बुधवार, 26 जुलाई 2023

नारद गीता दूसरा अध्याय (पोस्ट 02)

 



 

शुकदेव को नारदजी का सदाचार और अध्यात्मविषयक उपदेश

 

गुणैर्भूतानि युज्यन्ते वियुज्यन्ते तथैव च।

सर्वाणि नैतदेकस्य शोकस्थानं हि विद्यते ॥ ८ ॥

 

सभी प्राणियोंको उत्तम पदार्थों से संयोग और वियोग प्राप्त होते रहते हैं। किसी एक पर ही यह शोक का अवसर आता हो, ऐसी बात नहीं है ॥ ८ ॥

 

मृतं वा यदि वा नष्टं योऽतीतमनुशोचति ।

दुःखेन लभते दुःखं द्वावनर्थों प्रपद्यते ॥ ९ ॥

 

जो मनुष्य भूतकाल में मरे हुए किसी व्यक्तिके लिये अथवा नष्ट हुई किसी वस्तुके लिये निरन्तर शोक करता है, वह एक दु:खसे दूसरे दुःखको प्राप्त होता है । इस प्रकार उसे दो अनर्थ भोगने पड़ते हैं ॥ ९ ॥

 

नाश्रु कुर्वन्ति ये बुद्धया दृष्ट्वा लोकेषु सन्ततिम् ।

सम्यक् प्रपश्यतः सर्वं नाश्रुकर्मोपपद्यते॥ १०॥

 

जो मनुष्य संसार में अपनी सन्तान की मृत्यु हुई देखकर भी अश्रुपात नहीं करते, वे ही धीर हैं। सभी वस्तुओं पर समीचीन भाव से दृष्टिपात या विचार करनेपर किसी का भी आँसू बहाना युक्तिसंगत नहीं जान पड़ता है॥१०॥

 

दुःखोपघाते शारीरे मानसे चाप्युपस्थिते ।

यस्मिन् न शक्यते कर्तुं यत्नस्तन्नानुचिन्तयेत् ॥ ११ ॥

 

यदि कोई शारीरिक या मानसिक दु:ख उपस्थित हो जाय और उसे दूर करनेके लिये कोई यत्न न किया जा सके अथवा किया हुआ यत्न काम न दे सके तो उसके लिये चिन्ता नहीं करनी चाहिये ॥ ११ ॥

 

भैषज्यमेतद् दुःखस्य यदेतन्नानुचिन्तयेत्।

चिन्त्यमानं हि न व्येति भूयश्चापि प्रवर्धते ॥ १२ ॥

 

दुःख दूर करनेकी सबसे अच्छी दवा यही है कि उसका बार- बार चिन्तन न किया जाय । चिन्तन करनेसे वह घटता नहीं, बल्कि बढ़ता ही जाता है ॥ १२ ॥

 

प्रज्ञया मानसं दुःखं हन्याच्छारीरमौषधैः।

एतद् विज्ञानसामर्थ्यं न बालैः समतामियात् ॥ १३ ॥

 

इसलिये मानसिक दुःखको बुद्धिके द्वारा विचारसे और शारीरिक कष्टको औषध सेवनद्वारा नष्ट करना चाहिये । शास्त्रज्ञान के प्रभावसे ही ऐसा होना सम्भव है । दुःख पड़नेपर बालकोंकी तरह रोना उचित नहीं है ॥ १३ ॥

 

......शेष आगामी पोस्ट में

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से

 



नारद गीता दूसरा अध्याय (पोस्ट 01)

 



 

शुकदेव को नारदजी का सदाचार और अध्यात्मविषयक उपदेश

 

नारद उवाच

 

अशोकं शोकनाशार्थं शास्त्रं शान्तिकरं शिवम् ।

निशम्य लभते बुद्धिं तां लब्ध्वा सुखमेधते ॥ १ ॥

 

नारदजी कहते हैं— शुकदेव ! शास्त्र शोकको दूर करनेवाला, शान्तिकारक और कल्याणमय है। जो अपने शोकका नाश करनेके लिये शास्त्रका श्रवण करता है, वह उत्तम बुद्धि पाकर सुखी हो जाता है॥१॥

 

शोकस्थानसहस्त्राणि भयस्थानशतानि च।

दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम् ॥ २ ॥

 

शोकके सहस्रों और भयके सैकड़ों स्थान हैं, जो प्रतिदिन मूढ़ पुरुषोंपर ही अपना प्रभाव डालते हैं, विद्वान्पर नहीं ॥ २ ॥

 

तस्मादनिष्टनाशार्थमितिहासं निबोध मे |

तिष्ठते चेद् वशे वशे बुद्धिर्लभते शोकनाशनम् ॥ ३ ॥

 

इसलिये अपने अनिष्टका नाश करनेके लिये मेरा यह उपदेश सुनो- यदि बुद्धि अपने वशमें रहे तो सदाके लिये शोकका नाश हो जाता है ॥ ३ ॥

 

अनिष्टसम्प्रयोगाच्च विप्रयोगात् प्रियस्य च।

मनुष्या मानसैर्दुःखैर्युज्यन्ते स्वल्पबुद्धयः॥४॥

 

मन्दबुद्धि मनुष्य ही अप्रिय वस्तुकी प्राप्ति और प्रिय वस्तुका वियोग होनेपर मन-ही-मन दु:खी होते हैं ॥ ४ ॥

 

द्रव्येषु समतीतेषु ये गुणास्तान् न चिन्तयेत् ।

न तानाद्रियमाणस्य स्नेहबन्धः प्रमुच्यते ॥ ५ ॥

 

जो वस्तु भूतकाल के गर्भ में छिप गयी ( नष्ट हो गयी), उसके गुणोंका स्मरण नहीं करना चाहिये; क्योंकि जो आदरपूर्वक उसके गुणोंका चिन्तन करता है, उसका उसके प्रति आसक्तिका बन्धन नहीं छूटता है ॥५॥

 

दोषदर्शी भवेत् तत्र यत्र रागः प्रवर्तते ।

अनिष्टवर्धितं पश्येत् तथा क्षिप्रं विरज्यते ॥ ६॥

 

जहाँ चित्तकी आसक्ति बढ़ने लगे, वहीं दोषदृष्टि करनी चाहिये और उसे अनिष्टको बढ़ानेवाला समझना चाहिये। ऐसा करनेपर उससे शीघ्र ही वैराग्य हो जाता है ॥ ६ ॥

 

नार्थो न धर्मो न यशो योऽतीतमनुशोचति ।

अप्यभावेन युज्येत तच्चास्य न निवर्तते ॥ ७ ॥

 

जो बीती बात लिये शोक करता है, उसे न तो अर्थ की प्राप्ति होती है, न धर्म की और न यशकी ही प्राप्ति होती है। वह उसके अभाव का अनुभव करके केवल दुःख ही उठाता है। उससे अभाव दूर नहीं होता ॥ ७ ॥

 

......शेष आगामी पोस्ट में

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से

 



मंगलवार, 25 जुलाई 2023

नारद गीता पहला अध्याय (पोस्ट 08

 



शुकदेवजी को नारदजीद्वारा वैराग्य और

ज्ञान का उपदेश देना

 

ज्ञानेन विविधान् क्लेशानतिवृत्तस्य मोहजान् ॥ ५२ ॥

लोके बुद्धिप्रकाशेन लोकमार्गों न रिष्यते ।

 

जो ज्ञान के बल से मोहजनित नाना प्रकार के क्लेशों से पार हो गया है, उसके लिये जगत् में बौद्धिक प्रकाश से कोई भी लोक व्यवहार का मार्ग अवरुद्ध नहीं होता ॥ ५२ ॥

 

अनादिनिधनं जन्तुमात्मनि स्थितमव्ययम् ॥ ५३ ॥

अकर्तारममूर्तं च भगवानाह तीर्थवित्।

 

मोक्षके उपायको जाननेवाले भगवान् नारायण कहते हैं कि आदि-

अन्तसे रहित, अविनाशी, अकर्ता और निराकार जीवात्मा इस शरीरमें

स्थित है॥५३॥

 

यो जन्तुः स्वकृतैस्तैस्तैः कर्मभिर्नित्यदुःखितः ॥ ५४ ॥

स दुःखप्रतिघातार्थं हन्ति जन्तूननेकधा ।

 

जो जीव अपने ही किये हुए विभिन्न कर्मोंके कारण सदा दुःखी रहता है, वही उस दुःखका निवारण करनेके लिये नाना प्रकारके प्राणियोंकी हत्या करता है ॥ ५४ ॥

 

ततः कर्म समादत्ते पुनरन्यन्नवं बहु ॥ ५५ ॥

तप्यतेऽथ पुनस्तेन भुक्त्वापथ्यमिवातुरः ।

 

तदनन्तर वह और भी बहुत-से नये-नये कर्म करता है और

जैसे रोगी अपथ्य खाकर दुःख पाता है, उसी प्रकार उस कर्मसे वह अधिकाधिक कष्ट पाता रहता है ॥ ५५ ॥

 

अजस्त्रमेव मोहान्धो दुःखेषु सुखसंज्ञितः ॥ ५६ ॥

बध्यते मथ्यते चैव चैव कर्मभिर्मन्थवत् सदा ।

 

जो मोहसे अन्धा (विवेकशून्य) हो गया है, वह सदा ही दुःखद भोगों में ही सुखबुद्धि कर लेता है और मथानी की भाँति कर्मों से बँधता एवं मथा जाता है॥५६॥

 

ततो निबद्धः स्वां योनिं कर्मणामुदयादिह ॥ ५७ ॥

परिभ्रमति संसारं चक्रवद् बहुवेदनः ।

 

फिर प्रारब्ध कर्मोंके उदय होनेपर वह बद्ध प्राणी कर्मके अनुसार जन्म पाकर संसारमें नाना प्रकारके दुःख भोगता हुआ उसमें चक्रकी भाँति घूमता रहता है ॥ ५७ ॥

 

स त्वं निवृत्तबन्धस्तु निवृत्तश्चापि कर्मतः ॥ ५८ ॥

सर्ववित् सर्वजित् सिद्धो भव भावविवर्जितः ।

 

इसलिये तुम कर्मोंसे निवृत्त, सब प्रकारके बन्धनों से मुक्त, सर्वज्ञ, सर्वविजयी, सिद्ध और सांसारिक भावनासे रहित हो जाओ ॥ ५८ ॥

 

संयमेन नवं बन्धं निवर्त्य तपसो बलात् ।

सम्प्राप्ता बहव: सिद्धिमप्यबाधां सुखोदयाम् ॥ ५९ ॥

 

बहुत-से ज्ञानी पुरुष संयम और तपस्याके बलसे नवीन बन्धनोंका उच्छेद करके अनन्त सुख देनेवाली अबाध सिद्धिको प्राप्त हो चुके हैं ॥ ५९ ॥

 

॥ इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि नारदगीतायां प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥

 

......शेष आगामी पोस्ट में

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से



नारद गीता पहला अध्याय (पोस्ट 07)

 



शुकदेवजी को नारदजीद्वारा वैराग्य और

ज्ञान का उपदेश देना

 

अस्थिस्थूणं स्नायुयुतं मांसशोणितलेपनम् ।

चर्मावनद्धं दुर्गन्धिं पूर्णं मूत्रपुरीषयोः ॥ ४२ ॥

जराशोकसमाविष्टं रोगायतनमातुरम्।

रजस्वलमनित्यं च भूतावासमिमं त्यज ॥ ४३ ॥

 

यह शरीर पंचभूतों का घर है। इसमें हड्डियों के खंभे लगे हैं। यह नस- नाड़ियों

से बँधा हुआ, रक्त-मांस से लिपा हुआ और चमड़े से मढ़ा हुआ है। इसमें मल-मूत्र भरा है, जिससे दुर्गन्ध आती रहती है। यह बुढ़ापा और शोक से व्याप्त, रोगों का घर, दुःखरूप, रजोगुणरूपी धूल से ढका हुआ और अनित्य है; अत: तुम्हें इसकी आसक्ति को त्याग देना चाहिये ॥ ४२-४३ ॥

 

इदं विश्वं जगत् सर्वमजगच्चापि यद् भवेत् ।

महाभूतात्मकं सर्वं महद् यत् परमाश्रयात् ॥ ४४ ॥

इन्द्रियाणि च पञ्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा ।

इत्येष सप्तदशको राशिरव्यक्तसंज्ञकः ॥ ४५ ॥

 

यह सम्पूर्ण चराचर जगत् पंचमहाभूतों से उत्पन्न हुआ है । इसलिये महाभूतस्वरूप ही है । जो शरीरसे परे है, वह महत्तत्त्व अर्थात् बुद्धि, पाँच इन्द्रियाँ, पाँच सूक्ष्म महाभूत अर्थात् तन्मात्राएँ, पाँच प्राण तथा सत्त्व आदि

गुण- इन सत्रह तत्त्वोंके समुदायका नाम अव्यक्त है ॥ ४४-४५ ॥

 

सर्वैरिहेन्द्रियार्थैश्च व्यक्ताव्यक्तैर्हि संहितः ।

चतुर्विंशक इत्येष व्यक्ताव्यक्तमयो गणः ।। ४६ ।।

 

इनके साथ ही इन्द्रियोंके पाँच विषय अर्थात् स्पर्श, शब्द, रूप, रस और गन्ध एवं मन और अहंकार - इन सम्पूर्ण व्यक्ताव्यक्त को मिलाने से चौबीस तत्त्वों का समूह होता है, उसे व्यक्ताव्यक्तमय समुदाय कहा गया है॥४६॥

 

एतैः सर्वैः समायुक्तः पुमानित्यभिधीयते ।

त्रिवर्गं तु सुखं दुःखं जीवितं मरणं तथा ॥ ४७ ॥

य इदं वेद तत्त्वेन स वेद प्रभवाप्ययौ ।

पारम्पर्येण बोद्धव्यं ज्ञानानां यच्च किञ्चन ॥ ४८ ॥

इन्द्रियैर्गृह्यते यद् यत् तत् तद् व्यक्तमिति स्थितिः ।

अव्यक्तमिति विज्ञेयं लिङ्गग्राह्यमतीन्द्रियम् ॥ ४९ ॥

 

इन सब तत्त्वों से जो संयुक्त है, उसे पुरुष कहते हैं । जो पुरुष धर्म, अर्थ, काम, सुख-दुःख और जीवन-मरण के तत्त्व को ठीक-ठीक समझता है, वही उत्पत्ति और प्रलय के तत्त्व को भी यथार्थरूप से जानता है ॥ ४७ ॥

ज्ञान के सम्बन्ध में जितनी बातें हैं, उन्हें परम्परा से जानना चाहिये। जो पदार्थ इन्द्रियों द्वारा ग्रहण किये जाते हैं, उन्हें व्यक्त कहते हैं और जो इन्द्रियों के अगोचर होनेके कारण अनुमान से जाने जाते हैं, उनको अव्यक्त कहते हैं ॥ ४८-४९ ॥

 

इन्द्रियैर्नियतैर्देही धाराभिरिव तर्प्यते ।

लोके विततमात्मानं लोकांश्चात्मनि पश्यति ॥ ५० ॥

 

जिनकी इन्द्रियाँ अपने वशमें हैं, वे जीव उसी प्रकार तृप्त हो जाते हैं, जैसे वर्षाकी धारासे प्यासा मनुष्य । ज्ञानी पुरुष अपनेको प्राणियोंमें व्याप्त और प्राणियोंको अपनेमें स्थित देखते हैं ॥ ५०॥

 

परावरदृश: शक्तिर्ज्ञानमूला न नश्यति ।

पश्यतः सर्वभूतानि सर्वावस्थासु सर्वदा ॥ ५१ ॥

सर्वभूतस्य संयोगो नाशुभेनोपपद्यते।

 

उस परावरदर्शी ज्ञानी पुरुषकी ज्ञानमूलक शक्ति कभी नष्ट नहीं

होती । जो सम्पूर्ण भूतोंको सभी अवस्थाओं में सदा देखा करता है, वह सम्पूर्ण प्राणियोंके सहवासमें आकर भी कभी अशुभ कर्मोंसे युक्त नहीं होता अर्थात् अशुभ कर्म नहीं करता ॥ ५१॥

 

......शेष आगामी पोस्ट में

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से



सोमवार, 24 जुलाई 2023

नारद गीता पहला अध्याय (पोस्ट 06)

 



शुकदेवजी को नारदजीद्वारा वैराग्य और

ज्ञान का उपदेश देना

 

न हि त्वां प्रस्थितं कश्चित् पृष्ठतोऽनुगमिष्यति ।

सुकृतं दुष्कृतं च त्वां यास्यन्तमनुयास्यति ॥ ३५ ॥

 

जब तुम परलोककी राह लोगे, उस समय तुम्हारे पीछे कोई नहीं जायगा। केवल तुम्हारा किया हुआ पुण्य या पाप ही वहाँ जाते समय तुम्हारा अनुसरण करेगा ॥ ३५ ॥

 

विद्या कर्म च शौचं च ज्ञानं च बहुविस्तरम् ।

अर्थार्थमनुसार्यन्ते सिद्धार्थश्च विमुच्यते ॥ ३६ ॥

 

अर्थ (परमात्मा) - की प्राप्तिके लिये ही विद्या, कर्म, पवित्रता और अत्यन्त विस्तृत ज्ञानका सहारा लिया जाता है । जब कार्यकी सिद्धि ( परमात्माकी प्राप्ति) हो जाती है, तब मनुष्य मुक्त हो जाता है ॥ ३६ ॥

 

निबन्धनी रज्जुरेषा या ग्रामे वसतो रतिः ।

छित्त्वैतां सुकृतो यान्ति नैनां छिन्दन्ति दुष्कृतः॥३७॥

 

गाँवोंमें रहनेवाले मनुष्यकी विषयोंके प्रति जो आसक्ति होती है, वह उसे बाँधनेवाली रस्सी के समान है। पुण्यात्मा पुरुष उसे काटकर

आगे - परमार्थके पथपर बढ़ जाते हैं; किंतु जो पापी हैं, वे उसे नहीं

काट पाते ॥ ३७ ॥

 

रूपकूलां मनः स्त्रोतां स्पर्शद्वीपां रसावहाम् ।

गन्धपङ्कां शब्दजलां स्वर्गमार्गदुरावहाम् ॥ ३८ ॥

क्षमारित्रां सत्यमयीं धर्मस्थैर्यवटारकाम्।

त्यागवाताध्वगां शीघ्रां नौतार्यां तां नदीं तरेत् ॥ ३९ ॥

 

यह संसार एक नदीके समान है, जिसका उपादान या उद्गम सत्य है, रूप इसका किनारा, मन स्रोत, स्पर्श द्वीप और रस ही प्रवाह है, गन्ध उस नदीका कीचड़, शब्द जल और स्वर्गरूपी दुर्गम घाट है | शरीररूपी नौकाकी सहायतासे उसे पार किया जा सकता है। क्षमा इसको खेनेवाली लग्गी और धर्म इसको स्थिर करनेवाली रस्सी ( लंगर) है। यदि त्यागरूपी अनुकूल पवनका सहारा मिले तो इस शीघ्रगामिनी नदीको पार किया जा सकता है। इसे पार करनेका अवश्य प्रयत्न करे ॥ ३८-३९ ॥

 

त्यज धर्ममधर्मं च तथा सत्यानृते त्यज ।

उभे सत्यानृते त्यक्त्वा येन त्यजसि तं त्यज ॥ ४० ॥

 

धर्म और अधर्मको छोड़ो। सत्य और असत्यको भी त्याग दो और उन दोनोंका त्याग करके जिसके द्वारा त्याग करते हो, उसको भी त्याग दो ॥ ४० ॥

 

त्यज धर्ममसङ्कल्पादधर्मं चाप्यलिप्सया |

उभे सत्यानृते बुद्धया बुद्धिं परमनिश्चयात् ॥ ४१ ॥

 

संकल्प के त्याग द्वारा धर्म को और लिप्सा के अभावद्वारा अधर्म को भी त्याग दो। फिर बुद्धि के द्वारा सत्य और असत्य का त्याग करके परमतत्त्व के निश्चयद्वारा बुद्धिको भी त्याग दो ॥ ४१ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से

 



नारद गीता पहला अध्याय (पोस्ट 05)

 


शुकदेवजी को नारदजीद्वारा वैराग्य और

ज्ञान का उपदेश देना

 

संवेष्ट्यमानं बहुभिर्मोहात् तन्तुभिरात्मजैः ।

कोषकार इवात्मानं वेष्टयन् नावबुध्यसे ॥ २८ ॥

 

जैसे रेशमका कीड़ा अपने ही शरीरसे उत्पन्न हुए तन्तुओं द्वारा

अपने-आपको आच्छादित कर लेता है, उसी प्रकार तुम भी मोहवश अपनेहीसे उत्पन्न सम्बन्धके बन्धनोंद्वारा अपने-आपको बाँधते जा रहे हो तो भी यह बात तुम्हारी समझमें नहीं आ रही है॥ २८ ॥

 

अलं परिग्रहेणेह दोषवान् हि परिग्रहः ।

कृमिर्हि कोषकारस्तु बध्यते स परिग्रहात् ॥ २९ ॥

 

यहाँ विभिन्न वस्तुओंके संग्रहकी कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि संग्रहसे महान् दोष प्रकट होता है। रेशमका कीड़ा अपने संग्रह- दोषके कारण ही बन्धनमें पड़ता है॥ २९ ॥

 

पुत्रदारकुटुम्बेषु सक्ताः सीदन्ति जन्तवः ।

सरः पङ्कार्णवे मग्ना जीर्णा वनगजा इव ॥ ३० ॥

 

स्त्री- पुत्र और कुटुम्बमें आसक्त रहनेवाले प्राणी उसी प्रकार कष्ट

पाते हैं, जैसे जंगलके बूढ़े हाथी तालाब के दलदलमें फँसकर दुःख

उठाते हैं ॥ ३० ॥

 

महाजालसमाकृष्टान् स्थले मत्स्यानिवोद्धृतान् ।

स्नेहजालसमाकृष्टान् पश्य जन्तून् सुदुःखितान् ॥ ३१ ॥

 

जिस प्रकार महान् जालमें फँसकर पानीसे बाहर आये हुए मत्स्य तड़पते हैं, उसी प्रकार स्नेहजालसे आकृष्ट होकर अत्यन्त कष्ट उठाते हुए इन प्राणियोंकी ओर दृष्टिपात करो ॥ ३१॥

 

कुटुम्बं पुत्रदारांश्च शरीरं सञ्चयाश्च ये ।

पारक्यमध्रुवं सर्वं किं स्वं सुकृतदुष्कृतम् ॥ ३२ ॥

संसारमें कुटुम्ब, स्त्री, पुत्र, शरीर और संग्रह - सब कुछ पराया है । सब नाशवान् है । इसमें अपना क्या है, केवल पाप और पुण्य ॥ ३२ ॥

 

यदा सर्वं परित्यज्य गन्तव्यमवशेन ते।

अनर्थे किं प्रसक्तस्त्वं स्वमर्थं नानुतिष्ठसि ॥ ३३ ॥

 

जब सब कुछ छोड़कर तुम्हें यहाँसे विवश होकर चल देना है, तब इस अनर्थमय जगत् में क्यों आसक्त हो रहे हो ? अपने वास्तविक अर्थ - मोक्षका साधन क्यों नहीं करते हो ? ॥ ३३ ॥

 

अविश्रान्तमनालम्बमपाथेयमदैशिकम्

तमःकान्तारमध्वानं कथमेको गमिष्यसि ॥ ३४ ॥

 

जहाँ ठहरनेके लिये कोई स्थान नहीं, कोई सहारा देनेवाला नहीं, राहखर्च नहीं तथा अपने देशका कोई साथी अथवा राह बतानेवाला नहीं है, जो अन्धकारसे व्याप्त और दुर्गम है, उस मार्गपर तुम अकेले कैसे चल सकोगे ? ॥ ३४ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से

 



रविवार, 23 जुलाई 2023

नारद गीता पहला अध्याय (पोस्ट 04)

 



शुकदेवजी को नारदजीद्वारा वैराग्य और

ज्ञान का उपदेश देना

 

निरामिषा न शोचन्ति त्यजेदामिषमात्मनः ।

परित्यज्यामिषं सौम्य दुःखतापाद् विमोक्ष्यसे ॥ २१ ॥

 

जिन्होंने भोगोंका परित्याग कर दिया है, वे कभी शोकमें नहीं पड़ते, इसलिये प्रत्येक मनुष्यको भोगासक्तिका त्याग करना चाहिये । सौम्य ! भोगोंका त्याग कर देनेपर तुम दुःख और सन्तापसे छूट जाओगे ॥ २१ ॥

 

तपोनित्येन दान्तेन मुनिना संयतात्मना ।

अजितं जेतुकामेन भाव्यं सङ्गेष्वसङ्गिना॥२२॥

 

जो अजित (परमात्मा ) - को जीतनेकी इच्छा रखता हो, उसे

तपस्वी, जितेन्द्रिय, मननशील, संयतचित्त और विषयोंमें अनासक्त रहना चाहिये ॥ २२॥

 

गुणसङ्गेष्वनासक्त एकचर्यारतः सदा ।

ब्राह्मणो नचिरादेव सुखमायात्यनुत्तमम् ॥ २३ ॥

 

जो ब्राह्मण त्रिगुणात्मक विषयोंमें आसक्त न होकर सदा एकान्तवास करता है, वह शीघ्र ही सर्वोत्तम सुखरूप मोक्षको प्राप्त कर लेता है ॥ २३ ॥

 

द्वन्द्वारामेषु भूतेषु य य एको रमते मुनिः

विद्धि प्रज्ञानतृप्तं तं ज्ञानतृप्तो न शोचति ॥ २४ ॥

 

जो मुनि मैथुन में सुख माननेवाले प्राणियोंके बीच में रहकर भी अकेले रहनेमें ही आनन्द मानता है, उसे विज्ञानसे परितृप्त समझना चाहिये। जो ज्ञानसे तृप्त होता है, वह कभी शोक नहीं करता ॥ २४ ॥

 

शुभैर्लभति देवत्वं व्यामिश्रैर्जन्म मानुषम् ।

अशुभैश्चाप्यधो जन्म कर्मभिर्लभतेऽवशः ॥ २५ ॥

 

जीव सदा कर्मों के अधीन रहता है । वह शुभ कर्मों के अनुष्ठान से देवता होता है, दोनों के सम्मिश्रण से मनुष्य जन्म पाता है और केवल अशुभ कर्मों से पशु-पक्षी आदि नीच योनियों में जन्म लेता है ॥ २५ ॥

 

तत्र मृत्युजरादुःखैः सततं समभिद्रुतः ।

संसारे पच्यते जन्तुस्तत्कथं नावबुद्ध्यसे ॥ २६॥

 

उन-उन योनियोंमें जीवको सदा जरा - मृत्यु और नाना प्रकारके दु:खोंसे सन्तप्त होना पड़ता है। इस प्रकार संसारमें जन्म लेनेवाला प्रत्येक प्राणी सन्तापकी आगमें पकाया जाता है— इस बातकी ओर तुम क्यों नहीं ध्यान देते ? ॥ २६ ॥

 

अहिते हितसंज्ञस्त्वमध्रुवे ध्रुवसंज्ञकः ।

अनर्थे चार्थसंज्ञस्त्वं किमर्थं नावबुद्ध्यसे॥ २७॥

 

तुमने अहितमें ही हित - बुद्धि कर ली है, जो अध्रुव (विनाशशील) वस्तुएँ हैं, उन्हींको 'ध्रुव' (अविनाशी) नाम दे रखा है और अनर्थमें ही तुम्हें अर्थका बोध हो रहा है। यह बात तुम्हारी समझमें क्यों नहीं आती है ? ॥ २७ ॥

 

......शेष आगामी पोस्ट में

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...