मंगलवार, 29 अक्तूबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-तीसरा अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तीसरा अध्याय..(पोस्ट०३)

भगवान्‌ के अन्य लीला-चरित्रों का वर्णन

कालमागधशाल्वादीन् अनीकै रुन्धतः पुरम् ।
अजीघनत् स्वयं दिव्यं स्वपुंसां तेज आदिशत् ॥ १० ॥
शम्बरं द्विविदं बाणं मुरं बल्वलमेव च ।
अन्यांश्च दन्तवक्रादीन् अवधीत्कांश्च घातयत् ॥ ११ ॥
अथ ते भ्रातृपुत्राणां पक्षयोः पतितान् नृपान् ।
चचाल भूः कुरुक्षेत्रं येषां आपततां बलैः ॥ १२ ॥
स कर्णदुःशासनसौबलानां
     कुमंत्रपाकेन हतश्रियायुषम् ।
सुयोधनं सानुचरं शयानं
     भग्नोरुमूर्व्यां न ननन्द पश्यन् ॥ १३ ॥

(उद्धवजी विदुरजी से कहरहे हैं) जब कालयवन, जरासन्ध और शाल्वादि ने अपनी सेनाओं से मथुरा और द्वारकापुरी को घेरा था, तब भगवान्‌ ने निजजनों को अपनी अलौकिक शक्ति देकर उन्हें स्वयं मरवाया था ॥ १० ॥ शम्बर, द्विविद, बाणासुर, मुर, बल्वल तथा दन्तवक्त्र आदि अन्य योद्धाओं में से भी किसी को उन्होंने स्वयं मारा था और किसी को दूसरों से मरवाया ॥ ११ ॥ इसके बाद उन्होंने आपके भाई धृतराष्ट्र और पाण्डु के पुत्रों का पक्ष लेकर आये हुए राजाओं का भी संहार किया, जिनके सेनासहित कुरुक्षेत्र में पहुँचने पर पृथ्वी डगमगाने लगी थी ॥ १२ ॥ 
कर्ण, दु:शासन और शकुनि की खोटी सलाह से जिसकी आयु और श्री दोनों नष्ट हो चुकी थीं, तथा भीमसेन की गदा से जिस की जाँघ टूट चुकी थी, उस दुर्योधन को अपने साथियों के सहित पृथ्वीपर पड़ा देखकर भी उन्हें प्रसन्नता न हुई ॥ १३ ॥ 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


सोमवार, 28 अक्तूबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) चौबीसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

चौबीसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

 

अरिष्टासुर और व्योमासुर का वध तथा माधुर्यखण्ड का उपसंहार

 

श्रीनारद उवाच -
एकदा शैलदेशेषु सबलो भगवान्हरिः ।
कृत्वा निलायनक्रीडां चौरपालकलक्षणाम् ॥ १ ॥
तत्र व्योमासुरो दैत्यो बालान्मेषायितान् बहून् ।
नीत्वा नीत्वाऽद्रिदर्यां च विनिक्षिप्य पुनः पुनः ॥ २ ॥
शिलया पिदधे द्वारं मयपुत्रो महाबलः ।
सत्यचौरं च तं ज्ञात्वा भगवान् मधुसूदनः ॥ ३ ॥
गृहीत्वा पातयामास भुजाभ्यां भूमिमंडले ॥ ४ ॥
तदा मृत्युं गतो दैत्यस्तज्ज्योतिर्निर्गतं स्फुरत् ।
दशदिक्षु भ्रमद्‍राजन् श्रीकृष्णे लीनतां गतम् ॥ ५ ॥
तदा जयजयारावो दिवि भूमौ बभूव ह ।
पुष्पाणि ववृषुर्देवाः परमानंदसंवृताः ॥ ६ ॥


बहुलाश्व उवाच -
कोऽयं पूर्वं कुशलकृद्‌व्योमो नामाथ तद्वद ।
येन कृष्णे घनश्यामे लीनोऽभूद्दामिनी यथा ॥ ७ ॥


श्रीनारद उवाच -
आसीत्काश्यां भीमरथो राजा दानपरायणः ।
यज्ञकृन्मानदो धन्वी विष्णुभक्तिपरायणः ॥ ८ ॥
राज्ये पुत्रं सन्निवेश्य जगाम मलयाचलम् ।
तपस्तत्र समारेभे वर्षाणां लक्षमेव हि ॥ ९ ॥
तस्याश्रमे पुलस्त्योऽसौ शिष्यवृन्दैः समागतः ।
तं दृष्ट्वा नोत्थितो मानी राजर्षिर्न नतोऽभवत् ॥ १० ॥
शापं ददौ पुलस्त्योऽपि दैत्यो भव महाखल ।
ततस्तच्चरणोपांते पतितं शरणागतम् ॥ ११ ॥
उवाच मुनिशार्दूलः पुलस्त्यो दीनवत्सलः ।
द्वापरान्ते माथुरे च पुण्ये श्रीव्रजमंडले ॥ १२ ॥
यदुवंशपतेः साक्षाच्छ्रीकृष्णस्य भुजौजसा ।
ईप्सिता योगिभिर्मुक्तिर्भविष्यति न संशयः ॥ १३ ॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! एक दिन गोवर्धनके आस-पास बलरामसहित भगवान् श्रीकृष्ण आँखमिचौनीका खेल खेलने लगे — जिसमें कोई चोर बनता है और कोई रक्षक । वहाँ व्योमासुर नामक दैत्य आया । उस खेलमें कुछ लड़के भेड़ बनते थे और कोई चोर बनकर उन भेड़ोंको ले जाकर कहीं छिपाता था। व्योमासुर ने भेड़ बने हुए बहुत-से गोप-बालकों को बारी-बारीसे ले जाकर पर्वतकी कन्दरामें रखा और एक शिलासे उसका द्वार बंद कर दिया। वह मयासुरका महान् बलवान् पुत्र था। यह तो सचमुच चोर निकला, यह जानकर भगवान् मधुसूदनने उसे दोनों भुजाओंद्वारा पकड़ लिया और पृथ्वीपर दे मारा। ॥ १-

हे राजन् !  उस समय दैत्य मृत्युको प्राप्त हो गया और उसके शरीरसे निकला हुआ प्रकाशमान तेज दसों दिशाओंमें घूमकर श्रीकृष्ण में लीन हो गया। उस समय स्वर्गमें और पृथ्वीपर जय- जयकारकी ध्वनि होने लगी। देवता लोग परम आनन्दमें मग्न होकर फूल बरसाने लगे ॥ -६ ॥

बहुलाश्वने पूछा -मुने ! यह व्योम नामक असुर पूर्वजन्ममें कौन-सा पुण्यात्मा मनुष्य था, जिसने श्याम घनमें बिजलीकी भाँति श्रीकृष्णमें विलय प्राप्त किया ॥ ७ ॥

नारदजी बोले - राजन् काशीमें भीमरथ नामसे प्रसिद्ध एक राजा थे, जो सदा दान-पुण्यमें लगे रहते थे। वे यज्ञकर्ता, दूसरोंको मान देनेवाले, धनुर्धर तथा विष्णु- भक्तिपरायण थे। वे राज्यपर अपने पुत्रको बिठाकर स्वयं मलयाचलपर चले गये और वहाँ तपस्या आरम्भ करके एक लाख वर्षतक उसीमें लगे रहे। उनके आश्रममें एक समय महर्षि पुलस्त्य शिष्योंके साथ आये । उनको देखकर भी वे मानी राजर्षि न तो उठकर खड़े हुए और न उनके सामने प्रणत ही हुए ॥ ८-१०

तब पुलस्त्य ने उन्हें शाप दे दिया- 'ओ महादुष्ट भूपाल ! तू दैत्य हो जा।' तदनन्तर राजा जब उनके चरणों में पड़कर शरणागत हो गये, तब दीनवत्सल मुनिश्रेष्ठ पुलस्त्यने उनसे कहा – 'द्वापर के अन्तमें मथुरा जनपदके पवित्र व्रजमण्डलमें साक्षात् यदुवंशराज श्रीकृष्णके बाहुबलसे तुम्हें ऐसी मुक्ति प्राप्त होगी, जिसकी योगीलोग अभिलाषा रखते हैं—इसमें संशय नहीं हैं' ॥११-१३॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-तीसरा अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--तीसरा अध्याय..(पोस्ट०२)

भगवान्‌ के अवतारों का वर्णन

द्वितीयं तु भवायास्य रसातलगतां महीम् ।
उद्धरिष्यन् उपादत्त यज्ञेशः सौकरं वपुः ॥ ७ ॥
तृतीयं ऋषिसर्गं वै देवर्षित्वमुपेत्य सः ।
तन्त्रं सात्वतमाचष्ट नैष्कर्म्यं कर्मणां यतः ॥ ८ ॥
तुर्ये धर्मकलासर्गे नरनारायणौ ऋषी ।
भूत्वात्मोपशमोपेतं अकरोद् दुश्चरं तपः ॥ ९ ॥

दूसरी बार इस संसारके कल्याणके लिये समस्त यज्ञोंके स्वामी उन भगवान्‌ने ही रसातलमें गयी हुई पृथ्वीको निकाल लानेके विचारसे सूकररूप ग्रहण किया ॥ ७ ॥ ऋषियोंकी सृष्टिमें उन्होंने देवर्षि नारदके रूपमें तीसरा अवतार ग्रहण किया और सात्वत तन्त्रका (जिसे ‘नारद-पाञ्चरात्र’ कहते हैं) उपदेश किया; उसमें कर्मोंके द्वारा किस प्रकार कर्मबन्धनसे मुक्ति मिलती है, इसका वर्णन है ॥ ८ ॥ धर्मपत्नी मूर्तिके गर्भसे उन्होंने नर-नारायणके रूपमें चौथा अवतार ग्रहण किया। इस अवतारमें उन्होंने ऋषि बनकर मन और इन्द्रियोंका सर्वथा संयम करके बड़ी कठिन तपस्या की ॥ ९ ॥ 

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रविवार, 27 अक्तूबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) तेईसवाँ अध्याय


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

तेईसवाँ अध्याय

 

अम्बिकावन में अजगर से नन्दराज की रक्षा तथा सुदर्शन नामक विद्याधर का उद्धार

 

श्रीनारद उवाच -
एकदा नृप गोपालाः शकटै रत्‍नपूरितैः ।
वृषभानूपनन्दाद्या आजग्मुश्चांबिकावनम् ॥ १ ॥
भद्रकालीं पशुपतिं पूजयित्वा विधानतः ।
ददुर्दानं द्विजातिभ्यः सुप्तास्तत्र सरित्तटे ॥ २ ॥
तत्रैको निर्गतो रात्रौ सर्पो नन्दं पदेऽग्रहीत् ।
कृष्ण कृष्णेति चुक्रोश नन्दोऽतिभयविह्वलः ॥ ३ ॥
तदोल्मुकैर्गोपबालास्तोदुराजगरं नृप ।
पदं सोऽपि न तत्याज सर्पोऽथ स्वमणिं यथा ॥ ४ ॥
तताड स्वपदा सर्पं भगवान् लोकपावनः ।
त्यक्त्त्वा तदैव सर्पत्वं भूत्वा विद्याधरः कृती ।
नत्वा कृष्णं परिक्रम्य कृतांजलिपुटोऽवदत् ॥ ५ ॥


सुदर्शन उवाच -
अहं सुदर्शनो नाम विद्याधरवरः प्रभो ।
अष्टावक्रं मुनिं दृष्ट्वा हसितोऽस्मि महाबलः ॥ ६ ॥
मह्यं शापं ददौ सोऽपि त्वं सर्पो भव दुर्मते ।
तच्छापादद्य मुक्तोऽहम् कृपया तव माधव ॥ ७ ॥
त्वत्पादपद्ममकरंदरजःकणानां
     स्पर्शेन दिव्यपदवीं सहसागतोऽस्मि ।
तस्मै नमो भगवते भुवनेश्वराय
     यो भूरिभारहरणाय भूवोऽवतारः ॥ ८ ॥


श्रीनारद उवाच -
इति नत्वा हरिं कृष्णं राजन् विद्याधरस्तु सः ।
जगाम वैष्णवं लोकं सर्वोपद्रव वर्जितम् ॥ ९ ॥
नंदाद्या विस्मिताः सर्वे ज्ञात्वा कृष्णं परेश्वरम् ।
अंबिकावनतः शीघ्रमाययुर्व्रजमंडलम् ॥ १० ॥
इदं मया ते कथितं श्रीकृष्णचरितं शुभम् ।
सर्वपापहरं पुण्यं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ११ ॥


बहुलाश्व उवाच -
अहो श्रीकृष्णचन्द्रस्य चरितं परमाद्‌भुतम् ।
श्रुत्वा मनो मे तच्छ्रोतुमतृप्तं पुनरिच्छति ॥ १२ ॥
अग्रे चकार कां लीलां लीलया व्रजमंडले ।
हरिर्व्रजेशः परमो वद देवर्षिसत्तम ॥ १३ ॥

नारदजी कहते हैं— नरेश्वर ! एक समय वृषभानु और उपनन्द आदि गोपगण रत्नोंसे भरे हुए छकड़ोंपर सवार होकर अम्बिकावनमें आये ॥ १ ॥

वहाँ भगवती भद्रकाली और भगवान् पशुपतिका विधिपूर्वक पूजन करके उन्होंने ब्राह्मणोंको दान दिया और रातको वहीं नदीके तटपर सो गये । वहाँ रातमें एक सर्प निकला और उसने नन्दका पैर पकड़ लिया । नन्द अत्यन्त भयसे विह्वल हो 'कृष्ण-कृष्ण' पुकारने लगे। नरेश्वर ! उस समय ग्वाल-बालोंने जलती हुई लकड़ियाँ लेकर उसीसे उस अजगरको मारना शुरू किया, तो भी उसने नन्दका पाँव उसी तरह नहीं छोड़ा, जैसे मणिधर साँप अपनी मणिको नहीं छोड़ता । तब लोकपावन भगवान् - ने उस सर्पको तत्काल पैरसे मारा। पैरसे मारते ही वह सर्पका शरीर त्यागकर कृतकृत्य विद्याधर हो गया। उसने श्रीकृष्णको नमस्कार करके उनकी परिक्रमा की और हाथ जोड़कर कहा ॥ -५ ॥

सुदर्शन बोला- प्रभो ! मेरा नाम सुदर्शन है, मैं विद्याधरोंका मुखिया हूँ । मुझे अपने बलका बड़ा

घमंड था और मैंने अष्टावक्र मुनिको देखकर उनकी हँसी उड़ायी थी । तब उन्होंने मुझे शाप दे दिया— 'दुर्मते ! तू सर्प हो जा ।' माधव ! उनके उस शापसे आज मैं आपकी कृपासे मुक्त हुआ हूँ । आपके चरण- कमलोंके मकरन्द एवं परागके कणोंका स्पर्श पाकर मैं सहसा दिव्य पदवीको प्राप्त हो गया। जो भूतलका भूरि-भार- हरण करनेके लिये यहाँ अवतीर्ण हुए हैं, उन भगवान् भुवनेश्वर को बारंबार नमस्कार है ।। ६–८ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णको नमस्कार करके वह विद्याधर सब प्रकारके उपद्रवोंसे रहित वैष्णवलोकको चला गया। उस समय श्रीकृष्णको परमेश्वर जानकर नन्द आदि गोप बड़े विस्मित हुए। फिर वे शीघ्र ही अम्बिकावनसे व्रजमण्डलको चले गये। इस प्रकार मैंने तुमसे श्रीकृष्णके शुभ चरित्रका वर्णन किया, जो पुण्यप्रद तथा सर्वपापहारी है। अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ ९ – ११ ॥

बहुलाश्व बोले- अहो ! श्रीकृष्णचन्द्र का चरित्र अत्यन्त अद्भुत है, उसे सुनकर मेरा मन पुनः उसे सुनना चाहता है। देवर्षिसत्तम । व्रजेश्वर परमात्मा श्रीहरि ने व्रज-मण्डल में आगे चलकर कौन-सी लीला की ? ॥ १२-१३ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत 'सुदर्शनोपाख्यान' नामक तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २३ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-तीसरा अध्याय..(पोस्ट०१)

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श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तीसरा अध्याय..(पोस्ट०१)

भगवान्‌ के अन्य लीला-चरित्रों का वर्णन

उद्धव उवाच ।

ततः स आगत्य पुरं स्वपित्रोः
     चिकीर्षया शं बलदेवसंयुतः ।
निपात्य तुङ्गाद् रिपुयूथनाथं
     हतं व्यकर्षद् व्यसुमोजसोर्व्याम् ॥ १ ॥
सान्दीपनेः सकृत् प्रोक्तं ब्रह्माधीत्य सविस्तरम् ।
तस्मै प्रादाद् वरं पुत्रं मृतं पञ्चजनोदरात् ॥ २ ॥
समाहुता भीष्मककन्यया ये
     श्रियः सवर्णेन बुभूषयैषाम् ।
गान्धर्ववृत्त्या मिषतां स्वभागं
     जह्रे पदं मूर्ध्नि दधत्सुपर्णः ॥ ३ ॥
ककुद्मिनोऽविद्धनसो दमित्वा
     स्वयंवरे नाग्नजितीमुवाह ।
तद्भ ग्नमानानपि गृध्यतोऽज्ञान्
     जघ्नेऽक्षतः शस्त्रभृतः स्वशस्त्रैः ॥ ४ ॥

उद्धवजी कहते हैं—इसके बाद श्रीकृष्ण अपने माता-पिता देवकी-वसुदेवको सुख पहुँचानेकी इच्छासे बलदेवजी के साथ मथुरा पधारे और उन्होंने शत्रुसमुदाय के स्वामी कंस को ऊँचे सिंहासन से नीचे पटककर तथा उसके प्राण लेकर उसकी लाश को बड़े जोर से पृथ्वीपर घसीटा ॥ १ ॥ सान्दीपनि मुनिके द्वारा एक बार उच्चारण किये हुए साङ्गोपाङ्ग वेदका अध्ययन करके दक्षिणास्वरूप उनके मरे हुए पुत्रको पञ्चजन नामक राक्षसके पेटसे (यमपुरीसे) लाकर दे दिया ॥ २ ॥ भीष्मकनन्दिनी रुक्मिणीके सौन्दर्यसे अथवा रुक्मीके बुलानेसे जो शिशुपाल और उसके सहायक वहाँ आये हुए थे, उनके सिरपर पैर रखकर गान्धर्व विधिके द्वारा विवाह करनेके लिये अपनी नित्यसंगिनी रुक्मिणी को वे वैसे ही हरण कर लाये, जैसे गरुड अमृत-कलश को ले आये थे ॥ ३ ॥ स्वयंवर में सात बिना नथे हुए बैलों को नाथकर नाग्रजिती (सत्या) से विवाह किया। इस प्रकार मानभङ्ग हो जानेपर मूर्ख राजाओंने शस्त्र उठाकर राजकुमारी को छीनना चाहा। तब भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने स्वयं बिना घायल हुए अपने शस्त्रों से उन्हें मार डाला ॥ ४ ॥ 

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शनिवार, 26 अक्तूबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) बाईसवाँ अध्याय


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

बाईसवाँ अध्याय

 

श्रीकृष्ण का नन्दराज को वरुणलोक से ले आना और गोप-गोपियों को वैकुण्ठधाम का दर्शन कराना

 

श्रीनारद उवाच -
एकदा नंदराजोऽसौ कृत्वा चैकादशीव्रतम् ।
द्वादश्यां यमुनां स्नातुं गोपालैर्जलमाविशत् ॥ १ ॥
तं गृहीत्वा पाशिभृत्यः पाशिलोकं जगाम ह ।
तदा कोलाहले जाते गोपानां मैथिलेश्वर ॥ २ ॥
आश्वास्य सर्वान् भगवान् गतवान् वारुणीं पुरीम् ।
भस्मीचकार सहसा पुरीदुर्गं हरिः स्वयम् ॥ ३ ॥
कोटिमार्तंडसंकाशं दृष्ट्वा प्रकुपितं हरिम् ।
नत्वा कृतांजलिः पाशी परिक्रम्याह धर्षितः ॥ ४ ॥


वरुण उवाच -
नमः श्रीकृष्णचंद्राय परिपूर्णतमाय च ।
असंख्यब्रह्मांडभृते गोलोकपतये नमः ॥ ५ ॥
चतुर्व्यूहाय महसे नमस्ते सर्वतेजसे ।
नमस्ते सर्वभावाय परस्मै ब्रह्मणे नमः ॥ ६ ॥
केनापि मूढेन ममानुगेन
     कृतं परं हेलनमद्य एव ।
तत्क्षम्यतां भोः शरणं गतं मां
     परेश भूमन् परिपाहि पाहि ॥ ७ ॥


श्रीनारद उवाच -
इति प्रसन्नो भगवान् नंदं नीत्वा सुजीवितम् ।
सौख्यं प्रकाशयन्बंधून् व्रजमंडलमाययौ ॥ ८ ॥
नन्दराजमुखाच्छ्रुत्वा प्रभावं श्रीहरेस्तु तम् ।
गोपीगोपगणा ऊचुः श्रीकृष्णं नन्दनंदनम् ॥ ९ ॥
यदि त्वं भगवान्साक्षाल्लोकपालैः सुपूजितः ।
दर्शयाशु परं लोकं वैकुण्ठं तर्हि नः प्रभो ॥ १० ॥
नीत्वा सर्वान् ततः कृष्ण एत्य वैकुण्ठमंदिरम् ।
दर्शयामास रूपं स्वं ज्योतिर्मंडलमध्यगम् ॥ ११ ॥
सहस्रभूजसंयुक्तं किरीटकटकोज्ज्वलम् ।
शंखचक्रगदापद्मवनमालाविराजितम् ॥ १२ ॥
असंख्यकोटिमार्तंड संकाशं शेषसंस्थितम् ।
चामरांदोलदिव्याभं ब्रह्माद्यैः परिसेवितम् ॥ १३ ॥
तदैव तान् गोपगणान् पार्षदास्ते गदाधराः ।
ऋजुं कृत्वा नतिं धृत्वा दूरे स्थाप्य प्रयत्‍नतः ॥ १४ ॥
चकितानिव तान्वीक्ष्य प्रोचुस्ते पार्षदा गिरा ।
रे रे तूष्णीं प्रभवत मा वक्तव्यं वनेचराः ॥ १५ ॥
भाषणं मा प्रकुरुत न दृष्ट्वा किं सभा हरेः ।
वेदा वदंति चात्रैव साक्षाद्देवे स्थिते प्रभौ ॥ १६ ॥
इति शिक्षां गता गोपा हर्षिता मौनमास्थिताः ।
मनस्यूचुरयं कृष्ण उच्चसिंहासने स्थितः ॥ १७ ॥
अस्मान् दूरादधःकृत्वा ऽस्माभिर्वक्ति न कर्हिचित् ।
तस्माद्व्रजाद्वरं नास्ति कोपि लोको न सौख्यदः ॥ १८ ॥
यत्रानेन स्वभ्रात्रापि वार्ता स्याद्धि परस्परम् ।
इतिप्रवदतस्तान्वै नीत्वा श्रीभगवान् हरिः ।
व्रजमागतवान् राजन् परिपूर्णतमः प्रभुः ॥ १९ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- एक दिनकी बात है, नन्दराज एकादशीका व्रत करके द्वादशीको निशीथ कालमें ही ग्वालोंके साथ यमुना स्नानके लिये गये और जलमें उतरे । वहाँ वरुणका एक सेवक उन्हें पकड़कर वरुण-लोकमें ले गया। मैथिलेश्वर ! उस समय ग्वालोंमें कुहराम मच गया; तब उन सबको आश्वासन दे भगवान् श्रीहरि वरुणपुरीमें पधारे और उन्होंने सहसा उस पुरीके दुर्गको भस्म कर दिया। करोड़ों सूर्योक समान तेजस्वी श्रीहरिको अत्यन्त कुपित हुआ देख वरुणने तिरस्कृत होकर उन्हें नमस्कार किया और उनकी परिक्रमा करके हाथ जोड़कर कहा ।। १-४ ॥

वरुण बोले- श्रीकृष्णचन्द्रको नमस्कार है। परिपूर्णतम परमात्मा तथा असंख्य ब्रह्माण्डोंका भरणपोषण करनेवाले गोलोकपतिको नमस्कार है। चतुर्व्यूहके रूपमें प्रकट तेजोमय श्रीहरिको नमस्कार है। सर्वतेजःस्वरूप आप परमेश्वरको नमस्कार है । सर्वस्वरूप आप परब्रह्म परमात्माको नमस्कार है। मेरे किसी मूर्ख सेवक ने यह पहली बार आपकी अवहेलना की है; उसके लिये आप मुझे क्षमा करें। परेश ! भूमन् ! मैं आपकी शरणमें आया हूँ; आप मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये ॥ ५-७ ॥

नारदजी कहते हैं- राजन् ! यह सुनकर प्रसन्न हुए भगवान् श्रीकृष्ण नन्दजीको जीवित लेकर अपने बन्धुजनोंको सुख प्रदान करते हुए व्रजमण्डलमें लौट आये ॥

नन्दराजके मुखसे श्रीहरिके उस प्रभावको सुनकर गोपी और गोप- समुदाय नन्दनन्दन श्रीकृष्णसे बोले- 'प्रभो! यदि आप लोकपालोंसे पूजित साक्षात् भगवान् हैं तो हमें शीघ्र ही उत्तम वैकुण्ठ- लोकका दर्शन कराइये।' तब उन सबको लेकर श्रीकृष्ण वैकुण्ठधाममें गये और वहाँ उन्होंने ज्योतिर्मण्डलके मध्यमें विराजमान अपने स्वरूपका उन्हें दर्शन कराया ॥ ९-११

उनके सहस्र भुजाएँ थीं, किरीट और कटक आदि आभूषणोंसे उनका स्वरूप और भी भव्य दिखायी देता था। वे शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म और वनमाला से सुशोभित थे ॥ १२ ॥

असंख्य कोटि सूर्यों के समान तेजस्वी स्वरूपसे वे शेषनागकी शय्यापर पौढ़े थे। चँवर डुलाये जानेसे उनकी आभा और भी दिव्य जान पड़ती थी । ब्रह्मा आदि देवता उनकी सेवामें लगे थे ॥ १

उस समय भगवान्‌ के गदाधारी पार्षदोंने उन गोपगणोंको सीधे करके उनसे प्रणाम करवाकर उन्हें प्रयत्नपूर्वक दूर खड़ा किया और उन्हें चकित सा देख वे पार्षद बोले— 'अरे वनचरो ! चुप हो जाओ । यहाँ वक्तृता न दो, भाषण न करो। क्या तुमने श्रीहरिकी सभा कभी नहीं देखी है ? यहीं सबके प्रभु देवाधिदेव साक्षात् भगवान् स्थित होते हैं और वेद उनके गुण गाते हैं।' इस प्रकार शिक्षा देनेपर वे गोप हर्षसे भर गये और चुपचाप खड़े हो गये। अब वे मन-ही-मन कहने लगे- 'अरे! यह ऊँचे सिंहासनपर बैठा हुआ हमारा श्रीकृष्ण ही तो है ॥ १-१७

हम समीप खड़े हैं, तो भी हमें नीचे खड़ा करके ऊँचे बैठ गया है और हमसे क्षणभरके लिये बाततक नहीं करता । इसलिये व्रजसे बढ़कर न कोई श्रेष्ठ लोक है और न उससे बढ़कर दूसरा कोई सुखदायक लोक है; क्योंकि व्रजमें तो यह हमारा भाई रहा है और इसके साथ हमारी परस्पर बातचीत होती रही है।' राजन् ! इस प्रकार कहते हुए उन गोपोंके साथ परिपूर्णतम प्रभु भगवान् श्रीहरि व्रजमें लौट आये ॥ ८-१९॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'नन्द आदिका वैकुण्ठदर्शन' नामक बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २२ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) इक्कीसवाँ अध्याय

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

इक्कीसवाँ अध्याय

 

दावानल से गौओं और ग्वालों का छुटकारा तथा विप्रपत्नियोंको श्रीकृष्ण का दर्शन

 

श्रीनारद उवाच -
अथ क्रीडाप्रसक्तेषु गोपेषु सबलेषु च ।
तृणलोभेन विविशुर्गावः सर्वा महद्वनम् ॥ १ ॥
ता आनेतुं गोपबालाः प्राप्ता मुंजाटवीं पराम् ।
संभूतस्तत्र दावाग्निः प्रलयाग्निसमो महान् ॥ २ ॥
गोभिर्गोपाः समेतास्ते श्रीकृष्णं सबलं हरिम् ।
वदन्तः पाहि पाहीति भयार्ताः शरणं गताः ॥ ३ ॥
वीक्ष्य वह्निभयं स्वानां कृष्णो योगेश्वरेश्वरः ।
न्यमीलयत मा भैष्ट लोचनानीत्यभाषत ॥ ४ ॥
तथाभूतेषु गोपेषु तमग्निं भयकारकम् ।
अपिबद्‍भगवान्देवो देवानां पश्यतां नृप ॥ ५ ॥
एवं पीत्वा महावह्निं नीत्वा गोपालगोगणम् ।
प्राप्तोऽभूत् यमुनापारे शुभाशोकवने हरिः ॥ ६ ॥
तत्र क्षुत्पीडिता गोपाः श्रीकृष्णं सबलं हरिम् ।
कृतांजलिपुटा ऊचुः क्षुधार्ताः स्मो वयं प्रभो ॥ ७ ॥
तदा तान्प्रेषयामास यज्ञ आंगिरसे हरिः ।
ते गत्वा तं यज्ञवरं नत्वोचुर्विमलं वच ॥ ८ ॥


गोपा ऊचुः -
गोपालबालैः सबलः समागतो
     गाश्चारयन् श्रीव्रजराजनन्दनः ।
क्षुत्संयुतोऽस्मै सगणाय भूसुराः
     प्रयच्छताश्वन्नमनंगमोहिने ॥ ९ ॥


श्रीनारद उवाच -
न किंचिदूचुस्ते सर्वे वचः श्रुत्वा द्विजा नृप ।
गोपा निराशा आगत्य इत्यूचुः सबलं हरिम् ॥ १० ॥


गोपा ऊचु -
त्वमस्यधीशो व्रजमंडले बली
     श्रीगोकुले नन्दपुरोऽग्रदण्डधृक् ।
न वर्तते दण्डमलं मधोः पुरि
     प्रचंडचंडांशुमहस्तव स्फुरत् ॥ ११ ॥


श्रीनारद उवाच -
पुनस्तान् प्रेषयामास तत्पत्‍नीभ्यो हरिः स्वयम् ।
यज्ञवाटं पुनर्गत्वा नत्वा विप्रप्रियास्तदा ।
कृतांजलिपुटा ऊचुर्गोपाः कृष्णप्रणोदिताः ॥ १२ ॥


गोपा ऊचुः -
गोपालबालैः सबलः समागतो
     गाश्चारयन् श्रीव्रजराजनन्दनः ।
क्षुत्संयुतोऽस्मै सगणाय चांगनाः
     प्रयच्छताश्वन्नमनंगमोहिने ॥ १३ ॥


श्रीनारद उवाच -
कृष्णं समागतं श्रुत्वा कृष्णदर्शनलालसाः ।
चक्रुस्तथाऽन्नं पात्रेषु नीत्वा सर्वा द्विजांगनाः ॥ १४ ॥
त्यक्त्वा सद्यो लोकलज्जां कृष्णपार्श्वं समाययुः ।
अशोकानां वने रम्ये कृष्णातीरे मनोहरे ॥ १५ ॥
यथा श्रुतं तथा दृष्टं श्रीहरेर्रूपमद्‌भुतम् ।
प्राप्यानंदं गताः सर्वास्तुरीयं योगिनो यथा ॥ १६ ॥


श्रीभगवानुवाच -
धन्या यूयं दशनार्थमागता हे द्विजांगनाः ।
प्रतियात गृहाञ्छीघ्रं निःशंका भूमिदेवताः ॥ १७ ॥
युष्माकं तु प्रभावेण पतयो वो द्विजातयः ।
सद्यो यज्ञफलं प्राप्य युष्माभिः सह निर्मलाः ॥ १८ ॥
गमिष्यंति परं धाम गोलोकं प्रकृतेः परम् ।
अथ नत्वा हरिं सर्वा आजग्मुर्यज्ञमण्डले ॥ १९ ॥


श्रीनारद उवाच -
ता दृष्ट्वा ब्राह्मणाः सर्वे स्वात्मानं धिक् प्रचक्रिरे ।
दिदृक्षवस्ते श्रीकृष्णं कंसाद्‌भीता न चागताः ॥ २० ॥
भुक्त्वाऽन्नं सबलः कृष्णो गोपालैः सह मैथिल ।
गाः पालयन्नाजगाम वृन्दारण्यं मनोहरम् ॥ २१ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर श्रीबलरामसहित समस्त ग्वाल-बाल खेलमें आसक्त हो गये। उधर सारी गौएँ घासके लोभ से विशाल वनमें प्रवेश कर गयीं। उनको लौटा लानेके लिये ग्वाल- बाल बहुत बड़े मूँजके वनमें जा पहुँचे। वहाँ प्रलयाग्निके समान महान् दावानल प्रकट हो गया। उस समय गौओंसहित समस्त ग्वाल-बाल एकत्र हो बलरामसहित श्रीकृष्णको पुकारने लगे और भयसे आर्त हो, उनकी शरण ग्रहण कर 'बचाओ, बचाओ !' यों कहने लगे ॥ १-

अपने सखाओंके ऊपर अग्निका महान् भय देखकर योगेश्वरेश्वर श्रीकृष्णने कहा- 'डरो मत; अपनी आँखें बंद कर लो।' नरेश्वर ! जब गोपोंने ऐसा कर लिया, तब देवताओंके देखते-देखते भगवान् गोविन्ददेव उस भयकारक अग्निको पी गये। इस प्रकार उस महान् अग्निको पीकर ग्वालों और गौओंकों साथ ले श्रीहरि यमुनाके उस पार अशोकवनमें जा पहुँचे। वहाँ भूखसे पीड़ित ग्वाल-बाल बलरामसहित श्रीकृष्णसे हाथ जोड़कर बोले— 'प्रभो! हमें बहुत भूख सता रही है ।' तब भगवान् ने उनको आङ्गिरस- यज्ञ में भेजा । वे उस श्रेष्ठ यज्ञमें जाकर नमस्कार करके निर्मल वचन बोले ॥ -८ ॥

गोपोंने कहा- ब्राह्मणो ! ग्वाल-बालों और बलरामजीके साथ व्रजराजनन्दन श्रीकृष्ण गौएँ चराते हुए इधर आ निकले हैं, उन सबको भूख लगी है। अतः आप सखाओंसहित उन मदनमोहन श्रीकृष्णके लिये शीघ्र ही अन्न प्रदान करें ।। ९ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- नरेश्वर ! ग्वाल-बालोंकी वह बात सुनकर वे ब्राह्मण कुछ नहीं बोले । तब

ग्वाल-बाल निराश लौट गये और आकर बलराम- सहित श्रीकृष्णसे इस प्रकार बोले-- ॥ १० ॥

गोपों ने कहा- सखे! तुम व्रजमण्डलमें ही अधीश बने हुए हो । गोकुलमें ही तुम्हारा बल चलता है और नन्दबाबाके आगे ही तुम कठोर दण्डधारी बने हुए हो। प्रचण्ड सूर्यके समान तेजस्वी तुम्हारा प्रकाशमान दण्ड निश्चय ही मथुरापुरीमें अपना प्रभाव नहीं प्रकट करता ॥ ११ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! तब श्रीहरिने उन ग्वाल-बालोंको पुनः यज्ञकर्ता ब्राह्मणोंकी पत्नियोंके पास भेजा। तब वे पुनः यज्ञशालामें गये और उन ब्राह्मण पत्नियोंको नमस्कार करके वे श्रीकृष्णके भेजे हुए ग्वाल हाथ जोड़कर बोले ॥ १२ ॥

गोपोंने कहा- ब्राह्मणी देवियो ! ग्वाल-बालों और बलरामजीके साथ गाय चराते हुए श्रीब्रजराज - नन्दन कृष्ण इधर आ गये हैं, उन्हें भूख लगी है। सखाओंसहित उन मदनमोहनके लिये आपलोग शीघ्र ही अन्न प्रदान करें ।। १३ ।।

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! श्रीकृष्णका शुभागमन सुनकर उन समस्त विप्रपत्त्रियोंके मनमें उनके दर्शनकी लालसा जाग उठी। उन्होंने विभिन्न पात्रोंमें भोजनकी सामग्री रख लीं और तत्काल लोक-लाज छोड़कर वे श्रीकृष्णके पास चली गयीं । रमणीय अशोकवनमें यमुनाके मनोरम तटपर विप्र- पत्नियोंने श्रीहरिका अद्भुत रूप जैसा सुना था, वैसा ही देखा । दर्शन पाकर वे सब परमानन्दमें उसी प्रकार निमग्न हो गयीं, जैसे योगीजन तुरीय ब्रह्मका साक्षात्कार करके आनन्दित हो उठते हैं ।। १४–१६ ॥

श्रीभगवान् बोले- विप्रपत्त्रियो ! तुमलोग धन्य हो, जो मेरे दर्शनके लिये यहाँतक चली आयीं, अब शीघ्र ही घर लौट जाओ। ब्राह्मणलोग तुमपर कोई संदेह नहीं करेंगे। तुम्हारे ही प्रभावसे तुम्हारे पतिदेवता ब्राह्मणलोग तत्काल यज्ञका फल पाकर निर्मल हो, तुम्हारे साथ प्रकृतिसे परे विद्यमान परमधाम गोलोकको चले जायँगे ।। १७-१८ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं-तब श्रीहरिको नमस्कार करके वे सब स्त्रियाँ यज्ञशालामें चली आयीं, उन्हें देखकर सब ब्राह्मणोंने अपने-आपको धिक्कारा । वे कंसके डरसे स्वयं श्रीकृष्णको देखनेके लिये नहीं जा सके थे । १९-२० ॥

मैथिल ! ग्वाल-बालों और बलरामजीके साथ वह अन्न खाकर श्रीकृष्ण गौओंको चराते हुए मनोहर वृन्दावनमें चले गये ॥ २१ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत नारद-बहुलाश्व-संवादमें 'दावानलसे गौओं और ग्वालोंका छुटकारा तथा विप्रपत्त्रियोंको श्रीकृष्णका दर्शन' नामक इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २१ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से 
 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - दूसरा अध्याय..(पोस्ट०९)

उद्धवजी द्वारा भगवान्‌ की बाललीलाओं का वर्णन

अयाजयद् गोसवेन गोपराजं द्विजोत्तमैः ।
वित्तस्य चोरुभारस्य चिकीर्षन् सद्व्ययं विभुः ॥ ३२ ॥
वर्षतीन्द्रे व्रजः कोपाद् भग्नमानेऽतिविह्वलः ।
गोत्रलीलातपत्रेण त्रातो भद्रानुगृह्णता ॥ ३३ ॥
शरच्छशिकरैर्मृष्टं मानयन् रजनीमुखम् ।
गायन् कलपदं रेमे स्त्रीणां मण्डलमण्डनः ॥ ३४ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने बढ़े हुए धनका सद्व्यय कराने की इच्छा से श्रेष्ठ ब्राह्मणों के द्वारा नन्दबाबा से गोवर्धन-पूजारूप गोयज्ञ करवाया ॥ ३२ ॥ भद्र ! इससे अपना मानभङ्ग होनेके कारण जब इन्द्रने क्रोधित होकर व्रजका विनाश करनेके लिये मूसलधार जल बरसाना आरम्भ किया, तब भगवान्‌ने करुणावश खेल-ही-खेलमें छत्तेके समान गोवर्धन पर्वतको उठा लिया और अत्यन्त घबराये हुए व्रजवासियोंकी तथा उनके पशुओंकी रक्षा की ॥ ३३ ॥ सन्ध्याके समय जब सारे वृन्दावनमें शरद्के चन्द्रमाकी चाँदनी छिटक जाती, तब श्रीकृष्ण उसका सम्मान करते हुए मधुर गान करते और गोपियोंके मण्डलकी शोभा बढ़ाते हुए उनके साथ रासविहार करते ॥ ३४ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे विदुरोद्धवसंवादे द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


गुरुवार, 24 अक्तूबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) बीसवाँ अध्याय

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

बीसवाँ अध्याय

 

बलदेवजी के हाथ से प्रलम्बासुर का वध तथा उसके पूर्वजन्म का परिचय

 

श्रीनारद उवाच -
इति कृष्णस्तवं श्रुत्वा मान्धाता नृपसत्तमः ।
अयोध्यां प्रययौ वीरो नत्वा श्रीसौभरिं मुनिम् ॥ १ ॥
इदं मया ते कथितं गोपीनां चरितं शुभम् ।
महापापहररं पुण्यं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ २ ॥


बहुलाश्व उवाच -
श्रुतं तव मुखाद्ब्रह्मन् गोपीनां वर्णनं परम् ।
यमुनायाश्च पंचांगं महापातकनाशनम् ॥ ३ ॥
श्रीकृष्णः सबलः साक्षाद्‌‍गोलोकाधिपतिः प्रभुः ।
अग्रे चकार कं लीलां ललितां व्रजमंडले ॥ ४ ॥


श्रीनारद उवाच -
एकदा चारयन्गाः स्वाः सबलो गोपबालकैः ।
भांडीरे यमुनातीरे बाललीलां चकार ह ॥ ५ ॥
विहारं कारयन् बालैः वाह्यवाहकलक्षणम् ।
विजहार वने कृष्णो दर्शयन्गा मनोहराः ॥ ६ ॥
तत्रागतो गोपरूपी प्रलंबः कंसनोदितः ।
न ज्ञातो बालकैः सोपि हरिणा विदितोऽभवत् ॥ ७ ॥
विहारे विजयं रामं नेतुं कोऽपि न मन्यते ।
ऊवाह तं प्रलंबोऽसौ भांडीराद्यमुनातटम् ॥ ८ ॥
अवरोहरणतो दैत्यो मथुरां गंतुमुद्यतः ।
दधार घनवद्‍रूपं गिरीन्द्र इव दुर्गमः ॥ ९ ॥
बभौ बलो दैत्यपृष्ठे सुन्दरो लोलकुण्डलः ।
आकाशस्थः पूर्णचन्द्रः सतडिज्जलदो यथा ॥ १० ॥
दैत्यं भयंकरं वीक्ष्य बलदेवो महाबलः ।
रुषाऽहनन्मुष्टिना तं शिरस्यद्रिं यथाऽद्रिभित् ॥ ११ ॥
विशीर्णमस्तको दैत्यो यथा वज्रहतो गिरिः ।
पपात भूमौ सहसा चालयन् वसुधातलम् ॥ १२ ॥
तज्ज्योतिर्निर्गतं दीर्घं बले लीनं बभूव ह ।
तदैव ववृषुर्देवाः पुष्पैर्नन्दनसंभवैः ॥ १३ ॥
अभूज्जय जयारावो दिवी भूमौ नृपेश्वर ।
एवं श्रीबलदेवस्य चरितं परमाद्‌भुतम् ।
मया ते कथितं राजन् किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ १४ ॥


बहुलाश्व उवाच -
कोऽयं दैत्यः पूर्वकाले प्रलंबो रणदुर्मदः ।
बलदेवस्य हस्तेन मुक्तिं प्राप कथं मुने ॥ १५ ॥


श्रीनारद उवाच -
शिवस्य पूजनार्थं हि यक्षराट् स्ववने शुभे ।
कारयामास पुष्पाणां रक्षां यक्षैरितस्ततः ॥ १६ ॥
तदप्यस्यापि जगृहुः पुष्पाणि प्रस्फुरंति च ।
ततः क्रुद्धो ददौ शापं यक्षराड् धनदो बली ॥ १७ ॥
ये गृह्णंत्यस्य पुष्पाणि स्वे चान्ये सुरमानवाः ।
भवितारोऽसुराः सर्वे मच्छापात् सहसा भुवि ॥ १८ ॥
हूहूसुतोऽथ विजयो विचरन् तीर्थभूमिषु ।
वनं चैत्ररथं प्राप्तो गायन् विष्णुगुणान्पथि ॥ १९ ॥
वीणापाणिरजानन्वै गन्धर्वः सुमनांसि च ।
गृहीत्वा सोऽसुरो जातो गन्धर्वत्वं विहाय तत् ॥ २० ॥
तदैव शरणं प्राप्तः कुबेरस्य महात्मनः ।
नत्वा तत्प्रार्थनां चक्रे कृतांजलिपुटः शनैः ॥ २१ ॥
तस्मै प्रसन्नो राजेन्द्र कुबेरोऽपि वरं ददौ ।
त्वं विष्णुभक्तः शांतात्मा मा शोकं कुरु मानद ॥ २२ ॥
द्वापरांते च ते मुक्तिः बलदेवस्य हस्ततः ।
भविष्यति न सन्देहो भांडीरे यमुनातटे ॥ २३ ॥


श्रीनारद उवाच -
हूहूसुतः स गन्धर्वः प्रलंबोऽभून्महासुरः ।
कुबेरस्य वराद्‍राजन् परं मोक्षं जगाम ह ॥ २४ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार यमुनाजी का सहस्रनामस्तोत्र सुनकर वीरभूप- शिरोमणि मांधाता सौभरिमुनि को नमस्कार करके अयोध्यापुरी को चले गये। यह मैंने तुमसे गोपियोंके शुभ चरित्रका वर्णन किया, जो महान् पापोंको हर लेनेवाला और पुण्यप्रद है । बताओ और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ १-२ ॥

बहुलाश्व बोले- ब्रह्मन् ! मैंने आपके मुखसे गोपियोंके चरित्रका उत्तम वर्णन सुना। साथ ही यमुनाके पञ्चाङ्गका भी श्रवण किया, जो बड़े-बड़े पातकोंका नाश करनेवाला है। साक्षात् गोलोकके अधिपति भगवान् श्रीकृष्णने बलरामजीके साथ व्रजमण्डलमें आगे कौन-कौन-सी मनोहर लीलाएँ कीं, यह बताइये ॥ ३-४ ॥

श्रीनारदजीने कहा- राजन् ! एक दिन श्रीबलराम और ग्वाल-बालोंके साथ अपनी गौएँ चराते हुए श्रीकृष्ण भाण्डीरवनमें यमुनाजीके तटपर बालोचित खेल खेलने लगे ॥

बालकों से बाह्य- वाहन का खेल करवाते हुए श्रीकृष्ण मनोहर गौओं की देख-भाल करते हुए वनमें विहार करते थे। (इस खेलमें कुछ लड़के वाहन — घोड़ा आदि बनते और कुछ उनकी पीठपर सवारी करते थे।) उस समय वहाँ कंसका भेजा हुआ असुर प्रलम्ब गोपरूप धारण करके आया। दूसरे ग्वाल-बाल तो उसे न पहचान सके, किंतु भगवान् श्रीकृष्णसे उसकी माया छिपी न रही । खेलमें हारनेवाला बालक जीतनेवालेको पीठपर चढ़ाता था; किंतु जब बलरामजी जीत गये, तब उन्हें कोई भी पीठपर चढ़ानेको तैयार नहीं हुआ। उस समय प्रलम्बासुर ही उन्हें भाण्डीरवनसे यमुनातटतक अपनी पीठपर चढ़ाकर ले जाने लगा ॥ ६-८

[एक निश्चित स्थान था, जहाँ ढोकर ले जानेवाला बालक अपनी पीठपर चढ़े हुए बालकको उतार देता था; परंतु] प्रलम्बासुर उतारनेके स्थानपर पहुँचकर भी उन्हें उतारे बिना ही मथुरातक ले जानेको उद्यत हो गया। उसने बादलोंकी घोर घटाकी भाँति भयानक रूप धारण कर लिया और विशाल पर्वतके समान दुर्गम हो गया। उस दैत्यकी पीठपर बैठे हुए सुन्दर बलरामजीके कानोंमें कान्तिमान् कुण्डल हिल रहे थे। ऐसा जान पड़ता था, मानो आकाशमें पूर्ण चन्द्रमा उदित हुए हों अथवा मेघोंकी घटामें बिजली चमक रही हो ॥ ९-१०

उस भयानक दैत्यको देखकर महाबली बलदेवजीको बड़ा क्रोध हुआ । उन्होंने उसके मस्तकपर कसके एक मुक्का मारा, मानो इन्द्रने किसी पर्वतपर वज्रका प्रहार किया हो। उस दैत्यका मस्तक वज्रसे आहत पहाड़की तरह फट गया और वह सहसा पृथ्वीको कम्पित करता हुआ धराशायी हो गया। उसके शरीरसे एक विशाल ज्योति निकली और बलरामजीमें विलीन हो गयी। उस समय देवता बलरामजीके ऊपर नन्दनवनके फूलोंकी वर्षा करने लगे। नृपेश्वर ! पृथ्वीपर और आकाशमें भी जय-जयकार होने लगी। राजन् ! इस प्रकार श्रीबलदेवजीके परम अद्भुत चरित्रका मैंने तुम्हारे समक्ष वर्णन किया, अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥११– १४॥

बहुलाश्वने पूछा- मुने ! वह रण-दुर्मद दैत्य प्रलम्ब पूर्वजन्ममें कौन था ? और बलदेवजीके हाथसे उसकी मुक्ति क्यों हुई ? ॥ १५ ॥

श्रीनारदजीने कहा- राजन् ! यक्षराज कुबेरने अपने सुन्दर वनमें भगवान् शिवको पूजाके लिये फुलवारी लगा रखी थी और इधर-उधर यक्षोंको तैनात करके उन फूलोंकी रक्षाका प्रबन्ध करवाया था; तथापि उस पुष्पवाटिकाके सुन्दर एवं चमकीले फूल लोग तोड़ लिया करते थे। इससे कुपित हो बलवान् यक्षराज कुबेरने यह शाप दिया- 'जो यक्ष इस फुलवारीके फूल लेंगे अथवा दूसरे भी जो देवता और मनुष्य आदि फूल तोड़नेका अपराध करेंगे, वे सब सहसा मेरे शापसे भूतलपर असुर हो जायँगे।' ॥ १६-१८

एक दिन हूहू नामक गन्धर्वका बेटा 'विजय' तीर्थभूमियोंमें विचरता तथा मार्गमें भगवान् विष्णुके गुणोंको गाता हुआ चैत्ररथ वनमें आया। उसके हाथमें वीणा थी। बेचारा गन्धर्व शापकी बातको नहीं जानता था, अतः उसने वहाँसे कुछ फूल ले लिये। फूल लेते ही वह गन्धर्वरूपको त्यागकर असुर हो गया। फिर तो वह तत्काल महात्मा कुबेरकी शरण में गया और नमस्कार करके दोनों हाथ जोड़कर धीरे- धीरे शापसे छूटनेके लिये प्रार्थना करने लगा । राजेन्द्र ! तब उसपर प्रसन्न होकर कुबेरने भी वर दिया- 'मानद ! तुम भगवान् विष्णुके भक्त तथा शान्त-चित्त महात्मा हो, इसलिये शोक न करो । द्वापरके अन्तमें भाण्डीर-वनमें यमुनाके तटपर बलदेवजीके हाथसे तुम्हारी मुक्ति होगी, इसमें संदेह नहीं है ॥ १-२

श्रीनारदजी कहते हैं—- राजन् ! हूहू का पुत्र वह विजयनामक गन्धर्व ही महान् असुर प्रलम्ब

हुआ और कुबेर के वर से उसको परम मोक्ष की प्राप्ति हुई ॥ २४ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत श्रीनारद- बहुलाश्व-संवादमें 'प्रलम्ब-वध' नामक बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २० ॥ 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - दूसरा अध्याय..(पोस्ट०८)

उद्धवजी द्वारा भगवान्‌ की बाललीलाओं का वर्णन

कौमारीं दर्शयन् चेष्टां प्रेक्षणीयां व्रजौकसाम् ।
रुदन्निव हसन्मुग्ध बालसिंहावलोकनः ॥ २८ ॥
स एव गोधनं लक्ष्म्या निकेतं सितगोवृषम् ।
चारयन् ननुगान् गोपान् रणद् वेणुररीरमत् ॥ २९ ॥
प्रयुक्तान् भोजराजेन मायिनः कामरूपिणः ।
लीलया व्यनुदत्तान् तान् बालः क्रीडनकानिव ॥ ३० ॥
विपन्नान् विषपानेन निगृह्य भुजगाधिपम् ।
उत्थाप्यापाययद् गावः तत्तोयं प्रकृतिस्थितम् ॥ ३१ ॥

वे व्रजवासियोंकी दृष्टि आकृष्ट करनेके लिये अनेकों बाल-लीला उन्हें दिखाते थे। कभी रोने-से लगते, कभी हँसते और कभी सिंह-शावकके समान मुग्ध दृष्टिसे देखते ॥ २८ ॥ फिर कुछ बड़े होनेपर वे सफेद बैल और रंग-बिरंगी शोभाकी मूर्ति गौओंको चराते हुए अपने साथी गोपोंको बाँसुरी बजा- बजाकर रिझाने लगे ॥ २९ ॥ इसी समय जब कंसने उन्हें मारनेके लिये बहुत-से मायावी और मनमाना रूप धारण करनेवाले राक्षस भेजे, तब उनको खेल-ही-खेलमें भगवान्‌ने मार डाला—जैसे बालक खिलौनोंको तोड़-फोड़ डालता है ॥ ३० ॥ कालियनाग का दमन करके विष मिला हुआ जल पीनेसे मरे हुए ग्वालबालों और गौओंको जीवितकर उन्हें कालियदह का निर्दोष जल पीनेकी सुविधा कर दी ॥ ३१ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०२) विदुरजी का प्रश्न  और मैत्रेयजी का सृष्टिक्रम ...