शनिवार, 17 अगस्त 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- छठा अध्याय..(पोस्ट०७)

विराट् स्वरूप की विभूतियों का वर्णन

इति संभृतसंभारः पुरुषा अवयवैः अहम् ।
तमेव पुरुषं यज्ञं तेनैवायजमीश्वरम् ॥ २७ ॥
ततस्ते भ्रातर इमे प्रजानां पतयो नव ।
अयजन् व्यक्तमव्यक्तं पुरुषं सुसमाहिताः ॥ २८ ॥
ततश्च मनवः काले ईजिरे ऋषयोऽपरे ।
पितरो विबुधा दैत्या मनुष्याः क्रतुभिर्विभुम् ॥ २९ ॥
नारायणे भगवति तदिदं विश्वमाहितम् ।
गृहीत माया उरुगुणः सर्गादौ अगुणः स्वतः ॥ ३० ॥
सृजामि तन्नियुक्तोऽहं हरो हरति तद्वशः ।
विश्वं पुरुषरूपेण परिपाति त्रिशक्तिधृक् ॥ ३१ ॥
इति तेऽभिहितं तात यथेदं अनुपृच्छसि ।
न अन्यत् भगवतः किञ्चिद् भाव्यं सद्-असदात्मकम् ॥ ३२ ॥

(ब्रह्माजी कहते हैं) इस प्रकार विराट् पुरुषके अङ्गों से ही सारी सामग्री का संग्रह करके मैंने उन्हीं सामग्रियों से उन यज्ञस्वरूप परमात्माका यज्ञके द्वारा यजन किया ॥ २७ ॥ तदनन्तर तुम्हारे बड़े भाई इन नौ प्रजापतियोंने अपने चित्तको पूर्ण समाहित करके विराट् एवं अन्तर्यामीरूपसे स्थित उस पुरुषकी आराधना की ॥ २८ ॥ इसके पश्चात् समय-समयपर मनु, ऋषि, पितर, देवता, दैत्य और मनुष्योंने यज्ञोंके द्वारा भगवान्‌की आराधना की ॥ २९ ॥ नारद ! यह सम्पूर्ण विश्व उन्हीं भगवान्‌ नारायणमें स्थित है, जो स्वयं तो प्राकृत गुणोंसे रहित हैं, परन्तु सृष्टिके प्रारम्भमें मायाके द्वारा बहुत-से गुण ग्रहण कर लेते हैं ॥ ३० ॥ उन्हींकी प्रेरणासे मैं इस संसारकी रचना करता हूँ। उन्हींके अधीन होकर रुद्र इसका संहार करते हैं और वे स्वयं ही विष्णुके रूपसे इसका पालन करते हैं। क्योंकि उन्होंने सत्त्व, रज और तमकी तीन शक्तियाँ स्वीकार कर रखी हैं ॥ ३१ ॥ बेटा ! जो कुछ तुमने पूछा था, उसका उत्तर मैंने तुम्हें दे दिया; भाव या अभाव, कार्य या कारणके रूपमें ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है, जो भगवान्‌से भिन्न हो ॥ ३२ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
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शुक्रवार, 16 अगस्त 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) तेईसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

तेईसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

 

कंस और शङ्खचूड में युद्ध तथा मैत्री का वृत्तान्त; श्रीकृष्णद्वारा शङ्खचूड का वध

 

श्रीनारद उवाच -
अथ कृष्णो गोपिकाभिः लोकजंघवनं ययौ ।
वसन्तमाधवीभिश्च लताभिः संकुलं नृप ॥ १ ॥
तत्पुष्पदामनिचयैः स्फुरत्सौगंधिशालिभिः ।
सर्वासां हरिणा तत्र कबर्यो गुंफितास्ततः ॥ २ ॥
भ्रमरध्वनिसंयुक्ते सुगंधानिलवासिते ।
कालिन्दीनिकटे कृष्णो विचचार प्रियान्वितः ॥ ३ ॥
करिल्लैः पीलुभिः श्यामैः तमालैः संकुलद्रुमैः ।
महापुण्यवनं कृष्णो ययौ रासेश्वरो हरिः ॥ ४ ॥
तत्र रासं समारेभे रासेश्वर्या समन्वितः ।
गीयमानश्च गोपीभिरप्सरोभिः स्वराडिव ॥ ५ ॥
तत्र चित्रमभूद्‌राजन् शृणु त्वं तन्मुखान्मम ।
शंखचूडो मान यक्षो धनदानुचरो बली ॥ ६ ॥
भूतले तत्समो नास्ति गदायुद्धविशारदः ।
मन्मुकादौग्रसेनेश्च बलं श्रुत्वा महोत्कटम् ॥ ७ ॥
लक्षभारमयीं गुर्वीं गदामादाय यक्षराट् ।
स्वसकाशान्मधुपुरीमाययौ चण्डविक्रमः ॥ ८ ॥
सभायामास्थितं प्राह कंसं नत्वा मदोद्धतः ।
गदायुद्धं देहि मह्यं त्रैलोक्यविजयी भवान् ॥ ९ ॥
अहं दासो भवेयं वै भवांश्च विजयी यदि ।
अहं जयी चेद्भवन्तं दासं शीघ्रं करोम्यहम् ॥ १० ॥
तथास्तु चोक्त्वा कंसस्तु गृहीत्वा महतीं गदाम् ।
शंखचूडेन युयुधे रंगभूमौ विदेहराट् ॥ ११ ॥
तयोश्च गदया युद्धं घोररूपं बभूव ह ।
ताडनाच्चट्चटाशब्दं कालमेघतडिद्ध्वनि ॥ १२ ॥
शुशुभाते रंगमध्ये मल्लौ नाट्ये नटाविव ।
इभेन्द्राविव दीर्घांगौ मृगेन्द्राविव चोद्‌भटौ ॥ १३ ॥
द्वयोश्च युध्यतो राजन् परस्परजिगीषया ।
विस्फुलिंगान् क्षरन्त्यौ द्वे गदे चूर्णीबभूवतुः ॥ १४ ॥
कंसः प्रकुपितं यक्षं मुष्टिनाभिजघान ह ।
शंखचूडोऽपि तं कंसं मुष्टिना तं तताड च ॥ १५ ॥
मुष्टामुष्टि तयोरासीद्दिनानां सप्तविंशतिः ।
द्वयोरक्षीणबलयोर्विस्मयं गतयोस्ततः ॥ १६ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तत्पश्चात् श्रीकृष्ण व्रजाङ्गनाओंके साथ लोहजङ्घ-वनमें गये, जो वसन्तकी माधवी तथा अन्यान्य लता - वल्लरियोंसे व्याप्त था । उस वनके सुगन्ध बिखेरने वाले सुन्दर फूलों के हारों से श्रीहरि ने वहाँ समस्त गोपियों की वेणियाँ अलंकृत कीं ।।१-२

भ्रमरों की गुंजार से निनादित और सुगन्धित वायु से वासित यमुनातटपर अपनी प्रेयसियों- के साथ श्यामसुन्दर विचरने लगे। विचरते विचरते रासेश्वर श्रीकृष्ण उस महापुण्यवनमें जा पहुँचे, जो करील, पीलू तथा श्याम तमाल और ताल आदि सघन वृक्षोंसै व्याप्त था। वहाँ रासेश्वरी श्रीराधा और गोपाङ्गनाओंके साथ उनके मुखसे अपना यशोगान सुनते हुए श्रीहरिने रास आरम्भ किया। उस समय वे यश गाती हुई अप्सराओंसे घिरे हुए देवराज इन्द्रके

समान सुशोभित हो रहे थे ।। ३-५

राजन् ! वहाँ एक विचित्र घटना घटित हुई, उसे तुम मेरे मुखसे सुनो। शङ्खचूड नामसे प्रसिद्ध एक बलवान् यक्ष था, जो कुबेरका सेवक था। इस भूतल- पर उसके समान गदायुद्ध-विशारद योद्धा दूसरा कोई नहीं था । एक दिन मेरे मुँहसे उग्रसेनकुमार कंसके उत्कट बलकी बात सुनकर वह प्रचण्ड - पराक्रमी यक्षराज लाख भार लोहेकी बनी हुई भारी गदा लेकर अपने निवासस्थानसे मथुरामें आया ।। ६-८

 उस मदोन्मत्त वीर ने राजसभामें पहुँचकर वहाँ सिंहासनपर बैठे हुए कंसको प्रणाम किया और कहा- राजन् ! सुना है कि तुम त्रिभुवनविजयी वीर हो, इसलिये मुझे अपने साथ गदायुद्ध का अवसर दो। यदि तुम विजयी हुए तो मैं तुम्हारा दास हो जाऊँगा और यदि मैं विजयी हुआ तो तत्काल तुम्हें अपना दास बना लूँगा ।' ।। ९-१०

विदेहराज ! तब 'तथास्तु' कहकर, एक विशाल गदा हाथ में ले, कंस रङ्गभूमि में शङ्खचूड के साथ युद्ध करने लगा। उन दोनों में घोर गदायुद्ध प्रारम्भ हो गया। दोनोंके परस्पर आघात - प्रत्याघातसे होनेवाला चट-चट शब्द प्रलय- कालके मेघोंकी गर्जना और बिजली का गड़गड़ाहट के समान जान पड़ता था । उस रङ्गभूमिमें दो मल्लों, नाट्यमण्डली के दो नटों, विशाल अङ्गवाले दो गजराजों तथा दो उद्भट सिंहोंके समान कंस और शङ्खचूड परस्पर जूझ रहे थे । राजन् ! एक-दूसरेको जीत लेनेकी इच्छासे जूझते हुए उन दोनों वीरोंकी गदाएँ आगकी चिनगारियाँ बरसाती हुई परस्पर टकराकर चूर-चूर हो गयीं ।। ११-१४  

कंस ने अत्यन्त कोप से भरे हुए यक्षको मुक्केसे मारा; तब शङ्खचूडने भी कंसपर मुक्केसे प्रहार किया। इस तरह मुक्का-मुक्की करते हुए उन दोनोंको सत्ताईस दिन बीत गये। दोनोंमें से किसीका बल क्षीण नहीं हुआ। दोनों ही एक-दूसरेके पराक्रमसे चकित थे ।। १५-१६

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- छठा अध्याय..(पोस्ट०६)

विराट् स्वरूप की विभूतियों का वर्णन

यदास्य नाभ्यान्नलिनाद् अहं आसं महात्मनः ।
नाविंदं यज्ञसम्भारान् पुरुषा अवयवात् ऋते ॥ २२ ॥
तेषु यज्ञस्य पशवः सवनस्पतयः कुशाः ।
इदं च देवयजनं कालश्चोरु गुणान्वितः ॥ २३ ॥
वस्तूनि ओषधयः स्नेहा रस-लोह-मृदो जलम् ।
ऋचो यजूंषि सामानि चातुर्होत्रं च सत्तम ॥ २४
नामधेयानि मंत्राश्च दक्षिणाश्च व्रतानि च ।
देवतानुक्रमः कल्पः सङ्कल्पः तन्त्रमेव च ॥ २५ ॥
गतयो मतयश्चैव प्रायश्चित्तं समर्पणम् ।
पुरुषा अवयवैः एते संभाराः संभृता मया ॥ २६ ॥

(ब्रह्माजी कहरहे  हैं)  जिस समय इस विराट् पुरुषके नाभि-कमल से मेरा जन्म हुआ, उस समय इस पुरुषके अङ्गोंके अतिरिक्त मुझे और कोई भी यज्ञकी सामग्री नहीं मिली ॥ २२ ॥ तब मैंने उनके अङ्गोंमें ही यज्ञके पशु, यूप (स्तम्भ), कुश, यह यज्ञभूमि और यज्ञके योग्य उत्तम कालकी कल्पना की ॥ २३ ॥ ऋषिश्रेष्ठ ! यज्ञके लिये आवश्यक पात्र आदि वस्तुएँ, जौ, चावल, आदि ओषधियाँ, घृत आदि स्नेहपदार्थ, छ: रस, लोहा, मिट्टी, जल, ऋक्, यजु:, साम, चातुर्होत्र, यज्ञोंके नाम, मन्त्र, दक्षिणा, व्रत, देवताओंके नाम, पद्धतिग्रन्थ, सङ्कल्प, तन्त्र (अनुष्ठानकी रीति), गति, मति, श्रद्धा, प्रायश्चित्त और समर्पण—यह समस्त यज्ञ-सामग्री मैंने विराट् पुरुषके अङ्गोंसे ही इकट्ठी की ॥ २४—२६ ॥

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गुरुवार, 15 अगस्त 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) बाईसवाँ अध्याय (पोस्ट 04)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

बाईसवाँ अध्याय (पोस्ट 04)

 

गोपाङ्गनाओंद्वारा श्रीकृष्णका स्तवन; भगवान् का उनके बीचमें प्रकट होना; उनके पूछनेपर हंसमुनिके उद्धारकी कथा सुनाना तथा गोपियोंको क्षीरसागर- श्वेतद्वीपके नारायण-स्वरूपोंका दर्शन कराना


अथ गोपीगणैः सार्धं यमुनामेत्य माधवः ।
कालिन्दीजलवेगेषु जलकेलिं चकार ह ॥ ३१ ॥
राधाकराल्लक्षदलं पद्मं पीताम्बरं तथा ।
धावन् जलेषु गतवान् प्रहसन् माधवः स्वयम् ॥ ३२ ॥
राधा हरेः पीतपटं वशीवेत्रस्फुरत्‌प्रभम् ।
गृहीत्वा प्रसहन्ती सा गच्छन्ती यमुनाजले ॥ ३३ ॥
वंशीं देहीति वदतः श्रीकृष्णस्य महात्मनः ।
राधा जगाद कमलं वासो देहीति माधव ॥ ३४ ॥
कृष्णो ददौ राधिकायै पद्ममंबरमेव च ।
राधा ददौ पीतपटं वेत्रं वंशीं महात्मने ॥ ३५ ॥
अथ कृष्णः कलं गायन् मालामाजानुलंबिताम् ।
वैजन्तीमादधानः श्रीभाण्डीरं गजाम ह ॥ ३६ ॥
प्रियायास्तत्र शृङ्गारं चकार कुशलेश्वरः ।
पत्रावलीयावकाग्रैः पुष्पैः कंजलकुंकुमैः ॥ ३७ ॥
चंदनागुरुकस्तूरी केसराद्यैर्हरेर्मुखे ।
पत्रं चकार शृङ्गारे मनोज्ञं कीर्तिनन्दिनी ॥ ३८ ॥

 

तदनन्तर माधव गोपाङ्गनाओंके साथ यमुना-तटपर आकर कालिन्दीके वेगपूर्ण प्रवाहमें संतरण-कला- केलि करने लगे। श्रीराधाके हाथसे उनका लक्षदल कमल और चादर लेकर माधव पानीमें दौड़ते तथा हँसते हुए दूर निकल गये। तब श्रीराधा भी उनके चमकीले पीताम्बर, वंशी और बेंत लेकर हँसती हुई यमुनाजलमें चली गयीं । अब महात्मा श्रीकृष्ण उन्हें माँगते हुए बोले- 'राधे ! मेरी बाँसुरी दे दो ।' श्रीराधा कहने लगी- 'माधव ! मेरा कमल और वस्त्र लौटा दो ।' ॥ ३१-३४

श्रीकृष्ण ने श्रीराधा को कमल और वस्त्र दे दिये । तब श्रीराधा ने भी महात्मा श्रीकृष्णको वंशी, पीताम्बर और बेंत लौटा दिये । तदनन्तर श्रीकृष्ण आजानु- लुम्बिनी (घुटनेतक लटकती हुई) वैजयन्ती माला धारण किये, मधुर गीत गाते हुए भाण्डीरवनमें गये । वहाँ चतुर चूडामणि श्यामसुन्दरने प्रियाका शृङ्गार किया । भाल तथा कपोलोंपर पत्ररचना की, पैरोंमें महावर लगाया, फूलोंकी माला धारण करायी, वेणीको भी फूलोंसे सजाया, ललाटमें कुङ्कुमकी दी तथा नेत्रोंमें काजल लगाया। इसी प्रकार कीर्तिनन्दिनी श्रीराधाने भी उस शृङ्गार-स्थलमें चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और केसर आदिसे श्रीहरिके मुखपर मनोहर पत्र- रचना की ।। ३ - ३८ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्ग-संहितामें वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'रास-क्रीड़ा' नामक बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। २२ ।।

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- छठा अध्याय..(पोस्ट०५)

विराट् स्वरूप की विभूतियों का वर्णन

पादास्त्रयो बहिश्चासन् अप्रजानां य आश्रमाः ।
अन्तः त्रिलोक्यास्त्वपरो गृहमेधोऽबृहद्व्रतः ॥ १९ ॥
सृती विचक्रमे विश्वङ् साशनानशने उभे ।
यद् अविद्या च विद्या च पुरुषस्तु उभयाश्रयः ॥ २० ॥
यस्माद् अण्डं विराड् जज्ञे भूतेन्द्रिय गुणात्मकः ।
तद् द्रव्यं अत्यगाद् विश्वं गोभिः सूर्य इवाऽतपन् ॥ २१ ॥

जन, तप और सत्य—इन तीनों लोकोंमें ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ एवं संन्यासी निवास करते हैं। दीर्घकालीन ब्रह्मचर्यसे रहित गृहस्थ भूलोक, भुवर्लोक और स्वर्लोकके भीतर ही निवास करते हैं ॥ १९ ॥ शास्त्रोंमें दो मार्ग बतलाये गये हैं—एक अविद्यारूप कर्म-मार्ग, जो सकाम पुरुषोंके लिये है और दूसरा उपासनारूप विद्याका मार्ग, जो निष्काम उपासकोंके लिये है। मनुष्य दोनोंमेंसे किसी एकका आश्रय लेकर भोग प्राप्त करानेवाले दक्षिणमार्गसे अथवा मोक्ष प्राप्त करानेवाले उत्तरमार्गसे यात्रा करता है; किन्तु पुरुषोत्तम भगवान्‌ दोनोंके आधारभूत हैं ॥ २० ॥ जैसे सूर्य अपनी किरणोंसे सबको प्रकाशित करते हुए भी सबसे अलग हैं, वैसे ही जिन परमात्मासे इस अण्डकी और पञ्चभूत, एकादश इन्द्रिय एवं गुणमय विराट्की उत्पत्ति हुई है—वे प्रभु भी इन समस्त वस्तुओंके अंदर और उनके रूपमें रहते हुए भी उनसे सर्वथा अतीत हैं ॥ २१ ॥

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बुधवार, 14 अगस्त 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- छठा अध्याय..(पोस्ट०४)

विराट् स्वरूप की विभूतियों का वर्णन

स्वधिष्ण्यं प्रतपन् प्राणो बहिश्च प्रतपत्यसौ ।
एवं विराजं प्रतपन् तपत्यन्तः बहिः पुमान् ॥ १६ ॥
सोऽमृतस्याभयस्येशो मर्त्यं अन्नं यदत्यगात् ।
महिमा एष ततो ब्रह्मन् पुरुषस्य दुरत्ययः ॥ १७ ॥
पादेषु सर्वभूतानि पुंसः स्थितिपदो विदुः ।
अमृतं क्षेममभयं त्रिमूर्ध्नोऽधायि मूर्धसु ॥ १८ ॥

जैसे सूर्य अपने मण्डलको प्रकाशित करते हुए ही बाहर भी प्रकाश फैलाते हैं, वैसे ही पुराणपुरुष परमात्मा भी सम्पूर्ण विराट् विग्रह को प्रकाशित करते हुए ही उसके बाहर-भीतर—सर्वत्र एकरस प्रकाशित हो रहा है ॥ १६ ॥ मुनिवर ! जो कुछ मनुष्यकी क्रिया और सङ्कल्पसे बनता है, उससे वह परे है और अमृत एवं अभयपद (मोक्ष) का स्वामी है। यही कारण है कि कोई भी उसकी महिमाका पार नहीं पा सकता ॥ १७ ॥ सम्पूर्ण लोक भगवान्‌के एक पादमात्र (अशंमात्र) हैं तथा उनके अंशमात्र लोकोंमें समस्त प्राणी निवास करते हैं। भूलोक, भुवर्लोक और स्वर्लोक के ऊपर महर्लोक है। उसके भी ऊपर जन, तप और सत्यलोकों में क्रमश: अमृत, क्षेम एवं अभय का नित्य निवास है ॥ १८ ॥

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श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) बाईसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

बाईसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)

 

गोपाङ्गनाओंद्वारा श्रीकृष्णका स्तवन; भगवान् का उनके बीचमें प्रकट होना; उनके पूछनेपर हंसमुनिके उद्धारकी कथा सुनाना तथा गोपियोंको क्षीरसागर- श्वेतद्वीपके नारायण-स्वरूपोंका दर्शन कराना


श्रीभगवानुवाच –

हे गोप्यः पुष्करद्वीपे हंसो नाम महामुनिः ।
समुद्रे दधिमंडोदे ततापान्तर्गतस्तपः ॥ १७ ॥
चकाराहैतुकीं भक्तिं मम ध्यानपरायणः ।
व्यतीतं तस्य तपतो गोप्यो मन्वन्तरद्वयम् ॥ १८ ॥
तमद्यैवाग्रसन्मत्स्यो योजनार्धवपुर्धरः ।
तन्निर्जगार पौंड्रस्तु मत्स्यरूपधरोऽसुरः ॥ १९ ॥
एवं संप्राप्तकष्टस्य हंसस्यापि मुनेरहम् ।
गत्वाऽथ शीघ्रेण तयोः शिरश्छित्वाऽरिणा मुनिम् ॥ २० ॥
मोचयित्वाऽथ गतवान् श्वेतद्वीपे व्रजांगनाः ।
क्षीराब्धौ शेषपर्यंके शयनं तु मया कृतम् ॥ २१ ॥
दुःखिता भवतीर्ज्ञात्वा निद्रां त्यक्त्वा ततः प्रियाः ।
सहसा भक्तवश्योऽहं पुनरागतवानिह ॥ २२ ॥
जानन्ति सन्तः समदर्शोनि ये
     दान्ता महान्तः किल नैरपेक्ष्याः ।
ते नैरपेक्ष्यं परमं सुखं मे
     ज्ञानेन्द्रियादीनि यथा रसादीन् ॥ २३ ॥


गोप्य ऊचुः -
क्षीराब्दौ शेषपर्यंके यद्‌रूपं च त्वया धृतम् ।
तद्‌रूपदर्शनं देहि यदि प्रीतोऽसि माधव ॥ २४ ॥


श्रीनारद उवाच -
तथाऽस्तु चोक्त्वा भगवान् गोपीव्यूहस्य पश्यतः ।
दधाराष्टभुजं रूपं श्रीराधारूपमेव च ॥ २५ ॥
तत्र क्षीरसमुद्रोऽभूल्लोलकल्लोलमण्डितः ।
दिव्यानि रत्‍नसौधानि बभूवुर्मंगलानि च ॥ २६ ॥
तत्र शेषो बिसश्वेतः कुण्डलीभूतसंस्थितः ।
बालार्कमौलिसाहस्रफणाच्छत्रविराजितः ॥ २७ ॥
तस्मिन् वै शेषपर्यङ्के सुखं सुष्वाप माधवः ।
तस्य श्रीरूपिणी राधा पादसेवां चकार ह ॥ २८ ॥
तद्‌रूपं सुंदरं दृष्ट्वा कोटिमार्तण्डसन्निभम् ।
नत्वा गोपीगणाः सर्वे विस्मयं परमं गताः ॥ २९ ॥
गोपीभ्यो दर्शनं दत्तं यत्र कृष्णेन मैथिल ।
तत्र क्षेत्रं महापुण्यं जातं पापप्रणाशनम् ॥ ३० ॥

 

श्रीभगवान् बोले- गोपाङ्गनाओ ! पुष्करद्वीप के दधिमण्डोद समुद्र के भीतर रहकर 'हंस' नामक महामुनि तपस्या कर रहे थे। वे मेरे ध्यानमें रत रहकर बिना किसी हेतु या कामना के भजन करते थे । उन तपस्वी महामुनिको तपस्या करते हुए दो मन्वन्तरका समय इसी तरह बीत गया। उन्हें आज ही आधे योजन लंबा शरीर धारण करनेवाला एक मत्स्य निगल गया था । फिर उसे भी मत्स्यरूपधारी महान् असुर पौण्ड्र निगल गया ॥ १७-१९

इस प्रकार कष्टमें पड़े हुए मुनिवर हंसके उद्धारके लिये मैं शीघ्र वहाँ गया और चक्रसे उन दोनों मत्स्योंका वध करके मुनिको संकटसे छुड़ाकर श्वेत- द्वीपमें चला गया। व्रजाङ्गनाओ ! वहाँ क्षीरसागरके भीतर शेषशय्यापर मैं सो गया था। फिर अपनी प्रियतमा तुम सब गोपियोंको दुःखी जान नींद त्यागकर सहसा यहाँ आ पहुँचा; क्योंकि मैं सदा भक्तोंके वशमें रहता हूँ। जो जितेन्द्रिय, समदर्शी तथा किसी भी वस्तुकी इच्छा न रखनेवाले महान् संत हैं, वे निरपेक्षताको ही मेरा परम सुख जानते हैं; जैसे ज्ञानेन्द्रियाँ आदि रस आदि सूक्ष्म भूतोंको ही सुख समझते हैं । ॥ २० – २३ ॥

गोपियोंने कहा- माधव ! यदि हमपर प्रसन्न हों तो क्षीरसागरमें शेषशय्यापर तुमने जो रूप धारण किया था, उसका हमें भी दर्शन कराओ ॥ २४ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं-तब 'तथास्तु' कहकर भगवान् गोपी-समुदायके देखते-देखते आठ भुजाधारी नारायण हो गये और श्रीराधा लक्ष्मीरूपा हो गयीं । वहीं चञ्चल तरङ्गमालाओं से मण्डित क्षीरसागर प्रकट हो गया। दिव्य रत्नमय मङ्गलरूप प्रासाद दृष्टिगोचर होने लगे। वहीं कमलनालके सदृश श्वेत शेषनाग कुण्डली बाँधे स्थित दिखायी दिये, जो बालसूर्यके समान तेजस्वी सहस्र फनोंके छत्रसे सुशोभित थे । उस शेषशय्यापर माधव सुखसे सो गये तथा लक्ष्मीरूप- धारिणी श्रीराधा उनके चरण दबानेकी सेवा करने लगीं । करोड़ों सूर्योके समान तेजस्वी उस सुन्दर रूपको देखकर गोपियोंने प्रणाम किया और वे सभी परम आश्चर्यमें निमग्न हो गयीं। मैथिल ! जहाँ श्रीकृष्णने गोपियोंको इस रूपमें दर्शन दिया था, वह परम पुण्यमय पापनाशक क्षेत्र बन गया ।। २५–३० ॥

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मंगलवार, 13 अगस्त 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) बाईसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

बाईसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

 

गोपाङ्गनाओंद्वारा श्रीकृष्णका स्तवन; भगवान् का उनके बीचमें प्रकट होना; उनके पूछनेपर हंसमुनिके उद्धारकी कथा सुनाना तथा गोपियोंको क्षीरसागर- श्वेतद्वीपके नारायण-स्वरूपोंका दर्शन कराना

 

चंद्रं प्रतप्तकिरणज्वलनं प्रसन्नं
     सर्वं वनांतमसिपत्रवनप्रवेशम् ।
बाणं प्रभंजनमतीव सुमन्दयानं
     मन्यामहे किल भवन्तमृते व्यथार्ताः ॥ ८ ॥
सौदासराजमहिषीविरहादतीव
     जातं सहस्रगुणितं नलपट्टराज्ञ्याः ।
तस्मात्तु कोटिगुणितं जनकात्मजायाः
     तस्मादनंतमतिदुःखमलं हरे नः ॥ ९ ॥

श्रीनारद उवाच -
इत्थं राज रुदन्तीनां गोपीनां कमलेक्षणः ।
आविर्बभूव सहसा स्वयमर्थमिवात्मनः ॥ १० ॥
स्फुरत्किरीटकेयूर कुंडलांगदभूषणम् ।
स्निग्धामलसुगन्धाढ्यनीलकुंचितकुंतलम् ॥ ११ ॥
आगतं वीक्ष्य युगपत् समुत्तस्थुर्व्रजांगनाः ।
तन्मात्राणि च यं दृष्ट्वा यथा ज्ञानेंद्रियाणि च ॥ १२ ॥
हरिर्ननर्त तन्मध्ये वंशीवादनतत्परः ।
राधया सहितो राजन् यथा रत्या रतीश्वरः ॥ १३ ॥
यावतीर्गोपिकाः सर्वास्तावद्‌रूपधरो हरिः ।
गच्छन् ताभिर्व्रजे रेमे स्वावस्थाभिर्मनो यथा ॥ १४ ॥
वनोद्देशे स्थितं कृष्णं गतदुःखा व्रजांगनाः ।
कृतांजलिपुटा ऊचुर्गिरा गद्‌गदया हरिम् ॥ १५ ॥

 

गोप्य ऊचुः -
क्व गतस्त्वं वद हरे त्यक्त्वा गोपीगणो महान् ।
सर्वं जगत्तृणीकृत्य त्वत्पादे प्राप्तमानसम् ॥ १६ ॥

 

प्राणनाथ ! तुम्हारे बिना वियोग-व्यथासे पीड़ित हुई हम सब गोपियोंको चन्द्रमा सूर्यकी किरणोंके समान दाहक प्रतीत होता है । यह सम्पूर्ण वनान्त-भाग जो पहले प्रसन्नताका केन्द्र था, अब इसमें आनेपर ऐसा जान पड़ता है, मानो हमलोग असिपत्रवन में प्रविष्ट हो गयी हैं और अत्यन्त मन्द मन्द गतिसे प्रवाहित होनेवाली वायु हमें बाण-सी लगती है। हरे ! राजा सौदासकी रानी मदयन्तीको अपने पतिके विरहसे जो दुःख हुआ था, उससे हजारगुना दुःख नलकी महारानी दमयन्तीको पति वियोगके कारण प्राप्त हुआ था । उनसे भी कोटिगुना अधिक दुःख पतिविरहिणी जनकनन्दिनी सीताको हुआ था और उनसे भी अनन्तगुना अधिक दुःख आज हम सबको हो रहा है  - ९ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार रोती हुई गोपाङ्गनाओंके बीच में कमलनयन श्रीकृष्ण सहसा प्रकट हो गये, मानो अपना अभीष्ट मनोरथ स्वयं आकर मिल गया हो। उनके मस्तकपर किरीट, भुजाओंमें केयूर और अङ्गद तथा कानोंमें कुण्डल नामक भूषण अपनी दीप्ति फैला रहे थे। स्निग्ध, निर्मल, सुगन्धपूर्ण, नीले, घुँघराले केश-कलाप मनको मोहे लेते थे ॥ १०-११

उन्हें आया हुआ देख समस्त व्रजाङ्गनाएँ एक साथ उठकर खड़ी हो गयीं, जैसे शब्दादि सूक्ष्म- भूतोंके समूहको देखकर ज्ञानेन्द्रियाँ सहसा सचेष्ट हो जाती हैं। राजन् ! उन गोपसुन्दरियोंके मध्यभागमें राधाके साथ श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण बाँसुरी बजाते हुए इस प्रकार नृत्य करने लगे, मानो रतिके साथ मूर्तिमान् काम नाच रहा हो। जितनी संख्यामें समस्त गोपियाँ थीं, उतने ही रूप धारण करके श्रीहरि उनके साथ व्रजमें रास-विहार करने लगे-ठीक उसी तरह, जैसे जाग्रत् आदि अवस्थाओं के साथ मन क्रीड़ा कर रहा हो। उस समय उस वनप्रदेश में दुःखरहित हुई व्रजाङ्गनाएँ वहाँ खड़े हुए श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण से हाथ जोड़ गद्गद वाणी में बोलीं ॥। १ - १५ ॥

गोपियोंने पूछा – श्यामसुन्दर ! जो सारे जगत्- को तिनकेकी भाँति त्यागकर तुम्हारे चरणारविन्दोंमें अपना तन, मन और प्राण अर्पित कर चुकी हैं, उन्हीं इन गोपियोंके इस महान् समुदायको छोड़कर तुम कहाँ चले गये थे ? । ॥ १६ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



सोमवार, 12 अगस्त 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) बाईसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

बाईसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

 

गोपाङ्गनाओंद्वारा श्रीकृष्णका स्तवन; भगवान् का उनके बीचमें प्रकट होना; उनके पूछनेपर हंसमुनिके उद्धारकी कथा सुनाना तथा गोपियोंको क्षीरसागर- श्वेतद्वीपके नारायण-स्वरूपोंका दर्शन कराना

 

श्रीनारद उवाच -
अथ कृष्णगुणान् रम्यान् समेताः सर्वयोषितः ।
जगुस्तालस्वरैः रम्यैः कृष्णागमनहेतवे ॥ १ ॥


गोप्य ऊचुः -
लोकाभिराम जनभूषण विश्वदीप
     कंदर्पमोहन जगद्‌वृजिनार्तिहारिन् ।
आनंदकंद यदुनंदन नंदसूनो
     स्वच्छन्दपद्ममकरंद नमो नमस्ते ॥ २ ॥
गोविप्रसाधुविजयध्वज देववंद्य
     कंसादिदैत्यवधहेतुकृतावतार ।
श्रीनंदराजकुलपद्मदिनेश देव
     देवादिमुक्तजनदर्पण ते जयोऽस्तु ॥ ३ ॥
गोपालसिंधुपरमौक्तिक रूपधारिन्
     गोपालवंशगिरिनीलमणे परात्मन् ।
गोपालमंडलसरोवरकञ्जमूर्ते
     गोपालचन्दनवने कलहंसमुख्य ॥ ४ ॥
श्रीराधिकावदनपंकज षट्पदस्त्वं
     श्रीराधिकावदनचंद्रचकोररूपः ।
श्रीराधिकाहृदयसुन्दरचन्द्रहार
     श्रीराधिकामधुलताकुसुमाकरोऽसि ॥ ५ ॥
यो रासरंगनिजवैभवभूरिलीला
     यो गोपिकानयनजीवनमूलहारः ।
मानं चकार रहसा किल मानवत्यां
     सोऽयं हरिर्भवतु नो नयनाग्रगामी ॥ ६ ॥
यो गोपिकासकलयूथमलंचकार
     वृंदावनं च निजपादरजोभिरद्रिम् ।
यः सर्वलोकविभवाय बभूव भूमौ
     तं भूरिलीलमुरगेंद्रभुजं भजामः ॥ ७ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर श्रीकृष्णके शुभागमनके लिये समस्त व्रजाङ्गनाएँ मिलकर सुरम्य तालस्वरके साथ उन श्रीहरिके रमणीय गुणोंका गान करने लगीं ॥ १ ॥

गोपियाँ बोलीं- लोकसुन्दर! जनभूषण ! विश्वदीप ! मदनमोहन ! तथा जगत् की पापराशि एवं पीड़ा हर लेनेवाले ! आनन्दकन्द यदुनन्दन ! नन्दनन्दन ! तुम्हारे चरणारविन्दोंका मकरन्द भी परम स्वच्छन्द है, तुम्हें बारंबार नमस्कार है। गौओं, ब्राह्मणों और साधु-संतों के विजयध्वजरूप ! देववन्द्य तथा कंसादि दैत्योंके वध के लिये अवतार धारण करनेवाले !

श्रीनन्दराज - कुल-कमल- दिवाकर! देवाधिदेवोंके भी आदिकारण ! मुक्त- जनदर्पण ! तुम्हारी जय हो । गोपवंशरूपी सागरमें परम उज्ज्वल मोतीके समान रूप धारण करने वाले ! गोपालकुलरूपी गिरिराजके नीलरत्न ! परमात्मन् ! गोपालमण्डलरूपी सरोवरके प्रफुल्ल कमल ! तथा गोपवृन्दरूपी चन्दनवनके प्रधान कलहंस ! तुम्हारी जय हो । प्यारे श्यामसुन्दर ! तुम श्रीराधिका के मुखारविन्द का मकरन्द पान करनेवाले मधुप हो; श्रीराधाके मुखचन्द्रकी सुधामयी चन्द्रिका के आस्वादक चकोर हो; श्रीराधाके वक्षःस्थलपर विद्योतमान चन्द्रहार हो तथा श्रीराधिकारूपिणी माधवीलताके लिये कुसुमाकर (ऋतुराज वसन्त) हो ॥ २-५

जो रास-रङ्गस्थलीमें अपने वैभव (लीला- शक्ति) से भूरि-भूरि लीलाएँ प्रकट करते हैं, जो गोपाङ्गनाओंके नेत्रों और जीवनके मूलाधार एवं हारस्वरूप हैं तथा श्रीराधाके मान करनेपर जिन्होंने स्वयं मान कर लिया है, वे श्यामसुन्दर श्रीहरि हमारे नेत्रोंके समक्ष प्रकट हों । जिन्होंने गोपिकाओंके समस्त यूथोंको, श्रीवृन्दावनकी भूमिको तथा गिरिराज गोंवर्धनको अपनी चरण धूलिसे अलंकृत किया है; जो सम्पूर्ण जगत्के उद्भव तथा पालनके लिये भूतलपर प्रकट हुए हैं; जिनकी कान्ति अत्यन्त श्याम है और भुजाएँ नागराजके शरीरको भाँति सुशोभित होती हैं, उन नन्दनन्दन माधवकी हम आराधना करती हैं ॥ ६-७

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- छठा अध्याय..(पोस्ट०३)

विराट्स्वरूपकी विभूतियोंका वर्णन

अव्यक्त रससिन्धूनां भूतानां निधनस्य च ।
उदरं विदितं पुंसो हृदयं मनसः पदम् ॥ १० ॥
धर्मस्य मम तुभ्यं च कुमाराणां भवस्य च ।
विज्ञानस्य च सत्त्वस्य परस्याऽऽत्मा परायणम् ॥ ११ ॥
अहं भवान् भवश्चैव त इमे मुनयोऽग्रजाः ।
सुरासुरनरा नागाः खगा मृगसरीसृपाः ॥ १२ ॥
गन्धर्वाप्सरसो यक्षा रक्षोभूतगणोरगाः ।
पशवः पितरः सिद्धा विद्याध्राश्चारणा द्रुमाः ॥ १३ ॥
अन्ये च विविधा जीवाः जल स्थल नभौकसः ।
ग्रह ऋक्ष केतवस्ताराः तडितः स्तनयित्‍नवः ॥ १४ ॥
सर्वं पुरुष एवेदं भूतं भव्यं भवच्च यत् ।
तेनेदं आवृतं विश्वं वितस्तिं अधितिष्ठति ॥ १५ ॥

(ब्रह्माजी कहरहे  हैं)  उनके (विराट् पुरुष के ) उदरमें मूल प्रकृति, रस नामकी धातु तथा समुद्र, समस्त प्राणी और उनकी मृत्यु समायी हुई है। उनका हृदय ही मनकी जन्मभूमि है ॥ १० ॥ नारद ! हम, तुम, धर्म, सनकादि, शङ्कर, विज्ञान और अन्त:करण—सब-के-सब उनके चित्तके आश्रित हैं ॥ ११ ॥ (कहाँतक गिनायें—) मैं, तुम, तुम्हारे बड़े भाई सनकादि, शङ्कर, देवता, दैत्य, मनुष्य, नाग, पक्षी, मृग, रेंगनेवाले जन्तु, गन्धर्व, अप्सराएँ, यक्ष, राक्षस, भूत-प्रेत, सर्प, पशु, पितर, सिद्ध, विद्याधर, चारण, वृक्ष और भी नाना प्रकारके जीव—जो आकाश, जल या स्थलमें रहते हैं—ग्रह-नक्षत्र, केतु (पुच्छल तारे), तारे, बिजली और बादल—ये सब-के-सब विराट् पुरुष ही हैं। यह सम्पूर्ण विश्व—जो कुछ कभी था, है या होगा—सबको वह घेरे हुए है और उसके अंदर यह विश्व उसके केवल दस अंगुलके [*] परिमाणमें ही स्थित है ॥ १२—१५ ॥ 
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 [*] ब्रह्माण्डके सात आवरणोंका वर्णन करते हुए वेदान्त-प्रक्रिया में ऐसा माना है कि—पृथ्वीसे दसगुना जल है, जलसे दसगुना अग्रि, अग्रिसे दसगुना वायु, वायुसे दसगुना आकाश, आकाशसे दसगुना अहंकार, अहंकारसे दसगुना महत्तत्त्व और महत्तत्त्वसे दसगुनी मूल प्रकृति है। वह प्रकृति भगवान्‌के केवल एक पादमें है। इस प्रकार भगवान्‌की महत्ता प्रकट की गयी है। यह दशाङ्गुलन्याय कहलाता है।

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४) देवहूतिको तत्त्वज्ञान एवं मोक्षपदकी प्राप्ति मैत्...