शुकदेव
को नारदजी का सदाचार और अध्यात्मविषयक उपदेश
गुणैर्भूतानि
युज्यन्ते वियुज्यन्ते तथैव च।
सर्वाणि
नैतदेकस्य शोकस्थानं हि विद्यते ॥ ८ ॥
सभी
प्राणियोंको उत्तम पदार्थों से संयोग और वियोग प्राप्त होते रहते हैं। किसी एक पर
ही यह शोक का अवसर आता हो,
ऐसी बात नहीं है ॥ ८ ॥
मृतं
वा यदि वा नष्टं योऽतीतमनुशोचति ।
दुःखेन
लभते दुःखं द्वावनर्थों प्रपद्यते ॥ ९ ॥
जो मनुष्य
भूतकाल में मरे हुए किसी व्यक्तिके लिये अथवा नष्ट हुई किसी वस्तुके लिये निरन्तर
शोक करता है,
वह एक दु:खसे दूसरे दुःखको प्राप्त होता है । इस प्रकार उसे दो
अनर्थ भोगने पड़ते हैं ॥ ९ ॥
नाश्रु
कुर्वन्ति ये बुद्धया दृष्ट्वा लोकेषु सन्ततिम् ।
सम्यक्
प्रपश्यतः सर्वं नाश्रुकर्मोपपद्यते॥ १०॥
जो मनुष्य
संसार में अपनी सन्तान की मृत्यु हुई देखकर भी अश्रुपात नहीं करते, वे ही धीर हैं। सभी वस्तुओं पर समीचीन भाव से दृष्टिपात या विचार करनेपर
किसी का भी आँसू बहाना युक्तिसंगत नहीं जान पड़ता है॥१०॥
दुःखोपघाते
शारीरे मानसे चाप्युपस्थिते ।
यस्मिन्
न शक्यते कर्तुं यत्नस्तन्नानुचिन्तयेत् ॥ ११ ॥
यदि कोई
शारीरिक या मानसिक दु:ख उपस्थित हो जाय और उसे दूर करनेके लिये कोई यत्न न किया जा
सके अथवा किया हुआ यत्न काम न दे सके तो उसके लिये चिन्ता नहीं करनी चाहिये ॥ ११ ॥
भैषज्यमेतद्
दुःखस्य यदेतन्नानुचिन्तयेत्।
चिन्त्यमानं
हि न व्येति भूयश्चापि प्रवर्धते ॥ १२ ॥
दुःख दूर
करनेकी सबसे अच्छी दवा यही है कि उसका बार- बार चिन्तन न किया जाय । चिन्तन करनेसे
वह घटता नहीं,
बल्कि बढ़ता ही जाता है ॥ १२ ॥
प्रज्ञया
मानसं दुःखं हन्याच्छारीरमौषधैः।
एतद्
विज्ञानसामर्थ्यं न बालैः समतामियात् ॥ १३ ॥
इसलिये
मानसिक दुःखको बुद्धिके द्वारा विचारसे और शारीरिक कष्टको औषध सेवनद्वारा नष्ट
करना चाहिये । शास्त्रज्ञान के प्रभावसे ही ऐसा होना सम्भव है । दुःख पड़नेपर
बालकोंकी तरह रोना उचित नहीं है ॥ १३ ॥
......शेष
आगामी पोस्ट में
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से