।। श्रीहरिः ।।
कामना और आवश्यकता (पोस्ट 08)
विचार के द्वारा यह अनुभव करें कि शरीर मेरा स्वरूप नहीं है । बचपन में हमारा
शरीर जैसा था, वैसा आज नहीं है
और जैसा आज है, वैसा आगे नहीं
रहेगा, पर हम स्वयं वही
हैं, जो बचपन में थे
। तात्पर्य है कि शरीर तो बदल गया, पर हम नहीं बदले । अतः शरीर हमारा साथी नहीं है । हम
निरन्तर रहते हैं, पर शरीर निरन्तर नहीं रहता, प्रत्युत निरन्तर मिटता रहता है । इस विवेक को महत्व देने से
तत्त्वज्ञान हो जायगा अर्थात् हमारी आवश्यकता की पूर्ति हो जायगी । इसका नाम ‘ज्ञानयोग’ है ।
जब इच्छाओं को मिटाने में अथवा आवश्यकता की पूर्ति करने में अपनी शक्ति काम
नहीं करती और साधक का यह विश्वास होता है कि केवल भगवान् ही अपने हैं और उनकी
शक्ति से ही मेरी आवश्यकता की पूर्ति हो सकती है, तब वह व्याकुल होकर भगवान् को पुकारता है, प्रार्थना करता
है । भगवान् को पुकारने से उसकी इच्छाएँ मिट जाती हैं । इसका नाम ‘भक्तियोग’ है ।
संसार की सत्ता मानकर उसको महत्ता देनेसे तथा उसके साथ सम्बन्ध जोड़ने से ही जो
अप्राप्त है, वह संसार
प्राप्त दीखने लग गया और जो प्राप्त है, वह परमात्मतत्व अप्राप्त दीखने लग गया । इसी कारण संसार की
भी इच्छा उत्पन्न हो गयी और परमात्मा की भी इच्छा (आवश्यकता) उत्पन्न हो गयी । अतः
साधक को कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि
किसी भी साधन से संसार की इच्छा को सर्वथा मिटाना है । संसार की इच्छा सर्वथा
मिटते ही संसारकी सत्ता, महत्ता तथा सम्बन्ध नहीं रहेगा और जिनके हम अंश हैं, उन नित्यप्राप्त
परमात्मा का अनुभव हो जायगा । फिर कुछ भी करना, जानना और पाना बाकी नहीं रहेगा अर्थात् मनुष्यजन्म की
पूर्णता हो जायगी ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
------गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा
प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‘सत्संग
मुक्ताहार’ पुस्तक’ से