बुधवार, 12 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

जय-विजय का वैकुण्ठ से पतन

ब्रह्मोवाच –

अथ तस्योशतीं देवीं ऋषिकुल्यां सरस्वतीम् ।
नास्वाद्य मन्युदष्टानां तेषां आत्माप्यतृप्यत ॥ १३ ॥
सतीं व्यादाय शृण्वन्तो लघ्वीं गुर्वर्थगह्वराम् ।
विगाह्यागाधगम्भीरां न विदुस्तच्चिकीर्षितम् ॥ १४ ॥
ते योगमाययारब्ध पारमेष्ठ्यमहोदयम् ।
प्रोचुः प्राञ्जलयो विप्राः प्रहृष्टाः क्षुभितत्वचः ॥ १५ ॥

श्रीब्रह्माजी कहते हैं—देवताओ ! सनकादि मुनि क्रोधरूप सर्प से डसे हुए थे, तो भी उनका चित्त अन्त:करणको प्रकाशित करनेवाली भगवान्‌की मन्त्रमयी सुमधुर वाणी सुनते-सुनते तृप्त नहीं हुआ ॥ १३ ॥ भगवान्‌की उक्ति बड़ी ही मनोहर और थोड़े अक्षरोंवाली थी; किन्तु वह इतनी अर्थपूर्ण, सारयुक्त, दुर्विज्ञेय और गम्भीर थी कि बहुत ध्यान देकर सुनने और विचार करने पर भी वे यह न जान सके कि भगवान्‌ क्या करना चाहते हैं ॥ १४ ॥ भगवान्‌ की इस अद्भुत उदारता को देखकर वे बहुत आनन्दित हुए और उनका अङ्ग-अङ्ग पुलकित हो गया। फिर योगमायाके प्रभावसे अपने परम ऐश्वर्यका प्रभाव प्रकट करनेवाले प्रभुसे वे हाथ जोडक़र कहने लगे ॥ १५ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


मंगलवार, 11 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

जय-विजय का वैकुण्ठ से पतन

ये ब्राह्मणान्मयि धिया क्षिपतोऽर्चयन्तः
     तुष्यद्‌धृदः स्मितसुधोक्षितपद्मवक्त्राः ।
वाण्यानुरागकलयात्मजवद् गृणन्तः
     सम्बोधयन्ति अहमिवाहमुपाहृतस्तैः ॥ ११ ॥
तन्मे स्वभर्तुरवसायमलक्षमाणौ
     युष्मद्व्यतिक्रमगतिं प्रतिपद्य सद्यः ।
भूयो ममान्तिकमितां तदनुग्रहो मे
     यत्कल्पतामचिरतो भृतयोर्विवासः ॥ १२ ॥

(श्रीभगवान्‌ सनकादि मुनियों से कह रहे हैं) ब्राह्मण तिरस्कारपूर्वक कटुभाषण भी करे, तो भी जो उसमें मेरी भावना करके प्रसन्नचित्त से तथा अमृतभरी मुसकान से युक्त मुखकमल से उसका आदर करते हैं तथा जैसे रूठे हुए पिता को पुत्र और आपलोगों को मैं मनाता हूँ, उसी प्रकार जो प्रेमपूर्ण वचनोंसे प्रार्थना करते हुए उन्हें शान्त करते हैं, वे मुझे अपने वशमें कर लेते हैं ॥ ११ ॥ मेरे इन सेवकों ने मेरा अभिप्राय न समझकर ही आपलोगों का अपमान किया है। इसलिये मेरे अनुरोध से आप केवल इतनी कृपा कीजिये कि इनका यह निर्वासनकाल शीघ्र ही समाप्त हो जाय, ये अपने अपराध के अनुरूप अधम गति को भोगकर शीघ्र ही मेरे पास लौट आयें ॥ १२ ॥

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सोमवार, 10 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

जय-विजय का वैकुण्ठ से पतन

येषां बिभर्म्यहमखण्डविकुण्ठयोग
     मायाविभूतिरमलाङ्‌‌घ्रिरजः किरीटैः ।
विप्रांस्तु को न विषहेत यदर्हणाम्भः
     सद्यः पुनाति सहचन्द्रललामलोकान् ॥ ९ ॥
ये मे तनूर्द्विजवरान्दुहतीर्मदीया
     भूतान्यलब्धशरणानि च भेदबुद्ध्या ।
द्रक्ष्यन्त्यघक्षतदृशो ह्यहिमन्यवस्तान्
     गृध्रा रुषा मम कुषन्त्यधिदण्डनेतुः ॥ १० ॥

(श्रीभगवान्‌ कह रहे हैं) योगमायाका अखण्ड और असीम ऐश्वर्य मेरे अधीन है तथा मेरी चरणोदकरूपिणी गङ्गाजी चन्द्रमा को मस्तक पर धारण करनेवाले भगवान्‌ शङ्कर के सहित समस्त लोकों को पवित्र करती हैं। ऐसा परम पवित्र एवं परमेश्वर होकर भी मैं जिनकी पवित्र चरण-रज को अपने मुकुट पर धारण करता हूँ, उन ब्राह्मणों के कर्म को कौन नहीं सहन करेगा ॥ ९ ॥ ब्राह्मण, दूध देने वाली गौएँ और अनाथ प्राणी—ये मेरे ही शरीर हैं। पापों के द्वारा विवेकदृष्टि नष्ट हो जाने के कारण जो लोग इन्हें मुझ से भिन्न समझते हैं, उन्हें मेरे द्वारा नियुक्त यमराज के गृध्र-जैसे दूत—जो सर्प के समान क्रोधी हैं—अत्यन्त क्रोधित होकर अपनी चोंचों से नोचते हैं ॥ १० ॥ 

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रविवार, 9 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

जय-विजय का वैकुण्ठ से पतन

यस्यामृतामलयशःश्रवणावगाहः
     सद्यः पुनाति जगदाश्वपचाद्विकुण्ठः ।
सोऽहं भवद्भ्य  उपलब्धसुतीर्थकीर्तिः
     छिन्द्यां स्वबाहुमपि वः प्रतिकूलवृत्तिम् ॥ ६ ॥
यत्सेवया चरणपद्मपवित्ररेणुं
     सद्यः क्षताखिलमलं प्रतिलब्धशीलम् ।
न श्रीर्विरक्तमपि मां विजहाति यस्याः
     प्रेक्षालवार्थ इतरे नियमान् वहन्ति ॥ ७ ॥
नाहं तथाद्मि यजमानहविर्वितानेः
     च्योतद्घृनतप्लुतमदन् हुतभुङ्‌‌मुखेन ।
यद्ब्रााह्मणस्य मुखतश्चरतोऽनुघासं
     तुष्टस्य मय्यवहितैर्निजकर्मपाकैः ॥ ८ ॥

(श्रीभगवान्‌ सनकादि मुनियों से कह रहे हैं) मेरी निर्मल सुयश-सुधा में गोता लगाने से चाण्डालपर्यन्त सारा जगत् तुरंत पवित्र हो जाता है, इसीलिये मैं ‘विकुण्ठ’ कहलाता हूँ। किन्तु यह पवित्र कीर्ति मुझे आपलोगों से ही प्राप्त हुई है। इसलिये जो कोई आपके विरुद्ध आचरण करेगा, वह मेरी भुजा ही क्यों न हो—मैं उसे तुरन्त काट डालूँगा ॥ ६ ॥ आपलोगोंकी सेवा करनेसे ही मेरी चरण-रज को ऐसी पवित्रता प्राप्त हुई है कि वह सारे पापोंको तत्काल नष्ट कर देती है और मुझे ऐसा सुन्दर स्वभाव मिला है कि मेरे उदासीन रहनेपर भी लक्ष्मी जी मुझे एक क्षण के लिये भी नहीं छोड़तीं—यद्यपि इन्हीं के लेशमात्र कृपाकटाक्ष के लिये अन्य ब्रह्मादि देवता नाना प्रकार के नियमों एवं व्रतों का पालन करते हैं ॥ ७ ॥ जो अपने सम्पूर्ण कर्मफल मुझे अर्पण कर सदा सन्तुष्ट रहते हैं, वे निष्काम ब्राह्मण ग्रास-ग्रासपर तृप्त होते हुए घी से तर तरह-तरह के पकवानों का जब भोजन करते हैं, तब उनके मुखसे मैं जैसा तृप्त होता हूँ वैसा यज्ञमें अग्निरूप मुख से यजमान की दी हुई आहुतियोंको ग्रहण करके नहीं होता ॥ ८ ॥ 

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शनिवार, 8 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

जय-विजय का वैकुण्ठ से पतन

ब्रह्मोवाच –

इति तद्‌गृणतां तेषां मुनीनां योगधर्मिणाम् ।
प्रतिनन्द्य जगादेदं विकुण्ठनिलयो विभुः ॥ १ ॥

श्रीभगवानुवाच -

एतौ तौ पार्षदौ मह्यं जयो विजय एव च ।
कदर्थीकृत्य मां यद्वो बह्वक्रातामतिक्रमम् ॥ २ ॥
यस्त्वेतयोर्धृतो दण्डो भवद्‌भिर्मामनुव्रतैः ।
स एवानुमतोऽस्माभिः मुनयो देवहेलनात् ॥ ३ ॥
तद्वः प्रसादयाम्यद्य ब्रह्म दैवं परं हि मे ।
तद्धीत्यात्मकृतं मन्ये यत्स्वपुम्भिरसत्कृताः ॥ ४ ॥
यन्नामानि च गृह्णाति लोको भृत्ये कृतागसि ।
सोऽसाधुवादस्तत् कीर्तिं हन्ति त्वचमिवामयः ॥ ५ ॥

श्रीब्रह्माजीने कहा—देवगण ! जब योगनिष्ठ सनकादि मुनियोंने इस प्रकार स्तुति की, तब वैकुण्ठ-निवास श्रीहरिने उनकी प्रशंसा करते हुए यह कहा ॥ १ ॥

श्रीभगवान्‌ ने कहा—मुनिगण ! ये जय-विजय मेरे पार्षद हैं। इन्होंने मेरी कुछ भी परवा न करके आपका बहुत बड़ा अपराध किया है ॥ २ ॥ आपलोग भी मेरे अनुगत भक्त हैं; अत: इस प्रकार मेरी ही अवज्ञा करने के कारण आपने इन्हें जो दण्ड दिया है, वह मुझे भी अभिमत है ॥ ३ ॥ ब्राह्मण मेरे परम आराध्य हैं; मेरे अनुचरोंके द्वारा आपलोगोंका जो तिरस्कार हुआ है, उसे मैं अपना ही किया हुआ मानता हूँ। इसलिये मैं आपलोगों से प्रसन्नताकी भिक्षा माँगता हूँ ॥ ४ ॥ सेवकों के अपराध करने पर संसार उनके स्वामी का ही नाम लेता है। वह अपयश उसकी कीर्ति को इस प्रकार दूषित कर देता है, जैसे त्वचाको चर्मरोग ॥ ५ ॥ 

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शुक्रवार, 7 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१७)

जय-विजय को सनकादि का शाप

कामं भवः स्ववृजिनैर्निरयेषु नः स्तात् ।
    चेतोऽलिवद्यदि नु ते पदयो रमेत ।
वाचश्च नस्तुलसिवद्यदि तेऽङ्‌घ्रिशोभाः ।
    पूर्येत ते गुणगणैर्यदि कर्णरन्ध्रः ॥ ४९ ॥
प्रादुश्चकर्थ यदिदं पुरुहूत रूपं ।
    तेनेश निर्वृतिमवापुरलं दृशो नः ।
तस्मा इदं भगवते नम इद्विधेम ।
    योऽनात्मनां दुरुदयो भगवान् प्रतीतः ॥ ५० ॥

भगवन् ! यदि हमारा चित्त भौंरे की तरह आपके चरण-कमलोंमें ही रमण करता रहे, हमारी वाणी तुलसी के समान आपके चरण-सम्बन्ध से ही सुशोभित हो और हमारे कान आपकी सुयश-सुधा से परिपूर्ण रहें तो अपने पापों के कारण भले ही हमारा जन्म नरकादि योनियों में हो जाय—इसकी हमें कोई चिन्ता नहीं है ॥ ४९ ॥ विपुलकीर्ति प्रभो ! आपने हमारे सामने जो यह मनोहर रूप प्रकट किया है, उससे हमारे नेत्रों को बड़ा ही सुख मिला है; विषयासक्त अजितेन्द्रिय पुरुषों के लिये इसका दृष्टिगोचर होना अत्यन्त कठिन है। आप साक्षात् भगवान्‌ हैं और इस प्रकार स्पष्टतया हमारे नेत्रोंके सामने प्रकट हुए हैं। हम आपको प्रणाम करते हैं ॥ ५० ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे जयविजयोः सनकादिशापो नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


गुरुवार, 6 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१६)

जय-विजय को सनकादि का शाप

कुमारा ऊचुः –

योऽन्तर्हितो हृदि गतोऽपि दुरात्मनां त्वं ।
    सोऽद्यैव नो नयनमूलमनन्त राद्धः ।
यर्ह्येव कर्णविवरेण गुहां गतो नः ।
    पित्रानुवर्णितरहा भवदुद्भ।वेन ॥ ४६ ॥
तं त्वां विदाम भगवन्परमात्मतत्त्वं ।
    सत्त्वेन सम्प्रति रतिं रचयन्तमेषाम् ।
यत्तेऽनुतापविदितैर्दृढभक्तियोगैः ।
    उद्ग्रिन्थयो हृदि विदुर्मुनयो विरागाः ॥ ४७ ॥
नात्यन्तिकं विगणयन्त्यपि ते प्रसादं ।
    किम्वन्यदर्पितभयं भ्रुव उन्नयैस्ते ।
येऽङ्ग त्वदङ्‌घ्रिशरणा भवतः कथायाः ।
    कीर्तन्यतीर्थयशसः कुशला रसज्ञाः ॥ ४८ ॥

सनकादि मुनियोंने कहा—अनन्त ! यद्यपि आप अन्तर्यामीरूप से दुष्टचित्त पुरुषों के हृदय में भी स्थित रहते हैं, तथापि उनकी दृष्टि से ओझल ही रहते हैं। किन्तु आज हमारे नेत्रोंके  सामने तो आप साक्षात् विराजमान हैं। प्रभो ! जिस समय आपसे उत्पन्न हुए हमारे पिता ब्रह्माजी ने आपका रहस्य वर्णन किया था, उसी समय श्रवणरन्ध्रों द्वारा हमारी बुद्धि में तो आप आ विराजे थे; किन्तु प्रत्यक्ष दर्शन का महान् सौभाग्य तो हमें आज ही प्राप्त हुआ है ॥ ४६ ॥ भगवन् ! हम आपको साक्षात् परमात्मतत्त्व ही जानते हैं। इस समय आप अपने विशुद्ध सत्त्वमय विग्रह से अपने इन भक्तों को आनन्दित कर रहे हैं। आपकी इस सगुण-साकार मूर्ति को राग और अहंकार से मुक्त मुनिजन आपकी कृपादृष्टिसे  प्राप्त हुए सुदृढ़ भक्तियोग के द्वारा अपने हृदय में उपलब्ध करते हैं ॥ ४७ ॥ प्रभो ! आपका सुयश अत्यन्त कीर्तनीय और सांसारिक दु:खों की निवृत्ति करनेवाला है। आपके चरणों की शरण में रहनेवाले जो महाभाग आपकी कथाओं के रसिक हैं, वे आपके आत्यन्तिक प्रसाद मोक्षपद को भी कुछ अधिक नहीं गिनते; फिर जिन्हें आपकी जरा-सी टेढ़ी भौंह ही भयभीत कर देती है, उन इन्द्रपद आदि अन्य भोगोंके विषय में तो कहना ही क्या है ॥ ४८ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
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बुधवार, 5 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१५)

जय-विजय को सनकादि का शाप

ते वा अमुष्य वदनासितपद्मकोशम् ।
    उद्वीक्ष्य सुन्दरतराधरकुन्दहासम् ।
लब्धाशिषः पुनरवेक्ष्य तदीयमङ्‌घ्रि ।
    द्वन्द्वं नखारुणमणिश्रयणं निदध्युः ॥ ४४ ॥
पुंसां गतिं मृगयतामिह योगमार्गैः ।
    ध्यानास्पदं बहुमतं नयनाभिरामम् ।
पौंस्नं वपुर्दर्शयानमनन्यसिद्धैः ।
    औत्पत्तिकैः समगृणन्युतमष्टभोगैः ॥ ४५ ॥

भगवान्‌ का मुख नीलकमल के समान था, अति सुन्दर अधर और कुन्दकली के समान मनोहर हाससे उसकी शोभा और भी बढ़ गयी थी। उसकी झाँकी करके वे कृतकृत्य हो गये। और फिर पद्मरागके समान लाल-लाल नखों से सुशोभित उनके चरणकमल देखकर वे उन्हीं का ध्यान करने लगे ॥ ४४ ॥ इसके पश्चात् वे मुनिगण अन्य साधनों से सिद्ध न होनेवाली, स्वाभाविक अष्टसिद्धियों से सम्पन्न श्रीहरि की स्तुति करने लगे—जो योगमार्गद्वारा मोक्षपद की खोज करनेवाले पुरुषों के लिये उनके ध्यान का विषय, अत्यन्त आदरणीय और नयनानन्द की वृद्धि करनेवाला पुरुषरूप प्रकट करते हैं ॥ ४५ ॥

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मंगलवार, 4 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१४)

जय-विजय को सनकादि का शाप

अत्रोपसृष्टमिति चोत्स्मितमिन्दिरायाः ।
    स्वानां धिया विरचितं बहुसौष्ठवाढ्यम् ।
मह्यं भवस्य भवतां च भजन्तमङ्गं ।
    नेमुर्निरीक्ष्य न वितृप्तदृशो मुदा कैः ॥ ४२ ॥
तस्यारविन्दनयनस्य पदारविन्द ।
    किञ्जल्कमिश्रतुलसीमकरन्दवायुः ।
अन्तर्गतः स्वविवरेण चकार तेषां ।
    सङ्क्षोभमक्षरजुषामपि चित्ततन्वोः ॥ ४३ ॥

भगवान्‌का श्रीविग्रह बड़ा ही सौन्दर्यशाली था। उसे देखकर भक्तोंके मनमें ऐसा वितर्क होता था कि इसके सामने लक्ष्मीजी का सौन्दर्याभिमान भी गलित हो गया है। ब्रह्माजी कहते हैं—देवताओ ! इस प्रकार मेरे, महादेवजी के और तुम्हारे लिये परम सुन्दर विग्रह धारण करने वाले श्रीहरि को देखकर सनकादि मुनीश्वरों ने उन्हें सिर झुकाकर प्रणाम किया। उस समय उनकी अद्भुत छवि को निहारते-निहारते उनके नेत्र तृप्त नहीं होते थे ॥ ४२ ॥
सनकादि मुनीश्वर निरन्तर ब्रह्मानन्द में निमग्न रहा करते थे। किन्तु जिस समय भगवान्‌ कमलनयन के चरणारविन्दमकरन्द से मिली हुई तुलसीमञ्जरी के गन्ध से सुवासित वायु ने नासिका- रन्ध्रोंके द्वारा उनके अन्त:करणमें प्रवेश किया, उस समय वे अपने शरीरको सँभाल न सके और उस दिव्य गन्ध ने उनके मनमें भी खलबली पैदा कर दी ॥ ४३ ॥ 

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सोमवार, 3 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१३)

जय-विजय को सनकादि का शाप

कृत्स्नप्रसादसुमुखं स्पृहणीयधाम ।
    स्नेहावलोककलया हृदि संस्पृशन्तम् ।
श्यामे पृथावुरसि शोभितया श्रिया स्वः ।
    चूडामणिं सुभगयन्तमिवात्मधिष्ण्यम् ॥ ३९ ॥
पीतांशुके पृथुनितम्बिनि विस्फुरन्त्या ।
    काञ्च्यालिभिर्विरुतया वनमालया च ।
वल्गुप्रकोष्ठवलयं विनतासुतांसे ।
    विन्यस्तहस्तमितरेण धुनानमब्जम् ॥ ४० ॥
विद्युत्क्षिपन् मकरकुण्डलमण्डनार्ह ।
    गण्डस्थलोन्नसमुखं मणिमत्किरीटम् ।
दोर्दण्डषण्डविवरे हरता परार्ध्य ।
    हारेण कन्धरगतेन च कौस्तुभेन ॥ ४१ ॥

प्रभु समस्त सद्गुणोंके आश्रय हैं, उनकी सौम्य मुखमुद्रा को देखकर जान पड़ता था मानो वे सभी पर अनवरत कृपासुधा की वर्षा कर रहे हैं। अपनी स्नेहमयी चितवन से वे भक्तों का हृदय स्पर्श कर रहे थे तथा उनके सुविशाल श्याम वक्ष:स्थलपर स्वर्णरेखा के रूप में जो साक्षात् लक्ष्मी विराजमान थीं, उनसे मानो वे समस्त दिव्यलोकों के चूडामणि वैकुण्ठधाम को सुशोभित कर रहे थे ॥ ३९ ॥ उनके पीताम्बरमण्डित विशाल नितम्बों पर झिलमिलाती हुई करधनी और गले में भ्रमरों से मुखरित वनमाला विराज रही थी; तथा वे कलाइयों में सुन्दर कंगन पहने अपना एक हाथ गरुडज़ी के कंधेपर रख दूसरे से कमलका पुष्प घुमा रहे थे ॥ ४० ॥ उनके अमोल कपोल बिजली की प्रभा को भी लजानेवाले मकराकृति कुण्डलों की शोभा बढ़ा रहे थे, उभरी हुई सुघड़ नासिका थी, बड़ा ही सुन्दर मुख था, सिरपर मणिमय मुकुट विराजमान था तथा चारों भुजाओं के बीच महामूल्यवान् मनोहर हार की और गले में कौस्तुभमणि की अपूर्व शोभा थी ॥ ४१ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३) प्रकृति-पुरुषके विवेक से मोक्ष-प्राप्ति का वर्णन...