॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
ब्रह्माजीकी रची हुई अनेक प्रकारकी सृष्टिका वर्णन
मैत्रेय उवाच –
दैवेन दुर्वितर्क्येण परेणानिमिषेण च ।
जातक्षोभाद् भगवतो महान् आसीद् गुणत्रयात् ॥ १२ ॥
रजःप्रधानान् महतः त्रिलिङ्गो दैवचोदितात् ।
जातः ससर्ज भूतादिः वियदादीनि पञ्चशः ॥ १३ ॥
तानि चैकैकशः स्रष्टुं असमर्थानि भौतिकम् ।
संहत्य दैवयोगेन हैमं अण्डं अवासृजन् ॥ १४ ॥
सोऽशयिष्टाब्धिसलिले आण्डकोशो निरात्मकः ।
साग्रं वै वर्षसाहस्रं अन्ववात्सीत् तं ईश्वरः ॥ १५ ॥
तस्य नाभेरभूत्पद्मं सहस्रार्कोरुदीधिति ।
सर्वजीवनिकायौको यत्र स्वयं अभूत्स्वराट् ॥ १६ ॥
श्रीमैत्रेयजीने कहा—विदुरजी ! जिसकी गति को जानना अत्यन्त कठिन है—उस जीवों के प्रारब्ध, प्रकृति के नियन्ता पुरुष और काल—इन तीन हेतुओं से तथा भगवान् की सन्निधि से त्रिगुणमय प्रकृति में क्षोभ होने पर उससे महत्तत्त्व उत्पन्न हुआ ॥ १२ ॥ दैव की प्रेरणा से रज:प्रधान महत्तत्त्वसे वैकारिक (सात्त्विक), राजस और तामस—तीन प्रकार का अहंकार उत्पन्न हुआ। उसने आकाशादि पाँच-पाँच तत्त्वोंके अनेक वर्ग[*] प्रकट किये ॥ १३ ॥ वे सब अलग-अलग रहकर भूतोंके कार्यरूप ब्रह्माण्डकी रचना नहीं कर सकते थे; इसलिये उन्होंने भगवान्की शक्तिसे परस्पर संगठित होकर एक सुवर्णवर्ण अण्डकी रचना की ॥ १४ ॥ वह अण्ड चेतनाशून्य अवस्थामें एक हजार वर्षोंसे भी अधिक समयतक कारणाब्धिके जलमें पड़ा रहा। फिर उसमें श्रीभगवान्ने प्रवेश किया ॥ १५ ॥ उसमें अधिष्ठित होनेपर उनकी नाभिसे सहस्र सूर्योंके समान अत्यन्त देदीप्यमान एक कमल प्रकट हुआ, जो सम्पूर्ण जीव-समुदायका आश्रय था। उसीसे स्वयं ब्रह्माजीका भी आविर्भाव हुआ है ॥ १६ ॥
.................................................................
[*] पञ्चतन्मात्र, पञ्च महाभूत, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय और उनके पाँच-पाँच देवता—इन्हीं छ: वर्गोंका यहाँ संकेत समझना चाहिये।
शेष आगामी पोस्ट में --