शुक्रवार, 5 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) नवाँ अध्याय ( पोस्ट 06 )

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

नवाँ अध्याय ( पोस्ट 06 )

 

ब्रह्माजीके द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति

 

वयं तु गोपदेहेषु संस्थिताश्च शिवादयः ।
सकृत्कृष्णं तु पश्यन्तस्तस्माद्धन्याश्च भारते ॥ ४४ ॥
अहोभाग्यं तु कृष्णस्य मातापित्रोस्तव प्रभो ।
तथा च गोपगोपीनां पूर्णस्त्वं दृश्यसे व्रजे ॥ ४५ ॥
मुक्ताहारः सर्वविश्वोपकारः
     सर्वाधारः पातु मां विश्वकारः ।
लीलागारं सूरिकन्याविहारः
     क्रीडापारः कृष्णचन्द्रावतारः ॥ ४६ ॥
श्रीकृष्ण वृष्णिकुलपुष्कर नन्दपुत्र
     राधापते मदनमोहन देवदेव ।
संमोहितं व्रजपते भुवि तेऽजया मां
     गोविन्द गोकुलपते परिपाहि पाहि ॥ ४७ ॥
करोति यः कृष्णहरेः प्रदक्षिणां
     भवेज्ज्गत्तीर्थफलं च तस्य तु ।
ते कृष्णलोकं सुखदं परात्परं
     गोलोकलोकं प्रवरं गमिष्यति ॥ ४८ ॥


श्रीनारद उवाच -
इत्यभिष्टूय गोविन्दं श्रीमद्‌वृन्दावनेश्वरम् ।
नत्वा त्रिवारं लोकेशश्चकार तु प्रदक्षिणम् ॥ ४९ ॥
तत्र चालक्षितो भूत्वा नेत्रेणाज्ञां ददौ हरिः ।
पुनः प्रणम्य स्वं लोकमात्मभूः प्रत्यपद्यत ॥ ५१ ॥

भगवान् शंकर आदि हम (इन्द्रियोंके अधिष्ठाता) देवगण ने भारतवासी इन गोपों की देह में स्थित होकर एक बार भी श्रीकृष्णका दर्शन कर लिया, अतः हम धन्य हो गये। श्रीकृष्ण ! आपके माता-पिता एवं गोप- गोपियों का तो कितना अनिर्वचनीय सौभाग्य है, जो व्रजमें आपके पूर्णरूप का दर्शन कर रहे हैं ॥ ४४-४५

 

सम्पूर्ण विश्व का उपकार करनेवाले, मुक्ताहार धारण करने वाले, विश्व के रचयिता, सर्वाधार, लीलाके धाम, रवितनया यमुना में विहार करनेवाले, क्रीडापरायण, श्रीकृष्णचन्द्र का अवतार ग्रहण करनेवाले प्रभु मेरी रक्षा करें। वृष्णिकुलरूप सरोवरके कमलस्वरूप नन्द- नन्दन, राधापति, देव-देव, मदनमोहन, व्रजपति, गोकुलपति, गोविन्द मुझ माया से मोहित की रक्षा करें। जो व्यक्ति श्रीकृष्ण की प्रदक्षिणा करता है, उसको जगत् के सम्पूर्ण तीर्थों की यात्रा का फल प्राप्त होता है वह आपके सुखदायक परात्पर 'गोलोक' नामक लोक को जाता है ॥ ४–४८ ॥

नारदजी कहने लगे- लोकपति लोक-पितामह ब्रह्मा ने इस प्रकार सुन्दर वृन्दावन के अधिपति गोविन्द का स्तवन करके प्रणाम करते हुए उनकी तीन बार प्रदक्षिणा की और कुछ देर के लिये अदृश्य होकर गोवत्स तथा गोप-बालकों को वरदान देकर लौट जाने के लिये अनुमति की प्रार्थना की ।। तदनन्तर श्रीहरिने नेत्रोंके संकेतसे उनको जानेका आदेश दिया। लोकपितामह ब्रह्मा भी पुनः प्रणाम करके अपने लोकको चले गये ॥ ४९-५१

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट ०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट०६)

ध्यान-विधि और भगवान्‌ के विराट् स्वरूप का वर्णन

द्यौरक्षिणी चक्षुरभूत्पतङ्गः
    पक्ष्माणि विष्णोरहनी उभे च ।
तद्‍भ्रूविजृम्भः परमेष्ठिधिष्ण्यं
    आपोऽस्य तालू रस एव जिह्वा ॥ ३० ॥
छन्दांस्यनन्तस्य शिरो गृणंति
    दंष्ट्रा यमः स्नेहकला द्विजानि ।
हासो जनोन्मादकरी च माया
    दुरन्तसर्गो यदपाङ्गमोक्षः ॥ ३१ ॥
व्रीडोत्तरौष्ठोऽधर एव लोभो
    धर्मः स्तनोऽधर्मपथोऽस्य पृष्ठम् ।
कस्तस्य मेढ्रं वृषणौ च मित्रौ
    कुक्षिः समुद्रा गिरयोऽस्थिसङ्घाः ॥ ३२ ॥
नद्योऽस्य नाड्योऽथ तनूरुहाणि
    महीरुहा विश्वतनोर्नृपेन्द्र ।
अनन्तवीर्यः श्वसितं मातरिश्वा
    गतिर्वयः कर्म गुणप्रवाहः ॥ ३३ ॥

भगवान्‌ विष्णुके नेत्र अन्तरिक्ष हैं, उनमें देखनेकी शक्ति सूर्य है, दोनों पलकें रात और दिन हैं, उनका भ्रूविलास ब्रह्मलोक है। तालु जल हैं और जिह्वा रस ॥ ३० ॥ वेदोंको भगवान्‌ का ब्रह्मरन्ध्र कहते हैं और यम को दाढ़ें। सब प्रकारके स्नेह दाँत हैं और उनकी जगन्मोहिनी मायाको ही उनकी मुसकान कहते हैं। यह अनन्त सृष्टि उसी माया का कटाक्ष-विक्षेप है ॥ ३१ ॥ लज्जा ऊपरका होठ और लोभ नीचेका होठ है। धर्म स्तन और अधर्म पीठ है। प्रजापति उनके मूत्रेन्द्रिय हैं, मित्रावरुण अण्डकोश हैं, समुद्र कोख है और बड़े-बड़े पर्वत उनकी हड्डियाँ हैं ॥ ३२ ॥ राजन् ! विश्वमूर्ति विराट् पुरुष की नाडिय़ाँ नदियाँ हैं। वृक्ष रोम हैं। परम प्रबल वायु श्वास है। काल उनकी चाल है और गुणोंका चक्कर चलाते रहना ही उनका कर्म है ॥ ३३ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


गुरुवार, 4 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) नवाँ अध्याय ( पोस्ट 05 )

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

नवाँ अध्याय ( पोस्ट 05 )

 

ब्रह्माजीके द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति

 

मायया यस्य मुह्यन्ति देवदैत्यनरादयः ।
स्वमायया तन्मोहाय मूर्खोऽहं ह्युद्यतोऽभवम् ॥ ३४ ॥
नारायणस्त्वं गोविन्द नाहं नारायणो हरे ।
ब्रह्माण्डं त्वं विनिर्माय शेषे नारायणः पुरा ॥ ३५ ॥
यस्य श्रीब्रह्मणि धाम्नि प्राणं त्यक्त्वा तु योगिनः ।
यत्र यास्यन्ति तस्मिंस्तु सकुला पूतना गता ॥ ३६ ॥
वत्सानां वत्सपानाञ्च कृत्वा रूपाणि माधव ।
विचचार वने त्वं तु ह्यपराधान्मम प्रभो ॥ ३७ ॥
तस्मात्क्षमस्व गोविन्द प्रसीद त्वं ममोपरि ।
अगणय्यापराधं मे सुतोपरि पिता यथा ॥ ३८ ॥
त्वदभक्ता रता ज्ञाने तेषां क्लेशो विशिष्यते ।
परिश्रमात्कर्षकाणां यथा क्षेत्रे तुषार्थिनाम् ॥ ३९ ॥
त्वद्‌भक्तिभावे निरता बहवस्त्वद्‌गतिं गताः ।
योगिनो मुनयश्चैव तथा ये व्रजवासिनः ॥ ४० ॥
द्विधा रतिर्भवेद्वरा श्रुताच्च दर्शनाच्च वा ।
अहो हरे तु मायया बभूव नैव मे रतिः ॥ ४१ ॥
इत्युक्त्वाऽश्रुमुखो भूत्वा नत्वा तत्पादपंकजौ ।
पुनराह विधिः कृष्णं भक्त्या सर्वं क्षमापयन् ॥ ४२ ॥
घोषेषु वासिनामेषां भूत्वाऽहं त्वत्पदाम्बुजम् ।
यदा भजेयं सुगतिस्तदा भूयान्न चान्यथा ॥ ४३ ॥

जिनकी मायासे देवता, दैत्य एवं मनुष्य – सभी मोहित हैं, मैं मूर्ख उनको अपनी मायासे मोहित करने चला था ! गोविन्द आप नारायण हैं, मैं नारायण नहीं हूँ। हरि ! आप कल्पके आदिमें ब्रह्माण्डकी रचना करके नारायणरूपसे शेषशायी हो गये ॥ ३४-३५

 

आपके जिस ब्रह्मरूप तेजमें योगी प्राण त्याग करके जाते हैं, बालघातिनी पूतना भी अपने कुलसहित आपके उसी तेजमें समा गयी । माधव ! मेरे ही अपराधसे आपने गोवत्स एवं गोप-बालकोंका रूप धारण करके वनोंमें विचरण किया। अतएव गोविन्द ! आप मुझको क्षमा करें। गोविन्द ! पिता जैसे पुत्रका अपराध नहीं देखता, वैसे ही आप भी मेरे अपराधकी उपेक्षा करके मेरे ऊपर प्रसन्न हों। जो लोग आपके भक्त न होकर ज्ञानमें रति करते हैं, उनको क्लेश ही हाथ लगता है, जैसे भूसेके लिये परिश्रमपूर्वक खेत जोतनेवालोंको भूसामात्र प्राप्त होता है ॥ ३६–३

 

आपके भक्तिभावमें ही नितरां रत रहनेवाले अनेकों योगी, मुनि एवं व्रजवासी आपको प्राप्त हो चुके हैं। दर्शन और श्रवण- दो प्रकारसे उनकी आपमें रति होती है, किंतु अहो ! श्रीहरिकी मायाके कारण उनके प्रति मेरी रति नहीं हुई || ४० – ४१ ॥

 

ब्रह्माजीने यों कहकर नेत्रों से आँसू बहाते हुए उनके (श्रीकृष्णके) पादपद्मों में प्रणाम किया एवं सारे अपराधों को क्षमा करानेके लिये भक्तिभाव से श्रीकृष्ण- से वे फिर निवेदन करने लगे – “मैं गोपकुल में जन्म लेकर आपके पादपद्मों की आराधना करता हुआ सुगति प्राप्त कर सकूँ, इसका व्यतिरेक न हो ॥ ४२-४३

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट ०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट०५)

ध्यान-विधि और भगवान्‌ के विराट्स्वरूप का वर्णन

पातालमेतस्य हि पादमूलं
    पठंति पार्ष्णिप्रपदे रसातलम् ।
महातलं विश्वसृजोऽथ गुल्फौ
    तलातलं वै पुरुषस्य जङ्घे ॥ २६ ॥
द्वे जानुनी सुतलं विश्वमूर्तेः
    ऊरुद्वयं वितलं चातलं च ।
महीतलं तज्जघनं महीपते
    नभस्तलं नाभिसरो गृणन्ति ॥ २७ ॥
उरःस्थलं ज्योतिरनीकमस्य
    ग्रीवा महर्वदनं वै जनोऽस्य ।
तपो रराटीं विदुरादिपुंसः
    सत्यं तु शीर्षाणि सहस्रशीर्ष्णः ॥ २८ ॥
इन्द्रादयो बाहव आसुरुस्राः
    कर्णौ दिशः श्रोत्रममुष्य शब्दः ।
नासत्यदस्रौ परमस्य नासे
    घ्राणोऽस्य गंधो मुखमग्निरिद्धः ॥ २९ ॥

तत्त्वज्ञ पुरुष उनका (विराट् पुरुष भगवान्‌ का) इस प्रकार वर्णन करते हैं—पाताल विराट् पुरुष के तलवे हैं, उनकी एडिय़ाँ और पंजे रसातल हैं, दोनों गुल्फ— एड़ी के ऊपर की गाँठें महातल हैं, उनके पैर के पिंडे तलातल हैं, ॥ २६ ॥ विश्वमूर्ति भगवान्‌ के दोनों घुटने सुतल हैं, जाँघें वितल और अतल हैं, पेडू भूतल है, और परीक्षित्‌ ! उनके नाभिरूप सरोवर को ही आकाश कहते हैं ॥ २७ ॥ आदिपुरुष परमात्मा की छाती को स्वर्गलोक, गले को महर्लोक, मुख को जनलोक और ललाट को तपोलोक कहते हैं। उन सहस्र सिरवाले भगवान्‌ का मस्तकसमूह ही सत्यलोक है ॥ २८ ॥ इन्द्रादि देवता उनकी भुजाएँ हैं। दिशाएँ कान और शब्द श्रवणेन्द्रिय हैं। दोनों अश्विनीकुमार उनकी नासिका के छिद्र हैं; गन्ध घ्राणेन्द्रिय है और धधकती हुई आग उनका मुख है ॥ २९ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


बुधवार, 3 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) नवाँ अध्याय ( पोस्ट 04 )


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

नवाँ अध्याय ( पोस्ट 04 )

 

ब्रह्माजीके द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति

 

भजे कृष्णक्रोडे भृगुमुनिपदं श्रीगृहमलं
     तथा श्रीवत्साङ्कं निकषरुचियुक्तं द्युतिपरम् ।
गले हीराहारान् कनकमणिमुक्तावलिधरान्
     स्फुरत् ताराकारान् भ्रमरवलिभारान् ध्वनिकरान् ॥ २५ ॥
वंशीविभूषितमलं द्विजदानशीलं
     सिंद्रूरवर्णमतिकीचकरावलीलम् ।
हेमांगुलीयनिकरं नखचंद्रयुक्तं
     हस्तद्वयं स्मर कदम्बसुगन्धपृक्तम् ॥ २६ ॥
शनैश्चलन् मानसराजहंस-
     ग्रीवाकृतौ कन्धर उच्चदेशे ।
कादम्बिनीमानहरौ करौ च
     भजामि नित्यं हरिकाकपक्षौ ॥ २७ ॥
कलदर्पणवद्‌विशदं सुखदं
     नवयौवनरूपधरं नृपतिम् ।
मणिकुण्डलकुन्तलशालिरतिं
     भज गण्डयुगं रविचन्द्ररुचिम् ॥ २८ ॥
खचितकनकमुक्ता रक्तवैदूर्यवासं
     मदनवदनलीला सर्वसौन्दर्यरासम् ।
अरुणविधुसकाशं कोटिसूर्यप्रकाशं
     घटितशिखिसुवीटं नौमि विष्णोः किरीटम् ॥ २९ ॥
यद्‌द्वारिदेशे न गतिर्गुहेन्द्र
     गणेशतारीरेशदिवाकराणाम् ।
आज्ञां विना यान्ति न कुञ्जमण्डलं
     तं कृष्णचन्द्रं जगदीश्वरं भजे ॥ ३० ॥

इति कृत्वा स्तुतिं ब्रह्मा श्रीकृष्णस्य महात्मनः ।
पुनः कृताञ्जलिर्भूत्वा स्वविज्ञप्तिं चकार ह ॥ ३१ ॥
अपराधं तु पुत्रस्य मातृवत्त्वं क्षमस्व च ।
अहं त्वन्नाभिकमलात्सम्भवोऽहं जगत्पते ॥ ३२ ॥
काहं लोकपतिः क्व त्वं कोटिब्रह्माण्डनायकः ।
तस्माद्‌व्रजपते देव रक्ष मां मधुसूदन ॥ ३३ ॥

जिनके कान्तिमान् कसौटी- सदृश एवं भृगुपद- अङ्कित विशाल वक्षःस्थलपर लक्ष्मी विलास करती हैं, जिनके गलेमें स्वर्णमणि एवं मोतियोंकी लड़ियोंसे युक्त तथा तारोंके समान झिलमिल प्रकाश करनेवाले तथा भ्रमरोंकी ध्वनिसे युक्त हीरोंके हार हैं, जो सिन्दूरवर्णकी सुन्दर अँगुलियोंसे वंशी बजा रहे हैं, जिनकी अँगुलियों में सोनेकी अंगूठियाँ सुशोभित हैं, जिनके दोनों हाथ द्विजोंको दान देनेवाले, चन्द्रमाके समान नखोंसे युक्त एवं कामदेवके वनके कदम्बवृक्षोंके पुष्पोंकी सुगन्धसे सुवासित हैं, जिनकी मन्दगति राजहंसकी भाँति सुन्दर है, जिनके कंधे गलेतक ऊँचे उठे हुए हैं, उन श्रीहरि- की मेघमालाका मान हरण करनेवाली मनोहर काकुल का मैं स्मरण करता हूँ। जो स्वच्छ दर्पणकी भाँति निर्मल, सुखद, नवयौवनकी कान्तिसे युक्त, मनुष्योंके रक्षक तथा मणिकुण्डलों एवं सुन्दर घुँघराले बालोंसे सुशोभित हैं, श्रीहरि के सूर्य तथा चन्द्रमा की भाँति प्रभा से युक्त उन दोनों कपोलों का मैं स्मरण करता हूँ ।। २५-२८ ॥

 

जो सुवर्ण तथा मुक्ता एवं वैदूर्यमणिसे जटित लाल वस्त्रका बना हुआ है, जो कामदेवके मुख- पर क्रीड़ा करनेवाले सम्पूर्ण सौन्दर्यसे विलसित है— जो अरुण - कान्ति तथा चन्द्र एवं करोड़ों सूर्येक समान प्रभा- सम्पन्न है और मयूरपिच्छसे अलंकृत है, श्रीकृष्णके उस मुकुटको मैं नमस्कार करता हूँ। जिनके द्वारदेशपर स्वामिकार्तिकेय, गणेश, इन्द्र, चन्द्र एवं सूर्यकी भी गति नहीं है; जिनकी आज्ञाके बिना कोई निकुञ्जमें प्रवेश नहीं कर सकता, उन जगदीश्वर श्रीकृष्णचन्द्रकी मैं आराधना करता हूँ  ॥ २–३० ॥

 

ब्रह्माजी इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णका स्तवन करके पुनः हाथ जोड़कर कहने लगे- 'जगत्के स्वामी ! मैं आपके नाभि-कमलसे उत्पन्न हूँ; अतएव जिस प्रकार माता अपने पुत्रके अपराधोंको क्षमा कर देती है, उसी प्रकार आप भी मेरे अपराधोंको क्षमा कर दें। व्रजपते ! कहाँ तो मैं एक लोकका अधिपति और कहाँ आप करोड़ों ब्रह्माण्डोंके नायक ! अतएव व्रजेश, मधुसूदन ! देव ! आप मेरी रक्षा करें ॥ ३१–३

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट ०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट०४)

ध्यान-विधि और भगवान्‌ के विराट्स्वरूप का वर्णन

रजस्तमोभ्यां आक्षिप्तं विमूढं मन आत्मनः ।
यच्छेद्धारणया धीरो हंति या तत्कृतं मलम् ॥ २० ॥
यस्यां सन्धार्यमाणायां योगिनो भक्तिलक्षणः ।
आशु संपद्यते योग आश्रयं भद्रमीक्षतः ॥ २१ ॥

राजोवाच ॥
यथा सन्धार्यते ब्रह्मन् धारणा यत्र सम्मता ।
यादृशी वा हरेदाशु पुरुषस्य मनोमलम् ॥ २२ ॥

श्रीशुक उवाच ।
जितासनो जितश्वासो जितसङ्गो जितेंद्रियः ।
स्थूले भगवतो रूपे मनः सन्धारयेद् धिया ॥ २३ ॥
विशेषस्तस्य देहोऽयं स्थविष्ठश्च स्थवीयसाम् ।
यत्रेदं दृश्यते विश्वं भूतं भव्यं भवच्च सत् ॥ २४ ॥
अण्डकोशे शरीरेऽस्मिन् सप्तावरणसंयुते ।
वैराजः पुरुषो योऽसौ भगवान् धारणाश्रयः ॥ २५ ॥

यदि भगवान्‌ का ध्यान करते समय मन रजोगुण से विक्षिप्त या तमोगुण से मूढ़ हो जाय तो घबराये नहीं। धैर्य के साथ योगधारणा के द्वारा उसे वश में करना चाहिये; क्योंकि धारणा उक्त दोनों गुणोंके दोषोंको मिटा देती है ॥ २० ॥ धारणा स्थिर हो जानेपर ध्यानमें जब योगी अपने परम मंलमय आश्रय (भगवान्‌)को देखता है, तब उसे तुरंत ही भक्तियोग की प्राप्ति हो जाती है॥२१॥
परीक्षित्‌ ने पूछा—ब्रह्मन् ! धारणा किस साधनसे किस वस्तुमें किस प्रकार की जाती है और उसका क्या स्वरूप माना गया है, जो शीघ्र ही मनुष्यके मनका मैल मिटा देती है ? ॥ २२ ॥
श्रीशुकदेवजीने कहा—परीक्षित्‌ ! आसन, श्वास, आसक्ति और इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करके फिर बुद्धिके द्वारा मनको भगवान्‌के स्थूल रूपमें लगाना चाहिये ॥ २३ ॥ यह कार्यरूप सम्पूर्ण विश्व जो कुछ कभी था, है या होगा—सबका-सब-जिसमें दीख पड़ता है, वही भगवान्‌ का स्थूल-से-स्थूल और विराट् शरीर है ॥ २४ ॥ जल, अग्नि, वायु, आकाश, अहंकार, महत्तत्त्व और प्रकृति—इन सात आवरणोंसे घिरे हुए इस ब्रह्माण्ड-शरीरमें जो विराट् पुरुष भगवान्‌ हैं, वे ही धारणाके आश्रय हैं, उन्हींकी धारणा की जाती है ॥ २५ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
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मंगलवार, 2 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) नवाँ अध्याय ( पोस्ट 03 )

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

नवाँ अध्याय ( पोस्ट 03 )

 

ब्रह्माजीके द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति

 

सुन्दरं तु तव रूपमेव हि
     मन्मथस्य मनसो हरं परम्
आविरस्तु मम नेत्रयोः सदा
     श्यामलं मकरकुण्डलावृतम् ॥ १८ ॥
वैकुण्ठलीलाप्रवरं मनोहरं
     नमस्कृतं देवगणैः परं वरम् ।
गोपाललीलाभियुतं भजाम्यहं
     गोलोकनाथं शिरसा नमाम्यहम् ॥ १९ ॥
युक्तं वसन्तकलकण्ठविहंगमैश्च
     सौगन्धिकं त्वरणपल्लवशाखिसंगम् ।
वृन्दावनं सुधितधीरसमीरलीलं
     गच्छन् हरिर्जयति पातु सदैव भक्तान् ॥ २० ॥
हरति कमलमानं लोलमुक्ताभिमानं
     धरणिरसिकदानं कामदेवस्य बाणम् ।
श्रवणविदितयानं नेत्रयुग्मप्रयाणं
     भज यदुत समक्षं दानदक्षं कटाक्षम् ॥ २१ ॥
शरच्चन्द्राकारं नखमणिसमूहं सुखकरं
     सुरक्तं हृत्पूर्णं प्रकटिततमःखण्डनकरम् ।
भजेऽहं ब्रह्माण्डेसकलनरपापाभिदलनं
     हरेर्विष्णोर्देवैर्दिवि भरतखण्डे स्तुतमलम् ॥ २२ ॥
महापद्मे किं वा परिधिरिव चाभाति सततं
     कदादित्यस्फूर्जद्‌रथचरण इत्थं ध्वनिधरः ।
यथा न्यस्तं चक्रं शतकिरणयुक्तं तु हरिणा
     स्फुरच्छ्रीमञ्जीरं हरिचरणपद्मे त्वधिगतम् ॥ २३ ॥
कट्यां पीताम्बरं दिव्यं क्षुद्रघण्टिकयाऽन्वितम् ।
भजाम्यहं चित्तहरं कृष्णस्याक्लिष्टकर्मणः ॥ २४ ॥

आपका परम सुन्दर रूप मन्मथ के मन को भी हरनेवाला है। मेरे नेत्रों में सर्वदा मकरकुण्डलधारी श्यामकलेवर श्रीकृष्णके उस रूपका प्रकाश होता रहे। जिनकी लीला वैकुण्ठ - लीलाकी अपेक्षा भी श्रेष्ठ है और जिनके परम श्रेष्ठ मनोहर रूपको देवगण भी नमस्कार करते हैं, उन गोपलीलाकारी गोलोकनाथको मैं मस्तक नवाकर प्रणाम करता हूँ । वसन्तकालीन सुन्दर कण्ठ- वाले कोकिलादि पक्षियोंसे युक्त, सुगन्धित, नवीन पल्लवयुक्त वृक्षोंसे अलंकृत, सुधाके समान शीतल, धीर (मन्द) पवनकी क्रीड़ासे सुशोभित वृन्दावनमें विचरण करनेवाले श्रीकृष्णकी जय हो ! वे सदा भक्तों की रक्षा करें ॥। १ – २० ॥

 

"आपके कान तक फैले हुए विशाल नेत्र तथा उनकी तिरछी चितवन कमलपुष्पोंका मान और झूलते हुए मोतियों का अभिमान दूर करनेवाली है, भूतल के समस्त रसिकों- को रस का दान करती है तथा कामदेवके बाणोंके समान पैनी एवं प्रीतिदान में निपुण है। जिनकी नखमणियाँ शरत्कालीन चन्द्रमाके समान सुखकर, सुरक्त, हृदयग्राहिणी, गाढ़ अन्धकार का नाश करनेवाली और जगत् के समस्त प्राणियोंके पापोंका ध्वंस करनेवाली हैं तथा स्वर्ग में देवमण्डली जिनका श्रीविष्णु एवं हरि की नखावली के रूप में स्तवन करती है, मैं उनकी आराधना करता हूँ ।। २१-२२ ॥

 

आपके पादपद्मों की सर्वदा बजनेवाली, श्रीहरि के सैकड़ों किरणोंसे युक्त (सुदर्शन) चक्र के समान आकारवाली पैजनियाँ ऐसी हैं, जिनसे गोल घेरे की भाँति किरणें इस प्रकार निकलती हैं, जैसे सूर्य के प्रकाशयुक्त रथचक्र की परिधि हो, अथवा जो आपके पादपद्मों की परिधि के समान सुशोभित हैं। आपकी कमर में छोटी-छोटी घंटियोंसे युक्त दिव्य पीताम्बर जगमगा रहा है । मैं अक्लिष्टकर्मा भगवान् श्रीकृष्ण (आप) के उस मनोहर रूपकी आराधना करता हूँ ।। २३-२४ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट ०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट०३)

ध्यान-विधि और भगवान्‌ के विराट्स्वरूप का वर्णन

किं प्रमत्तस्य बहुभिः परोक्षैर्हायनैरिह ।
वरं मुहूर्तं विदितं घटते श्रेयसे यतः ॥ १२ ॥
खट्वाङ्गो नाम राजर्षिः ज्ञात्वेयत्तामिहायुषः ।
मुहूर्तात् सर्वं उत्सृज्य गतवान् अभयं हरिम् ॥ १३ ॥
तवाप्येतर्हि कौरव्य सप्ताहं जीवितावधिः ।
उपकल्पय तत्सर्वं तावद् यद् सांपरायिकम् ॥ १४ ॥
अंतकाले तु पुरुष आगते गतसाध्वसः ।
छिन्द्याद् असङ्गशस्त्रेण स्पृहां देहेऽनु ये च तम् ॥ १५ ॥
गृहात् प्रत्प्रव्रजितो धीरः पुण्यतीर्थजलाप्लुतः ।
शुचौ विविक्त आसीनो विधिवत् कल्पितासने ॥ १६ ॥
अभ्यसेन् मनसा शुद्धं त्रिवृद् ब्रह्माक्षरं परम् ।
मनो यच्छेज्जितश्वासो ब्रह्मबीजं अविस्मरन् ॥ १७ ॥
नियच्छेद् विषयेभ्योऽक्षान् मनसा बुद्धिसारथिः ।
मनः कर्मभिराक्षिप्तं शुभार्थे धारयेत् धिया ॥ १८ ॥
तत्रैकावयवं ध्यायेत् अव्युच्छिन्नेन चेतसा ।
मनो निर्विषयं युक्त्वा ततः किञ्चन न स्मरेत् ।
पदं तत्परमं विष्णोः मनो यत्र प्रसीदति ॥ १९ ॥

(श्रीशुकदेवजी कहते हैं) अपने कल्याण- साधन की ओर से असावधान रहनेवाले पुरुषकी वर्षों लम्बी आयु भी अनजानमें ही व्यर्थ बीत जाती है। उससे क्या लाभ ! सावधानीसे ज्ञानपूर्वक बितायी हुई घड़ी, दो घड़ी भी श्रेष्ठ है; क्योंकि उसके द्वारा अपने कल्याण की चेष्टा तो की जा सकती है ॥ १२ ॥ राजर्षि खट्वाङ्ग अपनी आयुकी समाप्तिका समय जानकर दो घड़ीमें ही सब कुछ त्यागकर भगवान्‌ के अभयपद को प्राप्त हो गये ॥ १३ ॥ परीक्षित्‌ ! अभी तो तुम्हारे जीवनकी अवधि सात दिनकी है। इस बीचमें ही तुम अपने परम कल्याणके लिये जो कुछ करना चाहिये, सब कर लो ॥ १४ ॥ मृत्युका समय आनेपर मनुष्य घबराये नहीं। उसे चाहिये कि वह वैराग्यके शस्त्रसे शरीर और उससे सम्बन्ध रखनेवालोंके प्रति ममताको काट डाले ॥ १५ ॥ धैर्यके साथ घरसे निकलकर पवित्र तीर्थके जलमें स्नान करे और पवित्र तथा एकान्त स्थानमें विधिपूर्वक आसन लगाकर बैठ जाय ॥ १६ ॥ तत्पश्चात् परम पवित्र ‘अ उ म्’ इन तीन मात्राओंसे युक्त प्रणवका मन-ही-मन जप करे। प्राणवायुको वशमें करके मनका दमन करे और एक क्षणके लिये भी प्रणवको न भूले ॥ १७ ॥ बुद्धिकी सहायतासे मनके द्वारा इन्द्रियोंको उनके विषयोंसे हटा ले। और कर्मकी वासनाओंसे चञ्चल हुए मनको विचारके द्वारा रोककर भगवान्‌ के मङ्गलमय रूपमें लगाये ॥ १८ ॥ स्थिर चित्तसे भगवान्‌ के श्रीविग्रहमें से किसी एक अङ्गका ध्यान करे। इस प्रकार एक-एक अङ्गका ध्यान करते-करते विषय-वासनासे रहित मनको पूर्णरूपसे भगवान्‌में ऐसा तल्लीन कर दे कि फिर और किसी विषयका चिन्तन ही न हो। वही भगवान्‌ विष्णुका परमपद है, जिसे प्राप्त करके मन भगवत्प्रेमरूप आनन्दसे भर जाता है॥१९॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


सोमवार, 1 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) नवाँ अध्याय ( पोस्ट 02 )


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

नवाँ अध्याय ( पोस्ट 02 )

 

ब्रह्माजीके द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति

 

दुःखं सुखञ्च मनसा प्रभवञ्च सुप्ते
     मिथ्या भवेत्पुनरहो भुवि जागरेऽस्य ।
इत्थं विवेकघटितस्य जनस्य सर्वं
     स्वप्नभ्रमादृतजगत्सततं भवेद्धि ॥ ९ ॥
ज्ञानी विसृज्य ममतामभिमानयोगं
     वैराग्यभावरसिकः सततं निरीहः ।
दीपेन दीपकशतञ्च यथा प्रजातं
     पश्येत् तथाऽऽत्मविभवं भुवि चैकतत्त्वम् ॥ १० ॥
भक्तो भजेदजपतिं हृदि वासुदेवं
     निर्धूमवह्निरिव मुक्तगुणस्वभावः ।
पश्यन् घटेषु सजलेषु यथेन्दुमेकं
     एतादृशः परमहंसवरः कृतार्थः ॥ ११ ॥
स्तुवन्ति वेदाः सततञ्च यं सदा
     हरेर्महिम्नः किल षोडशीं कलाम् ।
कदापि जानन्ति न ते त्रिलोके
     वक्तुं गुणांस्तस्य जनोऽस्ति कः परः ॥ १२ ॥
वक्त्रैश्चतुर्भिस्त्वहमेव देवः
     श्रीपञ्चवक्त्रः किल पञ्चवक्त्रैः ।
सहस्रशीर्षास्तु सहस्रवक्त्रैः
     य स्तौति सेवां कुरुते च तस्य ॥ १३ ॥
विष्णुश्च वैकुण्ठनिवासकृच्च
     क्षिरोदवासी हरिरेव साक्षात् ।
नारायणो धर्मसुतस्तथापि
     गोलोकनाथं भजते भवन्तम् ॥ १४ ॥
अहोऽतिधन्यो महिमा मुरारे-
     र्जानन्ति भूमौ मुनयो न मानवाः ।
सुरासुरा वा मनवो बुधाः पुनः
     स्वप्नेऽपि पश्यन्ति न तत्पदद्वयम् ॥ १५ ॥
वरं हरिं गुणाकरं सुमुक्तिदं परात्परम् ।
रमेश्वरं गुणेश्वरं व्रजेश्वरं नमाम्यहम् ॥ १६ ॥
ताम्बूलसुन्दरमुखं मधुरं ब्रुवन्तं
     बिम्बाधरं स्मितयुतं सितकुन्ददन्तम् ।
नीलालकावृतकपोलमनोहराभं
     वन्दे चलत्कनककुण्डलमण्डनार्हम् ॥ १७ ॥

सुख एवं दुःख मनसे उत्पन्न होते हैं, निद्रावस्थामें वे लुप्त हो जाते हैं और जागनेपर पुनः उनका अनुभव होने लगता है। जिनको इस प्रकारका विवेक प्राप्त है, उनके लिये यह जगत् निरन्तर स्वप्नावस्थाके भ्रमके समान ही है। ज्ञानी पुरुष ममता एवं अभिमानका त्याग करके सदा वैराग्यसे प्रीति करनेवाले तथा शान्त होते हैं। जैसे एक दियेसे सैकड़ों दिये उत्पन्न होते हैं, वैसे ही एक परमात्मासे सब कुछ उत्पन्न हुआ है — ऐसी तात्त्विक दृष्टि उनकी रहती है ॥

भक्त निर्धूम अग्निशिखाकी भाँति गुणमुक्त एवं आत्मनिष्ठ होकर हृदयमें ब्रह्माके भी स्वामी भगवान् वासुदेवका भजन करते हैं। जिस प्रकार हम एक ही चन्द्रबिम्बको अनेकों घड़ोंके जल में देखते हैं, उसी प्रकार आत्मा के एकत्व का दर्शन करके श्रेष्ठ परमहंस भी कृतार्थ होते हैं ।। ९-११ ॥

 

निरन्तर स्तवन करते रहनेपर भी वेद जिनके माहात्म्यके षोडशांशका भी कभी ज्ञान नहीं प्राप्त कर सके, तब त्रिलोकीमें उन श्रीहरिके गुणोंका वर्णन भला, दूसरा कौन कर सकता है ? मैं चार मुखोंसे, देवाधिदेव महादेवजी पाँच मुखोंसे तथा हजार मुखवाले शेषजी अपने सहस्र मुखोंसे जिनकी स्तुति सेवा करते हैं; वैकुण्ठनिवासी विष्णु, क्षीरोदशायी साक्षात् हरि और धर्मसुत नारायण ऋषि उन गोलोकपति आपकी सेवा किया करते हैं ।। १२-१४ ॥

 

अहा ! मुरारे ! आपकी महिमा धन्य है । भूतलपर उस महिमा को न मुनिगण जानते हैं न मनुष्य ही । सुर-असुर तथा चौदहों मनु भी उसे जाननेमें असमर्थ हैं। ये सब स्वप्नमें भी आपके चरणकमलों के दर्शन पानेमें असमर्थ हैं। गुणोंके सागर, मुक्तिदाता, परात्पर, रमापति, गुणेश, व्रजेश्वर श्रीहरिको मैं नमस्कार करता हूँ । ताम्बूल-रागरञ्जित सुन्दर मुखसे सुशोभित, मधुरभाषी, पके हुए बिम्बफलके समान लाल-लाल अधरोंवाले, स्मिताहास्ययुक्त, कुन्दकलीके समान शुभ्र दन्तपंक्तिसे जगमगाते हुए, नील अलकोंसे आवृत्त कपोलोंवाले, मनोहर - कान्ति तथा झूलते हुए स्वर्ण-कुण्डलोंसे मण्डित श्रीकृष्णकी मैं वन्दना करता हूँ ।। १५-१७ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट ०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट०२)

ध्यान-विधि और भगवान्‌ के विराट्स्वरूप का वर्णन

प्रायेण मुनयो राजन् निवृत्ता विधिषेधतः ।
नैर्गुण्यस्था रमंते स्म गुणानुकथने हरेः ॥ ७ ॥
इदं भागवतं नाम पुराणं ब्रह्मसम्मितम् ।
अधीतवान् द्वापरादौ पितुर्द्वैपायनादहम् ॥ ८ ॥
परिनिष्ठितोऽपि नैर्गुण्य उत्तमश्लोकलीलया ।
गृहीतचेता राजर्षे आख्यानं यत् अधीतवान् ॥ ९ ॥
तदहं तेऽभिधास्यामि महापौरुषिको भवान् ।
यस्य श्रद्दधतामाशु स्यान् मुकुंदे मतिः सती ॥ १० ॥
एतन्निर्विद्यमानानां इच्छतां अकुतोभयम् ।
योगिनां नृप निर्णीतं हरेर्नामानुकीर्तनम् ॥ ११ ॥

(श्रीशुकदेवजी कहते हैं) परीक्षित्‌ ! जो निर्गुण स्वरूपमें स्थित हैं एवं विधि-निषेधकी मर्यादाको लाँघ चुके हैं, वे बड़े-बड़े ऋषि- मुनि भी प्राय: भगवान्‌ के अनन्त कल्याणमय गुणगणोंके वर्णनमें रमे रहते हैं ॥ ७ ॥ द्वापरके अन्तमें इस भगवद्रूप अथवा वेदतुल्य श्रीमद्भागवत नाम के महापुराण का अपने पिता श्रीकृष्णद्वैपायन से मैंने अध्ययन किया था ॥ ८ ॥ राजर्षे ! मेरी निर्गुणस्वरूप परमात्मा में पूर्ण निष्ठा है। फिर भी भगवान्‌ श्रीकृष्ण की मधुर लीलाओंने बलात् मेरे हृदयको अपनी ओर आकर्षित कर लिया। यही कारण है कि मैंने इस पुराणका अध्ययन किया ॥ ९ ॥ तुम भगवान्‌ के परमभक्त हो, इसलिये तुम्हें मैं इसे सुनाऊँगा। जो इसके प्रति श्रद्धा रखते हैं, उनकी शुद्ध चित्तवृत्ति भगवान्‌ श्रीकृष्ण के चरणों में अनन्य प्रेमके साथ बहुत शीघ्र लग जाती है ॥ १० ॥ जो लोग लोक या परलोक की किसी भी वस्तुकी इच्छा रखते हैं, या इसके विपरीत संसारमें दु:खका अनुभव करके जो उससे विरक्त हो गये हैं और निर्भय मोक्षपदको प्राप्त करना चाहते हैं, उन साधकों के लिये तथा योगसम्पन्न सिद्ध ज्ञानियोंके लिये भी समस्त शास्त्रोंका यही निर्णय है कि वे भगवान्‌के नामोंका प्रेमसे सङ्कीर्तन करें ॥ ११ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०१) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन श्र...