॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)
महदादि भिन्न-भिन्न तत्त्वोंकी उत्पत्ति का वर्णन
तामसाच्च विकुर्वाणाद् भगवद्वीर्यचोदितात् ।
शब्दमात्रं अभूत् तस्मात् नभः श्रोत्रं तु शब्दगम् ॥ ३२ ॥
अर्थाश्रयत्वं शब्दस्य द्रष्टुर्लिङ्गत्वमेव च ।
तन्मात्रत्वं च नभसो लक्षणं कवयो विदुः ॥ ३३ ॥
भूतानां छिद्रदातृत्वं बहिरन्तरमेव च ।
प्राणेन्द्रियात्मधिष्ण्यत्वं नभसो वृत्तिलक्षणम् ॥ ३४ ॥
नभसः शब्दतन्मात्रात् कालगत्या विकुर्वतः ।
स्पर्शोऽभवत्ततो वायुः त्वक् स्पर्शस्य च सङ्ग्रहः ॥ ३५ ॥
मृदुत्वं कठिनत्वं च शैत्यमुष्णत्वमेव च ।
एतत्स्पर्शस्य स्पर्शत्वं तन्मात्रत्वं नभस्वतः ॥ ३६ ॥
चालनं व्यूहनं प्राप्तिः नेतृत्वं द्रव्यशब्दयोः ।
सर्वेन्द्रियाणां आत्मत्वं वायोः कर्माभिलक्षणम् ॥ ३७ ॥
भगवान् की चेतनशक्ति की प्रेरणा से तामस अहंकार के विकृत होने पर उससे शब्दतन्मात्र का प्रादुर्भाव हुआ। शब्दतन्मात्र से आकाश तथा शब्द का ज्ञान करानेवाली श्रोत्रेन्द्रिय उत्पन्न हुई ॥ ३२ ॥ अर्थका प्रकाशक होना, ओटमें खड़े हुए वक्ताका भी ज्ञान करा देना और आकाशका सूक्ष्म रूप होना विद्वानोंके मतमें यही शब्दके लक्षण हैं ॥ ३३ ॥ भूतोंको अवकाश देना, सबके बाहर-भीतर वर्तमान रहना तथा प्राण, इन्द्रिय और मनका आश्रय होना—ये आकाशके वृत्ति (कार्य) रूप लक्षण हैं ॥ ३४ ॥
फिर शब्दतन्मात्रके कार्य आकाशमें कालगतिसे विकार होनेपर स्पर्शतन्मात्र हुआ और उससे वायु तथा स्पर्शका ग्रहण करानेवाली त्वगिन्द्रिय (त्वचा) उत्पन्न हुई ॥ ३५ ॥ कोमलता, कठोरता, शीतलता और उष्णता तथा वायु का सूक्ष्म रूप होना—ये स्पर्श के लक्षण हैं ॥ ३६ ॥ वृक्ष की शाखा आदि को हिलाना, तृणादि को इकट्ठाकर देना, सर्वत्र पहुँचना, गन्धादियुक्त द्रव्य को घ्राणादि इन्द्रियों के पास तथा शब्द को श्रोत्रेन्द्रिय के समीप ले जाना तथा समस्त इन्द्रियों को कार्यशक्ति देना—ये वायुकी वृत्तियों के लक्षण हैं ॥ ३७ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --