रविवार, 20 जुलाई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

देह-गेहमें आसक्त पुरुषोंकी अधोगतिका वर्णन

एवं स्वभरणाकल्पं तत्कलत्रादयस्तथा ।
नाद्रियन्ते यथा पूर्वं कीनाशा इव गोजरम् ॥ १३ ॥
तत्राप्यजातनिर्वेदो भ्रियमाणः स्वयम्भृतैः ।
जरयोपात्तवैरूप्यो मरणाभिमुखो गृहे ॥ १४ ॥
आस्तेऽवमत्योपन्यस्तं गृहपाल इवाहरन् ।
आमयाव्यप्रदीप्ताग्निः अल्पाहारोऽल्पचेष्टितः ॥ १५ ॥
वायुनोत्क्रमतोत्तारः कफसंरुद्धनाडिकः ।
कासश्वासकृतायासः कण्ठे घुरघुरायते ॥ १६ ॥
शयानः परिशोचद्‌भिः परिवीतः स्वबन्धुभिः ।
वाच्यमानोऽपि न ब्रूते कालपाशवशं गतः ॥ १७ ॥

इसे अपने पालन-पोषणमें असमर्थ देखकर वे स्त्री-पुत्रादि इसका पहलेके समान आदर नहीं करते, जैसे कृपण किसान बूढ़े बैल की उपेक्षा कर देते हैं ॥ १३ ॥ फिर भी इसे वैराग्य नहीं होता । जिन्हें उसने स्वयं पाला था, वे ही अब उसका पालन करते हैं, वृद्धावस्था के कारण इसका रूप बिगड़ जाता है, शरीर रोगी हो जाता है, अग्नि मन्द पड़ जाती है, भोजन और पुरुषार्थ दोनों ही कम हो जाते हैं। वह मरणोन्मुख होकर घर में पड़ा रहता है और कुत्ते की भाँति स्त्री-पुत्रादि के अपमानपूर्वक दिये हुए टुकड़े खाकर जीवन-निर्वाह करता है ॥ १४-१५ ॥ मृत्युका समय निकट आनेपर वायुके उत्क्रमणसे इसकी पुतलियाँ चढ़ जाती हैं, श्वास-प्रश्वासकी नलिकाएँ कफसे रुक जाती हैं, खाँसने और साँस लेनेमें भी इसे बड़ा कष्ट होता है तथा कफ बढ़ जानेके कारण कण्ठमें घुरघुराहट होने लगती है ॥ १६ ॥ यह अपने शोकातुर बन्धु-बान्धवोंसे घिरा हुआ पड़ा रहता है और मृत्युपाशके वशीभूत हो जानेसे उनके बुलानेपर भी नहीं बोल सकता ॥ १७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शनिवार, 19 जुलाई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

देह-गेहमें आसक्त पुरुषोंकी अधोगतिका वर्णन

आत्मजायासुतागार पशुद्रविण बन्धुषु ।
निरूढमूलहृदय आत्मानं बहु मन्यते ॥ ६ ॥
सन्दह्यमानसर्वाङ्ग एषां उद्‌वहनाधिना ।
करोति अविरतं मूढो दुरितानि दुराशयः ॥ ७ ॥
आक्षिप्तात्मेन्द्रियः स्त्रीणां असतीनां च मायया ।
रहो रचितयालापैः शिशूनां कलभाषिणाम् ॥ ८ ॥
गृहेषु कूटधर्मेषु दुःखतन्त्रेष्वतन्द्रितः ।
कुर्वन् दुखप्रतीकारं सुखवन्मन्यते गृही ॥ ९ ॥
अर्थैरापादितैर्गुर्व्या हिंसयेतः ततश्च तान् ।
पुष्णाति येषां पोषेण शेषभुग्यात्यधः स्वयम् ॥ १० ॥
वार्तायां लुप्यमानायां आरब्धायां पुनः पुनः ।
लोभाभिभूतो निःसत्त्वः परार्थे कुरुते स्पृहाम् ॥ ११ ॥
कुटुम्बभरणाकल्पो मन्दभाग्यो वृथोद्यमः ।
श्रिया विहीनः कृपणो ध्यायन् श्वसिति मूढधीः ॥ १२ ॥

यह मूर्ख(जीव) अपने शरीर, स्त्री, पुत्र, गृह, पशु, धन और बन्धु-बान्धवोंमें अत्यन्त आसक्त होकर उनके सम्बन्धमें नाना प्रकारके मनोरथ करता हुआ अपनेको बड़ा भाग्यशाली समझता है ॥ ६ ॥ इनके पालन-पोषणकी चिन्तासे इसके सम्पूर्ण अङ्ग जलते रहते हैं; तथापि दुर्वासनाओंसे दूषित हृदय होनेके कारण यह मूढ़ निरन्तर इन्हींके लिये तरह-तरहके पाप करता रहता है ॥ ७ ॥ कुलटा स्त्रियों के द्वारा एकान्त में सम्भोगादि के समय प्रदर्शित किये हुए कपटपूर्ण प्रेम में तथा बालकोंकी मीठी-मीठी बातों में मन और इन्द्रियों के फँस जाने से गृहस्थ पुरुष घर के दु:ख-प्रधान कपटपूर्ण कर्मोंमें लिप्त हो जाता है । उस समय बहुत सावधानी करनेपर यदि उसे किसी दु:खका प्रतीकार करनेमें सफलता मिल जाती है, तो उसे ही वह सुख-सा मान लेता है ॥८-९॥ जहाँ-तहाँ से भयङ्कर हिंसावृत्ति के द्वारा धन सञ्चय कर यह ऐसे लोगोंका पोषण करता है, जिनके पोषण से नरक में जाता है। स्वयं तो उनके खाने-पीनेसे बचे हुए अन्नको ही खाकर रहता है ॥ १० ॥ बार-बार प्रयत्न करनेपर भी जब इसकी कोई जीविका नहीं चलती, तो यह लोभवश अधीर हो जानेसे दूसरेके धनकी इच्छा करने लगता है ॥ ११ ॥ जब मन्दभाग्यके कारण इसका कोई प्रयत्न नहीं चलता और यह मन्दबुद्धि धनहीन होकर कुटुम्बके भरण-पोषण में असमर्थ हो जाता है, तब अत्यन्त दीन और चिन्तातुर होकर लंबी-लंबी साँसें छोडऩे लगता है ॥ १२ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शुक्रवार, 18 जुलाई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

देह-गेहमें आसक्त पुरुषोंकी अधोगतिका वर्णन

कपिल उवाच –

तस्यैतस्य जनो नूनं नायं वेदोरुविक्रमम् ।
काल्यमानोऽपि बलिनो वायोरिव घनावलिः ॥ १ ॥
यं यं अर्थमुपादत्ते दुःखेन सुखहेतवे ।
तं तं धुनोति भगवान् पुमान्छोचति यत्कृते ॥ २ ॥
यदध्रुवस्य देहस्य सानुबन्धस्य दुर्मतिः ।
ध्रुवाणि मन्यते मोहाद् गृहक्षेत्रवसूनि च ॥ ३ ॥
जन्तुर्वै भव एतस्मिन् यां यां योनिमनुव्रजेत् ।
तस्यां तस्यां स लभते निर्वृतिं न विरज्यते ॥ ४ ॥
नरकस्थोऽपि देहं वै न पुमान् त्यक्तुमिच्छति ।
नारक्यां निर्वृतौ सत्यां देवमायाविमोहितः ॥ ५ ॥

कपिलदेवजी कहते हैं—माताजी ! जिस प्रकार वायुके द्वारा उड़ाया जानेवाला मेघसमूह उसके बलको नहीं जानता, उसी प्रकार यह जीव भी बलवान् कालकी प्रेरणासे भिन्न-भिन्न अवस्थाओं तथा योनियोंमें भ्रमण करता रहता है, किन्तु उसके प्रबल पराक्रमको नहीं जानता ॥ १ ॥ जीव सुखकी अभिलाषा से जिस-जिस वस्तु को बड़े कष्टसे प्राप्त करता है, उसी-उसीको भगवान्‌ काल विनष्ट कर देता है—जिसके लिये उसे बड़ा शोक होता है ॥ २ ॥ इसका कारण यही है कि यह मन्दमति जीव अपने इस नाशवान् शरीर तथा उसके सम्बन्धियों के घर, खेत और धन आदि को मोहवश नित्य मान लेता है ॥ ३ ॥ इस संसार में यह जीव जिस-जिस योनि में जन्म लेता है, उसी-उसीमें आनन्द मानने लगता है और उससे विरक्त नहीं होता ॥ ४ ॥ यह भगवान्‌ की माया से ऐसा मोहित हो रहा है कि कर्मवश नारकी योनियों में जन्म लेनेपर भी वहाँ के विष्ठा आदि भोगों में ही सुख माननेके कारण उसे भी छोडऩा नहीं चाहता ॥ ५ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


गुरुवार, 17 जुलाई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

भक्ति का मर्म और काल की महिमा

यद् वनस्पतयो भीता लताश्चौषधिभिः सह ।
स्वे स्वे कालेऽभिगृह्णन्ति पुष्पाणि च फलानि च ॥ ४१ ॥
स्रवन्ति सरितो भीता नोत्सर्पत्युदधिर्यतः ।
अग्निरिन्धे सगिरिभिः भूर्न मज्जति यद्भतयात् ॥ ४२ ॥
नभो ददाति श्वसतां पदं यन्नियमाददः ।
लोकं स्वदेहं तनुते महान् सप्तभिरावृतम् ॥ ४३ ॥
गुणाभिमानिनो देवाः सर्गादिष्वस्य यद्भ्यात् ।
वर्तन्तेऽनुयुगं येषां वश एतच्चराचरम् ॥ ४४ ॥
सोऽनन्तोऽन्तकरः कालो अनादिरादिकृदव्ययः ।
जनं जनेन जनयन् मारयन् मृत्युनान्तकम् ॥ ४५ ॥

इसीसे (कालसे)  भयभीत होकर ओषधियोंके सहित लताएँ और सारी वनस्पतियाँ समय-समयपर फल-फूल धारण करती हैं ॥ ४१ ॥ इसीके डरसे नदियाँ बहती हैं और समुद्र अपनी मर्यादासे बाहर नहीं जाता। इसीके भयसे अग्रि प्रज्वलित होती है और पर्वतोंके सहित पृथ्वी जलमें नहीं डूबती ॥ ४२ ॥ इसीके शासनसे यह आकाश जीवित प्राणियोंको श्वास-प्रश्वासके लिये अवकाश देता है और महत्तत्त्व अहंकाररूप शरीरका सात आवरणोंसे युक्त ब्रह्माण्डके रूपमें विस्तार करता है ॥ ४३ ॥ इस काल के ही भयसे सत्त्वादि गुणों के नियामक विष्णु आदि देवगण, जिनके अधीन यह सारा चराचर जगत् है, अपने जगत्-रचना आदि कार्यों में युगक्रम से तत्पर रहते हैं ॥ ४४ ॥ यह अविनाशी काल स्वयं अनादि किन्तु दूसरों का आदिकर्ता (उत्पादक) है तथा स्वयं अनन्त होकर भी दूसरोंका अन्त करनेवाला है। यह पितासे पुत्रकी उत्पत्ति कराता हुआ सारे जगत्की रचना करता है और अपनी संहारशक्ति मृत्युके द्वारा यमराजको भी मरवाकर इसका अन्त कर देता है ॥ ४५ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे एकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥ २९ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


बुधवार, 16 जुलाई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९ )

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

भक्ति का मर्म और काल की महिमा

भक्तियोगश्च योगश्च मया मानव्युदीरितः ।
ययोरेकतरेणैव पुरुषः पुरुषं व्रजेत् ॥ ३५ ॥
एतद्भकगवतो रूपं ब्रह्मणः परमात्मनः ।
परं प्रधानं पुरुषं दैवं कर्मविचेष्टितम् ॥ ३६ ॥
रूपभेदास्पदं दिव्यं काल इत्यभिधीयते ।
भूतानां महदादीनां यतो भिन्नदृशां भयम् ॥ ३७ ॥
योऽन्तः प्रविश्य भूतानि भूतैरत्त्यखिलाश्रयः ।
स विष्ण्वाख्योऽधियज्ञोऽसौ कालः कलयतां प्रभुः ॥ ३८ ॥
न चास्य कश्चिद् दयितो न द्वेष्यो न च बान्धवः ।
आविशत्यप्रमत्तोऽसौ प्रमत्तं जनमन्तकृत् ॥ ३९ ॥
यद्भतयाद् वाति वातोऽयं सूर्यस्तपति यद्भधयात् ।
यद्भतयाद् वर्षते देवो भगणो भाति यद्भदयात् ॥ ४० ॥

(भगवान् देवहूति से कह रहे हैं) माताजी ! इस प्रकार मैंने तुम्हारे लिये भक्तियोग और अष्टाङ्गयोग का वर्णन किया। इनमें से एक का भी साधन करने से जीव परमपुरुष भगवान्‌ को प्राप्त कर सकता है ॥ ३५ ॥ भगवान्‌ परमात्मा परब्रह्मका अद्भुत प्रभावसम्पन्न तथा जागतिक पदार्थों के नानाविध वैचित्र्य का हेतुभूत स्वरूपविशेष ही ‘काल’ नामसे विख्यात है। प्रकृति और पुरुष इसीके रूप हैं तथा इनसे यह पृथक् भी है। नाना प्रकार के कर्मोंका मूल अदृष्ट भी यही है तथा इसीसे महत्तत्त्वादिके अभिमानी भेददर्शी प्राणियोंको सदा भय लगा रहता है ॥ ३६-३७ ॥ जो सबका आश्रय होनेके कारण समस्त प्राणियोंमें अनुप्रविष्ट होकर भूतों द्वारा ही उनका संहार करता है, वह जगत् का शासन करनेवाले ब्रह्मादि का भी प्रभु भगवान्‌ काल ही यज्ञों का  फल देनेवाला विष्णु है ॥ ३८ ॥ इसका न तो कोई मित्र है न कोई शत्रु और न तो कोई सगा-सम्बन्धी ही है । यह सर्वदा सजग रहता है और अपने स्वरूपभूत श्रीभगवान्‌ को भूलकर भोगरूप प्रमाद में पड़े हुए प्राणियों पर आक्रमण करके उनका संहार करता है ॥३९॥ इसी के भय से वायु चलता है, इसी के भयसे सूर्य तपता है, इसी के भय से इन्द्र वर्षा करते हैं और इसी के भय से तारे चमकते हैं ॥ ४०॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


मंगलवार, 15 जुलाई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

भक्ति का मर्म और काल की महिमा

ततो वर्णाश्च चत्वारः तेषां ब्राह्मण उत्तमः ।
ब्राह्मणेष्वपि वेदज्ञो हि, अर्थज्ञोऽभ्यधिकस्ततः ॥ ३१ ॥
अर्थज्ञात्संशयच्छेत्ता ततः श्रेयान् स्वकर्मकृत् ।
मुक्तसङ्गस्ततो भूयात् अदोग्धा धर्ममात्मनः ॥ ३२ ॥
तस्मान्मय्यर्पिताशेष क्रियार्थात्मा निरन्तरः ।
मय्यर्पितात्मनः पुंसो मयि सन्न्यस्तकर्मणः ।
न पश्यामि परं भूतं अकर्तुः समदर्शनात् ॥ ३३ ॥
मनसैतानि भूतानि प्रणमेद्बःहुमानयन् ।
ईश्वरो जीवकलया प्रविष्टो भगवानिति ॥ ३४ ॥

मनुष्यों में भी चार वर्ण श्रेष्ठ हैं; उनमें भी ब्राह्मण श्रेष्ठ है। ब्राह्मणों में वेद को जाननेवाले उत्तम हैं और वेदज्ञों में  भी वेदका तात्पर्य जाननेवाले श्रेष्ठ हैं ॥ ३१ ॥ तात्पर्य जाननेवालों से संशय निवारण करनेवाले, उनसे भी अपने वर्णाश्रमोचित धर्मका पालन करनेवाले तथा उनसे भी आसक्तिका त्याग और अपने धर्मका निष्कामभावसे आचरण करनेवाले श्रेष्ठ हैं ॥ ३२ ॥ उनकी अपेक्षा भी जो लोग अपने सम्पूर्ण कर्म, उनके फल तथा अपने शरीरको भी मुझे ही अर्पण करके भेदभाव छोडक़र मेरी उपासना करते हैं, वे श्रेष्ठ हैं। इस प्रकार मुझे ही चित्त और कर्म समर्पण करनेवाले अकत्र्ता और समदर्शी पुरुषसे बढक़र मुझे कोई अन्य प्राणी नहीं दीखता ॥ ३३ ॥ अत: यह मानकर कि जीवरूप अपने अंशसे साक्षात् भगवान्‌ ही सबमें अनुगत हैं, इन समस्त प्राणियोंको बड़े आदरके साथ मनसे प्रणाम करे ॥ ३४ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


सोमवार, 14 जुलाई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

भक्ति का मर्म और काल की महिमा

जीवाः श्रेष्ठा हि अजीवानां ततः प्राणभृतः शुभे ।
ततः सचित्ताः प्रवराः ततश्चेन्द्रियवृत्तयः ॥ २८ ॥
तत्रापि स्पर्शवेदिभ्यः प्रवरा रसवेदिनः ।
तेभ्यो गन्धविदः श्रेष्ठाः ततः शब्दविदो वराः ॥ २९ ॥
रूपभेदविदस्तत्र ततश्चोभयतोदतः ।
तेषां बहुपदाः श्रेष्ठाः चतुष्पादस्ततो द्विपात् ॥ ३० ॥

(भगवान् देवहूति से कह रहे हैं) माताजी ! पाषाणादि अचेतनों की अपेक्षा वृक्षादि जीव श्रेष्ठ हैं, उनसे साँस लेनेवाले प्राणी श्रेष्ठ हैं, उनमें भी मनवाले प्राणी उत्तम और उनसे इन्द्रियकी वृत्तियोंसे युक्त प्राणी श्रेष्ठ हैं। सेन्द्रिय प्राणियोंमें भी केवल स्पर्शका अनुभव करनेवालोंकी अपेक्षा रसका ग्रहण कर सकनेवाले मत्स्यादि उत्कृष्ट हैं, तथा रसवेत्ताओंकी अपेक्षा गन्धका अनुभव करनेवाले (भ्रमरादि) और गन्धका ग्रहण करनेवालोंसे भी शब्दका ग्रहण करनेवाले (सर्पादि) श्रेष्ठ हैं ॥ २८-२९ ॥ उनसे भी रूपका अनुभव करनेवाले (काकादि) उत्तम हैं और उनकी अपेक्षा जिनके ऊपर-नीचे दोनों ओर दाँत होते हैं, वे जीव श्रेष्ठ हैं। उनमें भी बिना पैरवालोंसे बहुत-से चरणोंवाले श्रेष्ठ हैं तथा बहुत चरणोंवालोंसे चार चरणवाले और चार चरणवालोंसे भी दो चरणवाले मनुष्य श्रेष्ठ हैं ॥ ३० ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


रविवार, 13 जुलाई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

भक्ति का मर्म और काल की महिमा

अहमुच्चावचैर्द्रव्यैः क्रिययोत्पन्नयानघे ।
नैव तुष्येऽर्चितोऽर्चायां भूतग्रामावमानिनः ॥ २४ ॥
अर्चादौ अर्चयेत्तावद् ईश्वरं मां स्वकर्मकृत् ।
यावन्न वेद स्वहृदि सर्वभूतेष्ववस्थितम् ॥ २५ ॥
आत्मनश्च परस्यापि यः करोत्यन्तरोदरम् ।
तस्य भिन्नदृशो मृत्युः विदधे भयमुल्बणम् ॥ २६ ॥
अथ मां सर्वभूतेषु भूतात्मानं कृतालयम् ।
अर्हयेद् दानमानाभ्यां मैत्र्याभिन्नेन चक्षुषा ॥ २७ ॥

(भगवान्‌ कह रहे हैं) माताजी ! जो दूसरे जीवों का अपमान करता है, वह बहुत-सी घटिया-बढिय़ा सामग्रियों से अनेक प्रकारके विधि-विधान के साथ मेरी मूर्ति का पूजन भी करे तो भी मैं उससे प्रसन्न नहीं हो सकता ॥ २४ ॥ मनुष्य अपने धर्म का अनुष्ठान करता हुआ तब तक मुझ ईश्वरकी प्रतिमा आदिमें पूजा करता रहे, जबतक उसे अपने हृदयमें एवं सम्पूर्ण प्राणियोंमें स्थित परमात्माका अनुभव न हो जाय ॥ २५ ॥ जो व्यक्ति आत्मा और परमात्माके बीचमें थोड़ा-सा भी अन्तर करता है, उस भेददर्शी को मैं मृत्युरूपसे महान् भय उपस्थित करता हूँ ॥ २६ ॥ अत: सम्पूर्ण प्राणियोंके भीतर घर बनाकर उन प्राणियोंके ही रूपमें स्थित मुझ परमात्माका यथायोग्य दान, मान, मित्रताके व्यवहार तथा समदृष्टिके द्वारा पूजन करना चाहिये ॥ २७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शनिवार, 12 जुलाई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

भक्ति का मर्म और काल की महिमा

यथा वातरथो घ्राणं आवृङ्क्ते गन्ध आशयात् ।
एवं योगरतं चेत आत्मानं अविकारि यत् ॥ २० ॥
अहं सर्वेषु भूतेषु भूतात्मावस्थितः सदा ।
तं अवज्ञाय मां मर्त्यः कुरुतेऽर्चाविडम्बनम् ॥ २१ ॥
यो मां सर्वेषु भूतेषु सन्तमात्मानमीश्वरम् ।
हित्वार्चां भजते मौढ्याद् भस्मन्येव जुहोति सः ॥ २२ ॥
द्विषतः परकाये मां मानिनो भिन्नदर्शिनः ।
भूतेषु बद्धवैरस्य न मनः शान्तिमृच्छति ॥ २३ ॥

जिस प्रकार वायुके द्वारा उडक़र जानेवाला गन्ध अपने आश्रय पुष्पसे घ्राणेन्द्रियतक पहुँच जाता है, उसी प्रकार भक्तियोगमें तत्पर और राग-द्वेषादि विकारोंसे शून्य चित्त परमात्माको प्राप्त कर लेता है ॥ २० ॥ मैं आत्मारूपसे सदा सभी जीवोंमें स्थित हूँ; इसलिये जो लोग मुझ सर्वभूतस्थित परमात्माका अनादर करके केवल प्रतिमामें ही मेरा पूजन करते हैं, उनकी वह पूजा स्वाँगमात्र है ॥ २१ ॥ मैं सब का आत्मा, परमेश्वर सभी भूतोंमें स्थित हूँ; ऐसी दशामें जो मोहवश मेरी उपेक्षा करके केवल प्रतिमा के पूजनमें ही लगा रहता है, वह तो मानो भस्ममें ही हवन करता है ॥ २२ ॥ जो भेददर्शी और अभिमानी पुरुष जो दूसरे जीवों के साथ वैर बाँधता है और इस प्रकार उनके शरीरों में विद्यमान मुझ आत्मा से ही द्वेष करता है, उसके मन को कभी शान्ति नहीं मिल सकती ॥ २३ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शुक्रवार, 11 जुलाई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

भक्ति का मर्म और काल की महिमा

निषेवितेनानिमित्तेन स्वधर्मेण महीयसा ।
क्रियायोगेन शस्तेन नातिहिंस्रेण नित्यशः ॥ १५ ॥
मद्धिष्ण्य दर्शनस्पर्श पूजास्तुति अभिवन्दनैः ।
भूतेषु मद्भारवनया सत्त्वेनासङ्गमेन च ॥ १६ ॥
महतां बहुमानेन दीनानां अनुकम्पया ।
मैत्र्या चैवात्मतुल्येषु यमेन नियमेन च ॥ १७ ॥
आध्यात्मिकानुश्रवणात् नामसङ्कीर्तनाच्च मे ।
आर्जवेनार्यसङ्गेन निरहङ्‌क्रियया तथा ॥ १८ ॥
मद् धर्मणो गुणैः एतैः परिसंशुद्ध आशयः ।
पुरुषस्याञ्जसाभ्येति श्रुतमात्रगुणं हि माम् ॥ १९ ॥

निष्कामभावसे श्रद्धापूर्वक अपने नित्य-नैमित्तिक कर्तव्योंका पालन कर, नित्यप्रति हिंसारहित उत्तम क्रियायोगका अनुष्ठान करने, मेरी प्रतिमा का दर्शन, स्पर्श, पूजा, स्तुति और वन्दना करने, प्राणियोंमें मेरी भावना करने, धैर्य और वैराग्यके अवलम्बन, महापुरुषोंका मान, दीनोंपर दया और समान स्थितिवालों के प्रति मित्रता का व्यवहार करने, यम-नियमों का पालन, अध्यात्मशास्त्रों का श्रवण और मेरे नामों का उच्च स्वर से कीर्तन करने से तथा मन की सरलता, सत्पुरुषों के सङ्ग और अहंकार के त्याग से मेरे धर्मों का (भागवतधर्मोंका ) अनुष्ठान करनेवाले भक्त पुरुष का चित्त अत्यन्त शुद्ध होकर मेरे गुणों के श्रवणमात्र से अनायास ही मुझ में लग जाता है ॥ १५—१९ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  चतुर्थ स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१) ध्रुवका वन-गमन मैत्रेय उवाच - सनकाद्या नारदश्च ऋभुर्...