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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
इक्कीसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
गोपाङ्गनाओंके साथ श्रीकृष्णका
वन-विहार, रास-क्रीड़ा, मानवती गोपियोंको छोड़कर श्रीराधाके साथ एकान्त-विहार तथा मानिनी
श्रीराधाको भी छोड़कर उनका अन्तर्धान होना
श्रीबहुलाश्व
उवाच -
राधेशो राधया सार्धं संकेतवटमाविशत् ।
प्रियायाः कबरीपुष्परचनां स चकार ह ॥ १७ ॥
श्रीनारद उवाच -
श्रीकृष्णो राधया सार्धं संकेतवटमाविशत् ।
चित्रपत्रावलीः कृष्ण पूर्णेन्दुमुखमंडले ॥ १९ ॥
एवं कृष्णो भद्रवनं खदिराणां वनं महत् ।
बिल्वानां च वनं पश्यन् कोकिलाख्यं वनं गतः ॥ २० ॥
गोप्यः कृष्णं विचिन्वन्त्यो ददृशुस्तत्पदानि च ।
यवचक्रध्वजच्छत्रैः स्वस्तिकाङ्कुशबिन्दुभिः ॥ २१ ॥
अष्टकोणेन वज्रेण पद्मेनाभियुतानि च ।
नीलशङ्खघटैर्मत्स्यत्रिकोणेषूर्ध्वधारकैः ॥ २२ ॥
धनुर्गोखुरचन्द्रार्द्धशोभितानि महात्मनः ।
तत्पदान्यनुसारेण व्रजन्त्यो गोपिकास्ततः ॥ २३ ॥
तद्रजः सततं नीत्वा धृत्वा मूर्ध्नि व्रजांगनाः ।
पदान्यन्यानि ददृशुरन्यचिह्नान्वितानि च ॥ २४ ॥
केतुपद्मातपत्रैश्च यवेनाथोर्ध्वरेखया ।
चक्रचंद्रार्धांकुशकैर्बिंदुभिः शोभितानि च ॥ २५ ॥
लवंगलतिकाभिश्च विचित्राणि विदेहराट् ।
गदापाठीनशंखैश्च गिरिराजेन शक्तिभिः ॥ २६ ॥
सिंहासनरथाभ्यां च बिंदुद्वययुतानि च ।
वीक्ष्य प्राहू राधिकया गतोऽसौ नंदनंदनः ॥ २७ ॥
पश्यत्यस्तत्पादपद्मं कोकिलाख्यं वनं गताः ।
गोपीकोलाहलं श्रुत्वा राधिकां प्राह माधवः ॥ २८ ॥
कोटिचंद्रप्रतीकाशे राधे सर्प त्वरं प्रिये ।
आगता गोपिकाः सर्वास्त्वां नेष्यन्ति हि सर्वतः ॥ २९ ॥
तदा मानवती राधा भूत्वा प्राह रमापतिम् ।
रूपयौवनकौशल्यशीलगर्वसमन्विता ॥ ३० ॥
बहुलाश्वने पूछा - प्रभो
! राधावल्लभ श्याम सुन्दर अन्य गोपियोंको छोड़कर श्रीराधिकाके साथ कहाँ चले गये ? फिर
गोपियोंको उनका दर्शन कैसे हुआ ? ।। १७ ।।
श्रीनारदजी कहते हैं
- राजन् ! भगवान् श्रीकृष्ण श्रीराधिकाके साथ संकेतवटके नीचे चले गये और वहाँ प्रियतमा
श्रीराधाके केशपाशों की वेणीमें पुष्परचना करने लगे। श्रीकृष्णके
नीले केशोंमें श्रीराधिका ने वक्रता स्थापित की अर्थात् अपने
केशरचना - कौशलसे उनके केशोंको घुँघराला बना दिया और उनके पूर्ण चन्द्रोपम मुखमण्डलमें
उन्होंने विचित्र पत्रावलीकी रचना की ।। १८-१९ ।।
इस प्रकार परस्पर शृङ्गार
करके श्रीकृष्ण प्रियाके साथ भद्रवन, महान् खदिरवन, बिल्ववन और कोकिलावनमें गये। उधर
श्रीकृष्णको खोजती हुई गोपियोंने उनके चरणचिह्न देखे। जौ, चक्र, ध्वजा, छत्र, स्वस्तिक,
अङ्कुश, बिन्दु, अष्टकोण, वज्र, कमल, नीलशङ्ख, घट, मत्स्य, त्रिकोण, बाण, ऊर्ध्वरेखा,
धनुष, गोखुर और अर्धचन्द्रके चिह्नोंसे सुशोभित महात्मा श्रीकृष्ण के
पदचिह्नों का अनुसरण करती हुई गोपाङ्गनाएँ उन चिह्नों की धूलि ले-लेकर अपने मस्तकपर रखतीं और आगे बढ़ती जाती थीं। फिर उन्होंने
श्रीकृष्ण के चरणचिह्नों के साथ-साथ दूसरे
पदचिह्न भी देखे । वे ध्वजा, पद्म, छत्र, जौ, ऊर्ध्वरेखा, चक्र, अर्धचन्द्र, अङ्कुश
और बिन्दुओंसे शोभित थे। विदेहराज ! लवङ्गलता, गदा, पाठीन (मत्स्य), शङ्ख, गिरिराज,
शक्ति, सिंहासन, रथ और दो बिन्दुओंके चिह्नोंसे विचित्र शोभाशाली उन चरणचिह्नों को देखकर गोपियाँ परस्पर कहने लगीं- 'निश्चय ही नन्दनन्दन श्रीराधिका को साथ लेकर गये हैं ।' श्रीकृष्ण-चरण- अरविन्दों के चिह्न निहारती हुई गोपियाँ कोकिलावन में जा
पहुँचीं ॥ २०-२७ ॥
उन गोपाङ्गनाओंका कोलाहल
सुनकर माधव ने श्रीराधासे कहा 'कोटि चन्द्रमाओंको अपने सौन्दर्यसे
तिरस्कृत करनेवाली प्रिये श्रीराधे ! सब ओरसे गोपिकाएँ आ पहुँचीं। अब वे तुम्हें अपने
साथ ले जायँगी । अतः यहाँसे जल्दी निकल चलो।' उस समय रूप, यौवन, कौशल्य (चातुरी) और
शीलके गर्वसे गरबीली मानवती राधा रमापतिसे बोलीं ॥ २८-३० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से