प्रश्न‒सत्तामें एकदेशीयता दीखनेमें क्या कारण है ?
उत्तर‒सत्ता को बुद्धि का विषय बनाने से अथवा मन, बुद्धि और अहम् के संस्कार रहने से ही सत्ता में एकदेशीयता दीखती है । वास्तविक सत्ता मन-बुद्धि-अहम्के अधीन नहीं है, प्रत्युत उनको प्रकाशित करनेवाला तथा उनसे अतीत है । सत्तामात्रमें न मन है, न बुद्धि है, न अहम् है ।
प्रश्न‒यह एकदेशीयता कैसे मिटे ?
उत्तर‒एकदेशीयता मिट जाय‒यह आग्रह भी छोड़कर सत्तामात्रमें स्थित (चुप) हो जाय । चुप होने से मन-बुद्धि-अहम् के संस्कार स्वतः मिट जायेंगे । जैसे समुद्र में बर्फ के ढेले तैर रहे हों तो उनको गलाने के लिये कुछ करनेकी जरूरत ही नहीं है, वे तो स्वतः गल जायेंगे । ऐसे ही सत्तामात्रमें शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि-अहम् आदि की प्रतीति हो रही है तो उनको न हटाना है, न रखना है । चुप अर्थात् निर्विकल्प होने से वे स्वतः गल जायेंगे [*] ।
सत्तामात्र को देखें तो वह कभी बद्ध हुआ ही नहीं, प्रत्युत सदा ही मुक्त है । अगर वह बद्ध होगा तो कभी मुक्त नहीं हो सकता और मुक्त है तो कभी बद्ध नहीं हो सकता । बन्धन का भाव (सत्ता) विद्यमान नहीं है और मुक्ति का अभाव विद्यमान नहीं है । बन्धन की केवल मान्यता है । वह मान्यता छोड़ दें तो मुक्ति स्वतःसिद्ध है ।
मानवमात्र तत्त्वज्ञानका अधिकारी है; क्योंकि सत्तामें सब मनुष्य एक हो जाते हैं । क्रूर-से-क्रूर भूत, प्रेत, पिशाच, राक्षस आदिमें भी वही सत्ता है और सौम्य-से-सौम्य सन्त, महात्मा, तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्त, भगवत्प्रेमी आदिमें भी वही सत्ता है । वह सत्ता परमात्मसत्तासे सदा अभिन्न है । केवल उस सत्ताके सम्मुख होना है । इसमें क्या अभ्यास है ? क्या परिश्रम है ? क्या कठिनता है ? क्या दुर्लभता है ? क्या परोक्षता है ? सत्तामें न मल है, न विक्षेप है, न आवरण है । अभ्यास तो दृढ़ और अदृढ़ दो तरहका होता है, पर सत्ता दो तरहकी होती ही नहीं । सत्ता और उसका ज्ञान होता है तो सदा दृढ़ ही होता है, अदृढ़ होता ही नहीं ।
अनुकूल-से-अनुकूल परिस्थितिमें भी वही सत्ता है, प्रतिकूल-से-प्रतिकूल परिस्थितिमें भी वही सत्ता है । जीवनमें भी वही सत्ता है, मौतमें भी वही सत्ता है । अमृतमें भी वही सत्ता है, जहरमें भी वही सत्ता है । स्वर्गमें भी वही सत्ता है, नरकमें भी वही सत्ता है । रोगमें भी वही सत्ता है, नीरोगमें भी वही सत्ता है । विद्यामें भी वही सत्ता है, अविद्यामें भी वही सत्ता है । ज्ञानीमें भी वही सत्ता है, मूढ़में भी वही सत्ता है । मित्रमें भी वही सत्ता है, शत्रुमें भी वही सत्ता है । धनीमें भी वही सत्ता है, निर्धनमें भी वही सत्ता है । बलवान्में भी वही सत्ता है, निर्बलमें भी वही सत्ता है ।
------------------------------------
[*] ‘एक निर्विकल्प अवस्था होती है और एक निर्विकल्प बोध होता है । निर्विकल्प अवस्था करण-सापेक्ष होती है और निर्विकल्प बोध करण-निरपेक्ष होता है । तात्पर्य है कि निर्विकल्प अवस्था मन-बुद्धिकी होती है और निर्विकल्प बोध मन-बुद्धिसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर स्वयंसे होता है । निर्विकल्प अवस्थामें निर्विकल्पता अखण्डरूपसे नहीं रहती, प्रत्युत उससे व्युत्थान होता है । परन्तु निर्विकल्प बोधमें निर्विकल्पता अखण्डरूपसे रहती है और उससे कभी व्युत्थान नहीं होता । निर्विकल्प अवस्थासे भी असंग होनेपर स्वतःसिद्ध निर्विकल्प बोधका अनुभव हो जाता है ।
नारायण ! नारायण !!
(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “तत्त्वज्ञान कैसे हो ?” पुस्तकसे