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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
नवाँ
अध्याय ( पोस्ट 02 )
ब्रह्माजीके
द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति
दुःखं
सुखञ्च मनसा प्रभवञ्च सुप्ते
मिथ्या भवेत्पुनरहो भुवि जागरेऽस्य ।
इत्थं विवेकघटितस्य जनस्य सर्वं
स्वप्नभ्रमादृतजगत्सततं भवेद्धि ॥ ९
॥
ज्ञानी विसृज्य ममतामभिमानयोगं
वैराग्यभावरसिकः सततं निरीहः ।
दीपेन दीपकशतञ्च यथा प्रजातं
पश्येत् तथाऽऽत्मविभवं भुवि
चैकतत्त्वम् ॥ १० ॥
भक्तो भजेदजपतिं हृदि वासुदेवं
निर्धूमवह्निरिव मुक्तगुणस्वभावः ।
पश्यन् घटेषु सजलेषु यथेन्दुमेकं
एतादृशः परमहंसवरः कृतार्थः ॥ ११ ॥
स्तुवन्ति वेदाः सततञ्च यं सदा
हरेर्महिम्नः किल षोडशीं कलाम् ।
कदापि जानन्ति न ते त्रिलोके
वक्तुं गुणांस्तस्य जनोऽस्ति कः परः
॥ १२ ॥
वक्त्रैश्चतुर्भिस्त्वहमेव देवः
श्रीपञ्चवक्त्रः किल पञ्चवक्त्रैः ।
सहस्रशीर्षास्तु सहस्रवक्त्रैः
य स्तौति सेवां कुरुते च तस्य ॥ १३ ॥
विष्णुश्च वैकुण्ठनिवासकृच्च
क्षिरोदवासी हरिरेव साक्षात् ।
नारायणो धर्मसुतस्तथापि
गोलोकनाथं भजते भवन्तम् ॥ १४ ॥
अहोऽतिधन्यो महिमा मुरारे-
र्जानन्ति भूमौ मुनयो न मानवाः ।
सुरासुरा वा मनवो बुधाः पुनः
स्वप्नेऽपि पश्यन्ति न तत्पदद्वयम् ॥
१५ ॥
वरं हरिं गुणाकरं सुमुक्तिदं परात्परम् ।
रमेश्वरं गुणेश्वरं व्रजेश्वरं नमाम्यहम् ॥ १६ ॥
ताम्बूलसुन्दरमुखं मधुरं ब्रुवन्तं
बिम्बाधरं स्मितयुतं सितकुन्ददन्तम् ।
नीलालकावृतकपोलमनोहराभं
वन्दे चलत्कनककुण्डलमण्डनार्हम् ॥ १७
॥
सुख
एवं दुःख मनसे उत्पन्न होते हैं, निद्रावस्थामें वे लुप्त हो जाते हैं और जागनेपर पुनः
उनका अनुभव होने लगता है। जिनको इस प्रकारका विवेक प्राप्त है, उनके लिये यह जगत् निरन्तर
स्वप्नावस्थाके भ्रमके समान ही है। ज्ञानी पुरुष ममता एवं अभिमानका त्याग करके सदा
वैराग्यसे प्रीति करनेवाले तथा शान्त होते हैं। जैसे एक दियेसे सैकड़ों दिये उत्पन्न
होते हैं, वैसे ही एक परमात्मासे सब कुछ उत्पन्न हुआ है — ऐसी तात्त्विक दृष्टि उनकी
रहती है ॥
भक्त
निर्धूम अग्निशिखाकी भाँति गुणमुक्त एवं आत्मनिष्ठ होकर हृदयमें ब्रह्माके भी स्वामी
भगवान् वासुदेवका भजन करते हैं। जिस प्रकार हम एक ही चन्द्रबिम्बको अनेकों घड़ोंके
जल में देखते हैं, उसी प्रकार आत्मा के
एकत्व का दर्शन करके श्रेष्ठ परमहंस भी कृतार्थ होते हैं ।। ९-११ ॥
निरन्तर
स्तवन करते रहनेपर भी वेद जिनके माहात्म्यके षोडशांशका भी कभी ज्ञान नहीं प्राप्त कर
सके, तब त्रिलोकीमें उन श्रीहरिके गुणोंका वर्णन भला, दूसरा कौन कर सकता है ? मैं चार
मुखोंसे, देवाधिदेव महादेवजी पाँच मुखोंसे तथा हजार मुखवाले शेषजी अपने सहस्र मुखोंसे
जिनकी स्तुति सेवा करते हैं; वैकुण्ठनिवासी विष्णु, क्षीरोदशायी साक्षात् हरि और धर्मसुत
नारायण ऋषि उन गोलोकपति आपकी सेवा किया करते हैं ।। १२-१४ ॥
अहा
! मुरारे ! आपकी महिमा धन्य है । भूतलपर उस महिमा को न मुनिगण
जानते हैं न मनुष्य ही । सुर-असुर तथा चौदहों मनु भी उसे जाननेमें
असमर्थ हैं। ये सब स्वप्नमें भी आपके चरणकमलों के दर्शन पानेमें
असमर्थ हैं। गुणोंके सागर, मुक्तिदाता, परात्पर, रमापति, गुणेश, व्रजेश्वर श्रीहरिको
मैं नमस्कार करता हूँ । ताम्बूल-रागरञ्जित सुन्दर मुखसे सुशोभित, मधुरभाषी, पके हुए
बिम्बफलके समान लाल-लाल अधरोंवाले, स्मिताहास्ययुक्त, कुन्दकलीके समान शुभ्र दन्तपंक्तिसे
जगमगाते हुए, नील अलकोंसे आवृत्त कपोलोंवाले, मनोहर - कान्ति तथा झूलते हुए स्वर्ण-कुण्डलोंसे
मण्डित श्रीकृष्णकी मैं वन्दना करता हूँ ।। १५-१७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से