगूलं चालयन्मुहुः ।
दैत्यः पश्चिमपादाभ्यां हरिमंसे तताड ह ॥ १९ ॥
पलायितेषु बालेषु कृष्णस्तं पादयोर्द्वयोः ।
गृहीत्वा भ्रामयित्वाश्च पातयामास भूतले ॥ २० ॥
पुनर्नीत्वा कराभ्यां तं कपित्थे प्राहिणोद् हरिः ।
तदा मृत्युं गते दैत्ये कपित्थोऽपि महाद्रुमः ॥ २१ ॥
कपित्थान् पातयामास तदद्भुतमिवाभवत् ।
विस्मितेषु च बालेषु साधु साध्विति वादिषु ॥ २२ ॥
दिवि देवा जयारावैः पुष्पवर्षं प्रचक्रिरे ।
तद्दैत्यस्य महज्ज्योतिः कृष्णे लीनं बभूव ह ॥ २३ ॥
श्रीबहुलाश्व उवाच -
अहो पूर्वं सुकृतकृत्कोऽयं वत्सासुरो मुने ।
श्रीकृष्णे लीनतां प्राप्तः श्रीप्रपूर्णे परात्परे ॥ २४ ॥
श्रीनारद उवाच -
मुरुपुत्रो महादैत्यः प्रमीलो नाम देवजित् ।
वसिष्ठस्याश्रमे प्राप्तो नन्दिनीं गां ददर्श ह ॥ २५ ॥
तल्लिप्सुर्ब्राह्मणो भूत्वा ययाचे गां मनोहराम् ।
तूष्णीं स्थिते गौरुवाच वसिष्ठे दिव्यदर्शने ॥ २६ ॥
नन्दिनी उवाच -
मुनीनां गां समाहर्तुं भूत्वा विप्रः समागतः ।
दैत्योऽसि मुरुजस्तस्माद्गोवत्सो भव दुर्मते ॥ २७ ॥
श्रीनारद उवाच -
तदैव वत्सरूपोऽभून्मुरुपुत्रो महासुरः ।
वसिष्ठं गां परिक्रम्य नत्वा त्राहीत्युवाच ह ॥ २८ ॥
गौरुवाच -
द्वापरान्ते महादैत्य वृंदारण्ये यदा तव ।
गोवत्सेषु गतस्यापि तदा मुक्तिर्भविष्यति ॥ २९ ॥
श्रीनारद उवाच -
परिपूर्णतमे साक्षाच्छ्रीकृष्णे पतितपावने ।
तस्मात् वत्सासुरो दैत्यो लीनोऽभूत् न हि विस्मयः ॥ ३० ॥
नरेश्वर
! एक दिन उनके बछड़ों के झुंड में कंस का भेजा हुआ वत्सासुर आकर मिल गया।
श्रीकृष्ण को यह बात विदित हो गयी और वे उसके पास गये। वह दैत्य गोप-बालकों के
बीचमें सब ओर पूँछ उठाकर बार-बार दौड़ता
हुआ दिखायी देता था । उसने अचानक आकर अपने पिछले पैरोंसे श्रीकृष्णके कंधोंपर
प्रहार किया । अन्य गोप-बालक तो भाग चले, किंतु
श्रीकृष्ण ने उसके दोनों पैर पकड़ लिये और उसे घुमाकर धरती पर पटक दिया ।। १८-२० ॥
इसके
बाद श्रीहरि- ने फिर उसे हाथोंसे उठाकर कपित्थ वृक्षपर दे मारा। फिर तो वह दैत्य
तत्काल मर गया। उसके धक्केसे महान् कपित्थ वृक्षने स्वयं गिरकर दूसरे दूसरे
वृक्षोंको भी धराशायी कर दिया । यह एक अद्भुत-सी बात हुई । समस्त ग्वालबाल
आश्चर्यसे चकित हो कन्हैया- को वहाँ साधुवाद देने लगे। देवतालोग आकाश में खड़े हो
जय-जयकार करते हुए फूल बरसाने लगे । उस दैत्य की विशाल ज्योति श्रीकृष्णमें लीन हो
गयी ।। २१ - २३ ॥
बहुलाश्वने
पूछा- मुने ! यह तो बड़े आश्चर्यकी बात है। बताइये तो,
इस वत्सासुरके रूपमें पहले का कौन-सा पुण्यात्मा पुरुष प्रकट हो गया
था, जो परि-पूर्णतम परमात्मा श्रीकृष्णमें विलीन हुआ ?
॥ २४ ॥
श्रीनारदजी
बोले - राजन् ! मुर के एक पुत्र था, जो
महादैत्य 'प्रमील' के नाम से विख्यात
था। उसने देवताओंको भी युद्धमें जीत लिया था। एक दिन वह वसिष्ठ मुनिके आश्रमपर
गया। वहाँ उसने मुनि की होमधेनु नन्दिनी को देखा। उसे पाने की इच्छा से वह
ब्राह्मण का रूप धारण करके मुनि के पास गया और उस मनोहर गौ के लिये याचना करने
लगा। महर्षि दिव्य दर्शी थे; अतः सब कुछ जानकर भी चुप रह गये,
कुछ बोले नहीं। तब गौ ने स्वयं कहा ।।२५-२६॥
श्रीनन्दिनी
बोली- दुर्मते ! तू मुरका पुत्र दैत्य है, तो
भी मुनियोंकी गौका अपहरण करनेके लिये ब्राह्मण बनकर आया है; अतः
गाय का बछड़ा हो जा ॥ २७ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं— राजन् ! नन्दिनीके इतना कहते ही वह मुरपुत्र महान् गोवत्स बन गया । तब
उसने मुनिवर वसिष्ठ तथा उस गौकी परिक्रमा एवं प्रणाम करके कहा- 'मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये ॥ २८ ॥
गौ
बोली- महादैत्य ! द्वापरके अन्तमें जब तू श्रीकृष्णके बछड़ोंमें घुस जायगा,
उस समय तेरी मुक्ति होगी ॥ २९ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- उसी शाप और वरदानके कारण परिपूर्णतम पतितपावन साक्षात् भगवान्
श्रीकृष्णमें दैत्य वत्सासुर विलीन हुआ। इसमें विस्मयकी कोई बात नहीं है ॥ ३० ॥
इस
प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीवृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'वत्सासुरका मोक्ष' नामक चौथा अध्याय पूरा हुआ ॥ ४ ॥
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा
प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260
से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध अठारहवां अध्याय..(पोस्ट..०९)
सोमवार, 17 जून 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) चौथा अध्याय ( पोस्ट 01 )
श्रीगर्ग-संहिता
( श्रीवृन्दावनखण्ड
)
चौथा अध्याय ( पोस्ट
01 )
श्रीबलराम और
श्रीकृष्णके द्वारा बछड़ों का चराया जाना तथा वत्सासु रका उद्धार
सन्नन्दस्य
वचः श्रुत्वा गन्तुं नन्दः समुद्यतः ।
सर्वैर्गोपगणैः सार्धं मुदितोऽभून्महामनाः ॥ १ ॥
यशोदया च रोहिण्या सर्वगोपीगणैः सह ।
अश्वै रथैर्वीरजनैर्मण्डितो विप्रमंडलैः ॥ २ ॥
गोभिश्च शकटैर्युक्तो वृद्धैर्बालैस्तथानुगैः ।
गायकैर्गीयमानश्च शंखदुंदुभिनिःस्वनैः ॥ ३ ॥
पुत्राभ्यां रामकृष्णाभ्यां नन्दराजो महामतिः ।
रथमारुह्य हे राजन् वनं वृंदावनं ययौ ॥ ४ ॥
वृषभानुवरो गोपो गजमारुह्य भार्यया ।
अंके नीत्वा सुतां राधां गीयमानश्च गायकैः ॥ ५ ॥
मृदंगतालवीणानां वेणूनां कलनिःस्वनैः ।
गोपालगोगणैः सार्धं वृन्दारण्यं जगाम ह ॥ ६ ॥
उपनन्दास्तथा नन्दाः तथा षड् वृषभानवः ।
सर्वैः परिकरैः सार्धं जग्मुर्वृन्दावनं वनम् ॥ ७ ॥
वृंदावने संप्रविश्य गोपाः सर्वे सहानुगाः ।
घोषान् विधाय वसतीर्वासं चक्रुरितस्ततः ॥ ८ ॥
सभामण्डपसंयुक्तं सदुर्गं परिखायुतम् ।
चतुर्योजनविस्तीर्णं सप्तद्वारसमन्वितम् ॥ ९ ॥
सरोवरैः परिवृतं राजमार्गं मनोहरम् ।
सहस्रकुञ्जं च पुरं वृषभानुरचीकॢपत् ॥ १० ॥
श्रीकृष्णो नन्दनगरे वृषभानुपुरेऽर्भकैः ।
चचार क्रीडनपरो गोपीनां प्रीतिमावहन् ॥ ११ ॥
अथ वृन्दावने राजन् सर्वगोपालसम्मतौ ।
बभूवतुर्वत्सपालौ रामकृष्णौ मनोहरौ ॥ १२ ॥
चारयामासतुर्वत्सान् ग्रामसीम्न्यर्भकैः सह ।
कालिन्दीनिकटे पुण्ये पुलिने रामकेशवौ ॥ १३ ॥
निकुञ्जेषु च कुञ्जेषु सम्प्रलीनावितस्ततः ।
रिङ्गमाणौ च कुत्रापि नन्दंतौ चेरतुर्वने ॥ १४ ॥
किंकिणीजालसंयुक्तौ सिञ्चन्मञ्जीरनूपुरौ ।
नीलपीताम्बरधरौ हारकेयूरभूषितौ ॥ १५ ॥
क्षेपणैः क्षिपतौ बालैर्वंशीवादनतत्परौ ।
मुखेन किंकिणीशब्दं कुर्वद्भिर्बालकैश्च तौ ॥ १६ ॥
धावन्तौ पक्षिभिश्छायां रेजतू रामकेशवौ ।
मयूरपक्षसंयुक्तौ पुष्पपल्लवभूषितौ ॥ १७ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं— राजन् ! सन्नन्दकी बात सुनकर महामना नन्दराज समस्त गोपगणोंके साथ बड़े
प्रसन्न हुए और वृन्दावनमें जानेको तैयार हो गये। यशोदा,
रोहिणी तथा समस्त गोपाङ्गनाओंके साथ घोड़ों, रथों,
वीर पुरुषों तथा विप्रमण्डलीसे मण्डित हो, परम
बुद्धिमान् नन्दराज दोनों पुत्र बलराम और श्रीकृष्ण- सहित रथपर आरूढ़ हो
वृन्दावनकी ओर चल दिये। उनके साथ गौओंका समुदाय भी था । बूढ़े, बालक और सेवकोंसहित अनेक छकड़े चल रहे थे। यात्राके समय शङ्ख बजे और
नगारोंकी ध्वनियाँ हुईं। बहुत-से गायक नन्दराजका यशोगान कर रहे थे । १-४ ॥
गोप
वृषभानुवर अपनी पत्नीके साथ हाथीपर बैठकर, पुत्री
राधाको अङ्कमें लिये, गायकोंसे यशोगान सुनते हुए, मृदङ्ग, ताल, वीणा और वेणुओंकी
मधुर ध्वनिके साथ वृन्दावनको गये । उनके साथ भी बहुतसे गोप और गौओंका समुदाय था ।
नन्द, उपनन्द और छहों वृषभानु भी अपने समस्त परिकरोंके साथ
वृन्दावनमें गये । समस्त गोपोंने अपने सेवकोंसहित वृन्दावनमें प्रवेश करके अलग-अलग
गोष्ठ बनाये और इधर-उधर निवास आरम्भ किया। वृषभानुने अपने लिये वृषभानुपुर
(बरसाना) नामक नगरका निर्माण कराया, जो चार योजन विस्तृत
दुर्गके आकार में था। उसके चारों ओर खाइयाँ बनी थीं। उस दुर्गके सात दरवाजे थे।
दुर्गके भीतर विशाल सभामण्डप था। अनेक सरोबर उस दुर्गकी शोभा बढ़ा रहे थे।
बीच-बीचमें मनोहर राजमार्गका निर्माण कराया गया था । एक सहस्र कुझें उस पुरकी शोभा
बढ़ाती थीं ॥ ५ – १० ॥
श्रीकृष्ण
नन्दनगर ( नन्दगाँव) तथा वृषभानुपुर (बरसाने) में बालकोंके साथ क्रीड़ा करते हुए
घूमते और गोपाङ्गनाओंकी प्रीति बढ़ाते थे । राजन्! कुछ दिनों बाद सम्पूर्ण गोपोंके
समादर-भाजन मनोहर रूपवाले बलराम और श्रीकृष्ण वृन्दावन में बछड़े चराने लगे। वे
दोनों भाई ग्वाल-बालों के साथ गाँव की सीमा तक जाकर बछड़े चराते थे। कालिन्दी के
निकट उसके पावन पुलिन पर सुशोभित निकुञ्जों और कुञ्जों में बलराम और श्रीकृष्ण
इधर-उधर लुकाछिपी के खेल खेलते और कहीं-कहीं रेंगते हुए चलकर वन में सानन्द विचरते
थे ।। ११ - १४ ॥
उन
दोनों के कटिप्रदेश में करधनीकी लड़ियाँ शोभा देती थीं। खेलते समय उनके पैरोंके
मञ्जीर और नूपुर मधुर झंकार फैलाते थे । बलरामके अङ्गोंपर नीलाम्बर शोभा पाता था
और श्रीकृष्णके अङ्गोंपर पीतपट । वे दोनों भाई हार और भुजबंदोंसे भूषित थे। कभी
बालकोंके साथ क्षेपणों (ढेलवासों) द्वारा ढेले फेंकते और कभी बाँसुरी बजाते थे ।
कुछ ग्वाल-बाल अपने मुखसे करधनीके घुँघुरुओंकी-सी ध्वनि करते हुए दौड़ते और उनके
साथ वे दोनों बन्धु - राम और श्याम भी पक्षियोंकी छायाका अनुसरण करते भागते हुए
सुशोभित होते थे। सिरपर मयूरपिच्छ लगाकर फूलों और पल्लवोंके शृङ्गार धारण करते थे
। १५ – १७॥
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा
प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260
से
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