शनिवार, 10 अगस्त 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) इक्कीसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

इक्कीसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

 

गोपाङ्गनाओंके साथ श्रीकृष्णका वन-विहार, रास-क्रीड़ा, मानवती गोपियोंको छोड़कर श्रीराधाके साथ एकान्त-विहार तथा मानिनी श्रीराधाको भी छोड़कर उनका अन्तर्धान होना

 

श्रीबहुलाश्व उवाच -
राधेशो राधया सार्धं संकेतवटमाविशत् ।
प्रियायाः कबरीपुष्परचनां स चकार ह ॥ १७ ॥
श्रीनारद उवाच -
श्रीकृष्णो राधया सार्धं संकेतवटमाविशत् ।
चित्रपत्रावलीः कृष्ण पूर्णेन्दुमुखमंडले ॥ १९ ॥
एवं कृष्णो भद्रवनं खदिराणां वनं महत् ।
बिल्वानां च वनं पश्यन् कोकिलाख्यं वनं गतः ॥ २० ॥
गोप्यः कृष्णं विचिन्वन्त्यो ददृशुस्तत्पदानि च ।
यवचक्रध्वजच्छत्रैः स्वस्तिकाङ्कुशबिन्दुभिः ॥ २१ ॥
अष्टकोणेन वज्रेण पद्मेनाभियुतानि च ।
नीलशङ्खघटैर्मत्स्यत्रिकोणेषूर्ध्वधारकैः ॥ २२ ॥
धनुर्गोखुरचन्द्रार्द्धशोभितानि महात्मनः ।
तत्पदान्यनुसारेण व्रजन्त्यो गोपिकास्ततः ॥ २३ ॥
तद्‌रजः सततं नीत्वा धृत्वा मूर्ध्नि व्रजांगनाः ।
पदान्यन्यानि ददृशुरन्यचिह्नान्वितानि च ॥ २४ ॥
केतुपद्मातपत्रैश्च यवेनाथोर्ध्वरेखया ।
चक्रचंद्रार्धांकुशकैर्बिंदुभिः शोभितानि च ॥ २५ ॥
लवंगलतिकाभिश्च विचित्राणि विदेहराट् ।
गदापाठीनशंखैश्च गिरिराजेन शक्तिभिः ॥ २६ ॥
सिंहासनरथाभ्यां च बिंदुद्वययुतानि च ।
वीक्ष्य प्राहू राधिकया गतोऽसौ नंदनंदनः ॥ २७ ॥
पश्यत्यस्तत्पादपद्मं कोकिलाख्यं वनं गताः ।
गोपीकोलाहलं श्रुत्वा राधिकां प्राह माधवः ॥ २८ ॥
कोटिचंद्रप्रतीकाशे राधे सर्प त्वरं प्रिये ।
आगता गोपिकाः सर्वास्त्वां नेष्यन्ति हि सर्वतः ॥ २९ ॥
तदा मानवती राधा भूत्वा प्राह रमापतिम् ।
रूपयौवनकौशल्यशीलगर्वसमन्विता ॥ ३० ॥

बहुलाश्वने पूछा - प्रभो ! राधावल्लभ श्याम सुन्दर अन्य गोपियोंको छोड़कर श्रीराधिकाके साथ कहाँ चले गये ? फिर गोपियोंको उनका दर्शन कैसे हुआ ? ।। १७ ।।

श्रीनारदजी कहते हैं - राजन् ! भगवान् श्रीकृष्ण श्रीराधिकाके साथ संकेतवटके नीचे चले गये और वहाँ प्रियतमा श्रीराधाके केशपाशों की वेणीमें पुष्परचना करने लगे। श्रीकृष्णके नीले केशोंमें श्रीराधिका ने वक्रता स्थापित की अर्थात् अपने केशरचना - कौशलसे उनके केशोंको घुँघराला बना दिया और उनके पूर्ण चन्द्रोपम मुखमण्डलमें उन्होंने विचित्र पत्रावलीकी रचना की ।। १८-१९ ।।

इस प्रकार परस्पर शृङ्गार करके श्रीकृष्ण प्रियाके साथ भद्रवन, महान् खदिरवन, बिल्ववन और कोकिलावनमें गये। उधर श्रीकृष्णको खोजती हुई गोपियोंने उनके चरणचिह्न देखे। जौ, चक्र, ध्वजा, छत्र, स्वस्तिक, अङ्कुश, बिन्दु, अष्टकोण, वज्र, कमल, नीलशङ्ख, घट, मत्स्य, त्रिकोण, बाण, ऊर्ध्वरेखा, धनुष, गोखुर और अर्धचन्द्रके चिह्नोंसे सुशोभित महात्मा श्रीकृष्ण के पदचिह्नों का अनुसरण करती हुई गोपाङ्गनाएँ उन चिह्नों की धूलि ले-लेकर अपने मस्तकपर रखतीं और आगे बढ़ती जाती थीं। फिर उन्होंने श्रीकृष्ण के चरणचिह्नों के साथ-साथ दूसरे पदचिह्न भी देखे । वे ध्वजा, पद्म, छत्र, जौ, ऊर्ध्वरेखा, चक्र, अर्धचन्द्र, अङ्कुश और बिन्दुओंसे शोभित थे। विदेहराज ! लवङ्गलता, गदा, पाठीन (मत्स्य), शङ्ख, गिरिराज, शक्ति, सिंहासन, रथ और दो बिन्दुओंके चिह्नोंसे विचित्र शोभाशाली उन चरणचिह्नों को देखकर गोपियाँ परस्पर कहने लगीं- 'निश्चय ही नन्दनन्दन श्रीराधिका को साथ लेकर गये हैं ।' श्रीकृष्ण-चरण- अरविन्दों के चिह्न निहारती हुई गोपियाँ कोकिलावन में जा पहुँचीं ॥ २०-२७ ॥

उन गोपाङ्गनाओंका कोलाहल सुनकर माधव ने श्रीराधासे कहा 'कोटि चन्द्रमाओंको अपने सौन्दर्यसे तिरस्कृत करनेवाली प्रिये श्रीराधे ! सब ओरसे गोपिकाएँ आ पहुँचीं। अब वे तुम्हें अपने साथ ले जायँगी । अतः यहाँसे जल्दी निकल चलो।' उस समय रूप, यौवन, कौशल्य (चातुरी) और शीलके गर्वसे गरबीली मानवती राधा रमापतिसे बोलीं ॥ २८-३० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

विराट् स्वरूप की विभूतियों का वर्णन

ब्रह्मोवाच ।

वाचां वह्नेर्मुखं क्षेत्रं छन्दसां सप्त धातवः ।
हव्यकव्यामृत अन्नानां जिह्वा सर्व रसस्य च ॥ १ ॥
सर्वा असूनां च वायोश्च तत् नासे परमायणे ।
अश्विनोः ओषधीनां च घ्राणो मोद प्रमोदयोः ॥ २ ॥
रूपाणां तेजसां चक्षुः दिवः सूर्यस्य चाक्षिणी ।
कर्णौ दिशां च तीर्थानां श्रोत्रं आकाश शब्दयोः ।
तद्‍गात्रं वस्तुसाराणां सौभगस्य च भाजनम् ॥ ३ ॥

ब्रह्माजी कहते हैं—उन्हीं विराट् पुरुष के मुखसे वाणी और उसके अधिष्ठातृदेवता अग्नि उत्पन्न हुए हैं। सातों छन्द [*] उनकी सात धातुओंसे निकले हैं। मनुष्यों, पितरों और देवताओंके भोजन करनेयोग्य अमृतमय अन्न, सब प्रकारके रस, रसनेन्द्रिय और उसके अधिष्ठातृदेवता वरुण विराट् पुरुषकी जिह्वासे उत्पन्न हुए हैं ॥ १ ॥ उनके नासाछिद्रोंसे प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान—ये पाँचों प्राण और वायु तथा घ्राणेन्द्रियसे अश्विनीकुमार, समस्त ओषधियाँ एवं साधारण तथा विशेष गन्ध उत्पन्न हुए हैं ॥ २ ॥ उनकी नेत्रेन्द्रिय रूप और तेजकी तथा नेत्र-गोलक स्वर्ग और सूर्यकी जन्मभूमि हैं। समस्त दिशाएँ और पवित्र करनेवाले तीर्थ कानोंसे तथा आकाश और शब्द श्रोत्रेन्द्रिय से निकले हैं। उनका शरीर संसारकी सभी वस्तुओंके सारभाग तथा सौन्दर्यका खजाना है ॥ ३ ॥ 

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[*] गायत्री, त्रिष्टुप्, अनुष्टुप्, उष्णिक्, बृहती, पङ्क्ति और जगती—ये सात छन्द हैं।

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शुक्रवार, 9 अगस्त 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) इक्कीसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

इक्कीसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

 

गोपाङ्गनाओं के साथ श्रीकृष्णका वन-विहार, रास-क्रीड़ा, मानवती गोपियों को छोड़कर श्रीराधा के साथ एकान्त-विहार तथा मानिनी श्रीराधाको भी छोड़कर उनका अन्तर्धान होना

 

श्रीनारद उवाच -
इत्थं कुंदवने रम्ये मालतीनां वने शुभे ।
आम्राणां नागरंगाणां निंबूनां सघने वने ॥ १ ॥
दाडिमीनां च द्राक्षाणां बदामानां वने नृप ।
कदम्बानां श्रीफलानां कुटजानां तथैव च ॥ २ ॥
वटानां पनसानां च पिप्पलानां वने शुभे ।
तुलसीकोविदाराणां केतकीकदलीवने ॥ ३ ॥
करिल्लकुञ्जबकुलमन्दाराणां वने हरिः ।
चरन्कामवनं प्रागाद्‌राजन् व्रजवधूवृतः ॥ ४ ॥
तत्रैव पर्वते कृष्णो ननाद मुरली कलम् ।
मूर्च्छिता विह्वला जातास्तन्नादेन व्रजांगनाः ॥ ५ ॥
मनोजबाणभिन्नांगाः श्लथन्नीव्यः सुरैः सह ।
कश्मलं प्रययू राजन् विमानेष्वमरांगनाः ॥ ६ ॥
चतुर्विधा जीवसंघाः स्थावरैर्मोहमास्थिताः ।
नद्यो नदाः स्थिरीभूताः पर्वता द्रवतां गताः ॥ ७ ॥
तत्पादचिह्नसंयुक्तो गिरिः कामवनेऽभवत् ।
तस्य दर्शनमात्रेण नरो याति कृतार्थताम् ॥ ८ ॥
अथ गोपीगणैः साकं श्रीकृष्णो राधिकापतिः ।
नंदीश्वरबृहत्सानुतटे रासं चकार ह ।
तत्र गोप्योऽतिमानिन्यो बभूवुर्मैथिलेश्वर ।
तास्त्यक्त्वा राधया सार्धं तत्रैवान्तर्दधे हरिः ॥ १० ॥
गोप्यश्च सर्वा विरहातुरा भृशं
     कृष्णं विना मैथिल निर्जने वने ।
ता बभ्रमुश्चाश्रुकलाकुलाक्ष्यो
     यथा हरिण्यश्चकिता इतस्ततः ॥ ११ ॥
कृष्णं ह्यपश्यन्त्य इति व्यथां गता
     यथा करिण्यः करिणं वने वने ।
यथा कुरर्यः कुररं व्रजांगनाः
     सर्वा रुदन्त्यो विरहातुरा भृशम् ॥ १२ ॥
उन्मत्तवद्‌वृक्षलताकदम्बकं
     सर्वा मिलित्वा च पृथग्वने वने ।
पप्रच्छुरारान्नृप नंदनंदनं
     कुत्र स्थितं तं वदताशु भूरुहाः ॥ १३ ॥
श्रीकृष्ण कृष्णेति गिरा वदन्त्यः
     श्रीकृष्णपादांबुजलग्नमानसाः ।
श्रीकृष्णरूपास्तु बभूवुरंगनाः
     चित्रं न पेशस्कृतमेत्य कीटवत् ॥ १४ ॥
श्रीपादुकाधःस्थलगोपिगोप्यः
     श्रीपादुकाब्जं शरनं प्रपन्नाः ॥ १५ ॥
ततस्तु तत्प्रसादेन तत्पदार्चनदर्शनात् ।
ददृशुर्गां तदा गोप्यो भगवत्पाद चिह्निताम् ॥ १६ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— नरेश्वर ! इस प्रकार रमणीय कुमुदवनमें मालती पुष्पोंके सुन्दर वनमें; आम, नारंगी तथा नींबुओंके सघन उपवनमें: अनार, दाख और बादामोंके विपिनमें; कदम्ब, श्रीफल (बेल) और कुटजोंके काननमें; बरगद, कटहल और पीपलों- के सुन्दर वनमें; तुलसी, कोविदार, केतकी, कदली, करील-कुञ्ज, बकुल (मौलिश्री) तथा मन्दारोंके मनोहर विपिनमें विचरते हुए श्यामसुन्दर व्रज- वधूटियोंके साथ कामवनमें जा पहुँचे ॥ १-४ ॥

वहीं एक पर्वतपर श्रीकृष्णने मधुर स्वरमें बाँसुरी बजायी। उसकी मोहक तान सुनकर व्रजसुन्दरियाँ मूच्छित और विह्वल हो गयीं। राजन् ! आकाशमें देवताओंके साथ विमानोंपर बैठी हुई देवाङ्गनाएँ भी मोहित हो गयीं। कामदेवके बाणोंसे उनके अङ्ग अङ्ग बिंध गये तथा उनके नीबी-बन्ध ढीले होकर खिसकने लगे। स्थावरोंसहित चारों प्रकारके जीवसमुदाय मोहको प्राप्त हो गये, नदियों और नदोंका पानी स्थिर हो गया तथा पर्वत भी पिघलने लगे। कामवनकी पहाड़ी श्यामसुन्दरके चरणचिह्नोंसे युक्त हो गयी, जिसे 'चरण-पहाड़ी' कहते हैं। उसके दर्शनमात्रसे मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है । ५-८ ॥

तदनन्तर राधावल्लभ श्रीकृष्ण ने नन्दीश्वर तथा बृहत्सानुगिरियों के तट प्रान्त में रास - विलास किया। मिथिलेश्वर ! वहाँ गोपियोंको अपने सौभाग्य पर बड़ा अभिमान हो गया, तब श्रीहरि उन सबको वहीं छोड़ श्रीराधाके साथ अदृश्य हो गये। मिथिलानरेश ! उस निर्जन वनमें श्रीकृष्णके बिना समस्त गोपाङ्गनाएँ विरह की आगमें जलने लगीं। उनके नेत्र आँसुओं से भर गये और वे चकित हिरनियों की भाँति इधर-उधर भटकने लगीं ९-११

जैसे वन में हाथी के बिना हथिनियाँ और कुरर के बिना कुररियाँ व्यथित होकर करुण क्रन्दन करती हैं, उसी प्रकार श्रीकृष्ण को न देखकर व्यथित तथा विरहसे अत्यन्त व्याकुल हो ब्रजाङ्गनाएँ फूट- फूटकर रोने लगीं। राजन् ! नरेश्वर ! वे सब की - सब एक साथ मिलकर तथा पृथक्-पृथक् दल बनाकर वन-वनमें जातीं और उन्मत्तकी तरह वृक्षों तथा लता- समूहोंसे पूछतीं— 'तरुओ तथा वल्लरियो ! शीघ्र बताओ, हमारे प्यारे नन्दनन्दन कहाँ जा छिपे हैं ?' ॥१२-१३

अपनी वाणीसे 'श्रीकृष्ण ! श्रीकृष्ण !' कहकर पुकारती थीं। उनका चित्त श्रीकृष्णचरणारविन्दों में ही लगा हुआ था। अतः वे सब अङ्गनाएँ श्रीकृष्णस्वरूपा हो गयीं ठीक उसी तरह जैसे भृङ्गके द्वारा बंद किया हुआ कीड़ा उसी के चिन्तन से भृङ्गरूप हो जाता है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है । श्रीकृष्ण की चरणपादुका से चिह्नित स्थानपर पहुँचकर गोपियाँ श्रीपादुकाब्ज की शरण में गयीं । तदनन्तर भगवान्‌ की ही कृपासे उनके चरणचिह्नके अर्चन और दर्शनसे गोपियों को भगवच्चरणचिह्नों से अलंकृत भूमिका विशेषरूपसे दर्शन होने लगा ॥१४-१६

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

सृष्टि-वर्णन

पुरुषस्य मुखं ब्रह्म क्षत्रमेतस्य बाहवः ।
ऊर्वोर्वैश्यो भगवतः पद्‍भ्यां शूद्रोऽभ्यजायत ॥ ३७ ॥
भूर्लोकः कल्पितः पद्‍भ्यां भुवर्लोकोऽस्य नाभितः ।
हृदा स्वर्लोक उरसा महर्लोको महात्मनः ॥ ३८ ॥
ग्रीवायां जनलोकोऽस्य तपोलोकः स्तनद्वयात् ।
मूर्धभिः सत्यलोकस्तु ब्रह्मलोकः सनातनः ॥ ३९ ॥
तत्कट्यां चातलं कॢप्तं ऊरूभ्यां वितलं विभोः ।
जानुभ्यां सुतलं शुद्धं जङ्घाभ्यां तु तलातलम् ॥ ४० ॥
महातलं तु गुल्फाभ्यां प्रपदाभ्यां रसातलम् ।
पातालं पादतलत इति लोकमयः पुमान् ॥ ४१ ॥
भूर्लोकः कल्पितः पद्‍भ्यां भुवर्लोकोऽस्य नाभितः ।
स्वर्लोकः कल्पितो मूर्ध्ना इति वा लोककल्पना ॥ ४२ ॥

(ब्रह्माजी कहते हैं) ब्राह्मण इस विराट् पुरुषका मुख हैं, भुजाएँ क्षत्रिय हैं, जाँघोंसे वैश्य और पैरोंसे शूद्र उत्पन्न हुए हैं ॥ ३७ ॥ पैंरोंसे लेकर कटिपर्यन्त सातों पाताल तथा भूलोककी कल्पना की गयी है; नाभिमें भुवर्लोककी, हृदयमें स्वर्लोककी और परमात्माके वक्ष:स्थलमें महर्लोककी कल्पना की गयी है ॥ ३८ ॥ उसके गलेमें जनलोक, दोनों स्तनोंमें तपोलोक और मस्तकमें ब्रह्माका नित्य निवासस्थान सत्यलोक है ॥ ३९ ॥ उस विराट् पुरुषकी कमरमें अतल, जाँघोंमें वितल, घुटनोंमें पवित्र सुतललोक और जङ्घाओंमें तलातलकी कल्पना की गयी है ॥ ४० ॥ एड़ी के ऊपरकी गाँठोंमें महातल, पंजे और एडिय़ों में रसातल और तलुओंमें पाताल समझना चाहिये। इस प्रकार विराट् पुरुष सर्वलोकमय है ॥ ४१ ॥ विराट् भगवान्‌के अङ्गोंमें इस प्रकार भी लोकोंकी कल्पना की जाती है कि उनके चरणोंमें पृथ्वी है, नाभिमें भुवर्लोक है और सिरमें स्वर्लोक है ॥ ४२ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां द्वितीयस्कंधे पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥

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गुरुवार, 8 अगस्त 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) बीसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

बीसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)

 

श्रीराधा और श्रीकृष्ण के परस्पर शृङ्गार-धारण, रास, जलविहार एवं वनविहार का वर्णन

 

श्रीनारद उवाच -
जगत्कर्ता पालकस्त्वं संहारस्यापि नायकः ।
तच्छ्रुत्वा वेत्रदण्डेन कृष्णो भूमिं तताड ह ॥ २६ ॥
तदैव निर्गतः स्रोतो वेत्रगंगेति कथ्यते ।
यज्जलस्पर्शमात्रेण ब्रह्महत्या प्रमुच्यते ॥ २७ ॥
तत्र स्नात्वा नरः कोऽपि गोलोकं याति मैथिल ।
गोपीभी राधया सार्धं श्रीकृष्णो भगवान् हरिः ॥ २८ ॥
वारां विहारं कृतवान् देवो मदनमोहनः ।
ततः कुमुद्वनं प्राप्तो लतावृन्दं मनोहरम् ॥ २९ ॥
भ्रमरध्वनिसंयुक्तं चक्रे रासं सखीजनैः ।
राधा तत्रैव शृङ्गारं श्रीकृष्णस्य चकार ह ॥ ३० ॥
पुष्पैर्नानाविधैर्द्रव्यैः पश्यन्तीनां व्रजौकसाम् ।
चम्पकोद्यत्परिकरः स्वर्णयूथीभुजांगदः ॥ ३१ ॥
सहस्रदलराजीव कर्णिकाविलसच्छ्रुतिः ।
मोहिनीमालिनीकुन्दकेतकीहारभृद्धरिः ॥ ३२ ॥
कदम्बपुष्पविलसत्किरीटकटकोज्ज्वलः ।
मंदारपुष्पोत्तरीयपद्मयष्टिधरः प्रभुः ॥ ३३ ॥
तुलसीमंजरीयुक्तवनमालाविभूषितः ।
एवं शृङ्गारतां प्राप्तः श्रीकृष्णः प्रियया स्वया ॥ ३४ ॥
बभौ कुमुद्वने राजन् वसन्तो हर्षितो यथा
मृदंगवीणावशीभिर्मुरुयष्टिसुकांस्यकैः ॥ ३५ ॥
तालशेषैस्तलैर्युक्ता जगुर्गोप्यो मनोहरम् ।
भैरवं मेघमल्लारं दीपकं मालकोशकम् ॥ ३६ ॥
श्रीरागं चापि हिन्दोलं रागमेवं पृथक् पृथक् ।
अष्टतालैस्त्रिभिर्ग्रामैः स्वरैः सप्तभिरग्रतः ॥ ३७ ॥
नृत्यैर्नानाविधै रम्यैः हावभावसमन्वितैः ।
तोषयन्त्यो हरिं राह्दां कटाक्षैर्व्रजगोपिकाः ॥ ३८ ॥
गायन्मधुवनं प्रागात्सुंदरीगणसंवृतः ।
रासेश्वर्या रासलीलां चक्रे रासेश्वरः स्वयम् ॥ ३९ ॥
वैशाखचंद्रकौमुद्या मालतीगंधवायुना ।
स्फुरत्सुगंधकह्लार पतद्‌रेणूत्करेण वै ॥ ४० ॥
विकचन् माधवीवृंदैः शोभिते निर्जने वने ।
रेमे गोपीगणैः कृष्णो नन्दने वृत्रहा यथा ॥ ४१ ॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं- यह सुनकर श्रीकृष्णने बेंत की छड़ी से भूमिपर ताड़न किया। इससे वहाँ तत्काल पानी का स्रोत निकल आया, जिसे 'वेत्रगङ्गा' कहते हैं। उसके जलका स्पर्श करनेमात्र से ब्रह्महत्या दूर हो जाती है । मिथिलेश्वर ! उस वेत्रगङ्गा में स्नान करके कोई भी मनुष्य गोलोकधाममें जानेका अधिकारी हो जाता है । मदनमोहनदेव भगवान् श्रीकृष्ण हरि वहाँ श्रीराधा तथा गोपाङ्गनाओंके साथ जलविहार करके कुमुदवनमें गये, जो लता-बेलों के जाल से मनोहर जान पड़ता था ॥२६-२९

वहाँ भ्रमरों की ध्वनि सब ओर गूँज रही थी । उस वनमें भी सखियोंके साथ श्रीहरिने रास किया । वहीं श्रीराधाने व्रजाङ्गनाओं के सामने नाना प्रकारके दिव्य पुष्पोंद्वारा श्रीकृष्णका शृङ्गार किया । चम्पाके फूलोंसे कटिप्रदेशको अलंकृत किया। सुनहरी जूहीके पुष्पों- द्वारा निर्मित बाजूबंद धारण कराया ॥३०-३१

सहस्रदल कमल की कर्णिकाओं को कुण्डल का रूप देकर उससे कानों की शोभा बढ़ायी गयी। मोहिनी, मालिनी, कुन्द और केतकी के फूलों से निर्मित हार श्रीकृष्णने धारण किया ॥३२

कदम्ब के फूलों से शोभायमान किरीट और कड़े धारण करके श्रीहरि के श्रीअङ्ग और भी उद्भासित हो उठे थे। मन्दार – पुष्पों का उत्तरीय (दुपट्टा) और कमल के फूलों की छड़ी धारण किये प्रभु श्यामसुन्दर बड़ी शोभा पाते थे । तुलसी- मञ्जरी से युक्त वनमाला उन्हें विभूषित कर रही थी। राजन् ! अपनी प्रियतमा के द्वारा इस प्रकार शृङ्गार धारण कराये जानेपर श्रीकृष्ण उस कुमुदवन में हर्षोत्फुल्ल मूर्तिमान् वसन्त की भाँति शोभा पाने लगे ।।३३- ३४॥

मृदङ्ग, वीणा, वंशी, मुरचंग, झाँझ और करताल आदि वाद्योंके साथ गोपियाँ ताली बजाती हुई मनोहर गीत गाने लगीं। भैरव, मेघमल्लार, दीपक, मालकोश, श्रीराग और हिन्दोल राग-इन सब को पृथक् पृथक् गाकर आठ ताल, तीन ग्राम और सात स्वरोंसे तथा हाव-भाव समन्वित नाना प्रकारके रमणीय नृत्योंसे कटाक्ष-विक्षेपपूर्वक व्रजगोपिकाएँ श्रीराधा और श्यामसुन्दरको रिझाने लगीं ॥३५-३८

वहाँसे मधुर गीत गाते हुए माधव उन सुन्दरियों के साथ मधुवनमें गये। वहाँ पहुँचकर स्वयं रासेश्वर श्रीकृष्ण ने रासेश्वरी श्रीराधा के साथ रासक्रीड़ा की । वैशाख मास के चन्द्रमा की चाँदनी में प्रकाशमान सौगन्धिक कहार-कुसुमों से झरते हुए परागों से पूर्ण तथा मालती की सुगन्ध से वासित वायु चल रही थी और चारों ओर माधवी लताओं के फूल खिल रहे थे। इन सबसे सुशोभित निर्जन वनमें गोपाङ्गनाओंके साथ श्रीकृष्ण उसी प्रकार रम रहे थे, जैसे नन्दनवनमें देवराज इन्द्र विहार करते हैं ॥ ३९–४१ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिता में वृन्दावनखण्ड के अन्तर्गत 'रासक्रीड़ा' नामक बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥२० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

सृष्टि-वर्णन

यदैतेऽसङ्गता भावा भूतेन्द्रियमनोगुणाः ।
यदाऽऽयतननिर्माणे न शेकुर्ब्रह्मवित्तम ॥ ३२ ॥
तदा संहत्य चान्योन्यं भगवच्छक्तिचोदिताः ।
सदसत्त्वमुपादाय चोभयं ससृजुर्ह्यदः ॥ ३३ ॥
वर्षपूगसहस्रान्ते तदण्डमुदके शयम् ।
कालकर्मस्वभावस्थो जीवोऽजीवमजीवयत् ॥ ३४ ॥
स एव पुरुषः तस्माद् अण्डं निर्भिद्य निर्गतः ।
सहस्रोर्वङ्‌घ्रिबाह्वक्षः सहस्राननशीर्षवान् ॥ ३५ ॥
यस्येहावयवैर्लोकान् काल्पयन्ति मनीषिणः ।
कट्यादिभिरधः सप्त सप्तोर्ध्वं जघनादिभिः ॥ ३६ ॥

(ब्रह्माजी नारद जी से कहते हैं) श्रेष्ठ ब्रह्मवित् ! जिस समय ये पञ्चभूत, इन्द्रिय, मन और सत्त्व आदि तीनों गुण परस्पर संगठित नहीं थे, तब अपने रहनेके लिये भोगोंके साधनरूप शरीरकी रचना नहीं कर सके ॥ ३२ ॥ जब भगवान्‌ने इन्हें अपनी शक्तिसे प्रेरित किया, तब वे तत्त्व परस्पर एक दूसरेके साथ मिल गये और उन्होंने आपसमें कार्य-कारणभाव स्वीकार करके व्यष्टि-समष्टिरूप पिण्ड और ब्रह्माण्ड दोनोंकी रचना की ॥ ३३ ॥ वह ब्रह्माण्डरूप अंडा एक सहस्र वर्षतक निर्जीवरूपसे जलमें पड़ा रहा; फिर काल, कर्म और स्वभावको स्वीकार करनेवाले भगवान्‌ने उसे जीवित कर दिया ॥ ३४ ॥ उस अंडेको फोडक़र उसमेंसे वही विराट् पुरुष निकला, जिसकी जङ्घा, चरण, भुजाएँ, नेत्र, मुख और सिर सहस्रोंकी संख्यामें हैं ॥ ३५ ॥ विद्वान् पुरुष (उपासनाके लिये) उसी(विराट् पुरुष)के अङ्गोंमें समस्त लोक और उनमें रहनेवाली वस्तुओं की कल्पना करते हैं। उसकी कमर से नीचे के अङ्गों में सातों पाताल की और उसके पेड़ू से ऊपर के अङ्गों में सातों स्वर्ग की कल्पना की जाती है ॥ ३६ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


बुधवार, 7 अगस्त 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) बीसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

बीसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

 

श्रीराधा और श्रीकृष्ण के परस्पर शृङ्गार-धारण, रास, जलविहार एवं वनविहार का वर्णन

 

शिरोमणिं सुंदरी च रत्‍नवेणीं प्रहर्षिणी ।
भूषणे चन्द्रसूर्याख्ये विद्युत्कोटिसमप्रभे ॥ १३ ॥
राधिकायै ददौ देवी वृन्दा वृन्दावनेश्वरी ।
एवं शृङ्गारसंस्फूर्जद्‌रूपया राधया हरिः ॥ १४ ॥
गिरिराजे बभौ राजन् यज्ञो दक्षिणया यथा ।
यत्र वै राधया रासे शृङ्गारोऽकारि मैथिल ॥ १५ ॥
तत्र गोवर्धने जातं स्थलं शृङ्गारमंडलम् ।
अथ कृष्णः स्वप्रियाभिर्ययौ चन्द्रसरोवरम् ॥ १६ ॥
चकार तज्जले क्रीडां गजीभिर्गजराडिव ।
तत्र चंद्रः समागत्य चंद्रकान्तौ मणी शुभौ ॥ १७ ॥
सहस्रदलपद्मे द्वे स्वामिन्यै हरये ददौ ।
अथ कृष्णो हरिः साक्षात् पश्यन् वृंदावनश्रियम् ॥ १८ ॥
प्रययौ बाहुलवनं लताजालसमन्वितम् ।
तत्र स्वेदसमायुक्तं वीक्ष्य सर्वं सखीजनम् ॥ १९ ॥
रागं तु मेघमल्लारं जगौ वंशीधरः स्वयम् ।
सद्यस्तत्रैव ववृषुर्मेधा अंबुकणांस्तथा ॥ २० ॥
तदैव शीतलो वायुर्ववौ गंधमनोहरः ।
तेन गोपीगणाः सर्वे सुखं प्राप्ता विदेहराट् ॥ २१ ॥
जगुर्यशः श्रीमुरारेरुच्चैस्तत्र समन्विताः ।
तस्मात्तालवनं प्रागाच्छ्रीकृष्णो राधिकापतिः ॥ २२ ॥
रासमंडलमारेभे गायन् व्रजवधूवृतः ।
तत्र गोपीगणाः सर्वे स्वेदयुक्तास्तृषातुराः ॥ २३ ॥


गोप्य ऊचुः -
ऊचू रासेश्वरं रासे कृतांजलिपुटाः शनैः ।
दूरं वै यमुना देव तृषा जाता परं हि नः ॥ २४ ॥
कर्तव्यं भवताऽत्रैव रासे दिव्यं मनोहरम् ।
वारां विहारं पानं च करिष्यामो हरे वयम् ॥ २५ ॥

सुन्दरीने चूडामणि तथा प्रहर्षिणीने रत्नमयी वेणी प्रदान की । वृन्दावनाधीश्वरी वृन्दादेवीने श्रीराधाको करोड़ों बिजलियोंके समान विद्योतमान चन्द्र-सूर्य नामक दो आभूषण भेंट किये। इस प्रकार शृङ्गार धारण करके श्रीराधाका रूप दिव्य ज्योतिसे उद्भासित हो

उठा ॥ १- १४ ॥

राजन् ! उनके साथ गिरिराजपर श्रीहरि दक्षिणाके साथ यज्ञनारायणकी भाँति सुशोभित हुए । मिथिलेश्वर ! जहाँ रासमें श्रीराधाने शृङ्गार धारण किया, गोवर्धन पर्वतपर वह स्थान 'शृङ्गार-मण्डल' के नामसे विख्यात हो गया । तदनन्तर श्रीकृष्ण अपनी प्रिया गोपसुन्दरियों के साथ चन्द्रसरोवर पर गये । उसके जलमें उन्होंने हथिनियोंके साथ गजराजकी भाँति विहार किया। वहाँ साक्षात् चन्द्रमाने आकर स्वामिनी श्रीराधा और श्यामसुन्दर श्रीहरिको दो सुन्दर चन्द्रकान्तमणियाँ तथा दो सहस्रदल कमल भेंट किये। तत्पश्चात् साक्षात् श्रीहरि कृष्ण वृन्दावनकी शोभा निहारते हुए लता - वल्लरियोंसे व्याप्त बहुलावनमें गये। वहाँ सम्पूर्ण सखीजनोंको पसीनेसे भींगा देख वंशीधरने 'मेघमल्लार' नामक राग गाया। फिर तो वहाँ उसी समय बादल घिर आये और जलकी फुहारें बरसाने लगे ।। १५ - २० ॥

विदेहराज ! उसी समय अपनी सुगन्धसे सबका मन मोह लेनेवाली शीतल वायु चलने लगी। उससे समस्त गोपाङ्गनाओंको बड़ा सुख मिला। वे वहाँ एकत्र सम्मिलित हो उच्चस्वरसे श्रीमुरारि का यश गाने लगीं । वहाँसे राधावल्लभ श्रीकृष्ण तालवनको गये। उस वनमें व्रजवधूटियों से घिरे हुए श्रीहरिने मण्डलाकार रासनृत्य आरम्भ किया। उस नृत्यमें समस्त गोप- सुन्दरियाँ पसीना-पसीना हो गयीं और प्याससे व्याकुल हो उठीं। उन सबने हाथ जोड़कर रासमण्डलमें रासेश्वरसे कहा ।। २१–२३ ॥

गोपियाँ बोलीं- देव ! यमुनाजी तो यहाँसे बहुत दूर हैं और हमलोगोंको बड़े जोरसे प्यास लगने लगी है। हरे ! हम यह भी चाहती हैं कि आप यहीं दिव्य मनोहर रास करें। हम आपके साथ यहीं जलविहार और जलपान करेंगी। आप इस जगत्के सृष्टि, पालन तथा संहार के भी नायक हैं ।। २४-२५ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

सृष्टि-वर्णन

नभसोऽथ विकुर्वाणाद् अभूत् स्पर्शगुणोऽनिलः ।
परान्वयाच्छब्दवांश्च प्राण ओजः सहो बलम् ॥ २६ ॥
वायोरपि विकुर्वाणात् कालकर्मस्वभावतः ।
उदपद्यत तेजो वै रूपवत् स्पर्शशब्दवत् ॥ २७ ॥
तेजसस्तु विकुर्वाणाद् आसीत् अम्भो रसात्मकम् ।
रूपवत् स्पर्शवच्चाम्भो घोषवच्च परान्वयात् ॥ २८ ॥
विशेषस्तु विकुर्वाणाद् अम्भसो गन्धवानभूत् ।
परान्वयाद् रसस्पर्श शब्दरूपगुणान्वितः ॥ २९ ॥
वैकारिकान्मनो जज्ञे देवा वैकारिका दश ।
दिग्वातार्कप्रचेतोऽश्वि वह्नीन्द्रोपेन्द्रमित्रकाः ॥ ३० ॥
तैजसात्तु विकुर्वाणाद् इंद्रियाणि दशाभवन् ।
ज्ञानशक्तिः क्रियाशक्तिः बुद्धिः प्राणश्च तैजसौ ।
श्रोत्रं त्वग् घ्राण दृग् जिह्वा वाग् दोर्मेढ्राङ्‌घ्रिपायवः ॥ ३१ ॥

(ब्रह्माजी कहते हैं) जब आकाशमें विकार हुआ, तब उससे वायुकी उत्पत्ति हुई; उसका गुण स्पर्श है। अपने कारणका गुण आ जानेसे यह शब्दवाला भी है। इन्द्रियोंमें स्फूर्ति, शरीरमें जीवनीशक्ति, ओज और बल इसीके रूप हैं ॥ २६ ॥ काल, कर्म और स्वभावसे वायुमें भी विकार हुआ। उससे तेजकी उत्पत्ति हुई। इसका प्रधान गुण रूप है। साथ ही इसके कारण आकाश और वायुके गुण शब्द एवं स्पर्श भी इसमें हैं ॥ २७ ॥ तेजके विकारसे जलकी उत्पत्ति हुई। इसका गुण है रस; कारण-तत्त्वोंके गुण शब्द, स्पर्श और रूप भी इसमें हैं ॥ २८ ॥ जलके विकारसे पृथ्वीकी उत्पत्ति हुई, इसका गुण है गन्ध। कारणके गुण कार्यमें आते हैं—इस न्यायसे शब्द, स्पर्श, रूप और रस—ये चारों गुण भी इसमें विद्यमान हैं ॥ २९ ॥ वैकारिक अहंकारसे मनकी और इन्द्रियोंके दस अधिष्ठातृ-देवताओंकी भी उत्पत्ति हुई। उनके नाम हैं—दिशा, वायु, सूर्य, वरुण, अश्विनीकुमार, अग्रि, इन्द्र, विष्णु, मित्र और प्रजापति ॥ ३० ॥ तैजस अहंकारके विकारसे श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और घ्राण—ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ एवं वाक्, हस्त, पाद, गुदा और जननेन्द्रिय—ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ उत्पन्न हुर्ईं। साथ ही ज्ञानशक्तिरूप बुद्धि और क्रियाशक्तिरूप प्राण भी तैजस अहंकारसे ही उत्पन्न हुए ॥ ३१ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


मंगलवार, 6 अगस्त 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) बीसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

बीसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

 

श्रीराधा और श्रीकृष्ण के परस्पर शृङ्गार-धारण, रास, जलविहार एवं वनविहार का वर्णन

 

अथ कृष्णो हरिर्वारि लीलां कृत्त्वा मनोहरः ।
सर्वैर्गोपीगणैः सार्धं गिरिं गोवर्धनं ययौ ॥ १ ॥
गोवर्धने कन्दरायां रत्‍नभूम्यां हरिः स्वयम् ।
रासं च राधया सार्धं रासेश्वर्या चकार ह ॥ २ ॥
तत्र सिंहासने रम्ये तस्थतुः पुष्पसंकुले ।
तडिद्‌घनाविव गिरौ राधाकृष्णौ विरेजतुः ॥ ३ ॥
स्वामिन्यास्तत्र शृङ्गारं चक्रुः सख्यो मुदान्विताः ।
श्रीखण्डकुंकुमाद्यैश्च यावकागुरुकञ्जलैः ॥ ४ ॥
मकरन्दैः कीर्तिसुतां समभ्यर्च्य विधानतः ।
ददौ श्रीयमुना साक्षाद्‌राधायै नूपुराण्यलम् ॥ ५ ॥
मंजीरभूषणं दिव्यं श्रीगंगा जह्नुनन्दिनी ।
श्रीरमा किंकिणीजालं हारं श्रीमधुमाधवी ॥ ६ ॥
चंद्रहारं च विरजा कोटिचंद्रामलं शुभम् ।
ललिता कंचुकमणिं विशाखा कण्ठभूषणम् ॥ ७ ॥
अङ्गुलीयकरत्‍नानि ददौ चंद्रानना तदा ।
एकादशी राधिकायै रत्‍नाढ्यं कंकणद्वयम् ॥ ८ ॥
भुजकंकणरत्‍नानि शतचंद्रानना ददौ ।
तस्यै मधुमती साक्षात् स्फुरद्रत्‍नांगदद्वयम् ॥ ९ ॥
ताटंकयुगलं बन्दी कुंडले सुखदायिनी ।
आनंदी या सखी मुख्या राधायै भालतोरणम् ॥ १० ॥
पद्मा सद्भालतिलकं बिन्दुं चंद्रकला ददौ ।
नासामौक्तिकमालोलं ददौ पद्मावती सती ॥ ११ ॥
बालार्कद्युतिसंयुक्तं भालपुष्पं मनोहरम् ।
श्रीराधायै ददौ राजन् चंद्रकांता सखी शुभा ॥ १२ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! तदनन्तर मनोहर श्यामसुन्दर श्रीहरि जलक्रीड़ा समाप्त करके समस्त गोपाङ्गनाओंके साथ गोवर्धन पर्वतको गये। उस पर्वतकी कन्दरामें रत्नमयी भूमिपर रासेश्वरी श्रीराधाके साथ साक्षात् श्रीहरिने रासनृत्य किया। वहाँ पुष्पोंसे सुसज्जित रम्य सिंहासनपर दोनों प्रिया-प्रियतम श्रीराधा-माधव विराजमान हुए, मानो किसी पर्वतपर विद्युत्-सुन्दरी और श्याम-घन एक साथ सुशोभित हो रहे हों। वहाँ सब सखियोंने बड़ी प्रसन्नताके साथ स्वामिनी श्रीराधाका शृङ्गार किया। चन्दन, केसर, कस्तूरी आदिसे तथा महावर, इत्र, अरगजा और काजल तथा सुगन्धित पुष्प-रसोंसे कीर्तिकुमारी श्रीराधाकी विधिपूर्वक अर्चना करके साक्षात् श्रीयमुना ने उन्हें नूपुर धारण कराया ॥१-५

जह्नुनन्दिनी गङ्गा ने मञ्जीर नामक दिव्य भूषण अर्पित किया। श्रीरमा ने कटिप्रदेश- में किङ्किणी जाल पहिनाया । श्रीमधुमाधवीने कण्ठमें हार अर्पित किया। विरजाने कोटि चन्द्रमाओंके समान उज्ज्वल एवं सुन्दर चन्द्रहार धारण कराया । ललिता ने मणिमण्डित कञ्चुकी पहनायी। विशाखाने कण्ठभूषण धारण कराया । चन्द्रानना ने रत्नमयी मुद्रिकाएँ अर्पित कीं। एकादशीकी अधिष्ठात्री देवीने श्रीराधाको रत्न- जटित दो कंगन भेंट किये। शतचन्द्रानना सखीने रत्नमय भुजकङ्कण ( बाजूबंद, बिजायठ, जोसन और झबिया आदि) दिये। साक्षात् मधुमतीने दो अङ्गद भेंट किये, जिनमें जड़े हुए रत्न उद्दीप्त हो रहे थे ॥६-९

बन्दीने दो ताटङ्क (तरकियाँ) और सुखदायिनीने दो कुण्डल दिये। सखियोंमें प्रधान आनन्दी ने श्रीराधा को भालतोरण भेंट किया। पद्मा ने चन्द्रकलाके समान चमकने वाली माथेकी बेंदी (टिकुली) दी। सती पद्मावतीने नासिकामें मोतीकी बुलाक पहना दी, जो थोड़ी-थोड़ी हिलती रहती थी। राजन् ! सुन्दरी चन्द्र कान्ता सखीने श्रीराधाको प्रातःकालिक सूर्यकी कान्ति- से युक्त मनोहर शीशफूल अर्पित किया ॥१०-१२

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

सृष्टि-वर्णन

कालं कर्म स्वभावं च मायेशो मायया स्वया ।
आत्मन् यदृच्छया प्राप्तं विबुभूषुरुपाददे ॥ २१ ॥
कालाद् गुणव्यतिकरः परिणामः स्वभावतः ।
कर्मणो जन्म महतः पुरुषाधिष्ठितात् अभूत् ॥ २२ ॥
महतस्तु विकुर्वाणाद् रजःसत्त्वोपबृंहितात् ।
तमःप्रधानस्त्वभवद् द्रव्यज्ञानक्रियात्मकः ॥ २३ ॥
सोऽहङ्कार इति प्रोक्तो विकुर्वन्समभूत् त्रिधा ।
वैकारिकस्तैजसश्च तामसश्चेति यद्‌भिदा ।
द्रव्यशक्तिः क्रियाशक्तिः ज्ञानशक्तिरिति प्रभो ॥ २४ ॥
तामसादपि भूतादेः विकुर्वाणाद् अभूत् नभः ।
तस्य मात्रा गुणः शब्दो लिङ्गं यद् द्रष्टृदृश्ययोः ॥ २५ ॥

(ब्रह्माजी कहते हैं) मायापति भगवान्‌ ने एक से बहुत होने की इच्छा होने पर अपनी माया से अपने स्वरूपमें स्वयं प्राप्त काल, कर्म और स्वभाव को स्वीकार कर लिया ॥ २१ ॥ भगवान्‌की शक्तिसे ही काल ने तीनों गुणों में क्षोभ उत्पन्न कर दिया, स्वभावने उन्हें रूपान्तरित कर दिया और कर्मने महत्तत्त्वको जन्म दिया ॥ २२ ॥ रजोगुण और सत्त्वगुणकी वृद्धि होनेपर महत्तत्त्वका जो विकार हुआ, उससे ज्ञान, क्रिया और द्रव्यरूप तम:प्रधान विकार हुआ ॥ २३ ॥ वह अहंकार कहलाया और विकारको प्राप्त होकर तीन प्रकारका हो गया। उसके भेद हैं—वैकारिक, तैजस और तामस। नारदजी ! वे क्रमश: ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति और द्रव्यशक्तिप्रधान हैं ॥ २४ ॥ जब पञ्चमहाभूतोंके कारणरूप तामस अहंकारमें विकार हुआ, तब उससे आकाशकी उत्पत्ति हुई। आकाशकी तन्मात्रा और गुण शब्द है। इस शब्दके द्वारा ही द्रष्टा और दृश्यका बोध होता है ॥ २५ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०१) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन श्र...