।। जय श्रीहरिः ।।
अच्छे बनो (पोस्ट.०२)
एक उपाय यह है कि अपनेमें जो अवगुण दीखे,
उसको दूर करते जाओ । ऐसा करनेसे आपको न दीखनेवाले अवगुण भी दीखने लग
जायँगे । अतः जिन अवगुणोंका आप सुगमतासे त्याग कर सकते हैं, उनका
आप त्याग कर दें तो जिन अवगुणोंके त्यागमें आपको कठिनता दीखती है, उनका त्याग सुगमतासे होने लगेगा और न दीखनेवाले अवगुण दीखने लग जायँगे ।
यह बड़ा भारी रामबाण उपाय है, आप करके देखो ।
सत्संगके द्वारा जिन-जिन कमजोरियोंका ज्ञान हो,
उनमें जिन कमियोंको सुगमतासे दूर कर सकते हैं, उनको दूर कर दो । जैसे कल्पना करो कि हमारी झूठ बोलनेकी आदत है, तो जिस झूठसे हमारा कोई संसारका, रुपये-पैसोंका मतलब
नहीं है, ऐसा झूठ नहीं बोलें । हम बिना मतलब झूठ बोलते हैं
कि ‘अरे भाई ! उठ जा, दोपहर हो गया,
उठता ही नहीं ।’ अगर हम सच्ची बात बोलें कि ‘सूर्योदय हो रहा है, उठ जा’ तो
इसमें क्या हर्ज है ? बिना मतलब झूठ बोलोगे तो आदत बिगड़
जायगी ।
जो अवगुण साफ दीखता है, जिसको
दूर करनेमें कोई परिश्रम नहीं, कोई हानि नहीं, उसको आप दूर कर दो तो अवगुण साफ-साफ दीखने लग जायेंगे । अगर अपना अवगुण न
दीखे तो उसकी चिन्ता मत करो और अवगुणको अपनेमें कायम भी मत करो, क्योंकि स्वरूपमें कोई अवगुण नहीं है । नीयत यह होनी चाहिये कि अपना अवगुण,
अपनी कमी हमें रखनी नहीं है ।
अगर आप अपनेको ही नहीं सुधार सकते, तो दूसरेको सुधार सकते हैं क्या ? सच्ची बात तो यह
है कि अपना सुधार कर लेनेपर भी दूसरेका सुधार कोई नहीं कर सकता । बड़े-बड़े महात्मा
हुए हैं, आचार्य हुए हैं, वे भी
दूसरेका सुधार नहीं कर सके, दूसरेको अपने समान नहीं बना सके
। मैं आक्षेपसे नाम नहीं लेता हूँ, बहुत विशेष आदरसे नाम
लेता हूँ कि शंकराचार्य महाराजने दूसरा शंकराचार्य बना दिया क्या ? रामानुजाचार्य महाराजने दूसरा रामानुजाचार्य बना दिया क्या ? वल्लभाचार्य महाराजने दूसरा वल्लभाचार्य बना दिया क्या ? अगर शिष्य चाहे तो गुरुसे तेज हो सकता है, पर गुरु
उसको वैसा नहीं बना सकता । इस बातपर आप विचार करें । अपनेको श्रेष्ठ बनाना तो
हाथकी बात है, पर दूसरेको श्रेष्ठ बनाना हाथकी बात नहीं है ।
जितने भी श्रेष्ठ गुरु हुए हैं, उनका
उद्योग यही रहा है कि शिष्य हमारेसे भी अच्छा बने । वे शिष्यको अपनेसे नीचा नहीं
रखना चाहते । जो शिष्यको अपना मातहत, अपने अधीन रखना चाहते
हैं, वे वास्तवमें गुरु कहलाने लायक नहीं हैं । गुरु तो गुरु
ही बनाता है, चेला नहीं बनाता । शास्त्रमें लिखा है‒
“सर्वतो जयमिच्छेत् पुत्रादिच्छेत् पराभवम् ।“
अर्थात् मनुष्य सब जगह अपनी विजय चाहे,
पर पुत्रसे अपनी पराजय चाहे । ईमानदार पिताको यह इच्छा रखनी चाहिये
कि मेरा पुत्र मेरेसे तेज हो जाय । ऐसे ही ईमानदार गुरुको यह इच्छा रखनी चाहिये कि
मेरा शिष्य मेरे से तेज हो जाय । परन्तु ऐसी इच्छा रखनेसे वह तेज नहीं हो जाता ।
हाँ, अगर वह (पुत्र या शिष्य) खुद चाहे तो वैसा हो सकता है,
एकदम पक्की बात है ।
नारायण ! नारायण !!
शेष आगामी पोस्ट में –
--गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘अच्छे बनो’ पुस्तक से
--गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘अच्छे बनो’ पुस्तक से
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