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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
बीसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)
श्रीराधा
और श्रीकृष्ण के परस्पर शृङ्गार-धारण, रास, जलविहार एवं वनविहार का वर्णन
श्रीनारद उवाच -
जगत्कर्ता पालकस्त्वं संहारस्यापि नायकः ।
तच्छ्रुत्वा वेत्रदण्डेन कृष्णो भूमिं तताड ह ॥ २६ ॥
तदैव निर्गतः स्रोतो वेत्रगंगेति कथ्यते ।
यज्जलस्पर्शमात्रेण ब्रह्महत्या प्रमुच्यते ॥ २७ ॥
तत्र स्नात्वा नरः कोऽपि गोलोकं याति मैथिल ।
गोपीभी राधया सार्धं श्रीकृष्णो भगवान् हरिः ॥ २८ ॥
वारां विहारं कृतवान् देवो मदनमोहनः ।
ततः कुमुद्वनं प्राप्तो लतावृन्दं मनोहरम् ॥ २९ ॥
भ्रमरध्वनिसंयुक्तं चक्रे रासं सखीजनैः ।
राधा तत्रैव शृङ्गारं श्रीकृष्णस्य चकार ह ॥ ३० ॥
पुष्पैर्नानाविधैर्द्रव्यैः पश्यन्तीनां व्रजौकसाम् ।
चम्पकोद्यत्परिकरः स्वर्णयूथीभुजांगदः ॥ ३१ ॥
सहस्रदलराजीव कर्णिकाविलसच्छ्रुतिः ।
मोहिनीमालिनीकुन्दकेतकीहारभृद्धरिः ॥ ३२ ॥
कदम्बपुष्पविलसत्किरीटकटकोज्ज्वलः ।
मंदारपुष्पोत्तरीयपद्मयष्टिधरः प्रभुः ॥ ३३ ॥
तुलसीमंजरीयुक्तवनमालाविभूषितः ।
एवं शृङ्गारतां प्राप्तः श्रीकृष्णः प्रियया स्वया ॥ ३४ ॥
बभौ कुमुद्वने राजन् वसन्तो हर्षितो यथा
मृदंगवीणावशीभिर्मुरुयष्टिसुकांस्यकैः ॥ ३५ ॥
तालशेषैस्तलैर्युक्ता जगुर्गोप्यो मनोहरम् ।
भैरवं मेघमल्लारं दीपकं मालकोशकम् ॥ ३६ ॥
श्रीरागं चापि हिन्दोलं रागमेवं पृथक् पृथक् ।
अष्टतालैस्त्रिभिर्ग्रामैः स्वरैः सप्तभिरग्रतः ॥ ३७ ॥
नृत्यैर्नानाविधै रम्यैः हावभावसमन्वितैः ।
तोषयन्त्यो हरिं राह्दां कटाक्षैर्व्रजगोपिकाः ॥ ३८ ॥
गायन्मधुवनं प्रागात्सुंदरीगणसंवृतः ।
रासेश्वर्या रासलीलां चक्रे रासेश्वरः स्वयम् ॥ ३९ ॥
वैशाखचंद्रकौमुद्या मालतीगंधवायुना ।
स्फुरत्सुगंधकह्लार पतद्रेणूत्करेण वै ॥ ४० ॥
विकचन् माधवीवृंदैः शोभिते निर्जने वने ।
रेमे गोपीगणैः कृष्णो नन्दने वृत्रहा यथा ॥ ४१ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं-
यह सुनकर श्रीकृष्णने बेंत की छड़ी से भूमिपर
ताड़न किया। इससे वहाँ तत्काल पानी का स्रोत निकल आया, जिसे
'वेत्रगङ्गा' कहते हैं। उसके जलका स्पर्श करनेमात्र से ब्रह्महत्या
दूर हो जाती है । मिथिलेश्वर ! उस वेत्रगङ्गा में स्नान करके
कोई भी मनुष्य गोलोकधाममें जानेका अधिकारी हो जाता है । मदनमोहनदेव भगवान् श्रीकृष्ण
हरि वहाँ श्रीराधा तथा गोपाङ्गनाओंके साथ जलविहार करके कुमुदवनमें गये, जो लता-बेलों के जाल से मनोहर जान पड़ता था ॥२६-२९॥
वहाँ भ्रमरों की ध्वनि सब ओर गूँज रही थी । उस वनमें भी सखियोंके साथ श्रीहरिने
रास किया । वहीं श्रीराधाने व्रजाङ्गनाओं के सामने नाना प्रकारके
दिव्य पुष्पोंद्वारा श्रीकृष्णका शृङ्गार किया । चम्पाके फूलोंसे कटिप्रदेशको अलंकृत
किया। सुनहरी जूहीके पुष्पों- द्वारा निर्मित बाजूबंद धारण कराया ॥३०-३१॥
सहस्रदल कमल की कर्णिकाओं को कुण्डल का
रूप देकर उससे कानों की शोभा बढ़ायी गयी। मोहिनी, मालिनी, कुन्द
और केतकी के फूलों से निर्मित हार श्रीकृष्णने
धारण किया ॥३२ ॥
कदम्ब
के फूलों से शोभायमान किरीट और कड़े धारण करके श्रीहरि के श्रीअङ्ग और भी उद्भासित हो उठे थे। मन्दार – पुष्पों का उत्तरीय (दुपट्टा) और कमल के फूलों की छड़ी धारण किये प्रभु श्यामसुन्दर बड़ी शोभा पाते थे । तुलसी- मञ्जरी से युक्त वनमाला उन्हें विभूषित कर रही थी। राजन् ! अपनी प्रियतमा के द्वारा इस प्रकार शृङ्गार धारण कराये जानेपर श्रीकृष्ण उस कुमुदवन में हर्षोत्फुल्ल मूर्तिमान् वसन्त की भाँति
शोभा पाने लगे ।।३३- ३४॥
मृदङ्ग, वीणा, वंशी,
मुरचंग, झाँझ और करताल आदि वाद्योंके साथ गोपियाँ ताली बजाती हुई मनोहर गीत गाने लगीं।
भैरव, मेघमल्लार, दीपक, मालकोश, श्रीराग और हिन्दोल राग-इन सब को
पृथक् पृथक् गाकर आठ ताल, तीन ग्राम और सात स्वरोंसे तथा हाव-भाव समन्वित नाना प्रकारके
रमणीय नृत्योंसे कटाक्ष-विक्षेपपूर्वक व्रजगोपिकाएँ श्रीराधा और श्यामसुन्दरको रिझाने
लगीं ॥३५-३८ ॥
वहाँसे मधुर गीत गाते
हुए माधव उन सुन्दरियों के साथ मधुवनमें गये। वहाँ पहुँचकर स्वयं
रासेश्वर श्रीकृष्ण ने रासेश्वरी श्रीराधा के
साथ रासक्रीड़ा की । वैशाख मास के चन्द्रमा की चाँदनी में प्रकाशमान सौगन्धिक कहार-कुसुमों से झरते हुए परागों से पूर्ण तथा मालती की सुगन्ध से वासित वायु चल रही थी और चारों
ओर माधवी लताओं के फूल खिल रहे थे। इन सबसे सुशोभित निर्जन वनमें
गोपाङ्गनाओंके साथ श्रीकृष्ण उसी प्रकार रम रहे थे, जैसे नन्दनवनमें देवराज इन्द्र
विहार करते हैं ॥ ३९–४१ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहिता में
वृन्दावनखण्ड के अन्तर्गत 'रासक्रीड़ा' नामक बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥२० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से